जल प्रदूषण कारण, कारण, समस्याएँ एवं समाधान | Water pollution - Causes, Effects and Solutions in Hindi

जल प्रदूषण कारण, कारण, समस्याएँ एवं समाधान
जल प्रदूषण कारण, कारण, समस्याएँ एवं समाधान


जल समाचारजल प्रदूषण की समस्या वास्तव में कोई नई समस्या नहीं है। आदिकाल से ही मानव अपशिष्ट पदार्थों को जल स्रोतों में विसर्जित करता चला आ रहा है। वर्तमान समय में तीव्र औद्योगिक विकास, जनसंख्या वृद्धि, जल स्रोतों का दुरुपयोग, वर्षा की मात्रा में कमी आदि मानवकृत एवं प्राकृतिक कारणों से जल प्रदूषण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है।

इस प्रकार मानव एवं विभिन्न क्रिया-कलापों से जब जल के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों में ह्रास हो जाता है तो ऐसे जल को प्रदूषित जल कहा जाता है। स्पष्ट है कि जब जल की भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक संरचना में इस तरह का परिवर्तन हो जाता है कि वह जल किसी प्राणी की जीवन दशाओं के लिये हानिकारक एवं अवांछित हो जाता है, तो वह जल ‘‘प्रदूषित जल” कहलाता है। इस तरह जल प्रदूषण चार प्रकार का होता है:

1. भौतिक जल प्रदूषण: भौतिक जल प्रदूषण से जल की गंध, स्वाद एवं ऊष्मीय गुणों में परिवर्तन हो जाता है।

2. रासायनिक जल प्रदूषण: रासायनिक जल प्रदूषण जल में विभिन्न उद्योगों एवं अन्य स्रोतों से मिलने वाले रासायनिक पदार्थों के कारण होता है।

3. शरीर क्रियात्मक जल प्रदूषण: जब जल के गुणों में इस तरह का परिवर्तन हो जाए कि उस जल के उपयोग से मानव की क्रिया-विधि हानिकारक रूप से प्रभावित होती हो तो उसे शरीर क्रियात्मक जल प्रदूषण कहा जाता है।

4. जैविक जल प्रदूषण: जल में विभिन्न रोगजनक जीवों के प्रवेश के कारण प्रदूषित जल को जैविक जल प्रदूषण कहा जाता है।

जल प्रदूषण के कारण


जल प्रदूषण का सीधा सम्बन्ध जल के अतिशय उपयोग से है। नगरों में पर्याप्त मात्रा में जल का उपयोग किया जाता है और सीवरों तथा नालियों द्वारा अपशिष्ट जल को जलस्रोेतों में गिराया जाता है। जल स्रोतों में मिलने वाला यह अपशिष्ट जल अनेक विषैले रासायनों एवं कार्बनिक पदार्थों से युक्त होता है जिससे जल स्रोतों का स्वच्छ जल भी प्रदूषित हो जाता है। उद्योगों से निःसृत पदार्थ भी जल प्रदूषण का मुख्य कारण है। इसके अतिरिक्त कुछ मात्रा में प्राकृतिक कारणों से भी जल प्रदूषित होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जल प्रदूषण जल की गुणवत्ता में प्राकृतिक अथवा मानवकृत परिवर्तन है, जो भोजन एवं पशु स्वास्थ्य, उद्योग, कृषि, मत्स्य अथवा मनोरंजन के प्रयोजनों के लिये अप्रयोज्य एवं खतरनाक हो जाता है। इस तरह जल प्रदूषण जल के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों में ह्रास हो जाने से होता है, जो मानव क्रियाओं एवं प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा जल संसाधन में अपघटित एवं वनस्पति पदार्थों तथा अपश्रम पदार्थों के मिलाने से होता है। उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि जल प्रदूषण के दो स्रोत होते हैं: 1. प्राकृतिक व 2. मानवीय।

जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत


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प्राकृतिक रूप से जल का प्रदूषण जल में भूक्षरण खनिज पदार्थ, पौधों की पत्तियों एवं ह्यूमस पदार्थ तथा प्राणियों के मल-मूत्र आदि के मिलने के कारण होता है। जल, जिस भूमि पर एकत्रित रहता है, यदि वहाँ की भूमि में खनिजों की मात्रा अधिक होती है तो वे खनिज जल में मिल जाते हैं। इनमें आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम एवं पारा आदि (जिन्हें विषैले पदार्थ कहा जाता है) आते हैं। यदि इनकी मात्रा अनुकूलतम सान्द्रता से अधिक हो जाती है तो ये हानिकारक हो जाते हैं।

उपर्युक्त विषैले पदार्थों के अतिरिक्त निकिल, बेरियम, बेरीलियम, कोबाल्ट, माॅलिब्डेनम, टिन, वैनेडियम आदि भी जल में अल्प मात्रा में प्राकृतिक रूप से मिले होते हैं।

जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत


मानव की विभिन्न गतिविधियों के फलस्वरूप निःसृत अपशिष्ट एवं अपशिष्ट युक्त बहिस्रावों के जल में मिलने से जल प्रदूषित होता है। ये अपशिष्ट एवं अपशिष्ट युक्त बहिःस्राव निम्नांकित रूप में प्राप्त होते हैं: 1. घरेलू बहिःस्राव, 2. वाहित मल, 3. औद्योगिक बहिःस्राव, 4. कृषि बहिःस्राव, 5. ऊष्मीय या तापीय प्रदूषण, 6. तेल प्रदूषण एवं 7. रेडियोएक्टिव अपशिष्ट एवं अवपात।

1. घरेलू बहिःस्रावः घरेलू अपशिष्टों से युक्त बहिःस्राव को ‘मल जल’ कहा जाता है। विभिन्न दैनिक घरेलू कार्यों तथा खाना पकाने, स्नान करने, कपड़ा धोने एवं अन्य सफाई कार्यों में विभिन्न पदार्थों का उपयोग किया जाता है, जो अपशिष्ट पदार्थों के रूप में घरेलू बहिःस्राव के साथ नालियों में बहा दिए जाते हैं और अन्ततः जलस्रोतों में जाकर गिरते हैं। इस तरह के बहिःस्राव में सड़े हुए फल एवं सब्जियाँ, रसोई घरों से निकली चूल्हे की राख, विभिन्न तरह का कूड़ा-करकट, कपड़ों के चिथड़े, अपमार्जक पदार्थ, गंदा जल एवं अन्य प्रदूषणकारी अपशिष्ट पदार्थ होते हैं, जो जलस्रोतों से मिलकर जल प्रदूषण का कारण बनते हैं। वर्तमान समय सफाई के कार्यों में संश्लेषित प्रक्षालकों का प्रयोग दिन-प्रतिदिन तीव्र रूप से बढ़ाया जा रहा है, जो जलस्रोतों में मिलकर जल प्रदूषण का स्थाई कारण बनते हैं।

2. वाहित मलः वास्तव में जल प्रदूषण नामक शब्द का प्रयोग जल में मानव मल द्वारा जनित प्रदूषण के सन्दर्भ में ही सर्वप्रथम प्रयोग किया गया था। मानव अंतड़ियों में सामान्य रूप से पाये जाने वाले बैक्टीरिया यदि जल में विद्यमान होते थे तो उस जल को प्रदूषित जल माना जाता था जिसे मानव उपयोग के लिये अयोग्य समझा जाता था।

वाहित मल के अन्तर्गत मुख्य रूप से घरेलू एवं सार्वजनिक शौचालयों से निःसृत मानव मल-मूत्र को सम्मिलित किया जाता है। वाहित मल में कार्बनिक एवं अकार्बनिक दोनों प्रकार के पदार्थ होते हैं। ठोस मल का अधिकांश भाग कार्बनिक होता है, जिसमें मृतोपजीवी एवं कभी-कभी ठोस कारक सूक्ष्मजीवी भी विद्यमान रहते हैं। कार्बनिक पदार्थ की अधिकता से विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव तथा बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ, वाइरस, कवक एवं शैवाल आदि तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। इस तरह का दूषित वाहित मल जब बिना उपचार किए ही मल नालों से होता हुआ जल स्रोतों में मिलता है तो भयंकर जल प्रदूषण का कारण बनता है। खुले स्थानों में मनुष्य एवं पशुओं द्वारा त्याज्य मल भी वर्षाजल के साथ बहता हुआ जल स्रोतों में मिलकर जल प्रदूषण का कारण बनता है। इस तरह के जल प्रदूषण को जैवीय प्रदूषण कहा जाता है।

उल्लेखनीय है कि एक वर्ष में 10 लाख व्यक्तियों पर 5 लाख टन सीवेज उत्पन्न होता है, जिसका अधिकांश भाग समुद्र एवं नदियों में मिलता है। एक अनुमान के अनुसार भारत में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले 142 नगरों में से मात्र 8 ऐसे नगर हैं जिनमें सीवेज को ठिकाने लगाने की पूर्ण व्यवस्था है। इनमें से 62 ऐसे नगर हैं जहाँ ठीक-ठाक व्यवस्था है जबकि 72 ऐसे नगर हैं जहाँ कोई उचित व्यवस्था नहीं है।

3. औद्योगिक बहिःस्रावः प्रायः प्रत्येक उद्योग में उत्पादन प्रक्रिया के पश्चात अनेक अनुपयोगी पदार्थ बचे रह जाते हैं, जिन्हें औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ कहा जाता है। इनमें से अधिकांश औद्योगिक अपशिष्टों या बहिःस्राव में मुख्य रूप से अनेक तरह के तत्त्व एवं अनेक तरह के अम्ल, क्षार, लवण, तेल, वसा आदि विषैले रासायनिक पदार्थ विद्यमान रहते है। ये सब ही जल में मिलकर जल को विषैला बनाकर प्रदूषित कर देते हैं।

लुग्दी एवं कागज उद्योग, चीनी उद्योग, वस्त्र उद्योग, चमड़ा उद्योग, शराब उद्योग, औषधि निर्माण उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग तथा रासायनिक उद्योगों से पर्याप्त मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ निःसृत होते हैं, जिनका निस्तारण जल स्रोतों में ही किया जाता है। अधिकांश औद्योेगिक अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जिनका बैक्टीरिया द्वारा अपघटन होता है। लेकिन यह प्रक्रिया अत्यन्त मंद गति से होती है जिसके फलस्वरूप बदबू पैदा होती है एवं अपशिष्ट पदार्थों को वाहित करने वाले नालों का जल प्रदूषित हो जाता है।

आर्सेनिक, सायनाइड, पारा, सीसा, लोहा, ताम्बा, अम्ल एवं क्षार आदि रासायनिक पदार्थ जल के पी.एच. स्तर को अव्यवस्थित कर देते हैं जबकि चर्बी, तेल एवं ग्रीस से मछलियाँ प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती हैं। उद्योगों में धातु की सफाई, धुलाई, रंगाई, लुग्दी केन्द्र, मोटर सर्विस स्टेशन आदि से बी.ओ.डी. एवं क्षार अधिक मात्रा में जल में मिलते रहते हैं।

कागज एवं लुुग्दी उद्योग से बी.ओ.डी., सी.ओ.डी. अमोनिया, अम्ल, बैक्टीरिया; उर्वरक उद्योग से अमोनिया, नाइट्रोजन एवं यूरिया; वस्त्र उद्योग से बी.ओ.डी., सी.ओ.डी., ठोस कण, रंग, भारी धातुु तेल, घी आदि; प्लास्टिक उद्योग से ठोस कण, बी.ओ.डी., सी.ओ.डी. आदि; रबड़ प्रशोधन से बी.ओ.डी., ठोस कण, धूल ठोस कण, तेल आदि; खाद्यान्न मिलों से बी.ओ.डी., तेल एवं ग्रीस आदि प्रदूषक निःसृत होते हैं, जो जल स्रोतों में मिलकर जल को प्रदूषित कर देते हैं।

गंगा एवं यमुना नदी के किनारे स्थित उद्योगों के अपशिष्ट द्वारा इन नदियों का जल प्रदूषित हो गया है। कानपुर, इलाहाबाद एवं वाराणसी में उद्योगों से निःसृत अपशिष्ट पदार्थ से गंगा नदी के जल का अधिकांश भाग प्रदूषित हो चुका है। कानपुर में चमड़े के कारखानों के कचरे का गंगा नदी में गिरने से कानपुर से 10 किलोमीटर दूर किशनपुर गाँव तक गंगा नदी के जल का रंग ही बदल चुका है। इलाहाबाद के पास फूलपुर में इफ्को रासायनिक खाद के कारखाने से निःसृत अपशिष्ट जल गंगा नदी में मिलता है जिससे 16 किलोमीटर की दूरी तक मछलियाँ मरी पाई गई हैं।

4. कृषि बहिःस्रावः वर्तमान समय में फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु कृषि में अनेक तरह की नई-नई पद्धतियों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। हरित क्रांति इसी की देन है। कृषि में नई-नई पद्धतियों के चलते जहाँ एक तरफ सिंचाई में वृद्धि हुई वहीं दूसरी तरफ रासायनिक उर्वरकों, अपतृण नाशकों एवं कीटनाशक दवाओं के प्रयोग में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई है। कृषि में इन नए प्रयोगों से जहाँ एक तरफ उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी तरफ इस सफलता की कीमत वातावरण को होने वाली हानि (विशेषतया जल प्रदूषण) से चुकानी पड़ी है।

दोष पूर्ण कृषि पद्धतियों से भू-क्षरण में अत्यधिक वृद्धि हुई है, जिससे नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है तथा नदी तल भी ऊँचा होने लगता है। झीलें धीरे-धीरे पट कर समतल की स्थिति में पहुँच जाती हैं। कीचड़ मिट्टी के जमाव से जल भी प्रदूषित हो जाता है।

पेयजल में फ्लोराइड

कृषि बहिःस्राव के अन्तर्गत जल प्रदूषण का दूसरा कारण बढ़ता हुआ रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग है। अधिकांश उर्वरक अकार्बनिक फाॅस्फेट एवं नाइट्रोजन हैं। इन उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से सुपोषण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सुपोषण से तात्पर्य नाइट्रेट एवं फास्फेट जैसे पोषक पदार्थों द्वारा जल के अत्यधिक समृद्धिकरण से उत्पन्न स्थिति से है। सुपोषण की स्थिति में वृद्धि से जल प्रदूषित होने लगता है। खेतों में डाला गया अतिरिक्त उर्वरक धीरे-धीरे जल के साथ बहकर नदियों, पोखरों एवं तालाबों में पहुँच जाता है। नाइट्रोजन की अधिक मात्रा वाला जल, विशेषतया झील में पहुँचने से झील में यूट्रोफिकेशन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। फलतः जल में शैवाल की तीव्रता से वृद्धि होती है और शैवाल के मृत होने से अपघटक बैक्टीरिया भारी संख्या में उत्पन्न होतेे हैं। इनके द्वारा जैविक पदार्थों के अपघटन की प्रक्रिया में जल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम हो जाती है। फलतः जलीय जीवों की कमी होने लगती है और जल प्रदूषित हो जाता है। सुपोषण के फलस्वरूप नदियाँ धीरे-धीरे पहले अनूप एवं अन्त में भाद्वल में बदल जाती हैं। सुपोषण का सबसे उत्तम उदाहरण डल झील है। विश्व प्रसिद्ध यह झील सुपोषण की प्रारम्भिक अवस्थाओं से गुजरते हुए प्रदूषण की तरफ अग्रसारित हो गई है। इस झील का दक्षिण-पूर्वी भाग जल अपशिष्ट विसर्जन एवं कृषि जल-अपवाह के मिलने से तीव्र गति से संदूषित हो रहा है।

5. ऊष्मीय या तापीय प्रदूषणः विभिन्न उत्पादक संयन्त्रों में विभिन्न रियेक्टरों के अति ऊष्मीय प्रभाव के निवारण के लिये नदी एवं तालाबों के जल का उपयोग किया जाता है। शीतलन की प्रक्रिया के फलस्वरूप उष्ण हुआ यह जल पुनः जल स्रोतों में गिराया जाता है। इस तरह के उष्ण जल से जल स्रोतों के जल के ताप में वृद्धि हो जाती है, जिससे जल प्रदूषित हो जाता है। उद्योगों के अतिरिक्त वाष्प अथवा परमाणु शक्ति चालित विद्युत उत्पादक संयन्त्रों द्वारा भी ऊष्मीय प्रदूषण होता है। ऊर्जा संयन्त्रों में द्रवणित्रों के शीतलीकरण के लिये पर्याप्त प्राकृतिक जल का उपयोग किया जाता है।

ऊष्मीय प्रदूषण का विशेष प्रभाव जल जीवों पर पड़ता है। बड़े जीव अधिक तापमान सहन नहीं कर पाते हैं। जल के तापमान में वृद्धि हो जाने से ऑक्सीजन की घुलनशीलता में भी कमी आ जाती है तथा लवणों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।

6. तैलीय प्रदूषणः औद्योगिक संयन्त्रों से नदी एवं अन्य जल स्रोतों में तेल एवं तैलीय पदार्थों के मिलने के कारण तैलीय प्रदूषण होता है। तैलीय प्रदूषण के कारण अमरीका की “क्वाहोगा नदी” एवं भारत में बिहार राज्य में मुंगेर के पास तेल शोधन कारखाने के तैलीय अपशिष्ट के गंगा में मिलने से आग लग चुकी है।

समुद्रों में तो तेल प्रदूषण की सम्भावना अधिक रहती है जिसके कारण तेल वाहक जहाजों से तेल समुद्र में रिसता रहता है तथा जहाजों के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से भयंकर आग लग जाती है। एक आँकलन के अनुसार विभिन्न कारणों से प्रतिवर्ष पेट्रोलियम के लगभग 50 लाख से 1 करोड़ टन उत्पाद समुद्र में मिलते हैं।

7. रेडियोएक्टिव अपशिष्ट एवं अवपातः वर्तमान समय में परमाणविक विस्फोटों से असंख्य रेडियोएक्टिव कण वायुमण्डल में दूर-दूर तक फैल जाते हैं एवं बाद में अवगत के रूप में धीरे-धीरे धरातल पर गिरते हैं जो विभिन्न कारणों से जल स्रोतों में जा मिलते हैं और भोजन श्रृंखला के द्वारा मानव शरीर में पहुँच जाते हैं। जल स्रोतों में मिलकर रेडियोएक्टिव पदार्थ जल को विषैला बना देते हैं। चूँकि रेडियोएक्टिव कणों का विघटन बहुत धीमी गति से होता है इसलिए जल में इनका प्रभाव बहुत दिनों तक कायम रहता है।

जल प्रदूषण ज्ञात करने के लिये मानदण्ड


किसी भी जल की पहचान के लिये कुछ ऐसे मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं जिनकी कमी या अधिकता होने पर जल को प्रदूषित माना जा सकता है। इन मानदण्डों को तीन उपवर्गों में विभक्त किया जा सकता है:

1. भौतिक मानदण्ड: इसके अन्तर्गत तापमान, रंग, प्रकाशवेधता, संवहन (तैरते एवं घुले) एवं कुल ठोस पदार्थ आते हैं।

2. रासायनिक मानदण्ड: इसके अन्तर्गत घुला आॅक्सीजन सी.ओ.डी. (केमिकल ऑक्सीजन डिमांड), पी.एच.मान, क्षारीयता/अम्लीयता, भारी धातुएँ, मर्करी, सीसा, क्रोमियम एवं रेडियोधर्मी पदार्थ आते हैं।

3. जैविक मानदण्ड: इसके अन्तर्गत बैक्टीरिया, कोलीफार्म, शैवाल एवं वायरस आते हैं। उपर्युक्त प्रदूषकों की जल में एक निश्चित सीमा होती है। इस सीमा से अधिक मात्रा बढ़ने पर जल प्रदूषित होने लगता है।

भारत में उद्योगों के निःसृत गंदे जल एवं अवशिष्ट पदार्थों को नदियों एवं अन्य जलस्रोतों में गिराए जाने से जल प्रदूषण में विशेष रूप से वृद्धि हुई है। उद्योग के चलते गंगा, यमुना, गोमती, चम्बल, पेरीयार, दामोदर, हुगली, आदि नदियों का जल पूर्णतया प्रदूषित हो चुका है, जिसको पीना तो दूर स्नान के लिये भी प्रयोग करना मुश्किल हो गया है।

जल प्रदूषण से उत्पन्न समस्याएँ


जल प्रदूषण का प्रभाव जलीय जीवन एवं मनुष्य दोनों पर पड़ता है। जलीय जीवन पर जल प्रदूषण का प्रभाव पादपों एवं जन्तुओं पर परिलक्षित होता है। औद्योगिक अपशिष्ट एवं बहिःस्राव में विद्यमान अनेक विषैले पदार्थ जलीय जीवन को नष्ट कर देते हैं। जल प्रदूषण जलीय जीवन की विविधता को घटा देता है। इस तरह स्पष्ट है कि जल प्रदूषण से अनेक पादपों एवं जन्तुओं का विनाश हो जाता है।

जल प्रदूषण का भयंकर परिणाम राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिये एक गम्भीर खतरा है। एक अनुमान के अनुसार भारत में होने वाली दो तिहाई बीमारियाँ प्रदूषित पानी से ही होती हैं। जल प्रदूषण का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर जल द्वारा जल के सम्पर्क से एवं जल में उपस्थित रासायनिक पदार्थों द्वारा पड़ता है। पेयजल के साथ-साथ रोगवाहक बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ मानव शरीर में पहुँच जाते हैं और हैजा, टाइफाइड, शिशु प्रवाहिका, पेचिश, पीलिया, अतिशय, यकृत एप्सिस, एक्जीमा जियार्डियता, नारू, लेप्टोस्पाइरोसिस जैसे भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं जबकि जल में उपस्थित रासायनिक पदार्थों द्वारा कोष्टबद्धता, उदरशूल, वृक्कशोथ, मणिबन्धपात एवं पादपात जैसे भयंकर रोग मानव में उत्पन्न हो जाते हैं। जल के साथ रेडियोधर्मी पदार्थ भी मानव शरीर में प्रविष्ट कर यकृत, गुर्दे एवं मानव मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।

जल प्रदूषण का गम्भीर परिणाम समुद्री जीवों पर भी पड़ता है। उद्योगों के प्रदूषणकारी तत्वों के कारण भारी मात्रा में मछलियों का मर जाना देश के अनेक भागों में एक आम बात हो गई है। मछलियों के मरने का अर्थ है प्रोटीन के एक उम्दा स्रोत का नुकसान एवं उससे भी अधिक भारत के लाखों मछुआरों की अजीविका का छिन जाना।

जल प्रदूषण का दुष्प्रभाव कृषि भूमि पर भी पड़ रहा है। प्रदूषित जल जिस कृषि योग्य भूमि से होकर गुजरता है, उस भूमि की उर्वरता को नष्ट कर देता है। जोधपुर, पाली एवं राजस्थान के बड़े नगरों के रंगाई- छपाई उद्योग से निःसृत दूषित जल नदियों में मिलकर किनारों पर स्थित गाँवों की उपजाऊ भूमि को नष्ट कर रहा है।

यही नहीं प्रदूषित जल द्वारा जब सिंचाई की जाती है तो उसका दुष्प्रभाव कृषि उत्पादन पर भी पड़ता है। इसका कारण यह है कि जब गंदी नालियों का एवं नहरों के गंदे जल (दूषित जल) से सिंचाई की जाती है तो अन्न उत्पादन के चक्र में धातुओं का अंश प्रवेश कर जाता है, जिससे कृषि उत्पादन में 17 से 30 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है।

इस तरह जल प्रदूषण से उत्पन्न उपर्युक्त समस्याओं के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रदूषित जल से उस जल स्रोत का सम्पूर्ण जल तंत्र ही अव्यवस्थित हो जाता है।

जल प्रदूषण से बचाव


वर्षाजल संरक्षण

जल प्रदूषण की रोकथाम हेतु सबसे आवश्यक बात यह है कि हमें जल प्रदूषण को बढ़ावा देने वाली प्रक्रियाओं पर ही रोक लगा देनी चाहिए। इसके तहत किसी भी प्रकार के अपशिष्ट या अपशिष्ट युक्त बहिःस्राव को जलस्रोतों में मिलने नहीं दिया जाना चाहिए। घरों से निकलने वाले खनिज जल एवं वाहित मल को एकत्रित कर संशोधन संयन्त्रों में पूर्ण उपचार के बाद ही जलस्रोतों में विसर्जित किया जाना चाहिए। पेयजल के स्रोतों (जैसे - तालाब, नदी इत्यादि) के चारों तरफ दीवार बनाकर विभिन्न प्रकार की गंदगी के प्रवेश को रोका जाना चाहिए। जलाशयों के आस-पास गंदगी करने, उनमें नहाने, कपड़े धोने आदि पर भी रोकथाम लगानी चाहिए।

नदी एवं तालाब में पशुओं को स्नान कराने पर भी पाबंदी होनी चाहिए। उद्योगों को सैद्धान्तिक रूप से जल स्रोतों के निकट स्थापित नहीं होने देना चाहिए। इसके अतिरिक्त पहले से ही जलस्रोत के निकट स्थापित उद्योगों को अपने अपशिष्ट जल का उपचार किए बिना जलस्रोतों में विसर्जित करने से रोका जाना चाहिए।

कृषि कार्यों में आवश्यकता से अधिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग को भी कम किया जाना चाहिए। जहाँ रोक लगाना सम्भव न हो, वहाँ इनका प्रयोग नियंत्रित ढंग से किया जाना चाहिए।

समय-समय पर प्रदूषित जलाशयों में उपस्थित अनावश्यक जलीय पौधों एवं तल में एकत्रित कीचड़ को निकालकर जल को स्वच्छ बनाए रखने के लिये प्रयास किये जाने चाहिए।

कुछ जाति विशेष की मछलियों में ऐसा गुण होता है कि वे मच्छरों के अण्डे, लार्वा तथा जलीय खरपतवार का भक्षण करती हैं। फलतः जल में ऐसी मछलियों के पालने से जल की स्वच्छता कायम रखने में सहायता मिलती है।

जन-साधारण के बीच जल प्रदूषण के कारणों, दुष्प्रभावों एवं रोकथाम की विधियों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए, ताकि जल का उपयोग करने वाले लोग जल को कम से कम प्रदूषित करें या प्रदूषित न करें तथा संरक्षण करें।

गणेश कुमार पाठक एवं अर्चना उपाध्याय
ए.एन.एम.पी.जी. कॉलेज दूबे, छपरा, बलिया, (उ.प्र.)

 

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