पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत जल संचयन हेतु सीमेंट कंक्रीट टैंकों का निर्माण किया गया है। परंतु यहाँ की कमजोर मिट्टी एवं निरन्तर आते भूकम्पों से अधिकांश टैंक चटक गये हैं। इनमें उत्पन्न रिसाव को रोकना असम्भव एवं महँगा कार्य है। जिस कारण ये सफेद हाथी बनकर रह गये हैं। लेखक द्वारा पॉलीथीन शीट द्वारा इन टैंकों के उपचार के लिये एक तकनीक विकसित की गई है। जिसका सफलतम प्रयोग चम्पावत जिले में किया जा चुका है।
![जल संचयन एवं प्रबंधन](https://c1.staticflickr.com/3/2837/33514552474_51c2e3b605.jpg)
देश की आजादी के समय देश में जल उपलब्धता 5000 घनमीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति थी जो दुर्भाग्यवश इक्कीसवीं सदी में पहुँचते-पहुँचते भारी मात्रा में घटकर केवल 2000 घनमीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति रह गई है। यही हालत रही तो 2050 में जल उपलब्धता 1000 घनमीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति से भी नीचे आने का अनुमान है जोकि स्पष्ट रूप से जल के घोर संकट की तस्वीर बयाँ करती है।
अगर पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की बात करें तो देश की 42 प्रतिशत जल आवश्यकताओं को पूरा करने वाला राज्य आज भी प्यासा है। हकीकत यह है कि राज्य में जहाँ जून माह के प्रारम्भ तक ‘जल बचाओ’ अभियान चलाया जाता है वहीं जून के खत्म होते-होते हम ‘जल से बचो’ चिल्लाते नजर आते हैं। आलम यह है कि हिमालय जिसे दुनिया का वाटर टावर कहा जाता है, की गोद में बसे उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में आज भी महिलाएँ रोजमर्रा की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिये 3 से 5 किलोमीटर तक पैदल चलती हैं। पिछले दस वर्षों में राज्य की जनसंख्या में 17 लाख की वृद्धि दर्ज की गई है। 120 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आवश्यक जल के मानक के हिसाब से प्रतिदिन 20 करोड़ लीटर जल की खपत बढ़ गई है।
जबकि इसके उलट पर्यावरण असंतुलन के कारण यहाँ के जलचक्र में काफी परिवर्तन आया है जिससे ग्लेशियरों के सिकुड़ने, जलस्रोतों के सूखने व प्रदूषित होने की समस्याएँ गम्भीर चिन्ता का विषय बन गई हैं। पिछले एक दशक में पानी के 500 स्रोतों के जल प्रवाह में 50 फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई है। राज्य में 93 स्रोत तो ऐसे हैं जिनका 90 फीसदी या पूर्णरूप से पानी सूख चुका है। पर्वतीय क्षेत्रों की ‘लाइफ लाइन’ कहे जाने वाले इन स्रोतों के जल प्रवाह का सिमटना, हिमालय की गोद में बसे इस राज्य के लिये चिंता का विषय है। कमोवेश यह स्थिति अन्य पर्वतीय राज्यों की भी है।
आँकड़े दर्शाते हैं कि राज्य में वर्षाजल की कोई कमी नहीं है। एक अनुमान के अनुसार वर्षाजल के केवल 1 प्रतिशत भाग को संचित करने पर हम अपनी जल आवश्यकताओं एवं 3 प्रतिशत भाग को संचित करने पर सिंचाई आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं। इस पर्वतीय राज्य को प्राप्त प्रकृति की इस अनमोल धरोहर अर्थात पानी का अगर उचित संचयन एवं प्रबंधन किया जाए तो अकेले इस धरोहर से ही राज्य को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है और समृद्ध राज्य का सपना साकार हो सकता है। प्रस्तुत आलेख में ऐसी तकनीकियाँ सुझाई गई हैं जिनको अपनाकर अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरी करने के अलावा जल से उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार उत्पन्न किया जा सकता है।
वर्षाजल का अधिक से अधिक संचय करना होगा
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पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत जल संचयन हेतु सीमेंट कंक्रीट टैंकों का निर्माण किया गया है। परंतु यहाँ की कमजोर मिट्टी एवं निरन्तर आते भूकम्पों से अधिकांश टैंक चटक गये हैं। इनमें उत्पन्न रिसाव को रोकना असम्भव एवं महँगा कार्य है। जिस कारण ये सफेद हाथी बनकर रह गये हैं। लेखक द्वारा पॉलीथीन शीट द्वारा इन टैंकों के उपचार के लिये एक तकनीक विकसित की गई है। जिसका सफलतम प्रयोग चम्पावत जिले में किया जा चुका है।
गुरुत्वाकर्षण चलित ड्रम-किट सूक्ष्म सिंचाई पद्धति
पानी की बचत एवं उत्पादन बढ़ाने के लिये आधुनिक सिंचाई पद्धतियाँ विकसित की गई हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के लिये उपयोगी ड्रम सिंचाई पद्धति इनमें से एक है। पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेतों में कृषि की जाती है। अगर ऊपर वाले खेत में पानी का टैंक रख दिया जाए तो निचले खेत में सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के लिये आवश्यक दाब, गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार सूक्ष्म सिंचाई पद्धति को चलाने के लिये किसी वाह्य शक्ति की आवश्यकता नहीं होगी। सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के प्रयोग से 80-85 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत एवं चार-पाँच गुना उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार युवा वर्ग घर के पास ही स्थित कुछेक नाली जमीन में सब्जियाँ फूलों एवं औषधीय पौधों में सूक्ष्म सिंचाई पद्धति के प्रयोग से अधिक मुनाफा कमा सकते हैं और इस व्यवसाय को अपनी आर्थिकी का जरिया बना सकते हैं।
जलस्रोतों पर केंद्रित नीति बनानी होगी
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इसके साथ-साथ इन स्रोतों के निरंतर गिरते जल प्रवाह को बनाये रखना भी एक चुनौती है। अतः जरूरत है जलस्रोत अभ्यारण्य कार्यक्रम चलाने की ताकि इनके जल प्रवाह को बढ़ाया जा सके। जलस्रोत अभ्यारण्य विकास के लिये सबसे पहले जलस्रोत के जल समेट क्षेत्र का चिन्हीकरण करना होगा। इसके लिये पर्यावरणीय आइसोटोप तकनीकी का सहारा लिया जा सकता है। एक बार जल समेट क्षेत्र का चिन्हीकरण होने पर इसमें होने वाली वर्षा की अधिक से अधिक मात्रा को भूमि में अवशोषित कने हेतु आवश्यक सामाजिक, वानस्पतिक एवं अभियांत्रिकी उपचार किया जा सकते हैं।
परम्परागत जल संचयन तकनीकी को बढ़ावा देना होगा
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पनचक्की आधारित लघु बिजली योजनाओं से गाँवों को रोशन करना होगा
प्रत्येक गाँव के आस-पास स्थित गदेरों में व्यर्थ बहने वाले जल से पनचक्की चलाकर बिजली उत्पादन किया जा सकता है। गाँव के युवाओं की एक जल समिति बनाकर एवं उनको वैकल्पिक ऊर्जा मंत्रालय द्वारा प्रशिक्षण एवं तकनीकी सहयोग प्रदान कर इस कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। इन पनचक्कियों से बनने वाली बिजली से गाँव के प्रत्येक घर को रोशन किया जा सकता है। साथ ही सरप्लस ऊर्जा को पावर ग्रिड को ‘एनर्जी वैकिंक’ सिद्धांत के तहत सप्लाई किया जा सकता है। इससे प्राप्त आय को गाँव के चक्रीय निधि खाते में जमाकर समय-समय पर गाँव के विकास में खर्च किया जा सकता है। इन गदेरों के जल को अस्थाई रूप से संग्रहित कर क्रीड़ास्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलेगा जिससे विस्थापन को रोका जा सकता है।
“उत्तराखण्ड को अब नीली क्रान्ति की आवश्यकता”
ये शब्द या यों कहें कि चेतावनी दी थी कुछ वर्ष पहले हरितक्रान्ति के जनक डॉ. नॉर्मन ई. बोरलॉग ने। अब यह हम पर निर्भर करता है कि इस कथन को हकीकत का अमलीजामा कैसे, कब और किस हद तक पहनाते हैं। अगर प्रयास ईमानदारी से हो तो हर एक खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी ही नहीं बल्कि राज्य के हजारों युवा हाथों को रोजगार मिल सकता है।
सम्पर्क करें :
सोबन सिंह रावत
वैज्ञानिक-डी, पश्चिम हिमालय क्षेत्रीय केंद्र, जम्मू राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
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