जल प्रदूषण रूपी इस महाकाल का जनक स्वयं मानव है जो अपनी विभिन्न क्रिया कलापों से जल प्रदूषण की समस्या गम्भीर बना रहा है। जल स्रोतों में विसर्जित मल-मूत्र, मृतक शरीर व कूड़ा-करकट एक तरफ धरातलीय जल स्रोतों को दूषित कर रहा है वहीं भूमिगत किया गया मल-मूत्र भूजल को भी विषाक्त कर रहा है जिसको स्वच्छ करना एक दुरुह कार्य है। मानव व जानवरों के मल-मूत्र में यूरिया व यूरिक एसिड पाया जाता है जो जलस्रोतों की प्रदूषणता बढ़ा देते हैं।
जैविक व भौतिक पर्यावरण के सभी अंशों के उचित व सन्तुलित मात्रा में विद्यमान होने पर ही प्रकृति अपना कार्य सही व सुचारु ढंग से निष्पादित करती है। किन्तु आज बढ़ती जनसंख्या, आधुनिकीकरण व शहरीकरण ने पर्यावरण के इस प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ दिया है। यही नहीं, आर्थिक विकास की अन्धी दौड़ में प्रत्येक देश भौतिक एवं तकनीकी प्रगति के सोपानों को शीघ्र प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक साधनों के क्रूरतापूर्वक दोहन व प्राकृतिक सन्तुलन के बिगड़ने से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है।वर्तमान में, बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण ने मानव जीवन के भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। प्रसिद्ध प्रकृतिविद् श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने पर्यावरण प्रदूषण के घातक प्रभावों की विवेचना करते हुए बताया था कि पर्यावरण प्रदूषण एक गम्भीर पहेली है। इसके साथ हमारे जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है।
वैज्ञानिकों ने समय रहते इसके परिहार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाये तो आने वाले कुछ ही समय में मनु-पुत्र काल के गाल में समा जाएगा।
पर्यावरण के मुख्य आधार वायु, जल, भूमि व वनस्पति के प्रदूषित होने से मानव-जीवन पर घातक प्रभाव पड़ रहा है। जल मानव जीवन के लिए वायु के पश्चात् सर्वाधिक आवश्यक तत्व है। जल प्रकृति की अनमोल एवं अद्भुत देन है। जीवधारियों के शरीर में 70-80 प्रतिशत तक जल ही पाया जाता है, अतः जल को “अमृत” या “जीवन” भी कहा गया है।
प्रसिद्ध विद्वान गोथे ने जल के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उचित ही लिखा है कि प्रत्येक वस्तु जल से उद्भावित होती है व जल के द्वारा ही प्रतिपालित होती है। पृथ्वी के तीन चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद भी इसका केवल 0.01 प्रतिशत भाग ही पीने के लिए उपलब्ध है। लेकिन चिन्ता का विषय है कि इस सीमित जल को भी मानव अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रकार से प्रदूषित कर रहा है।
ऐसा अनुमान लगाया गया है कि विश्व के लगभग 80 प्रतिशत जल स्रोतों का पानी पीने लायक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आँकड़ों ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि विश्व की 6 अरब की आबादी में हर छठवाँ व्यक्ति सुरक्षित पेयजल के बिना जीवनयापन कर रहा है।
चिन्ता का विषय है कि पानी से फैलने वाले रोगों के कारण विश्व में हर आठवें सेकेण्ड में एक बच्चा मौत का शिकार हो जाता है। विश्व जल विकास रिपोर्ट में भी जल प्रदूषण की भयावहता की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि इक्कीसवीं शताब्दी ऐसी शताब्दी है जिसमें सबसे प्रमुख समस्या जल किस्म और प्रबन्धन की हैं।
जल प्रदूषण को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री सी. एस. आउथविक ने लिखा है कि “मानवीय क्रियाकलापों तथा प्रक्रियाओं द्वारा जल के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों में अवांछनीय परिवर्तन ही जल प्रदूषण है।” जल प्रदूषण में मानव ने सर्वाधिक दुरुपयोग नदियों व समुद्रों का किया है। मानव ने “सोल्यूशन टू पल्यूशलन इज डाइल्यूशन” उक्ति के आधार पर नदियों व समुद्रों को कचरा-घर बना दिया है। उद्योगों के द्वारा अवशिष्ट जल, कचरा व पदार्थ बिना परिष्कृत किए ही नदियों व समुद्रों में छोड़ दिए जाने से इनका जल प्रदूषित हो रहा है। चिन्ता का विषय है किऔद्योगिक संयन्त्रों से निस्तृत होकर कई विषैली धातुएँ जैसे पारा, आर्सेनिक ताम्बा, कैडमियम इन जल स्रोतों में मिलकर इनको विषाक्त कर रही हैं। यही नहीं, विसर्जित अवशिष्टों में विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक तत्वों के मिश्रित होने से जलीय जीवों व वनस्पतियों पर भी खतरे के बादल मँडरा रहे हैं।
कई जलीय जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि प्रति दिन 20 लाख टन कचरा नदियों, झीलों तथा जलधाराओं में दबा दिया जाता है।
एक लीटर कचरा प्रदूषित जल लगभग आठ लीटर ताजे जल को प्रदूषित कर देता है। एक गणना के अनुसार संसार में लगभग 12000 घन किलोमीटर प्रदूषित जल है जो कि संसार में दस सबसे बड़ी नदी बेसिनों में उपस्थित जल से भी अधिक है।
जल प्रदूषण रूपी इस महाकाल का जनक स्वयं मानव है जो अपनी विभिन्न क्रिया कलापों से जल प्रदूषण की समस्या गम्भीर बना रहा है। जल स्रोतों में विसर्जित मल-मूत्र, मृतक शरीर व कूड़ा-करकट एक तरफ धरातलीय जल स्रोतों को दूषित कर रहा है वहीं भूमिगत किया गया मल-मूत्र भूजल को भी विषाक्त कर रहा है जिसको स्वच्छ करना एक दुरुह कार्य है। मानव व जानवरों के मल-मूत्र में यूरिया व यूरिक एसिड पाया जाता है जो जलस्रोतों की प्रदूषणता बढ़ा देते हैं।
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के साथ ही यह समस्या उतरोत्तर बढ़ती जा रही है। सांस्कृतिक एवं धार्मिक सम्मेलनों, मेलों व उत्सवों के दौरान भी जल स्रोत प्रदूषण के शिकार बनते हैं। चिन्ता का विषय है कि गंगा जैसी पवित्र नदी भी उसके किनारे बसे 114 शहरों के अनुपचारित मल के कारण दूषित हो गई है। इसी भाँति, कोलकाता शहर के अपविष्ट तत्वों के विसर्जन से हुगली नदी विषाक्त हो गई है तथा इस नदी में मछलियों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही हैं।
मानव अपनी दैनिक क्रियाओं जैसे स्नान, सफाई, भोजन आदि को सम्पादित करने हेतु विभिन्न प्रकार से जल का उपयोग करता है। इन क्रियाओं के उपरान्त अवशिष्ट दूषित व अपमार्जक युक्त जल नालियों से होकर समीपस्थ जल स्रोतों में मिलकर उनको भी प्रदूषित कर देता है। अपमार्जक युक्त जल का पुनः शोधन कठिन प्रक्रिया है तथा इनसे उत्पन्न फास्फोरस जल में हानिकारक वनस्पति शैवाल की वृद्धि होती है।
यह शैवाल नदियों व झीलों के पानी को गन्दा व पीने के अयोग्य बना देता है। ऐसा अनुमान है मानव प्रतिदिन औसत रूप से 130 लीटर का उपयोग करता है जिसमें से 70-80 प्रतिशत भाग विभिन्न उपयोगों के पश्चात् नालों में निष्कासित कर दिया जाता है जिससे जल प्रदूषण बढ़ जाता है। इसी प्रकार घरेलू अपशिष्टों के रूप में प्लास्टिक की थैलियों के पानी में बह जाने से हानिकारक बैक्टीरियों की उत्पत्ति होती है जो जल को दूषित कर देते हैं।
भारत में इन प्लास्टिक थैलियों के निस्तारण की उपयुक्त व्यवस्था का अभाव है जिसका प्रावधान करना अत्यावश्यक है। आधुनिक युग में कृषि-उत्पादन में शीघ्र व तीव्र गति से वृद्धि करने के लिए उर्वरकों, कीटनाशकों व जीवनाशक रसायनों का उपयोग अनियन्त्रित रूप से किया जा रहा है। पौधों से बचे हुए ये उर्वरक व कीटनाशक रिसाव प्रक्रिया से जल स्रोतों में पहुँचकर उनको भी विषाक्त कर देते हैं। इसके अतिरिक्त, आज समुद्रों में तैलीय प्रदूषण की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
समुद्री जल में तेल का मिश्रण तेलवाहक जलयानों के दुर्घटनाग्रस्त होने से, तेल भरते व खाली करते समय या समुद्र तट पर स्थित कुँओं से रिसाव के कारण होता है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख से 1 करोड़ टन तैलीय उत्पाद समुद्र में मिलकर समुद्रीय जल को दूषित कर देते हैं।
ज्ञातव्य है कि मथुरा तेल शोधन कारखाने के कारण यमुना नदी में जल प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है।
वर्तमान परमाणु युग में परमाणु शक्ति का विकास अस्त्रों तथा ऊर्जा के लिए तीव्र गति से किया जा रहा है। चिन्ता का विषय है कि परमाणु शक्ति के विकास के साथ ही रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण की समस्या बढ़ती जा रही है। इन अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण की समुचित व्यवस्था विद्यमान नहीं होने से अधिकांश अपशिष्टों को जलीय स्रोतों में प्रवाहित करने से जल प्रदूषण की समस्या ने भयावह रूप धारण कर लिया है।
कभी-कभी परमाणु तत्वों से भरे जहाजों के समुद्र में दुर्घटनाग्रस्त होने या डूब जाने पर भी जल-प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। यही नहीं, विभिन्न देश परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने की होड़ में महासागरों में परीक्षण करके उनको विषाक्त करते हुए मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं। विश्व में अशान्ति या युद्धों के दौरान भी तैलीय व परमाणु प्रदूषण बढ़ता है।
ज्ञातव्य है कि 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान ईराक द्वारा कुवैत के तेल कुओं में आग लगा देने पर व फारस की खाड़ी में तेल प्रवाहित करने से प्रदूषण की विकरालता इतनी अधिक बढ़ गई कि फारस की खाड़ी के पर्यावरण को सन्तुलित अवस्था में पहुँचने के लिए वर्षों तक इन्तजार करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त, फारस की खाड़ी में जैव विविधता में काफी ह्रास होने के साथ ही खाड़ी स्थित जलशोधक संयन्त्र भी खराब हो गए।
यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि विश्व में प्रतिवर्ष पाँच हजार टन पारा प्रकृति में निस्तारित किया जाता है जिससे भूमिगत जल, नदियाँ, तालाब व बावड़ियाँ विषाक्त हो रही हैं।
पारे के जल-प्रदूषण से मानव में आत्मघाती प्रवृतियाँ बढ़ती हैं, व्यक्ति लकवे का शिकार हो जाता है, किडनी कार्य करना बन्द कर देती है व बोलने की क्षमता भी प्रभावित होती है। जल के प्रदूषित होने से मानव, जीव जन्तु व वनस्पति सभी को इसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। जल से सम्बन्धित स्वास्थ्य समस्याएँ समाज के लिए अभिशाप बन गई हैं। प्रदूषित जल के सेवन से मानव गम्भीर रोगों का शिकार बनता जा रहा है।
विश्व में हैजा, टाइफाइड, पेचिस, पोलियो, उदर रोग व कब्ज से ग्रसित व्यक्तियों की संख्या में बढ़ोतरी का प्रमुख कारण जल-प्रदूषण ही है। ज्ञातव्य है कि विकासशील देशों की 50 प्रतिशत जनसंख्या प्रदूषित जल सेवन कर रही है।
विश्व में प्रदूषित जल-उपभोग के कारण होने वाली मृत्यु के आँकड़े चाैंकाने वाले हैं। प्रतिवर्ष करीब 50 लाख व्यक्ति प्रदूषित जल सेवन के कारण अकाल मृत्यु का ग्रास बनते हैं। इसी प्रकार विश्व में प्रतिवर्ष मौत के शिकार बच्चों में से 60 प्रतिशत के मृत्यु का कारण प्रदूषित जल जनित रोग हैं।
विकासशील देशों के सन्दर्भ में यह पाया गया है कि इन देशों में प्रति पाँच बच्चों में से चार बच्चे जल-जनित बीमारियों से मरते हैं व प्रतिवर्ष 50 करोड़ मानव जल-जनित बीमारियों से ग्रसित होते हैं।
प्रदूषित जल का सेवन करने से जीव-जन्तुओं, मछलियों व जलीय पक्षियों के जीवन पर संकट के बादल छा रहे हैं। समुद्री जीव तापीय, तैलीय, पारा व अन्य रेडियोधर्मी प्रदूषकों के शिकार हो रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि गत् 50 वर्षों में जल प्रदूषण के कारण समुद्री जीवों में 40 प्रतिशत की कमी आई है।
भारत में लखनऊ शहर के मल-विसर्जन से प्रदूषित गोमती नदी में मछलियाँ काल की ग्रास बन रही हैं। जर्मनी में राईन नदी में स्नान करने मात्र से व्यक्ति मौत का शिकार हो जाता है। इसी भाँति, फ्रांस की “सीन” नदी भी मृत मछलियों व वाहित झाग का भण्डार बन गई है। स्वीडन की झीलें भी प्रदूषण की मार के कारण मछलियाँ रहित हो गई हैं। यही नहीं मल-मूत्र व कूडे़-कचरे के निस्तारण के कारण कश्मीर की सुन्दर “डल” झील भी प्रदूषित होती जा रही है।
जलीय प्रदूषण से वनस्पति जगत भी अछूता नहीं है। जल-प्रदूषण के कारण अनेक हानिकारक शैवालों की उत्पति से जलीय पौधों का विकास अवरुद्ध हो गया है। जल प्रदूषण के कारण जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जिससे कई वनस्पतियाँ समाप्ति के कगार पर है। प्रदूषित जल से सिंचाई होने के कारण कृषि क्षेत्र में उत्पादकता निरन्तर कम हो रही है।
यही नहीं, प्रदूषित जल से उत्पन्न फसलों का मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिल रहा है। जल प्रदूषण की भयावह समस्या मानव, जन्तु व वनस्पति जाति पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार कर रही हैं। यदि विश्व में जल प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पीने का पानी व खेतों में दिया जाने वाला जल विषाक्त व प्रदूषित होगा।
परिणामतः उत्पादन में कमी के साथ-साथ भुखमरी, जल-जनित बीमारियाँ व महामारियाँ तेजी से पाँव फैलाएगी। अतः जल-प्रदूषण पर नियन्त्रण वर्तमान समय की माँग है। इस समस्या के समाधान हेतु सरकार, समाज व गैर-सरकारी संगठनों को संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे। सरकार को उद्योगों से निकलने वाले अपविष्टों व कचरे को जल-स्रोतों में विसर्जित करने पर रोक लगाने के लिए कठोर कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए।
इन अपशिष्टों का उपयोग ऊर्जा उत्पादन या अन्य किसी उपयोगी कार्य में करने हेतु नवीन प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित करना होगा। इसी भाँति, कृषकों को कृषि में रसायनों व कीटनाशकों का उपयोग सन्तुलित मात्रा में करने के लिए प्रेरित किया जाना आवश्यक है। जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए जन सामान्य की सहभागिता व योगदान को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
जन-सामान्य को जल प्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों व खतरों से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक नागरिक इस समस्या के समाधान में अपना सक्रिय योगदान दे सके। मृत पशु व शरीर, घरेलू अपशिष्टों व मल को जल में प्रवाहित करने से रोकने के लिए जन-चेतना जागृत करने के साथ ही कानूनी प्रावधान किए जाने आवश्यक है। इसी भाँति प्रदूषित जल के उपचार हेतु सस्ती व सुलभ तकनीक व विधियों के विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि जन सामान्य इस तकनीक का उपयोग कर सके। पेयजल-स्रोतों में समय-समय पर क्लोरीन, पोटेशियम परमेग्नेट आदि जीवाणुरोधी दवाइयों के छिड़काव हेतु समुचित व्यवस्था की जाय ताकि जल-प्रदूषण के बढ़ने पर रोक लगाई जा सके।
समुद्रों में तैलीय प्रदूषण के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए खनिज तेल वाहक जहाजों की सुरक्षा के लिए व्यापक व प्रभावी व्यवस्था की जानी अपेक्षित है।
(लेखिका जी.एस.एस.पीजी कालेज, चिड़ावा में अर्थशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष हैं।)
ई-मेल : anita s_modi@ yahoo.com
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Post By: Shivendra