जल की काया, जल की माया

पानी ही हमारा जीवन है। पंचतत्व में से एक पानी से ही जीवन की परिकलन हुई। जल प्रलय की बात हर संस्कृति के मूल में मिलती है, वहीं से सजीव के सृजन की भी बात शुरू होती है, यानी पानी ही सर्वोपरि है। तभी तो हमारे मालवा में कहावत है - ‘जल की काया, जल की माया, जल का सकल पसारा, जल से कौन है न्यारा रे।’ पृथ्वी हो या हमारा शरीर, इसमें तीन हिस्से तो जल ही है। दरअसल, पानी, सिर्फ पानी नहीं है। इसकी शुद्धता को कायम रखना भी हमारी संस्कृति है। पानी की शुद्धता का ख्याल हर घर मे रखा जाता है। मुझे याद आता है कि मेरी दादी-नानी कई किलोमीटर से सिर पर सँजोकर पानी के घड़े लाती थीं। वह पीने के पानी के घड़े को रसोईघर में रखती थीं। वहां हर रोज इसकी पूजा होती थी। उस मटके को कोई बिना हाथ धोए छू नहीं सकता था। इतना ही नहीं, जब भी कोई पूजा होती है या कोई कुआं खोदा जाता है, तब जल देवी का आवाहन करने की परंपरा है। 

विंध्य पर्वत श्रृंखला और मालवा की पहाड़ी अंचल में बसा, मेरे गांव ‘लुनियाखेड़ा’ में पानी की बहुत ज्यादा किल्लत नहीं रही है। क्षिप्रा नदी उज्जैन शहर से गुजरती ही है। वह चम्बल में आगे जाकर मिलती है। इस कारण आमतौर पर पानी तो मिल जाता है। पर, अब गर्मी के मौसम में पानी की कमी खलने लगी है। हमारे यहां ट्यूबवेल है, सो हम लोग अब पानी टंकियों में भरकर काम चला लेते हैं, और आसपास के लोग केन में भरकर या बैलगाड़ी से टंकियां भरकर ले जाते हैं। यह हालत देखकर, सोचता हूँ कि पता नहीं आनेवाले समय मे क्या स्थिति होगी। 

मुझे याद आता है, मेरे गांव में लगभग दो सौ कुएं थे। उनमें सालभर पानी रहता था, पर अब मात्र दस-पन्द्रह कुएं ही बचे हैं, जिनमें पानी बचा है। पानी के सत्व की रक्षा करना हर नागरिक का कर्तव्य है। इस संदर्भ में कबीरजी ने कहा है - ‘सुमिरन की सुध यूं करो, जो गागर सिर परिहारिन के’। वास्तव में, जल, थल, जीव में सब जगह वही परमात्मा विराजित है। कुएं जे जरिए हम बारिश के पानी का सहज संग्रह कर लेते थे, लेकिन कुओं के सूखने और उनका उचित रख-रखाव नहीं होने से वह बेकार होने लगे हैं। हम प्रकृति का सघन दोहन तो करते हैं, पर हमारे भीतर अब सहजीविता का भाव नहीं रहा। हम लोग परजीवी अमरबेल की तरह बनते जा रहे हैं, सिर्फ और सिर्फ लेने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। बड़ी-बड़ी नदियां कारोबार का जरिया बन गईं। कभी बड़ी परियोजना के नाम पर, कभी बिजली उत्पादन के नाम पर, तो कभी यातायात या नहरों के निर्माण के बहाने। इन योजनाओं के बनने में और कार्यान्वयन करने में, आम आदमी की न कभी राय ली जाती है और न उस क्षेत्र के लोगों से बात की जाती है। करोड़ों के खर्च के बाद भी, सबके हिट के लिए कितना काम हो पाता है? यह प्रश्नवाचक ही बना रहता है, इसलिए मुझे ये पानी और नदी के नाम पर ज्यादातर काम तो छलावा ही प्रतीत होते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ तो पानी, प्रकृति और इंसान सभी प्रेम और सद्भाव के प्रतीक हैं। 

पानी प्रकृति की बहुमूल्य देन है। इस बेशकीमती पानी का कोई रंग नहीं है। पानी के रंगविहीन स्वभाव से आने में में नए रंग का प्रादुर्भाव होना, हमें व्यर्थ की दुश्मनी, वैर, आक्रोश को भूल जाने को प्रेरित करता है। मैं तो वैसे भी कोशिश करता हूँ कि मेरे संगीत के जरिये कबीर की बात लोगों तक पहुंचे। लोगों के बीच जी दूरियां या दीवार खड़ी हो गई हैं, वह खत्म हों। एक ज्ञानी ने कहा है - ‘सब रंग पानी से भया, सब रंग पानी से गया, कौन रंग है नील का, सो मोह देहो बताए।’ और इसी तरह एक गीत है - ‘पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा?’ सोचता हूँ कि छह सौ साल पहले कबीर अवतरित हुए थे, लेकिन उनकी बातों का प्रचार-प्रसार वैसा नहीं हुआ, जैसा चाहिए था। 

दुनिया को बदलने की निर्भीकता से अपनी बात कहने का जो जज्बा कबीर में है, वह किसी और में नहीं है। कबीर की बातों का असर मैंने देवास की कंजर प्रजातियों पर सहज रूप से देखा है। कबीर ने लोगों के बीच की दूरियों को मिटाने की कोशिश की। मज़हब-जाति की दीवारों को गिराने की कोशिश की। कबीरदास जी वाणी में ताकत है कि वह इंसान को अंदर से बदल सकती है। यदि ऐसा हो जाए तो यह संसार स्वर्ग बन जाए। लोक कलाकारों ने लोक परंपरा को लोक भाषा के रूप में जिंदा रखा है। वहीं लोक संस्कृति बोली के रूप में क्षेत्रीय तौर पर जिंदा है। दुर्भाग्य है कि लोक परंपरा की जीवंत परंपरा को वह मान्यता नहीं मिली। वह लिखा-लिखी की बात नहीं है। वाचिक की अनुभूति अंतर्मन से होती है। यह पूरे कायनात के लिए है। मेरे जीवन मे कबीर के पद और संगत से गुण उपजे। मैंने मौखिक रूप से गुरुओं से सीखा, पर उसे जीवन मे उतारना तो निजी मामला है। कबीर ने लोगों के बीच की दूरियों को मिटाने की कोशिश की। जैसे नर्मदा का पानी हो या क्षिप्रा का पानी, या किसी कुएं का पानी; सब रंगविहीन है। यही तो मानव समाज का भी सच होना चाहिए, जिसमें इंसानों के बीच किसी तरह का भेदभाव और अंतर नहीं रह जाएं। सब समान, सद्भाव और प्रेम से रहें, यही मेरा मन कामना करता है। 

प्रह्लाद सिंह टिपाणिया
(लेखक प्रसिद्ध लोकगायक हैं)

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