वैश्वीकरण के बाद से खेती कम लाभ का काम हो गया और लोगों का पेट पालने के लिए शहरों की ओर पलायन बढ़ गया। गांव कस्बे में, कस्बे शहर में और शहर महानगर की ओर बढ़े तो आवास, बाजार, और बढ़ती भीड़ की मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क, स्कूल, अस्पताल आदि बनाने के लिए जैसे ही जमीन का टोटा पड़ा तो लोगों ने सदियों पुराने तालाबों पर अपनी गिद्ध-दृष्टि टिका दी।
पूरे देश के लाखों-लाख तालाबों पर मंडराते संकट का अध्ययन किया जाये तो सभी जगह एक ही तरह के कारक सामने आएंगे- नाजायज कब्जे, तालाब का बांध तोड़ देना, उसमें दैनिक गंदगी व औद्योगिक रसायन को सीधे मिलाना, जलग्रहण क्षेत्र में वन की कटाई, लम्बे समय से सफाई न होने के चलते गाद का जमा होना। चाहे नैनीताल की झील को लें या फिर उदयपुर की या रायपुर की, जहां भी तालाब बिखरे, समाज को पानी का संकट तो झेलना ही पड़ा, साथ ही साथ स्वास्थ्य की समस्याओं, पारम्परिक रूप से पेट पालने के लिए तालाबों पर निर्भर रहने वाले समाज को बेरोजगारी के साथ कई समस्याओं से दो-चार होना पड़ा है। मुम्बई की पोशाई झील, कोडाईकनाल व उटकमंडूक की ऊंचाईवाली झीलों से लेकर बलिया के सुरला ताल तक कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जहां झीलों के नैसर्गिक रूप से हुई छेड़छाड़ के कारण वहां की जैव-विविधता ऐसी बिगड़ी कि करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं।
भारत में वर्षा के दिनों में काफी जल प्राप्त होता है। इस जल को बांध और जलाशय बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इस जल का उपयोग सिंचाई और बिजली के कामों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले उन क्षेत्रों की सूची तैयार करनी होगी, जहां गर्मी शुरू होते ही ताल, तलैया और कुएं सूख जाते हैं और भूगर्भ में भी जल का स्तर घटने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में कुछ बड़े-बड़े जलाशय बनाकर भूगर्भ के जलस्तर को घटने से भी रोका जा सकता है और सिंचाई के लिए भी जल उपलब्ध कराया जा सकता है।मुल्कभर की झीलें सांस्कृतिक या धार्मिक प्रदूषण की मार से भी बेहाल हैं- पूरे देश में गणपति, दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा जैसे त्योहारों के दौरान प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित व रासायनिक रंगों से पुतीं, कोई 20 लाख छोटी-बड़ी प्रतिमाएं गांव-कस्बे के हजारों तालाबों में डुबो दी जाती हैं। जहां रसायन पानी को जहरीला बनाते हैं, वहीं प्लास्टर ऑफ पेरिस तालाबों में कीचड़ बढ़ाकर उथला कर देता है। समय-समय पर अदालतें चेतावनी देती हैं, लेकिन न तो समाज और न ही सरकार इन्हें गम्भीरता से लेते हैं।
देश में सुनियोजित विकास पूर्व सिन्चित क्षेत्र का क्षेत्रफल 2.26 करोड़ हेक्टेयर था। आज हम लगभग 6.8 करोड़ हेक्टयर भूमि की सिंचाई कर रहे हैं। सिंचाई क्षेत्र के बढ़ने के साथ-साथ जल का इस्तेमाल भी बढ़ा है इसलिए भूगर्भ में उसका स्तर घटा है। देश में पानी की कमी नहीं है। एक तरफ पर्वतराज हिमालय से निकलनेवाली नदियां हैं तो दूसरी तरफ समुद्र से घिरा देश है। फिर भी आधे से अधिक देश प्यासा है। ताजा संकट महाराष्ट्र में पैदा हुआ है, जहां पेयजल का वितरण कानून व्यवस्था के लिए भी एक चुनौती बन गया है। आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में भी पानी का भारी संकट है। देश के दूसरे राज्यों के कई नगरों का भी बुरा हाल है। हमारे यहां पानी का संकट दोहरा है- एक तो कई राज्यों के अधिकांश भागों में पेयजल का संकट है और दूसरी खास बात यह है कि जहां पानी है, वह भी पीने लायक नहीं है।
राष्ट्रीय स्तर पर 5723 ब्लॉकों में से 1820 ब्लॉक में जलस्तर खतरनाक हदें पार कर चुका है। जल-संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लाक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने सम्बन्धित राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से जल-दोहन पर पाबंदी लगाने के सख्त कदम उठाने के सुझाव दिये हैं। लेकिन देश के कई राज्यों में इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाये जा सके हैं। उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तरप्रदेश के 30 फीसदी ब्लाकों में भू-जल का स्तर पर पहुंच गया है। लेकिन वहां की सरकारें आंखें बंद किये हुए हैं। इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रालय ने अन्धाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाए हैं। इनमें सामुदायिक भूजल प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया गया है। इसके तहत भूजल के दोहन पर रोक के साथ जल संरक्षण और संचयन के भी प्रावधान किए गये हैं। देश में वैसे जल की कमी नहीं है। हमारे देश में सालाना 4 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध है। इस पानी का बहुत बड़ा भाग समुद्र में बेकार चला जाता है इसलिए बरसात में बाढ़ की तो गर्मी में सूखे का संकट पैदा हो जाता है।
देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है, इनमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केन्द्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आर.आर.आर.) के लिए योजना बनायी। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, जिसके अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केन्द्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव, ब्लाक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकी सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मन्त्रालय कर रहा है।
यह योजना बहुत ही महत्त्वाकांक्षी है, जो इस बात को सुनिश्चित करेगी, कि आनेवाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप न ले ले। सरकार की कोशिश है, कि इसे मनरेगा जैसी योजनाओं में शामिल किया जाए, जिससे अधिकतम परिणाम सामने आ सकें। पर संसद में रखी गयी स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है। सबसे तकलीफ की बात यह है कि जिन सरकारी महकमों को इसका जिम्मा दिया गया था वे सभी लापरवाह हैं। रिपोर्ट के अनुसार जरूरी योजनाएं ही नहीं बनाई जा सकीं। इस योजना में पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू में 3341 जलाशयों की चुना गया था लेकिन सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय ही ठीक किए जा सके हैं।
इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। कमेटी ने सुझाव दिया है कि इस योजना की सफलता के लिए पंचायतों को भी इसमें शामिल किया जाए। इस काम में केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्रालय की बड़ी जिम्मेदारी है, इसलिए वह धन का आवंटन करके ही अपने काम की इतिश्री न समझ ले। अभी व्यवस्था यह है कि राज्य सरकारें जब पूर्णता प्रमाणपत्र देती हैं, तभी अगली किश्त दी जाती है। जरूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से प्रति वर्ष रिपोर्ट मंगवाए और निगरानी के लिए अफसर तैनात करे।
आर.आर.आर. स्कीमों पर तकनीकी नजर रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कम्पनी ‘वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड’ के जिम्मे किया गया है। अभी वैप्कोस को राशि उस समय दी जाती है, जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं। समिति का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे वैप्कोस को फंड समय से दिया जा सके। समिति ने पाया है कि एक बार प्रोजेक्ट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं।
भारत में वर्षा के दिनों में काफी जल प्राप्त होता है। इस जल को बांध और जलाशय बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इस जल का उपयोग सिंचाई और बिजली के कामों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले उन क्षेत्रों की सूची तैयार करनी होगी, जहां गर्मी शुरू होते ही ताल, तलैया और कुएं सूख जाते हैं और भूगर्भ में भी जल का स्तर घटने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में कुछ बड़े-बड़े जलाशय बनाकर भूगर्भ के जलस्तर को घटने से भी रोका जा सकता है और सिंचाई के लिए भी जल उपलब्ध कराया जा सकता है।
अनेक विधाओं में लेखन। एनबीटी में हिन्दी सम्पादक। मोः 9634282886।
Tags: Information about Water-Bodies in Hindi language. Essay on Talab in Hindi
पूरे देश के लाखों-लाख तालाबों पर मंडराते संकट का अध्ययन किया जाये तो सभी जगह एक ही तरह के कारक सामने आएंगे- नाजायज कब्जे, तालाब का बांध तोड़ देना, उसमें दैनिक गंदगी व औद्योगिक रसायन को सीधे मिलाना, जलग्रहण क्षेत्र में वन की कटाई, लम्बे समय से सफाई न होने के चलते गाद का जमा होना। चाहे नैनीताल की झील को लें या फिर उदयपुर की या रायपुर की, जहां भी तालाब बिखरे, समाज को पानी का संकट तो झेलना ही पड़ा, साथ ही साथ स्वास्थ्य की समस्याओं, पारम्परिक रूप से पेट पालने के लिए तालाबों पर निर्भर रहने वाले समाज को बेरोजगारी के साथ कई समस्याओं से दो-चार होना पड़ा है। मुम्बई की पोशाई झील, कोडाईकनाल व उटकमंडूक की ऊंचाईवाली झीलों से लेकर बलिया के सुरला ताल तक कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जहां झीलों के नैसर्गिक रूप से हुई छेड़छाड़ के कारण वहां की जैव-विविधता ऐसी बिगड़ी कि करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं।
भारत में वर्षा के दिनों में काफी जल प्राप्त होता है। इस जल को बांध और जलाशय बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इस जल का उपयोग सिंचाई और बिजली के कामों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले उन क्षेत्रों की सूची तैयार करनी होगी, जहां गर्मी शुरू होते ही ताल, तलैया और कुएं सूख जाते हैं और भूगर्भ में भी जल का स्तर घटने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में कुछ बड़े-बड़े जलाशय बनाकर भूगर्भ के जलस्तर को घटने से भी रोका जा सकता है और सिंचाई के लिए भी जल उपलब्ध कराया जा सकता है।मुल्कभर की झीलें सांस्कृतिक या धार्मिक प्रदूषण की मार से भी बेहाल हैं- पूरे देश में गणपति, दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा जैसे त्योहारों के दौरान प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित व रासायनिक रंगों से पुतीं, कोई 20 लाख छोटी-बड़ी प्रतिमाएं गांव-कस्बे के हजारों तालाबों में डुबो दी जाती हैं। जहां रसायन पानी को जहरीला बनाते हैं, वहीं प्लास्टर ऑफ पेरिस तालाबों में कीचड़ बढ़ाकर उथला कर देता है। समय-समय पर अदालतें चेतावनी देती हैं, लेकिन न तो समाज और न ही सरकार इन्हें गम्भीरता से लेते हैं।
देश में सुनियोजित विकास पूर्व सिन्चित क्षेत्र का क्षेत्रफल 2.26 करोड़ हेक्टेयर था। आज हम लगभग 6.8 करोड़ हेक्टयर भूमि की सिंचाई कर रहे हैं। सिंचाई क्षेत्र के बढ़ने के साथ-साथ जल का इस्तेमाल भी बढ़ा है इसलिए भूगर्भ में उसका स्तर घटा है। देश में पानी की कमी नहीं है। एक तरफ पर्वतराज हिमालय से निकलनेवाली नदियां हैं तो दूसरी तरफ समुद्र से घिरा देश है। फिर भी आधे से अधिक देश प्यासा है। ताजा संकट महाराष्ट्र में पैदा हुआ है, जहां पेयजल का वितरण कानून व्यवस्था के लिए भी एक चुनौती बन गया है। आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में भी पानी का भारी संकट है। देश के दूसरे राज्यों के कई नगरों का भी बुरा हाल है। हमारे यहां पानी का संकट दोहरा है- एक तो कई राज्यों के अधिकांश भागों में पेयजल का संकट है और दूसरी खास बात यह है कि जहां पानी है, वह भी पीने लायक नहीं है।
राष्ट्रीय स्तर पर 5723 ब्लॉकों में से 1820 ब्लॉक में जलस्तर खतरनाक हदें पार कर चुका है। जल-संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लाक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने सम्बन्धित राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से जल-दोहन पर पाबंदी लगाने के सख्त कदम उठाने के सुझाव दिये हैं। लेकिन देश के कई राज्यों में इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाये जा सके हैं। उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तरप्रदेश के 30 फीसदी ब्लाकों में भू-जल का स्तर पर पहुंच गया है। लेकिन वहां की सरकारें आंखें बंद किये हुए हैं। इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रालय ने अन्धाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाए हैं। इनमें सामुदायिक भूजल प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया गया है। इसके तहत भूजल के दोहन पर रोक के साथ जल संरक्षण और संचयन के भी प्रावधान किए गये हैं। देश में वैसे जल की कमी नहीं है। हमारे देश में सालाना 4 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध है। इस पानी का बहुत बड़ा भाग समुद्र में बेकार चला जाता है इसलिए बरसात में बाढ़ की तो गर्मी में सूखे का संकट पैदा हो जाता है।
देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है, इनमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केन्द्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आर.आर.आर.) के लिए योजना बनायी। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, जिसके अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केन्द्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव, ब्लाक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकी सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मन्त्रालय कर रहा है।
यह योजना बहुत ही महत्त्वाकांक्षी है, जो इस बात को सुनिश्चित करेगी, कि आनेवाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप न ले ले। सरकार की कोशिश है, कि इसे मनरेगा जैसी योजनाओं में शामिल किया जाए, जिससे अधिकतम परिणाम सामने आ सकें। पर संसद में रखी गयी स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है। सबसे तकलीफ की बात यह है कि जिन सरकारी महकमों को इसका जिम्मा दिया गया था वे सभी लापरवाह हैं। रिपोर्ट के अनुसार जरूरी योजनाएं ही नहीं बनाई जा सकीं। इस योजना में पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू में 3341 जलाशयों की चुना गया था लेकिन सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय ही ठीक किए जा सके हैं।
इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। कमेटी ने सुझाव दिया है कि इस योजना की सफलता के लिए पंचायतों को भी इसमें शामिल किया जाए। इस काम में केन्द्रीय जल संसाधन मन्त्रालय की बड़ी जिम्मेदारी है, इसलिए वह धन का आवंटन करके ही अपने काम की इतिश्री न समझ ले। अभी व्यवस्था यह है कि राज्य सरकारें जब पूर्णता प्रमाणपत्र देती हैं, तभी अगली किश्त दी जाती है। जरूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से प्रति वर्ष रिपोर्ट मंगवाए और निगरानी के लिए अफसर तैनात करे।
आर.आर.आर. स्कीमों पर तकनीकी नजर रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कम्पनी ‘वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड’ के जिम्मे किया गया है। अभी वैप्कोस को राशि उस समय दी जाती है, जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं। समिति का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे वैप्कोस को फंड समय से दिया जा सके। समिति ने पाया है कि एक बार प्रोजेक्ट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं।
भारत में वर्षा के दिनों में काफी जल प्राप्त होता है। इस जल को बांध और जलाशय बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है। बाद में इस जल का उपयोग सिंचाई और बिजली के कामों के लिए किया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले उन क्षेत्रों की सूची तैयार करनी होगी, जहां गर्मी शुरू होते ही ताल, तलैया और कुएं सूख जाते हैं और भूगर्भ में भी जल का स्तर घटने लगता है। ऐसे क्षेत्रों में कुछ बड़े-बड़े जलाशय बनाकर भूगर्भ के जलस्तर को घटने से भी रोका जा सकता है और सिंचाई के लिए भी जल उपलब्ध कराया जा सकता है।
अनेक विधाओं में लेखन। एनबीटी में हिन्दी सम्पादक। मोः 9634282886।
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Post By: pankajbagwan