जल न्यास और प्यास

पानी हर जीव की प्यास बुझाता है। पानी स्वयं दानी हैं। दानी-पानी का दान तो महादान होता है। पानी प्रकृति को सरसाता है। प्रकृति के नैसर्गिक विलायक के अधिष्ठाता विनायक हैं इसीलिए सर्वे मंगलकारी एवं विघ्नहारी होता है जलदान। जल ही तो है हमारा जीवन प्राण। ऐसा नहीं कि केवल सजीव ही जल के प्यासे होते हैं। जल तत्व अन्य प्राकृतिक उपादानों में भी निहित रहता है। प्रकृति की माया अपरम्पार है। जल को अग्नि जलाती है किन्तु जल में भी अग्नि (जलाग्नि) पाई जाती है। वैशेषिक दर्शन (2/1/2) में कहा गया हैं कि जल में रूप रस एवं स्पर्श गुणों के अलावा द्रवमयी स्निग्धता विद्यमान होती है-

‘‘रूप रस स्पर्शवतयापो द्रवा: स्निग्धा:।’’

जलन्यास (धरोहर) के हम धनी हैं हमारे पास सरस नाड़ी सदृश्य सदानीरा नदियाँ है जो जल स्तम्भ हिमालय से नि:सृत होती है। पठारों से उदगमित नदियाँ भी जल वाहिनी हैं। झील, ताल, तलैया, पोखर, झरनें, सरिताएँ, जलप्रपात और नौले भी हमारी प्रकृति के उपहार हैं। यह सभी जल देव वरूण का हमारे लिए उपकार हैं यह जल स्त्रोत हमारी प्यास बुझाते हैं। हमारी जल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मातृवत्सला धरती अपने गर्भ में जल को संचित रखती है। इतनी समृद्ध जल धरोहर के बाद भी अतृप्ति भाव क्यों रहता है?प्यास की अनुभूति हर किसी को होती है भाव प्रकाश में कहा गया है कि प्यास की तीव्रता बड़ी भयंकर होती है क्योंकि इसके अभाव में प्राणों का हरण ही हो जाता है; इसलिए जो प्यास से व्याकुल हो, उसे प्राण धारण करने के लिए जल अवश्य ही देना चाहिए।

‘‘तृष्णा गरीयसी घोरा सघ: प्राण विनाशिनी
तस्माद् देयं तृषऽऽत्र्तय पानीयं प्राण धारणम्।।’’


प्यास की तीव्रता प्यासे की जल न्यास तक लाती है। जल से भरी गागर या मटके से एक लोटा जल गटागट पीकर ही प्यासा तृप्ति पाता है। प्यास की व्याकुलता ही प्यासे को नदिया के तीर या झरने के पास लाती है। जब कोई प्यास से व्याकुल होता है तो पानी भी उसकी तृप्ति हेतु व्यग्र हो उठता है। यकीनन पानी किसी मटके सुराही लोटे या गिलास में खुशी मनाता है। प्लास्टिक की बोतल में तो पानी का दम घुटता है। प्यासे को जो तृप्ति अज्जली से जल पीने में मिलती है वह महंगी विसलरी से नहीं मिलती।

प्यासे को पानी पिलाने से पुण्य मिलता है। इसलिए लोक जीवन में जलदान का महत्त्व है। घर पर पधारे अतिथि- आगंतुक को सर्व प्रथम आग्रह पूर्वक जल ही पीने हेतु दिया जाता है। जल पिलाने का संस्कार आज भी लोक परम्परा एवं धर्म में जीवंत है। स्कन्दपुराण के अनुसार त्रिलोक में जल को जीवन, पवित्र एवं अमृत माना गया है। इसीलिए पुण्य की कामना करने वालों को प्याऊ खुलवाने को प्रेरित किया गया है-

‘‘त्रयाणामपि लोकानामुद्रक जीवन स्मृतम्।
पवित्रममृतं यस्मात्तद्दयं पुण्य मिच्छता’’


मनीषियों के अनुसार किसी प्यासे को जल से तृप्त करने की प्रक्रिया को प्रपा दान कहा जाता है प्रपा का अर्थ प्याऊ से है। अर्थात वह स्थान जहाँ प्यासे को पानी पिलाया जाता है। मेरा मानना है कि प्रपा दान से प्रभु की कृपा अवश्य ही मिलती है इसीलिए जलदान से महाकल्याण होता है। भविष्य पुराण के अनुसार वसंत ऋतु एवं ग्रीष्म ऋतु अर्थात चैत्र वैशाख ज्येष्ठ एवं आषाढ़ इन चार माह में जो व्यक्ति जलदान करता है उसे स्वर्ण दान का फल प्राप्त होता है और उसका कल्याण होता है-

‘‘वसन्त ग्रीष्मयोर्मध्ये य: पानीयं प्रयच्छति।
पले-पले सुवर्णस्य फल माप्नोंति मानव:।’’


जलदान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाले अनेक आख्यान एवं वृत्तांत पढ़े अथवा सुने हैं। एक बार पैगम्बर मौगम्बर साहब ने कहा कि जब ईश्वर ने धरती बनाई तो यह हिलती-काँपती थी, उसे रोकने के लिए मजबूत (शक्तिशाली) पहाड़ बनाए। किसी ने प्रश्न किया कि पहाड़-पवर्तों से मजबूत क्या हैं, लोहा पर्वत से अधिक शक्तिशाली है वह पर्वत को काट देता है, अग्नि लोहे से अधिक शक्तिशाली है वह उसे गला देती है, अग्नि से अधिक शक्तिशाली जल है जो उसे बुझा देता है किन्तु हवा जल से अधिक ताकतवर है और हवा से भी अधिक शक्ति दान में हैं। यदि दाएं हाथ से दिये गये दान का बाँए हाथ को भी ज्ञात न हो तो ऐसा सच्चा दानी मानो हवा पर भी अधिकार पा जाता है। दानित वस्तु एवं पदार्थ में जल का स्थान सर्वोच्च होता है हम सभी जानते हैं कि जल केवल जीवित को ही नहीं मृतात्मा को भी तृप्त करता है। मेरा मानना है कि पानी पीने वाले को तो तृप्ति मिलती ही है पानी पिलाने वाला भी कम तृप्त नहीं होता है किन्तु अब क्यों प्यास से दूर हो रही है प्रपा? क्यों दम तोड़ रही हैं हमारी सनातन मान्यताएँ क्यों स्वार्थ वृत्तिक होता जा रही हैं समाज तमाम प्रश्न: प्रतिप्रश्न हमारे सामने आते हैं।

विडम्बना है कि मनीषा सम्पन्न भारत देश में अब प्यासा -प्यास और जलदाता का नाता टूट रहा है और बोतल बंद पानी खरीदकर पीना पड़ रहा है। पहले ऐसा नहीं था। सम्पन्न लोग प्यासे को पानी पिलाने की व्यापक व्यवस्था ग्रीष्म आगमन के पूर्व ही कर लिया करते थे। स्थान-स्थान पर पौसरे (प्याऊ) खुलवाना, गाँव देहात में कुओं के समीप बड़ा हौज बनवाने को प्रमुखता दी जाती थी। प्रतिदिन अल्ल-सुबह ही हौज को पानी से भर दिया जाता था। जहाँ दिनभर उस हौज के आस पास विचरते पशु-पक्षी अपनी प्यास बुझाते थे।

मैंने बचपन में अपनी दादी को आँगन के मध्य स्थित तुलसी चौरो के पास मिट्टी के चौड़े पात्रों में पानी के पौसारे रखते देखा है। वह कहती थी कि जब चिड़ियाँ चोंच भर भरकर जल पियेंगी तो उनकी तृप्ति से घर में सुख-समृद्धि आयेगी। हमारे यहाँ तो जलदान की परम्परा है तीज त्योंहारों पर जलदान की शुभता बतलाई गई है। अक्षय तृतीय, बड़मावस आदि पर्वोत्सवों पर जलप्लावित मृत्तिका पात्रों (सुराही, मटका) आदि के साथ फल, शर्करा (मिष्ठान) एवं बिजना (हाथ के पंखे) का दान किया जाता है।

आज भी रेलवे स्टेशन, बस अड्डों, व्यस्तता बाजारों तथा अन्य भीड़ भरे स्थानों पर सामाजिक संस्थाएं जलदान का सेवा कार्य करती हैं। हमारे शास्त्रों में स्थान-स्थान पर जल देवता का स्तवन किया गया है। गरूण पुराण के अनुसार यदि हमें किसी प्यासे को खरीदकर भी जल पिलाना पड़े तो अवश्य ही पिलाना चाहिए और पुण्य अर्जित करना चाहिए। प्यास का अनुभव पशु-पक्षी ही नहीं पेड़-पौधें भी करते हैं ग्रीष्म की तपन में जल की अतिरिक्त आवश्यक इन्हें भी होती है अत: हमें पेड़-पौधों की सिंचाई की ओर भी समुचित ध्यान अवश्य ही देना चाहिए तथा जलदान की श्रेयस परम्परा को जीवंत रखना चाहिए। खेद का विषय है कि हम श्रेयस परम्परा को नहीं निभा पा रहे हैं। इसीलिए सभी ओर प्यास ही प्यास पसरी है। अंत में कवर्धा (छत्तीसगढ़) के कवि नीरज मन जीत की कविता के साथ चर्चा को विराम-

‘‘जलपात्र से गिरे
एक एक कर
पानी के सभी टुकड़े
पर्वत से फिसली धाराएं
उतर गई ताल में।
पर्वत के शिखर पर
रीता जलपात्र लिए खड़ा मानव
रीते आकाश की ओर हाथ उठाकर
आर्त्त स्वर में बार-बार चीखता है-
पानी चाहिए।
लेकिन उत्तप्त पर्वत शृंखलाओं
पर कोई बादल नहीं घुमड़ता,
पानी की प्रतिध्वनि गूँजती है केवल
और आखिर निस्तब्ध हो जाता है।
घाटी का चीड़वन।
ताल से निकली नदी
मौन बहने लगती है
वन में।

मानव प्यासा है
और शिथिल
शिलाखण्डों पर बिछलती
नदी भी प्यासी है कि कदाचित कोई
उसके उद्गम की धारा
अंजुली भर-भर पीता।
पहाड़ पर लौट चढ़ना
नहीं है नदी का स्वभाव।

असक्त प्यासा मानव
श्लथ पाँव
शिखर से उतर
लौट पड़ा है।
चीड़वन की ओर।’’

- स्वप्निल सदन, रानी बाग, सुभाष रोड, चन्दौसी मुरादाबाद (उ.प्र.) 202412

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