जल की स्वास्थ्य में भूमिका

जल की स्वास्थ्य में भूमिका जल ही जीवन है, ऐसा बहुधा कहा-सुना जाता है, क्योंकि बिना भोजन के हम कई दिन तक स्वस्थ्य बने रह सकते हैं किन्तु बिना जल एक दिन भी नहीं व्यतीत किया जा सकता और इसके बिना तीन दिन रहना प्राण-घातक हो सकता है। जल के अभाव में रक्त गाढ़ा होने लगता है जिससे शरीर की पोषण क्रियाएँ ठप पड़ने लगती हैं। वैसे भी जीवन की प्रथम उत्पत्ति जल में ही हुई, और हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में जल उपस्थित होता है, तथा भोजन के तरल रस से ही हम पोषण पाते हैं, शरीर के अन्दर द्रव्यों की तरल अवस्था में ही जैविक क्रियाएँ संचालित होती हैं, और शरीर का शोधन भी शरीर में जल-चक्र के कारण ही संपन्न होता है। अतः हमारे जीवन में जल सर्वव्यापी भूमिका रखता है।

जलाभाव : मानव देह में जलाभाव को तीन वर्गों में रखा गया है - दैनन्दिन, अचूक, और चिकित्सीय। इनमें से अंतिम दो शरीर को जल कई दिन तक उपलब्ध न होने से उत्पन्न होते हैं, किन्तु दैनन्दिन जलाभाव थोड़ी सी लापरवाही अथवा जल उपलब्धि का विशेष ध्यान न रखने से ही उत्पन्न हो जाता है जो शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है, विशेषकर पाचन और शोधन में। शरीर में नित्य प्रति की असुविधाओं जैसे उल्टी, दस्त, दूप में काम करना, आदि से भी दैनन्दिन जलाभाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार के जलाभाव व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है, उसका रंग फीका पड़ने लगता है, और उसे शीघ्र ही थकान होने लगती है। अतः व्यक्ति द्वारा शरीर को जल की नियमित उपलब्धि एक नियमित आदत के रूप में की जानी चाहिए।

जल की मात्रा : मानव शरीर को प्रतिदिन कितने जल की आवश्यकता होती है, इस बारे में अनेक राय दी जाती हैं जो सभी मात्र संकेतात्मक हैं, क्योंकि यह मात्रा अनेक गुणकों पर निर्भर करती है। अधिक फल और सब्जियां खाने से अतिरिक्त जल की आवशकता कम हो जाती है, जबकि शुष्क, परिशोधित और संश्लेषित खाद्यों के उपभोग से अधिक जल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार शीत, वर्षा और ग्रीष्म ऋतुओं में भी जल की भिन्न मात्राओं की आवश्यकता होती है जिसका कारण त्वचा से जल का भिन्न वाष्पीकरण होना है। तथापि मनुष्य को जल की आवश्यकता का बोध उसका शरीर करता रहता है और जब भी ऐसा अनुभव हो उसे आवश्यकता से कुछ अधिक जल पी लेना चाहिए। एक बार में अधिक जल पीने की अपेक्षा अनेक बार में जल की अल्प मात्रा लेना अधिक लाभकर होता है। औसत रूप में मनुष्य को २।५ लीटर से ३।५ लीटर जल प्रतिदिन लेना चाहिए जिसमें उसके द्वारा लिए गए पेयों, फलों, सब्जियों तथा अन्य रूप में उपलब्ध जल भी सम्मिलित है। साथ ही मदिरा और रासायनिक पेयों में उपलब्ध रसायन शरीर के जल का अधिक अवशोषण करते हैं, जिससे इनके माध्यम से शरीर का जलाभाब दूर नहीं होता। यद्यपि शरीर के लिए शुद्ध जल अपरिहार्य है किन्तु निम्बू-जल इसे अतिरिक्त ऊर्जावान बनाने ने में सहायक होता है।

शरीर में जलाभाव से रक्त में ठोस द्रव्यों का अनुपात बढ़ जाता है। इसमें सामान्य से दो प्रतिशत वृद्धि शरीर में जलाभाव का आरम्भ होने के लिए पर्याप्त होती है, जब कि एक प्रतिशत वृद्धि पर मनुष्य प्यास अनुभव करने लगता है। प्यास लगने पर जल पीकर उक्त प्रतिशत में सामान्य से एक प्रतिशत की कमी की जा सकती है जिससे व्यक्ति संतुष्टि अनुभव करने लगता है।

जलापूर्ति हेत आवश्यक रसायन : भोजन आदि के साथ लिए गए जल की ९५ प्रतिशत मात्रा रक्त में पहुँचती है जहां से यह कोशिकाओं को उपलब्ध कराया जाता है, जहाँ रासायनिक क्रियाओं में इसका उपयोग होता है। इन क्रियाओं के लिए जल के साथ-साथ खनिजों, आयनीकृत रसायनों और अनिवार्य वसीय अम्लों की भी आवश्यकता होती है जिनके अभाव में जल का उपयोग नहीं हो सकता। अतः शरीर में जल की पर्याप्त मात्रा होने पर भी कोशीय स्तर पर जलाभाव संभव होता है जो उक्त खनिजों, आयनीकृत रसायनों और अनिवार्य वसीय अम्लों के अभाव के कारण उत्पन्न होता है।

जरावस्था क्या है : कोशिकाओं में, अन्तः और बाह्य, दो स्तरों में जल उपस्थित होता है, जबकि कोशिका क्रियाएँ केवल अन्तः जल की उपस्थिति से होती हैं। किन्तु आयु वृद्धि के साथ-साथ अन्तः क्रियाएँ मंद होने लगती हैं और कोशिकाएं जल को अपने अन्तः में स्वीकार नहीं करतीं और जल कोशिकाओं के बाह्य स्तर पर ही जमा रहता है। इसे कोशिकाओं का शुष्कन कहा जाता है जो जरावस्था का संकेत है। आयनीकृत और सूक्ष्म खनिज कोशिकाओं में रासायनिक क्रियाओं में सहायक होते है, जिससे वे जल को अपने अन्तः में शोषित करती रहती है और जरावस्था को निष्प्रभावी बनाते हैं।

आयनीकृत एवं सूक्ष्म खनिज और वसीय अम्लों के प्राकृत स्रोत : ताजे फल, सब्जियां एवं सलाद, मेवा और साबुत बीज, आदि आयनीकृत एवं सूक्ष्म खनिज और वसीय अम्लों के प्राकृत स्रोत हैं किन्तु इनका उत्पादन जैव-गतिक कृषि द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें कृषक भूमि की उर्वरा का शोषण न करके उसका सतत पोषण करता है। इसका दूसरा उपाय भोजन में समुद्र से प्राप्त प्राकृत नमक का उपयोग है जिसमें लगभग ६० खनिज उपस्थित होते हैं जो शरीर की कोशकीय क्रियाओं और उनमें जल के संतुलन को बनाये रखते हैं।

मूत्र से संकेत : हलके पीत रंग का मूत्र शरीर में जल की संतुलित मात्रा की उपस्थिति का संकेत होता है। मूत्र का पीत रंग उसमे उपस्थित सोडियम, क्लोराइड, नाइट्रोजन और पोटेशियम के कारण होता है। अतः मूत्र के गहरे रंग का अर्थ है कि शरीर में जल का अभाव है, तथा मूत्र के वर्णहीन होने का अर्थ है कि शरीर में जल की मात्रा आवश्यकता से अधिक है अथवा शरीर में खनिजों का अभाव है। मूत्र का चमकीला पीला रंग उसमें उपस्थित विटामिनों के कारण होता है जो उनकी अधिकता का संकेत है जिससे कोई हानि नहीं है।

शरीर में जल की अधिकता : शरीर को उसकी आवश्यकता से अधिक जल प्रदान करना भे हानिकर होता है - इससे व्यक्ति की किडनियों पर अनावश्यक कार्यभार पड़ता है तथा अतिरिक्त मूत्र के साथ शरीर के अनेक मूल्यवान खनिज भी उसके माध्यम से बाहर निकल जाते हैं। कैल्सियम जैसे ये खनिज कोशिकाओं में जल का संतुलन बनाये रखते है तथा इनका अधिक निष्कासन हानिकर होता है जिससे कोशिकाएं फट भी सकती हैं। बहुत अधिक परिश्रम करने से शरीर को आवश्यकता से अधिक जल की प्यास लगने लगती है जिससे हाइपोनेत्रिमिअ नामक रोग उत्पन्न हो सकता है जिसमें शरीर में केल्शियम का अभाव उत्पन्न हो जाता है। यदि किसी कारण से अत्यधिक जल पिया जाये तो उसके साथ शरीर को खनिजों की आपूर्ति भी की जानी चाहिए जो समुद्री नमक और शक्कर के घोल से सरलता से हो सकती है।
 

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