जब कुछ भी नहीं था, तब क्या था, यह प्रश्न हर किसी के मन में कौंध सकता है। तब शून्य था, कुछ भी नहीं था। अकाल था। न मिट्टी, न पानी, न हवा, न आकाश, न प्रकाश और न अंधकार तब स्थिति कैसी थी? यह सोचकर हममें एक तरह का शून्य फैल जाता है। पर, हमारी पृथ्वी की कथा जल से ही प्रारम्भ होती है। आदिवासियों की उत्पत्ति कथाओं का प्रारम्भ ही ‘पहले जल ही जल था’ से होता है। इसका मतलब शून्य और सृष्टि के बीच भी कुछ था या नहीं। यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है। मेरे विचार से तब न समय था और न शून्य, केवल संकल्प था। स्थिर संकल्प। जीव की तो कल्पना तक नहीं थी, प्रकृति का भी अता-पता नहीं था। तब संकल्प का स्वरूप किस प्रकार का था। जब समय ही नहीं था, तब संकल्प कहां ठहर सकता है। इसका दृष्टा भी नहीं था। इस स्थिति को अकाल अर्थात् ‘काल’ (समय) ही नहीं कहा गया है। आदिम पुरा कथाओं के अनुसार सबसे पहले ‘जल’ का ही अवतरण हुआ। जल में संकल्प समाहित हो गया। उस जल में ‘स्थिरता’ थी। कोई लहर नहीं थी। संकल्प उसके भीतर बैठा था। जल के साथ एक और चीज आ गयी, वह समय था। अकाल समाप्त हो गया था। शून्य कुछ भर गया था। हजारों –लाखों, करोड़ों साल ऐसे ही निकल गये। कथाओं में इसे जल-ही-जल कहा गया है। चारों ओर जल-ही-जल था। जल भी अविचल। लम्बे अन्तराल के बाद जल में बैठे संकल्प के मन में सृजन की इच्छा जागी। इस इच्छा को जागते ही हवा का प्रादुर्भाव हो गया। जल में लहरें उठने लगीं। पानी में हलचल मच गयी। आकाश की बुनियाद तन गई। चाँद और सूरज टँग गये। उजाला हो गया। अंधेरा अटक गया। अग्नि का तेजस जाग गया। तब तक पृथ्वी का नाम निशान नहीं था। फिर करोड़ों वर्ष निकल गये। जल हिलोरे लेता रहा। जल में प्रसरित संकल्प शिव की धारणा धारण करने लगा। संकल्प ही शिव था और शिव ही संकल्प। इसी शिव की पृथ्वी बनाने के लिए मिट्टी की जरूरत पड़ी। मिट्टी जल के अन्तरतम में थी। यह जल की महत्ता का प्राचीनतम कथा अंश ही है।
बैंगा मध्यप्रदेश की अत्यंत पिछड़ी जनजाति मानी जाती है। धरती बनने की बैगा कथा जल से शुरू होती है। बहुत पहले चारों ओर जल ही जल था। उस जल के ऊपर कमल का एक पुराना पत्ता तैर रहा था। उस पर भगवान बैठे रहते थे। ऐसे कई दिन निकल गये। भगवान दिन-रात सोच में रहने लगे। मन में विचार करने लगे। यहाँ तो जल ही जल है, धरती कहीं है ही नहीं। ऐस सोचते-सोचते एक दिन ब्रह्मा ने अपनी छाती से मैल निकालकर एक कौआ बनाया।
नांगा बैगा और नांगी बैगिन की उत्पत्ति कथा में आगे कहा गया है- ‘प्रारंभ में भगवान बिना सृजन के निष्क्रिय बने रहे। न धरती थी, न आकाश, न हवा थी, न पानी था। यहां तक कि भगवान में किसी प्रकार की इच्छा तक नहीं थी। हजारों वर्ष इसी प्रकार निकल गये। कहीं कोई हलचल ही नहीं थी। एक दिन भगवान के मन में इच्छा जागृत हुई और सृजन की शुरुआत हुई।
भगवान ने पहले जल बनाया, हवा बनाई, जल में लहरें उठने लगीं। भगवान लहरों पर ही हजारों साल सोते रहे, हिचकोले खाते रहे। फिर वह दिन भी आया जब भगवान ने धरती बनाई, उस पर नांगा बैगा और नांगी बैगिन को बनाया।
बेवर खेती (Shifting cultivation) की कथा में भी जल का जिक्र इस प्रकार आया है- ‘पहले धरती नहीं थी। चारों ओर जल ही जल था। एक दिन ब्रह्मा ने जल में धरती बनाई।’ उसी धरती से दो साधू निकले। एक ब्राह्मण दूसरा साधू नांगा बैगा था। ब्रह्मा ने पहले को कागज-कलम दी और दूसरे को टंगिया दिया। तब से बैगा जंगल काटकर खेती करते हैं। यही बेवरखेती कहलायी। खेती बादलों से पानी बरसने से होती है।
एक कथा में पत्तों पर पानी भर जाने के कारण देवता पानी पर क्रोधित हो गये और यही क्रोध धरती की उत्पत्ति का कारण बना। कथा इस प्रकार है- बहुत पहले चारों ओर जल ही जल था। जल में केवल एक कमल का फूल और कुछ पत्ते थे। पत्तों पर सब देवगण बैठते थे। एक बार हवा का झोंका आया और पत्तों पर पानी ही पानी भर गया। देवताओं को बैठने की जगह नहीं थी। देवता भींग गये, वे पानी पर क्रोधित हो गये, लेकिन क्या करते? विचार कर उन्होंने पानी पर धरती बनाने की सोची। धरती का कहीं पता ठिकाना नहीं था, जलराशि के छोर में एक जम्बू द्वीप था। कथा आगे बढ़ती है और नांगा बैगा ने धरती का पता बताया। धरती बनी और बैगा धरती के पुजारी बने।
गोंड बहुत पुरानी जनजाति है। उनकी मिथकथाओं में जल की उपस्थिति भी पृथ्वी के पहले की है। गोंड मिथकथाओं में कथाओं का अधिक विस्तार मिलता है, इसका कारण गोंड लोगों की सम्पन्नता और कल्पनाशीलता का पता लगता है। एक कथा में कहा गया है- सृष्टि के पहले कुछ भी नहीं था, फिर जल बना, चारों ओर जल ही जल फैल गया। जल की लहरों पर एक बहुत बड़ा कमल का फूल पैदा हुआ। उसकी पंखुड़ियाँ अनन्त को छुती थीं। उस पर भगवान महादेव समाधि लगाकर अनन्तकाल तक बैठे रहे। एक बार उनकी समाधि टूटी तो उन्होने देखा चारों ओर जल ही जल है। भगवान खूब देर तक सोचते रहे। फिर अचानक भगवान अपनी छाती का मैल निकालने लगे। मैल इकट्ठा हो गया तो उन्होंने एक पक्षी बनाया। वह पहला पक्षी कौआ था। यही कौआ पाताल लोक में छिपी मिट्टी लाने में सक्षम होता है और महादेव ने उसी मिट्टी से जल में पृथ्वी बनाई।
आदिम कथाओं में आद्य मानव ने प्रकृतिजन्य अनुभव से जो अभिप्राय गढ़े, वे प्रायः मनुष्य के स्वभाव की आन्तरिक परतों से छनकर बने हैं। यही कारण है कि वे कथाओं में हजारों वर्षों में बिना बदले ज्यो के त्यों आते चले गये। मिथक संसार को समझने की एक अन्तर्दृष्टि की प्रक्रिया है, इसलिए उसे आदिम दर्शन या मेटाफिजिकल विचार मान सकते हैं। जल एक भौतिक तत्व है। जल पर धरती बनी है। उसमें जल का भार सर्वाधिक है। उसके चारों ओर जल ही जल है। विज्ञान भी यही कहता है। जल एक आदिम सच है। धरती पर तीन गुना जल है। मानव शरीर में पानी की मात्रा तीन चौथाई है। सारी वनस्पति जल की निर्मिति है। जल जीवन का अनिवार्य अंग है। जल ही जीवन है। जल के बिना जीवन असंभव है। जल में धरती कमलवत है, इसलिए पृथ्वी की प्रारम्भिक कथाओं में कमल के फूल और पत्तों का आख्यान पहले आता है। जल में ही कमल पैदा होता है। उसके पत्ते जल में रहते हुए जल से विलग तैरते हैं, कमल पत्तों पर देवता बैठते हैं। इसका मतलब देवता जल में भी हैं और जल के ऊपर भी हैं। बैगाओं में जल और पृथ्वी की रिश्ते की कहानी अद्भुत है। जल और पृथ्वी का रिश्ता रक्त का है। कथा है- धरती स्त्री के खून से बनी है। आकाश में उड़ने वाले कौए, जल में रहने वाले कछुए और केकड़े के अथक प्रयास से मिट्टी का मिलना जब संभव हो गया तो पृथ्वी की रचना हुई। पाताल लोक, जो पानी के नीचे था, वहाँ की नागकन्या अपने स्वयंवर में सारे देवताओं को छोड़ जम्बू द्वीप के नांगा बैगा से विवाह करने की निश्चय करती है, उसके गले में वह वरमाला भी डाल देती है, पर नांगा बैगा तो साधू ठहरे। वे नाराज हो गये। उन्होंने जिसे पुत्री माना फिर उससे विवाह कैसे हो सकता है? यह पाप है और उन्होंने उस कन्या के दो टुकड़े कर दिये, उसका खून सारे जल में फैल गया। नांगा बैगा और देवताओं ने उस फैले खून को थपथपाया, जिससे पृथ्वी बन गई। ऊँचे-नीचे स्थान पर्वत झील समुद्र बन गये। नांगा बैगा ने धरती बनाई इसलिए वह ‘भूमिया’ कहलाया। पृथ्वी उसकी बेटी है, वह उसकी छाती पर हल नहीं चलाता। बैगा आदिवासियों की स्वैर कल्पना का यह सबसे मौलिक मिथक है। स्त्री और धरती दोनों प्रजनन करती हैं, इसलिए दोनों को ‘माता’ कहा गया है।
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