पुरातन काल की अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारों पर हुआ जो इस बात को इंगित करता है कि जल, जीवन की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिये आवश्यक ही नहीं, वरन महत्त्वपूर्ण संसाधन रहा है। विगत दशकों में तीव्र नगरीकरण एवं आबादी में निरंतर हो रही बढ़ोत्तरी, पेयजल आपूर्ति की मांग तथा सिंचाई जल मांग में वृद्धि के साथ ही औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार इत्यादि ने जल-संसाधनों पर काफी दबाव बढ़ा दिया है। एक ओर जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु सतही एवं भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन से भूजल स्तर में गिरावट होती जा रही है तो दूसरी ओर प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जल की गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आती जा रही है। अनियमित वर्षा, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाओं ने भूमिगत जल पुनर्भरण को काफी प्रभावित किया है। आज विकास की अंधी दौड़ में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार एवं तीव्र नगरीकरण ने देश की 14 प्रमुख नदियों विशेषतः गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा एवं कृष्णा को प्रदूषित कर बर्बाद कर दिया है।
स्वच्छ जल की गुणवत्ता
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर विद्यमान संसाधनों में जल सबसे महत्त्वपूर्ण है। जल का सबसे शुद्धतम रूप प्राकृतिक जल है, हालाँकि यह पूर्णतः शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता। कुछ अशुद्धियाँ जल में प्राकृतिक रूप से पायी जाती हैं। वर्षाजल प्रारंभ में तो बिल्कुल शुद्ध रहता है लेकिन भूमि के प्रवाह के साथ ही इसमें जैव एवं अजैव खनिज द्रव्य घुलमिल जाते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक जल में उपस्थित खनिज एवं अन्य पोषक तत्व, मानव सहित समस्त जीवधारियों के लिये स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं वरन काफी महत्त्वपूर्ण भी हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से पेयजल में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए।
(अ) भौतिक गुणवत्ता : जल पूर्णतया रंगहीन, स्वादयुक्त एवं शीतल होना चाहिए।
(ब) रासायनिक गुणवत्ता : घुलनशील ऑक्सीजनयुक्त, पीएच उदासीन तथा खनिजों की मात्रा स्वीकृत सीमा में हो।
(स) जैविक गुणवत्ता : जल जनित रोगकारक अशुद्धियों से पूर्णतया मुक्त होना चाहिए।
जल की उपलब्धता एवं मांग
संपूर्ण जल का 97.25 प्रतिशत हिस्सा महासागरों में विद्यमान है जो खारा होने के कारण पीने योग्य नहीं है। पेयजल 2.75 प्रतिशत सतही एवं भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। मीठा होने के कारण यही जल पीने तथा अन्य कार्यों के लिये उपयुक्त होता है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर कुल 8.4 घन किलोमीटर स्वच्छ जल विशेषतः हिमपेटियों एवं हिमनदों, नदियों, झीलों, झरनों, तालाबों, जलाशयों में सतही तथा धरातल के भूगर्त में भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 तक देश की जनसंख्या 13 अरब हो जाएगी और पानी की वार्षिक खपत 1093 अरब घनमीटर, उस समय 50 प्रतिशत और अधिक पानी की आवश्यकता होगी। जल की अनुमानित वार्षिक मांग, वर्तमान 605 अरब घनमीटर से बढ़कर वर्ष 2050 में 1447 अरब घनमीटर तक जा सकती है।
संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट के अनुसार जल की उपलब्धता की दृष्टिकोण से भारत आज 180 देशों की सूची में 133वें स्थान पर है। वहीं जल गुणवत्ता के दृष्टिकोण से 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है। स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान, भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5.177 घनमीटर तथा वर्ष 2001 में 1820 घनमीटर थी। नवीनतम आकलनों के अनुसार यह उपलब्धता वर्ष 2050 तक घटकर प्रतिव्यक्ति 1140 घनमीटर रह जाएगी।
जल प्रदूषण
आमतौर पर जल प्रदूषण का मतलब है एक या एक से अधिक पदार्थ अथवा रसायन का जल निकायों में इस हद तक बढ़ जाना जिससे कि मानव सहित समस्त प्राणी जगत को विभिन्न प्रकार की समस्याएँ पैदा होने लगें। इस प्रकार संदूषित जल के उपयोग द्वारा हानिकारक प्रभाव का पड़ना ही जल प्रदूषण है।
जल प्रदूषकों का उनके गुणधर्म के आधार पर वर्गीकरण:
जल में व्यापक रूप में पाए जाने वाले कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायनों, रोगजनकों, भौतिक अशुद्धियों और तापमान वृद्धि जैसे संवेदी कारकों को जल प्रदूषकों में शामिल किया जाता है। जल प्रदूषकों को उनके गुणधर्म एवं मापदंडों के आधार पर निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
भौतिक प्रदूषक
भौतिक प्रदूषकों में उन पदार्थों एवं अवयवों को सम्मिलित किया जाता है जो जल के रंग, गंध, स्वाद, प्रकाश भेद्यता, संवाहक, कुल ठोस पदार्थ तथा उसके सामान्य तापक्रम इत्यादि को प्रभावित करते हैं। इनमें मुख्यतः जलमल, गाद सिल्ट के सस्पंदित ठोस एवं तरल अथवा अन्य घुले कणों के अलावा कुछ विशेष दशाओं में तापशक्ति बिजली-गृहों एवं औद्योगिक इकाइयों से निकले गर्म जल इत्यादि हैं। इनके अलावा कागज, प्लास्टिक मलबे और कंटेनर इत्यादि को भी शामिल कर सकते हैं। भौतिक अशुद्धियाँ जल के मलिनीकरण द्वारा धुंधलापन पैदा कर जलीय पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
रासायनिक प्रदूषक
रासायनिक प्रदूषकों में मुख्यतः कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायन, भारी धातुएँ तथा रेडियोधर्मी पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है। ये प्रदूषक जल की अम्लीयता, क्षारीयता एवं उसकी कठोरता, रेडियोधर्मिता, विलयित ऑक्सीजन की उपलब्धता तथा रासायनिक ऑक्सीजन मांग इत्यादि को प्रभावित करते हैं। सतही जल में पाए जाने वाले प्रदूषकों में डिटर्जेंट, घरेलू कीटाणुशोधन में प्रयुक्त रसायन, वाहित वसा एवं तेल, खाद्य प्रसंस्करण अपशिष्ट, कीट एवं रोगनाशी रसायनों के अवशेष, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन, वाष्पशील रासायनिक यौगिक, औद्योगिक सॉल्वैंट्स तथा कॉस्मेटिक उत्पाद इत्यादि प्रमुख कार्बनिक प्रदूषक हैं। परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी पदार्थों के अलावा अकार्बनिक रसायनों में विशेषतः औद्योगिक इकाइयों से निकले अम्ल एवं क्षार युक्त जल, कृषि में प्रयुक्त उर्वरकों से निक्षालित पोषक तत्व, विशेषतः नाइट्रेट, फॉस्फेट तथा मोटर वाहनों एवं औद्योगिक अपशिष्ट के उत्पादों के माध्यम से फ्लोराइड, आर्सेनिक एवं अन्य भारी धातुएँ इत्यादि प्रमुख हैं।
जैविक प्रदूषक
जैविक प्रदूषकों में उन अवांछित जैविक सामग्रियों को सम्मिलित किया जाता है जो जल में घुलनशील ऑक्सीजन, जैविक ऑक्सीजन मांग, रोगकारक क्षमता इत्यादि को प्रभावित करते हैं। इनमें जैविक सामग्रियाँ, रोगकारक जीवाणु, कॉलीफार्म बैक्टीरिया, शैवाल, जलकुंभी, जलीय फर्न तथा परजीवी कीड़ों के अलावा जलप्लवक इत्यादि प्रमुख हैं। भारतीय जल निकायों के कुछ जलस्रोतों में कुल फीकल कॉलीफार्म रोगाणुओं की मात्रा 500 एमपीएन प्रति 100 मि.ग्रा. से अधिक पायी गयी है। जल में उच्च स्तर पर रोगजनकों का पाया जाना उसके अपर्याप्त उपचारण को इंगित करता है। शहरों से निकले अनुपचारित मलजल एवं पुराने शहरों में बुनियादी ढाँचों की उम्र बढ़ने के साथ मलजल संग्रह, पाइप-पंप-वाल्व प्रणाली में रिसाव इत्यादि के कारण सतही पेयजल में रोगजनक निर्वहन में भी वृद्धि पायी गयी है। कभी-कभी सतही जल में पाये जाने वाले शैवाल, जलकुंभियां, जलीय फर्न इत्यादि तथा रोगजनक सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे- यूडोमलाई बर्कोल्देरिया, क्रिप्टोस्पोरोडियम परवम, जियार्डिया लांबिलिया, साल्मोनेला, शिगेला, विब्रियो कोलेरा, नोवोवाइरस और अन्य वायरस तथा प्रोटोजोवा एवं परजीवी कीड़े जैसे- हेलमिन्थ्स, एस्केरिस कृमि आदि मानव तथा अन्य जीवधारियों में कई प्रकार की बीमारियाँ फैलाते हैं।
प्रदूषण के प्रमुख कारण : जल निकायों में बढ़ते जल प्रदूषण के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
1. औद्योगिक कचरों तथा कार्बनिक विषाक्त पदार्थों सहित अन्य उत्पादों का जलस्रोतों में डाला जाना।
2. कारखानों से वाहित अपशिष्ट में उपस्थित विभिन्न प्रकार के हानिकारक रासायनिक पदार्थ एवं भारी धातुएँ।
3. रिफाइनरियों एवं बंदरगाहों से रिसे पेट्रोलियम पदार्थ एवं तेलयुक्त तरल द्रव्य।
4. शहरों, नगरों तथा मलिन बस्तियों से निकले अनुपचारित घरेलू बहिर्स्राव, मलजल एवं ठोस कचरे इत्यादि।
5. व्यावसायिक पशुपालन उद्यमों, पशुशालाओं एवं बूचड़खानों से उत्पन्न कचरों का अनुचित निपटान।
6. कृषि क्रियाओं से उत्पन्न जैविक अपशिष्ट, उर्वरकों और कीटनाशकों के अवशेष इत्यादि।
7. गर्म झील धाराएँ विभिन्न संयंत्रों की प्रशीतन इकाइयों से निकले गर्म जल।
8. प्राकृतिक क्षरणयोग्य चट्टानों के अवसाद तलछट, मिट्टी पत्थर तथा खनिज तत्व इत्यादि।
9. परमाणु गृहों से उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ का गिरना।
जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत
पृथ्वी के प्राकृतिक संतुलन चक्र नियमन के दौरान होने वाली घटनाएँ कई तरह के नए बदलावों के साथ सतत चलती रहती हैं। वहीं मानव, प्रगति एवं विकास की गतिविधियों के ताल-मेल के दौरान जाने-अनजाने प्राकृतिक घटकों के साथ छेड़-छाड़ करता रहता है। इन गतिविधियों एवं प्रक्रियाओं के दौरान कई प्रदूषकों के स्रोत स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते रहते हैं। इन प्रदूषकों के उत्पादक स्रोतों को ध्यान में रखते हुए जल प्रदूषण को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
प्राकृतिक स्रोत
प्राकृतिक क्रियाएँ यों तो सामान्य रूप से प्रकृति की संरचनात्मक घटक हैं लेकिन कभी-कभी क्षेत्र विशेष में ये प्राकृतिक क्रियाएँ प्रदूषण द्वारा विनाश का कारण बन जाती हैं। उदाहरण के लिये ज्वालामुखी विस्फोट से निकले राख-कण एवं गाद जलस्रोतों की गुणवत्ता खराब करने के साथ-साथ पौधों एवं प्राकृतिक जलीय पारिस्थितिकी के लिये काफी क्षतिकारक होते हैं। इनमें उपस्थित विषाक्त-कण जलस्रोतों के माध्यम से मानव सहित सभी जीवधारियों के लिये घातक सिद्ध होने लगते हैं। प्रकृति में इस प्रकार की कई अन्य घटनाएँ स्वतः घटती रहती हैं जिनका जल के प्रदूषण स्तर को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। प्राकृतिक चट्टानों के विनाश, क्षरण इत्यादि से उत्पन्न तलछट, मिट्टी, महीन बालू के कण तथा खनिज तत्व, वर्षाजल, जलाशयों एवं नदियों के माध्यम से पेयजल संसाधनों में मिलते रहते हैं। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कुछ रसायन जैसे- क्लोराइड, फ्लोराइड, आर्सेनिक एवं अन्य भारी तत्व अधिक मात्रा में काफी हानिकारक पाए गए हैं। जिनका गंभीर असर जलीय प्रजातियों के अस्तित्व पर पड़ने लगता है।
मानव जनित स्रोत
मानव जनित स्रोतों में घरेलू बहिर्स्राव, मलजल अपशिष्ट, औद्योगिक एवं कृषिगत रासायनिक बहिर्स्राव तथा परिवहन एवं अन्य स्रोतों से उत्पन्न कचरा इत्यादि जल की रासायनिक, भौतिक तथा जैविक गुणवत्ता को खराब कर अनुपयुक्त बना देते हैं। इस प्रकार के प्रदूषक युक्त जल, घरेलू उपयोग, पेयजल और फसलों की सिंचाई के लिये भी अनुपयुक्त होता है। जिन मानव जनित प्रदूषण स्रोत एवं गतिविधियों को जल प्रदूषण के लिये जिम्मेदार पाया गया है वे इस प्रकार हैं-
औद्योगिक गतिविधियाँ
आज जल में औद्योगिक प्रदूषकों के विस्तार के कारण जल-प्रदूषण की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है। प्रदूषण कारक औद्योगिक परियोजनाएँ मुख्यतः चीनी मिलें, कागज एवं कपड़ा मिलें, चमड़ा संशोधन संयंत्र, जूट, इस्पात तथा उर्वरक संयंत्र इत्यादि उद्योगों से निकले बहिर्स्रावित जल में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जहरीले रसायनों के कारण अधिकतर प्रदूषित जल निकायों का जल अनुपयोगी होता जा रहा है। कोयला आधारित ताप विद्युत परियोजनाओं में कोयले के कुल उपयोग का लगभग 20 प्रतिशत भाग गाद एवं गारे के रूप में बाहर निकलता है जिनका निपटान जलस्रोतों के आस-पास कर दिया जाता है जो वर्षाजल के साथ बहकर प्रायः तालाबों, नदियों एवं अन्य जलस्रोतों में जमा होकर जल प्रदूषण के लिये जिम्मेदार पाए गए हैं। उद्योगों में प्रशीतक संयंत्रों द्वारा भारी मात्रा में जल का इस्तेमाल किया जाता है। पूरी उत्पादन प्राविधि के दौरान गर्म जल, वाष्पशील एवं निलंबित अपशिष्ट तेल भारी मात्रा में उत्पन्न होकर जल प्रदूषण में योगदान करते हैं। कारखानों से निकले औद्योगिक बहिर्स्राव प्रायः कार्बनिक एवं अकार्बनिक प्रदूषकों से युक्त होते हैं। इन औद्योगिक बहिर्स्रावों में विभिन्न प्रकार की विषैली धातुएँ जैसे- क्रोमियम, पारा, लोहा, सीसा, जस्ता, तांबा, कैडमियम, आर्सेनिक इत्यादि, मानव सहित समस्त पारिस्थितिक तंत्र को काफी नुकसान पहुँचाने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा तेल, ग्रीस एवं अन्य तेलयुक्त अवशेष ज्यादातर अनुपचारित ही जल निकायों में छोड़ दिए जाते हैं। बंदरगाह या शिपिंग कारोबार एवं तेल टैंकर दुर्घटनाओं से रिसे तेल इत्यादि भी समुद्र तथा महासागरों में जल प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं। परमाणु बिजली संयंत्रों में ईंधन उत्पादन से मुक्त रेडियोधर्मी कचरे की उच्च सांद्रता मानव सहित अन्य जीवों के मृत्यु का कारण बन सकती हैं, जबकि कम सांद्रता कैंसर और अन्य बीमारियों को उत्पन्न करने की क्षमता रखती है। मानव तथा जीवधारियों के शरीर में पहुँच कर इन्जाइमिक एवं अन्य तंत्रों पर अपना घातक दुष्प्रभाव डाल सकते हैं।
घरेलू गतिविधियों एवं शहरी मलजल अपशिष्ट
दिनचर्या के कार्यों से लेकर भोजन, साफ-सफाई में भारी मात्रा में जल का उपयोग किया जाता है। इनमें साफ-सफाई में उपयोग होने वाले प्रक्षालक एवं अनेक प्रकार के रासायनिक बहिर्स्राव, रसोईघर से निकली तेलयुक्त सामग्रियाँ, अन्नयुक्त पदार्थों के अलावा अनेक प्रकार की सामग्रियाँ वाहित बहिर्स्राव के रूप में नालियों के माध्यम से नालों तथा अंततः बड़े जलस्रोतों में मिलकर प्रदूषण फैलाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2020 तक समुचित मलजल निपटान के अभाव में मलजल अपशिष्ट का जल में मिलना, तथा इनमें पाए जाने वाले रोगाणुओं के कारण पेयजल से जुड़ी बीमारियाँ 135 मिलियन लोगों को प्रभावित कर सकती हैं। भारत में मलजल का केवल 35 प्रतिशत भाग प्राथमिक रूप से उपचारित होता है जिसमें से केवल 10 प्रतिशत का माध्यमिक उपचार होता है तथा शेष बिना उपचारित ही भूमि या जल में निष्पादित कर दिया जाता है। एक अनुमान के अनुसार देश का लगभग 75 प्रतिशत जलमल, अनुपचारित या आंशिक रूप के उपचारित, कृषि कार्यों में प्रयुक्त हो रहा है। महानगरीय ठोस एवं तरल कचरे, जलमल बहिर्स्राव इत्यादि अधिकांश स्थानों पर अनुपचारित या अल्प उपचारित अवस्था में ही नालों द्वारा नदियों में मिलकर जल समुदायों की नैसर्गिक पारिस्थितिकी को नष्ट कर रहे हैं। मलजल में उपस्थित रोगज़नकों एवं रसायनों की वजह से अनेक संवेदी और शारीरिक बदलावों के साथ, घातक एवं संक्रामक रोगों जैसे-हैजा, टाइफाइड, अतिसार, पीलिया, यकृत एवं अन्य पेट संबंधी बीमारियों का फैलाव हो रहा है। इसके अलाव स्थलीय, जलीय जीव-जंतुओं पर भी इसका घातक प्रभाव पड़ रहा है।
मलजल में उपस्थित जैविक एवं रासायनिक पदार्थों के विघटन के लिये अत्यधिक मात्रा में ऑक्सीजन की जरूरत होती है। यानी जैविक ऑक्सीजन मांग एवं रासायनिक ऑक्सीजन मांग दोनों में काफी वृद्धि हो जाती है जिसके कारण जल में उपस्थित घुलनशील ऑक्सीजन, जैविक एवं रासायनिक पदार्थों के विघटन के दौरान उपयोग कर ली जाती है जिसका परिणाम घुलनशील ऑक्सीजन की बेहद कमी के रूप में होता है। घुलनशील ऑक्सीजन की कमी जलीय प्रजातियों के अस्तित्व के लिये खतरा पैदा कर देती है। इसके अलावा मलजल में उपस्थित कुछ विषाक्त पदार्थ जलीय प्रजातियों के लिये अत्यंत हानिकारक साबित होते हैं। मलजल (सीवेज) के कारण उत्पन्न प्रभाव जैसे- जल में घुलनशील ऑक्सीजन में कमी एवं विषाक्त पदार्थों की अधिकता के कारण मछलियों की मृत्यु हो जाती है।
कृषि गत गतिविधियाँ
हरित-क्रांति से पहले की जाने वाली परंपरागत खेती में प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी लेकिन देश में हरित-क्रांति की शुरुआत आधुनिक खेती के रूप में नवीन तकनीकों के साथ हुई, जिसमें उत्पादन बढ़ाने के लिये बड़ी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उपयोग किया गया। बढ़ती जनसंख्या के भरण-पौषण के लिये उत्पादन बढ़ाना उस समय की सबसे बड़ी मांग थी। देश आज खाद्य उत्पादन में अपने ऊपर निर्भर है लेकिन बहुत सारी तकनीकी खामियाँ नज़रअंदाज़ भी की गई हैं। मसलन फसलों में मांग से अधिक मात्रा में सिंचाई-जल का उपयोग, अत्यधिक मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग एवं उनकी उपयोग क्षमता में कमी इत्यादि। भारतीय उर्वरक संगठन, 2007 के अनुसार उर्वरकों के कुल प्रयोग का 75 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा नत्रजनी उर्वरकों के रूप में होता है, जो रिसाव द्वारा नाइट्रेट प्रदूषण का प्रमुख कारण है। फसल-मांग से अधिक अथवा अतिरिक्त मात्रा में उर्वरकों की आपूर्ति विशेषतः नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस जल के रिसाव के साथ मिलकर जल प्रदूषण फैलाने के साथ-साथ तालाबों, झीलों और नदियों में यूट्रोफिकेशन उत्पन्न कर देते हैं। यूट्रोफिकेशन जलस्रोतों की ऐसी स्थिति है जिसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं अन्य तत्वों के अति-पोषण अथवा इनकी अधिकता से जलस्रोतों में शैवाल की अति वृद्धि हो जाती है जिसे एल्गल ब्लूम के नाम से भी जाना जाता है जो जलस्रोतों की जलीय पारिस्थितिकी के लिये काफी घातक होते हैं।
आज कीट, रोग एवं फसल सुरक्षा में प्रयोग होने वाले रसायन आधुनिक कृषि के आवश्यक अंग बन गए हैं। फसल संरक्षण हेतु कीटनाशकों का अधिक मात्रा में प्रयोग तथा जल संसाधनों में निरंतर बढ़ना एक चिंता का विषय है। इनके अधिक मात्रा में प्रयोग से जलस्रोतों में जटिल हानिकारक रसायनों जैसे- आरगैनो क्लोरीन, आरगैनोफास्फोरस, हैक्जाक्लोरो साइक्लोहेक्जेन, क्लोरोपाइरीफोस, लिन्डेन तथा मैलाथियान इत्यादि की मात्रा काफी बड़ी है। कई कीटनाशी रसायन जलस्रोतों में मिलने के बाद जल्दी अपघटित नहीं होते तथा इनका हानिकारक प्रभाव काफी लंबे समय तक बना रहता है। कीटनाशकों से उत्पन्न विषैली भारी धातुएँ जैसे- क्रोमियम, पारा, लोहा, सीसा, जस्ता, ताँबा, कैडमियम, आर्सेनिक इत्यादि की अधिकता काफी खतरनाक है। फसल सुरक्षा में प्रयोग हो रहे रसायनों की प्रतिवर्ष मांग और खपत में लगातार हो रही वृद्धि के कारण उसी अनुपात में इनसे उत्पन्न विषैली धातुओं की मात्रा भी जल संसाधनों में बढ़ी है जिसका परिणाम जल प्रदूषण के रूप में तेजी से हो रहा है।
प्रदूषकों का विभिन्न जलीय परितंत्रों की गुणवत्ता पर प्रभाव
मानवीय गतिविधियों विशेषतः घरेलू अपशिष्ट, शहरी मलजल, औद्योगिक एवं कृषिगत बहिर्स्रावों में उपस्थित विभिन्न प्रकार के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रदूषकों के कारण समुद्र जल, नदी बेसिन, नम भूमियों की जलीय पारिस्थितिकी, झीलों एवं तालाबों के प्रदूषण स्तर में काफी वृद्धि हुई है। बढ़ते प्रदूषण स्तर के कारण इन जल निकायों की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है।
नदी बेसिन में जल की गुणवत्ता
अधिकांश अशोधित मानव अपशिष्ट को गलत ढंग से नदी बेसिन में निपटाया जाता है। गंगा नदी देश की सबसे बड़ी नदी है जिसका प्रवाह क्षेत्र 861.404 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रकार इसके अंतर्गत देश का कुल 26.2 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र आता है। एक आकलन के अनुसार गंगा बेसिन में 22,900 मिलियन लीटर प्रतिदिन उत्पन्न अपशिष्ट जल में से केवल 5,900 मिलियन लीटर प्रतिदिन के आस-पास ही शोधित किया जाता है जबकि 17000 मिलियन लीटर अपशिष्ट जल प्रतिदिन अशोधित ही सीधे गंगा में विसर्जित कर दिया जाता है। आज देश के हर नगर एवं शहर में पेयजल की आपूर्ति नदी जल के द्वारा ही संभव हो पा रही है। कई बार अत्यधिक प्रदूषकों के कारण जल संशोधन संयंत्र भी काम करना बंद कर देते हैं या अशुद्ध जल की आपूर्ति करने लगते हैं जो मानव स्वास्थ्य को जोखिम में डाल देते हैं। इस प्रकार के प्रदूषित जल से जलजनित बीमारियों के फैलने की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसे हमें गंभीरता से लेना होगा अन्यथा एक दिन नदी जल द्वारा पेयजल की आपूर्ति खतरे में पड़ सकती है जिसका भयावह परिणाम हो सकता है।
नम भूमि की जलीय पारिस्थितिक गुणवत्ता
नम भूमियाँ ऐसे क्षेत्र हैं जो पूर्णतः आंशिक रूप से सालभर जलमग्न रहती हैं। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश का लगभग 41 लाख हेक्टेयर भूभाग नम भूमियों के अंतर्गत आता है। देश में पायी जाने वाली नम भूमि, वन्यजीवों की भव्य विविधता को समृद्धता प्रदान करती है। नम भूमियाँ जैविक विविधता, उच्च जैविक उत्पादकता और आवास के साथ-साथ इनमें पाए जाने वाले जीवों को सामुदायिकता भी उपलब्ध कराती रहती है। नम भूमियों की पारिस्थितिकी प्राकृतिक रूप में जल गुणवत्ता प्रबंधन में काफी महत्त्व रखती है। जल गुणवत्ता में सुधार और प्रजातियों के लिये जैविक संकेतों के रूप में इनकी आवश्यकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मानव जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के साथ ही खेती, शहरी एवं औद्योगीकरण का विस्तार इन नम भूमियों की जलीय पारिस्थितिकी को प्रदूषित करता जा रहा है। मानवीय दखलंदाजी एवं बढ़ते प्रदूषण से नम भूमियों की जलीय पारिस्थितिकी और जल की गुणवत्ता में गिरावट के कारण जैविक विविधता में कमी आयी है जिससे इन भूमियों का जलीय पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है। इस प्रकार पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ने के नम भूमियों के मूल्यों में भी गिरावट आयी है।
झीलों एवं तालाबों की गुणवत्ता
तालाब एवं झीलें स्थिर जल निकाय हैं जिनमें एक बार पानी भरने के बाद प्रायः वर्षों तक बना रहता है। इनमें एक बार प्रदूषण होने के बाद प्रदूषित जल बाहर नहीं बह पाता और वाहित प्रदूषकों के लगातार बढ़ते रहने से तालाबों में इनकी मात्रा धीरे-धीरे एकत्रित होती रहती है। इसलिये इनमें होने वाला प्रदूषण बहते जल निकायों जैसे- नदियों और झरनों की अपेक्षा काफी खतरनाक स्थितियाँ पैदा कर देते हैं। तालाब प्रायः कस्बों एवं गाँवों के आस-पास स्थित होते हैं इसलिये इनमें मानव एवं पशुओं के स्नान इनसे उत्पन्न मलबे, मलमूत्र और कार्बनिक पदार्थों के मिलने की अत्यधिक घटनाएँ होती हैं। कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ने से जलस्रोतों में अतिपोषण अथवा इनकी अधिकता से शैवाल एवं अन्य जलीय खरपतवारों की अतिवृद्धि हो जाती है। इन स्थिर जल निकायों में प्रदूषकों की अधिकता के कारण जल रासायनिक गुणवत्ता विशेषतः जल की अम्लता, जैविक तथा रासायनिक ऑक्सीजन मांग इत्यादि में काफी वृद्धि हो जाती है। भौतिक अशुद्धियों में निलंबित अपद्रव्य कण, कोलाइडल स्पंदन इत्यादि से उत्पन्न मलीनता जल में धुंधलापन पैदा कर जल निकायों में प्रकाश के संचरण को बाधित कर देती है नतीजतन इन स्थिर जल निकायों की जलीय पारिस्थितिकी में काफी बदलाव आए हैं।
देशभर में झीलों की एक बड़ी संख्या, चाहे प्राकृतिक हो या मानव निर्मित पानी की मुख्य स्रोत रही हैं। एशिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित हुसैन सागर झील तथा प्राकृतिक झीलों में श्रीनगर में डल झील, कोडईकनाल, रेणुका झील, हरिके झील, नैनी झील, रामगढ़ झील, रवींद्र सरोवर झील तथा मणिपुर में लोकटक झीलें प्रमुख हैं। इनमें से ज्यादातर झीलों में उच्च कार्बनिक पदार्थों के संचयन के कारण जैव ऑक्सीजन मांग की मानक सीमा एवं गुणवत्ता मापदंड को पूरा नहीं करते। घरेलू मलजल, कृषि अपशिष्ट, औद्योगिक तथा अन्य के बहिर्वाह के कारण बुरी तरह प्रदूषित होने से इनकी गुणवत्ता समाप्ति के कगार पर है। कुछ झीलें कई जलपक्षियों विशेषतः साइबेरियाई सारस, फ्लेमिंगो और पेलिकन सहित अनेकों पक्षियों के लिये एक महत्त्वपूर्ण निवास स्थान हैं पिछले दो दशकों में इनकी आबादी में कमी आई है।
समुद्र जल की गुणवत्ता
समुद्रीय जल के खारे होने के बावजूद उसकी अपनी विशेष गुणवत्ता होती है जिसके कारण समुद्रीय परितंत्र जलीय प्लवकों एवं जंतुओं का पोषण तथा संतुलन कायम रखता है। लेकिन वाहित जलमल, उर्वरकों एवं कीटनाशी रसायनों के अवशेष, क्लोरीनेटेड हाइड्रोकार्बन, भारी धातुएँ रेडियोएक्टिव तत्व, प्लास्टिक एवं अन्य रासायनिक अपशिष्ट आमतौर पर नदियों के माध्यम से अंततः समुद्रों या महासागरीय जल में गिरते रहते हैं जिनसे प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ा है। इसके अलावा पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन, आयात एवं निर्यात एवं दुर्घटनाओं से फैले तेल के कारण समुद्र जल की गुणवत्ता में कमी तथा सतह पर फैले तेलयुक्त जल से जंतु एवं पादप प्लवकों, सूक्ष्मजीवों एवं मछलियों के लिये ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी उन पर घातक प्रभाव डालती है। हमारे देश में दैनिक उपयोग के अलावा निर्यात हेतु लगभग 56 प्रतिशत मछलियों का उत्पादन समुद्रीय भागों से किया जाता है। वहीं अधिकांश बड़े महानगर जैसे- मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, कोचीन, तिरुअनंतपुरम् विशाखापत्तनम एवं गोवा राज्य के शहर समुद्री किनारे पर बसे हुए हैं। इन इलाकों में तेजी से हो रहे मानवीय अतिक्रमण एवं इनसे होने वाले प्रदूषण से समुद्र जल की गुणवत्ता गिरती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार समुद्री जल प्रदूषण एवं प्रदूषित मछलियों के भक्षण से प्रतिवर्ष लगभग दो लाख पक्षियों की मृत्यु हो जाती है।
जल प्रदूषण नियंत्रण
देश में जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये 1974 में जल प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण अधिनियम बनाया गया। इसी क्रम में पर्यावरण सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 1986 पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लाया गया जिसमें जल प्रदूषण को रोकने के लिये विशेष प्रावधान किए गए। जैसा कि हम जानते हैं जल प्रदूषण के भिन्न-भिन्न स्रोत हैं ऐसे में इनके प्रभावी नियंत्रण के लिये इनको उत्पन्न होने वाले स्रोत स्थान पर रोककर समुचित प्रबंधन एवं शोधन उपचार द्वारा शुद्ध किया जाना आवश्यक है। ज्यादातर जलीय प्रदूषण मानवीय गलतियों का नतीजा है और मानव ही इन गलतियों में सुधार लाकर इसे नियंत्रित कर सकता है। अधिनियम और कानून अपना काम कर ही रहे हैं इसे और प्रभावी बनाने के लिये हमें स्वैच्छिक भागीदारी लेनी होगी जिससे बढ़ते प्रदूषण को कम किया जा सके। जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये निम्नलिखित स्तर पर उपाय किए जा सकते हैं।
घरेलू स्तर पर
1. पानी बहुत ही मूल्यवान संसाधन है देश के सभी निवासियों को इसके महत्व को ध्यान में रखकर इसे संरक्षित एवं प्रदूषित होने से बचाने में स्वैच्छिक योगदान देना चाहिए।
2. घरेलू अपशिष्ट, अपशिष्ट तेल, पेट्रोलियम पदार्थ, पेंट एवं वार्निस, सफाई उत्पादों, डिटर्जेंट, प्रसाधन सामग्रियों एवं अन्य घरेलू उत्पादों को कभी भी नदियों में एवं नाली में नहीं छोड़ें या इनका जल आपूर्ति निकायों के साथ मिलने से रोककर, निपटान का सही तरीका सुनिश्चित करें।
3. पानी का पुनर्नवीनीकरण एवं इसका पुनः उपयोग, प्रदूषण नियंत्रण के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है, जहाँ तक संभव हो सके इसको अपनी आदतों में शामिल करना चाहिए।
4. सभी निवासियों को मलजल प्रबंधन हेतु अपने खुद के निजी शौचालय एवं सेप्टिक प्रणाली में पानी की बर्बादी को रोका जाना चाहिए। इससे मलजल उपचार की प्रक्रिया पर दबाव को कम कर मलजल उपचार संयंत्रों की क्षमता को बढ़ाया जा सकेगा।
5. घरेलू रोजमर्रा के कार्यों में कम मात्रा में पानी का इस्तेमाल करके इनके प्रवाह को कम अवश्य किया जा सकता है। इससे उपचार केंद्रों को अधिक प्रभावी ढंग से चलाने में मदद मिलेगी।
6. जल प्रदूषण को रोकने की दिशा में प्रयास करने के अलावा व्यक्तिगत एवं घरेलू स्तर पर नियमों, अधिनियमों का सक्षम पालन सुनिश्चित करना आवश्यक है।
7. नदियों, तालाबों, झीलों और समुद्र तटों पर कूड़े-कचरे को फेंकने से बचना, आमतौर पर इन सामान्य आदतों की अनदेखी की जाती है। व्यवस्थित तरीके से इनका निपटान, प्रदूषण को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
8. पर्यावरण अनुकूल घरेलू उत्पाद एवं प्रसाधनों का उपयोग, पर्यावरण पर बहुत कम हानिकारक प्रभाव डालता है इनका उपयोग प्रदूषण को रोकने में मददगार एवं सक्रिय भूमिका निभा सकता है।
औद्योगिक स्तर पर
1. जिन क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों का समूह हो उन क्षेत्रों में सामान्य प्रवाह उपचार संयंत्रों को स्थापित करने में औद्योगिक समूहों को मिल कर कदम उठाना चाहिए।
2. उपचार संयंत्रों से प्राप्त अपशिष्ट जैसे- लौह एवं अलौह सामग्रियां, कागज और प्लास्टिक कचरे में पुनर्नवीनीकरण द्वारा अन्य उपयोगी सामग्रियों के उत्पादन हेतु नए विकल्पों की तलाश की जानी चाहिए जिससे प्रदूषकों की मात्रा को स्रोत स्थल पर कम किया जा सके।
3. औद्योगिक क्षेत्रों से उत्पन्न कचरे को कम करने की कोशिश के साथ केंद्रीय प्रायोजित मापदंडों का पालन, नियमों एवं अधिनियमों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
4. औद्योगिक अपशिष्टों से विषाक्त घटकों अमोनिया एवं अन्य गैसों, उच्च सांद्रता वाली भारी धातुओं, एंटीफ्रीजर, तेल और तरल पदार्थ, वाष्पशील कार्बनिक एवं अकार्बनिक रासायनिक यौगिकों को हटाने के लिये विशेष उपचार प्रणालियों को स्थापित कर पुनर्नवीनीकरण द्वारा इन्हें पुनः उपयोग में लाया जाना चाहिए।
5. औद्योगिक हीटिंग प्रयोजनों एवं संयंत्रों से निकले गर्म जल को संवहन से ठंडा करने की डिजाइनों में सुधार तथा इनकी क्षमता में वृद्धि तथा विनिर्माण संयंत्रों के साथ संयोजित कर पुनः जल को उपयोग में लाने की प्रक्रिया प्रदूषण रोकथाम में कारगर विकल्प है।
6. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्य सरकारें अपने योगदान के लिये प्रतिबद्ध हैं जहाँ तक संभव हो औद्योगिक बहिर्स्राव के पर्याप्त उपचार के लिये इनके द्वारा दी गई सलाह एवं सुविधाओं का भरपूर लाभ लेना चाहिए।
7. उद्योगों एवं परमाणु संयंत्रों से उत्पन्न रेडियोधर्मी सामग्रियों के उचित प्रबंधन, सुरक्षित भंडारण प्रणालियो के विकास एवं उपचार संयंत्रों की क्षमता बढ़ाकर इन्हें जल में मिलने से रोककर जल प्रदूषण को रोका जा सकता है।
8. उद्योगों द्वारा पर्यावरण प्रबंधन, निगरानी कार्यक्रम एवं समुचित कार्य योजनाओं को तैयार कर प्रदूषित जल के उचित शोधन के बाद ही जलाशयों में विसर्जित किया जाना चाहिए।
कृषिगत स्तर पर
1. कीटों के नियंत्रण हेतु रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के लिये किसानों को समन्वित कीट प्रबंधन तकनीक तथा जैविक कीट नियंत्रण इत्यादि फसल सुरक्षा प्रणालियों को अपनाने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। इनके उपयोग से रासायनिक कीटनाशकों के प्रभावों को कम कर, पानी की गुणवत्ता की रक्षा की जा सकती है।
2. मृदा परीक्षण द्वारा फसलों की आवश्यकता अनुसार समुचित मात्रा में उर्वरकों के उपयोग से जलाशय में इनके रिसाव को कम कर प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
3. किसानों को पोषक तत्व प्रबंधन तथा वाणिज्यिक उर्वरकों का सही एवं समुचित मात्रा में उपयोग- योजना का पालन करना चाहिए।
4. कस्बों और शहरों के सभी कार्बनिक अपशिष्ट, गोबर तथा फार्म हाउस एवं अन्य जैविक कचरे से बायोगैस ऊर्जा उत्पादन के साथ प्राप्त गाद को खाद के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस तरह की खाद के इस्तेमाल से फसलों की उच्च उपज प्राप्त की जा सकती है।
5. उपयुक्त भूपरिष्करण क्रियाएँ एवं उर्वरकों के प्रयोग की विधियाँ जैसे- बुवाई के समय उर्वरकों का मृदा कूंणों में प्रयोग नाइट्रेट लीचिंग को कम करते हैं।
6. फसल क्रम में झकड़ादार जड़ वाली फसलों के बाद गहरी जड़ वाली तीव्र नाइट्रेट अवशोषक फसलों जैसे- अल्फा इत्यादि का समावेश करना।
सरकारी एवं प्रशासनिक स्तर पर
1. लघु उद्योगों के समूहों की परियोजनाओं को प्राथमिकता देकर तत्काल केंद्रीय सहायता उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
2. प्रदूषण के संदर्भ में जनसंख्या प्रवृत्तियों सहित सभी क्षेत्रों में बहिर्स्राव उत्पन्न करने वाले स्रोतों तथा उत्पादन आधारित मात्रा का सही-सही आकलन एवं अनुमान लगाया जाना चाहिए।
3. वर्तमान से लेकर आगे आने वाले समय में औद्योगिक बहिर्स्राव से उत्पन्न प्रदूषण नियंत्रण के लिये व्यापक योजना तैयार कर समयबद्ध तरीके से इनका कार्यान्वयन कराया जाना चाहिए।
4. बुनियादी औद्योगिक सुविधाओं, कार्यों के निष्पादन में कम-से-कम बाधा, उपचार क्षमता का सृजन करने के लिये दिए गए प्रस्तावों को प्राथमिकता के आधार पर वरीयता देनी चाहिए।
5. बिना उपचारित औद्योगिक बहिर्स्रावों को निष्पादित करने वाली प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों को पानी की आपूर्ति प्रतिबंधित कर उनके लाइसेंसों को रद्द कर देनी चाहिए।
6. निर्धारित मानकों के संदर्भ में गुणवत्ता, सुनिश्चित प्रक्रियाओं एवं कानूनों को सही ढंग से न पालन करने वाले लोगों पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए।
7. भारत सरकार द्वारा स्वीकृत गंगा नदी कार्य योजना में गंगा नदी की सीमा से सटे 25 शहरों में मलजल उपचार प्रणालियों की स्थापना की गई। लेकिन यह कार्य योजना अब तक अपने उद्देश्यों में विफल रही है। ऐसे कार्यक्रमों की सफलता के लिये प्रशासनिक संस्थागत तंत्र, नागरिकों एवं प्रबंधन में लगी एजेंसियों को एक दूसरे के साथ समन्वय स्थापित करने की जोरदार पहल की जानी चाहिए।
8. गैर सरकारी संगठनों की मदद से लोगों को जल प्रदूषण के परिणामों के बारे में जागरूकता, अपशिष्ट प्रबंधन के वैकल्पिक तरीके सिखाने वाले कार्यक्रमों के आयोजन, अभियानों के द्वारा सहभागिता, अपशिष्ट निपटान के उचित तरीकों की जानकारी एवं इन्हें अमल में लाने के लिये शिक्षित एवं प्रेरित करने वाले संगठनों को पर्याप्त वित्तीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना चाहिए।
लेखक परिचय
डॉ. शिव प्रसाद
वरिष्ठ वैज्ञानिक, पर्यावरण विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110001
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