जल क्या वास्तव में सामाजिक वस्तु है

इस बात पर गौर करना हमेशा ही दिलचस्प रहा है कि समय के साथ-साथ हमारी विचार शैली कैसे बदलती रहती है। सौ वर्ष पहले किसी ने शायद कभी सोचा भी न होगा कि एक दिन हमें खरीदकर पानी पीना पड़ेगा, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आजकल हम सब स्वच्छ हवा के बारे में सोचते हैं कि यह तो प्रकृति की देन है, इसे भी क्या खरीद कर सांस लेनी होगी? प्राकृतिक संसाधन के तौर पर पानी तब प्रचुरता से उपलब्ध था। अतः इसके लिए पैसे अदा करने का सवाल ही नहीं था। अगर स्वच्छ रूप में पानी को आप तक पहुँचाने में किसी को कुछ खर्च करना भी था तो यह जिम्मेदारी शासक की थी, सरकार की थी। परन्तु, आज हम पानी के लिए पैसा वसूलने की बात कर रहे हैं और समझदारीभरा दृष्टिकोण यही है कि हमें इसके बारे में बातें बन्द कर इस पर अमल शुरू करना चाहिए।

सीमित प्राकृतिक संसाधनों के भलीभाँति प्रबन्धन में ही बुद्धिमानी है।यदि हम विश्व में चारों ओर नजर डालें कि वे देश जो पानी के लिए पैसा वसूलते हैं वहाँ पीने के पानी की क्या स्थिति है, और जो नहीं वसूलते वहाँ क्या स्थिति है, तो हम पाएँगे कि हमारा देश भारत गलत समूह में है। यहाँ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बहुत थोड़े से लोगों को ही सौभाग्यशाली कहा जा सकता है जिन्हें 4 घण्टे तक पीने का पानी प्रतिदिन मिलता है। औरों के लिए अनेक विकल्प है। या तो दो बूँद पानी के लिए रात भर लम्बी-लम्बी लाइनों में लगकर इन्तजार करें; अपने नलों से मटमैला पानी प्राप्त करें और उसे सुरक्षित बनाने के लिए तमाम प्रकार के तरीके और उपकरण आजमाएँ; या फिर अपने पड़ोस में बिछे बड़े पाइपों में सक्शन पम्प लगा कर पानी की चोरी करें; इत्यादि। स्पष्ट है, कि आसान तरीका यही होगा कि पानी के चन्द व्यापरियों से कीमत चुका कर पानी ले लिया जाए। यह स्थिति केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। चाहे हम मानें या न मानें, देश में कुछ ऐसे गाँव भी हैं जहाँ पानी के व्यापार में निजी उद्यमी जुटे हुए हैं।

जैसा कि अन्य समस्याओं के बारे में होता है, हम पानी का संकट अभी आया है या नहीं, इसके बारे में तर्क-वितर्क करते रहते हैं, जबकि सभी को पता है कि यह संकट पहले से ही यहाँ मौजूद है। इस तरह की समस्याओं के समाधान के बारे में सबको पता है, परन्तु जो कदम उठाए गए हैं (अक्सर सरकार की ओर से), उनका समस्या के समाधान से कोई ज्यादा गहरा रिश्ता नहीं होता। ज्यादातर उपाय, अधिक धन खर्च करके और अधिक परिसम्पत्ति के निर्माण से सम्बन्धित होते हैं। जबकि वास्तव में हमें करना यह चाहिए कि हम इस मिथ्या धारणा को तोड़े कि पानी एक सामाजिक भलाई है, जिसको सरकार को मुफ्त प्रदान करना है। सभी पहलुओं से यह मिथ्या धारणा है। पहला, क्योंकि पानी कोई सामाजिक हित नहीं है। दूसरे, इसे मुफ्त नहीं दिया जाना चाहिए और अन्त में, इसको लोगों तक पहुँचाने में सरकार की कोई भागीदारी नहीं होनी चाहिए। आइए, इन तर्कों का एक-एक कर समर्थन करें। शुरुआत अन्तिम बात से करते हैं।

सैद्धान्तिक तर्कों के बावजूद, कोई भी इस तर्क से इनकार नहीं कर सकता कि पिछले 60 वर्षों में जल सेवा प्रदाता के रूप में सरकार का हमारा अनुभव एक बड़ी विफलता ही कहा जाएगा। सभी संकेत, बिना इस बात की चिन्ता किए कि उनकी माप-तौल किसने और कैसे की है, इस ओर इशारा करते हैं कि इस क्षेत्र में हम बुरी तरह से असफल रहे हैं। सभी स्तर पर सरकारों ने चाहे वे स्थानीय स्तर पर हों या राज्य स्तर पर, हमेशा अपने-आप को जल सम्पत्तियों के निर्माता के रूप में देखा है, देखभाल करने वालों के रूप में नहीं; उपयोगकर्ताओं को जल सेवा प्रदाता के रूप में भी नहीं। सरकार के लिए उचित यही होगा कि वह अपने-आपको नीति-निर्माता और नियोजक की भूमिका तक ही सीमित रखे। नियामक की भूमिका सही मायनों में एक स्वतन्त्र इकाई के लिए छोड़ देनी चाहिए। यदि हम पहले से ही विद्यमान संकट से छुटकारा पाना चाहते हैं और जल सेवा में शीघ्र, क्रान्तिकारी और लाभकारी परिवर्तन देखना चाहते हैं तो जरूरत है कि उपयोगकर्ता को पानी पहुँचाने का दायित्व सेवा प्रदाता पर हो, न कि चुने हुए राजनीतिज्ञों पर। सेवा प्रदान करने की इस महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए, स्वयं समाज, स्वयंसेवी संगठन और निजी क्षेत्र अधिक उपयुक्त हैं। ये तीनों ही एक-दूसरे के पूरक भी हैं। और अब मुफ्त पानी के मुद्दे पर आते हैं।

देश में ऐेसे अनेक अध्ययन हुए हैं, जिन्होंने बिना किसी सन्देह के यह साबित कर दिया है कि गरीबों को दरअसल पानी काफी महंगा पड़ता है। प्रत्यक्ष तौर पर तो उन्हें पानी के व्यवसाय में लगे बिचौलियों को नकद भुगतान करना पड़ता है। और परोक्ष रूप यह है कि खराब गुणवत्ता के कारण उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है जिसका नतीजा यह होता है कि उनकी उत्पादकता और आय में भी गिरावट आ जाती है। इन सभी सर्वेक्षणों से यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई है कि लोग पानी का भुगतान करने को तैयार हैं। समस्या तो केवल प्रभार लगाने (कीमत वसूलने) की इच्छा भर है। दुर्भाग्य है कि सुधारवादी राजनीतिज्ञ भी इस मामले में दिग्भ्रमित अल्पज्ञानी हैं।

यदि हम जल सेवा में शीघ्र, क्रान्तिकारी एवं लाभकारी परिवर्तन देखना चाहते हैं तो जरूरत है कि उपयोगकर्ता को पानी पहुँचाने का दायित्व सेवा प्रदाता पर हो। इस महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए, स्वयं समाज, स्वयंसेवी संगठन और निजी क्षेत्र अधिक उपयुक्त हैं।पानी की कीमत लेने के पीछे आखिर तर्क क्या है? यह बहुत सरल है। जिस प्रकार से आधुनिक सभ्यता का विकास हुआ है उसके कारण हमें अब अधिक पानी की जरूरत (अक्सर अपव्ययी कार्यों के लिए) होती है। पानी के ये स्रोत या तो हमसे काफी दूर होते हैं, या फिर ये गहरे-चट्टानी जल स्रोत हैं, अथवा ये काफी प्रदूषित होते हैं और यह प्रदूषण भी हम ही करते हैं। इन सब कारणों से पानी देना भलाई की जगह एक महंगा काम हो गया है। यहाँ तक कि पानी की असली कीमत भी काफी अधिक होती है। और भला हो अक्षमता, चोरी और बरबादी का, सरकार का असली खर्च तो और भी अधिक होता है। यदि हम वितीय सम्पोषणीयता और हमारे सीमित प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को प्रोत्साहित करने में जरा भी सन्तुलन बिठाना चाहते हैं तो असल लागत को वसूलने के अलावा हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। यहाँ तक कि निर्धनों और वंचितों के नजरिये से भी, मुफ्त पानी देना उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे मौजूदा बुराइयाँ आगे भी बनी रहती हैं और इनसे सबसे अधिक वे ही प्रभावित होते हैं।

बहुत से लोगों का तर्क है कि बिना किसी कानूनी ढाँचे के पानी की कीमत वसूलने का परिणाम सेवा प्रदाताओं द्वारा शोषण के रूप में बदल सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जल सेवा प्रदाय की क्या व्यवस्था की गई है। कुछ स्थितियों में तो जल सेवा एकाधिकारवादी गतिविधि में भी बदल सकती है। इन परिस्थितियों में, नियमन (कानून) महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और इनकी व्यवस्था की जानी चाहिए। परन्तु एकाधिकार वाली स्थिति से डरकर पानी का मूल्य वसूलने से संकोच नहीं किया जाना चाहिए।

लागत की वास्तविक गणना की जानी चाहिए और इसी के आधार पर पानी का मूल्य तय किया जाना चाहिए। लागत की गणना वास्तविक व्यय के आधार पर नहीं बल्कि कुशलता और दक्षता की धारणा पर की जानी चाहिए। जल संसाधनों एवं जल प्रणाली की सम्पोषणीयता को भौतिक और वितीय रूप से स्वस्थ्य और सुदृढ़ बनाए रखने के आधार पर ही नागरिकों से कीमत वसूली जानी चाहिए। वाणिज्य और उद्योग क्षेत्र से आर्थिक लागत पर प्रभार वसूला जाना चाहिए, परन्तु यहाँ पर इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इससे उनकी स्पर्धात्मक क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि किसी क्षेत्र को कुछ उचित कारणों से रियायद दी जानी है तो यह सहायता पारदर्शी, समयबद्ध और लक्षित होनी चाहिए।

उदाहरणार्थ, भूजल का प्रभार और नियमन इसको सामुदायिक परिसम्पत्ति मानने के आधार पर तय किया जाना चाहिए, बिना इस बात की परवाह किए कि वह कहाँ स्थित है, कैसे प्रवाहित होता है और कि वह किसी बड़ी जलधारा से निकला है या फिर एकाकी जलाशय से। पानी उपलब्ध कराने और उसके उपयोगनुसार प्रभार वसूलने की तर्कसंगत प्रणाली तैयार की जानी चाहिए। इस पर अमल करना राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए न कि इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि प्रभार को उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार निश्चित किया जाना चाहिए जैसा कि किसी आर्थिक हित के लिए किया जाता है। विरोधभासी पैरामीटर्स को सन्तुलित करने के प्रयासों को पूरा महत्त्व देते हुए ही प्रभार के दर तय किए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए, इस पर विचार करते समय समानता, संरक्षण पर निवेश पुर्नउपयोग, आर्थिक लागत और लाभ, प्रशासकीय कुशलता तथा लेवी और उगाही की सरलता पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

नियमन केवल आर्थिक कानूनों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। पानी एक सीमित संसाधन है और समाज की केवल एक ही पीढ़ी की जागीर नहीं हैं। उदाहरणार्थ, हमें अभी यह मालूम ही नहीं है कि अनुचित दोहन का दीर्घकालीन प्रभाव क्या होगा। पानी और पानी के संसाधनों को नियमबद्ध करने के लिए भौतिक और वितीय, दोनों ही ढाँचों का उपयोग किया जाना चाहिए। यथा, किसी भी निश्चित क्षेत्र में, भूजल के मोटे तौर पर परिभाषित दीर्घकालीन मास्टर प्लान से ही पानी के दोहन और उपयोग की योजना तैयार करनी चाहिए।

आइए, अब अन्तिम रूप से परीक्षण करें कि पानी देना क्या वास्तव में सामाजिक हित का कार्य है। परिभाषाओं के बौद्धिक पहलुओं के चक्कर में पड़े बिना सामाजिक हित की सरल परिभाषा पर नजर डाली जा सकती है। एक प्रकार से कोई भी सामाजिक हित ऐसा सार्वजनिक हित होता है जो निजी वस्तु के तौर पर दिया जा सकता है, परन्तु विभिन्न कारणों से सरकार इसे प्रदान करती है और इसके लिए धन की व्यवस्था करों जैसी लोक निधि से होती है। यदि हम इस सरल तथ्य को स्वीकार कर लें कि सेवा प्रदाता के रूप में सरकार पूरी तरह से असफल रही है तो स्पष्ट है कि इस परिभाषा को पानी पर लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। डबलिन सम्मेलन में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि ‘अपने स्पर्धात्मक उपयोगों के कारण पानी का आर्थिक मूल्य होता है और इसे एक आर्थिक हित के रूप में ही मान्यता दी जानी चाहिए।’

अनेक लोग कहेंगे कि कम से कम उन क्षेत्रों में जहाँ लोग पानी पर धन व्यय करने में असमर्थ हैं, अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ शहरी क्षेत्रों की तुलना में लोग अधिक व्यय करने में असमर्थ होते हैं, वहाँ तो उसे सामाजिक हित के रूप में ही देखा जाना चाहिए। इस तरह के तर्क के साथ दो समस्याएँ हैं- एक, स्थान या स्थिति सम्बन्धी मुद्दा और दूसरा, वहन क्षमता के बारे में समझ। किसी भी वस्तु को निर्धनों के लिए सामाजिक हित मानना और दूसरों के लिए आर्थिक मानना गलत है। इस वस्तु को आवश्यक रूप से सामाजिक हित मानने की बजाय, उसके लिए लक्षित रियायतें (सहायता) दी जा सकती हैं। वहन क्षमता के मुद्दे को हमेशा गलत समझा जाता रहा है। हालांकि यह सही है कि वहन क्षमता की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है विशेषकर; राशि और आय के अनुपात के बारे में। तथापि अध्ययनों से स्पष्ट है कि लोग (खासकर गरीब लोग), इन परिभाषाओं में दी गई सीख से कहीं अधिक खर्च कर रहे हैं। इन लोगों के लिए वहन करने की लागत काफी अधिक होती है और वह सम्भवतः उनके बूते की बात नहीं।

अन्त में, हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि सीमित प्राकृतिक संसाधनों के भलीभाँति प्रबन्धन में ही बुद्धिमानी है। इसके लिए जरूरी है कि हम इस बुद्धिमानी को काम में लाए और कुछ बुनियादी सिद्धान्तों को समझ कर उन पर तेजी से अमल करें। हमें अपनी संस्थागत व्यवस्थाओं पर फिर से काम करने की आवश्यकता है ताकि उनकी जवाबदेही और कार्य कुशलता में इजाफा हो। हमें सेवा को आगे लाना और जागीर बनाने (सम्पत्ति निर्माण) के काम को पीछे छोड़ना होगा।

(लेखक प्राइस वाटर हाउस कूपर्स नई दिल्ली के अधिशासी निदेशक हैं)

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