जल की जय हो

भारत में जल की बढ़ती हुई मांग और अनुपलब्धता को देखते हुए कैबिनेट कमेटी ने 2007 को जल वर्ष के रूप में अनुमोदन किया था । इस देश में पानी की उपलब्धता 4000 लाख घन मीटर है जिसमें से 2150 लाख घन मीटर पृथ्वी की निचली सतह में चला जाता है । 1150 लाख घन मीटर नदी व नालों में जल भराव के रूप में बह जाता है और 700 लाख घन मीटर भाप के रूप में नष्ट हो जाता है । हमारे देश में कुल उपलब्ध पानी से लगभग 1400 लाख हैक्टर क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है लेकिन अब तक 570.3 लाख हैक्टर क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है । विगत वर्षों में प्रति व्यक्ति पानी के उपलब्धता 5300 घन मीटर (1955) से घटाकर 1731 घन मीटर (2005) हो गई है जो भविष्य में आने वाले संकट को प्रदर्शित करती है । प्रमाणित तथ्यों से यह भी पता चलता है कि 2025 में सिंचाई के लिए पानी की मांग लगभग 730 बिलियन घन मीटर हो जाने की संभावना है ।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में 161.7 लाख घन मीटर जल सतह पर तथा 72 लाख घन मीटर भूगर्भ जल उपलब्ध है जसमें 71.7 लाख घन मीटर सतह जल एवं 27 लाख घन मीटर भूगर्भ जल का ही उपयोग हो पता है, जिससे लगभग 128.3 लाख हैक्टर क्षेत्र में ही सिंचाई उपलब्ध हो पाती है । यद्यपि उत्तर प्रदेश में सिंचित क्षेत्र (76.3 प्रतिशत) है जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है लेकिन पानी के उपयोग की क्षमता बहुत ही कम है ।

पानी के भावी संकट के बारे में जनजागरूकता पैदा करने के साथ-साथ सभी नागरिकों द्वारा अपने-अपने स्तर पर पानी के उपयोग की दक्षता बढ़ाने में सहयोग करने के लिए विशेष अभियान चलाया जा रहा है । इसी प्रकार भारत निर्माण कार्यक्रम के अंतर्गत, आने वाले वर्षों में 100 लाख हैक्टर अतिरिक्त क्षेत्र को सिंचित क्षेत्र में बदलना है । अतः विभिन्न स्तरों पर जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए विभिन्न रणनीतियां अपनाई जा सकती हैं ।
 

सिंचित अवस्था में प्रक्षेत्र जल उपयोग क्षमता सुधार


भारत में नलकूप (35.6 प्रतिशत) तथा सरकारी नहरें (30.2 प्रतिशत) सिंचाई के प्रमुख स्रोत है । उत्तर प्रदेश में प्रदेश के कुल कृषि योग्य क्षेत्र का 69.3 प्रतिशत क्षेत्र नलकूप तथा सरकारी नहरों द्वारा ही सिंचित है । राज्य में भूगर्भीय स्रोतों के विस्तार के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाये गए हैं । 74,000 कि.मी. नहरें फसलों को सिंचाई उपलब्ध कराती हैं । इन नहरों का ठीक तरह से रखरखाव न होने के कारण नहर के जल का 50-60प्रतिशत जल व्यर्थ में अपव्यय हो जाता है । इसके अतिरिक्त सिंचाई कमाण्ड क्षेत्रों में भी समुचित विकास नहीं हुआ हैं । इस प्रकार जल स्रोतों का 20-40 प्रतिशत उपयोग ही कृषि में हो पाता है । मुख्य नहर और वितरण के लिए सहायक नहरों के मेड़बंदी करके मार्ग में होने वाले जल की क्षति रोकी जा सकती है । आंकड़े बताते हैं कि कुछ चयनित बिंदुओं पर नहरो की 55-60 प्रतिशत मेड़बंदी द्वारा जल की 70-75 प्रतिशत क्षति रोकी जा सकती हैं । पंजाब में नहरों की मेड़बंदी द्वारा नहरों अग्र, मध्य और अतिंम छोर के क्षेत्रों में फसलों की सघनता को क्रमशः 15,30 व 45 प्रतिशत तक बढ़ाया गया है । प्रक्षेत्र जल उपयोग क्षमता में वृद्धि करने हेतु निम्नलिखित प्रयास सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।

● जल की उपलब्धता के अनुसार उपयुक्त फसल चक्रों का ही चयन करना चाहिए । सिंचाई के जल की सीमित मात्रा में उपलब्धता अथवा नहर कमाण्ड क्षेत्र के अंतिम सिरे पर स्थित क्षेत्रों में जल की कम आवश्यकता वाली तथा जल के उपयोग की उच्च दक्षता वाली फसलें जैसे दलहनी और तिलहनी फसलें ही उगानी चाहिए । एक परीक्षण में सीमित सिंचाई की अवस्था में लुधियाना में मूंग-गेहूं फसल प्रणाली मक्का -गेहूं फसल प्रणाली की अपेक्षा अधिक प्रभावी पाई गई ।

अध्ययन में पाया गया कि उपरोक्त क्षेत्रों में धान की फसल की अधिक जल आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए फसल प्रणाली में धान को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए । धान की खेती वाले परंपरागत क्षेत्रों में जल प्रबंधन की नवीनतम तकनीक अपनाकर सिंचाई के बाद संतृप्त अवस्था तकनीक अपनाने से 25-60 प्रतिशत जल की बचत हो सकती है । सिंचाई के जल की सीमित मात्रा में उपलब्धता होने पर फसलों की जल उपयोग क्षमता में सुधार करने के लिए जल के उचित प्रबंधन को प्रोत्साहित करना चाहिए । इस विधि में फसल वृद्धि की क्रांतिक अवस्थाओं पर 50-75 प्रतिशत सिंचाई द्वारा फसल की उपज में बिना कोई कमी लाए जल की बचत की सकती है, परंतु ऐसा निर्णय लेते समय फसल की प्रकृति तथा क्षेत्र की जल आवश्यकता को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए ।

● विभिन्न फसलों के लिए जल उपयोग की अच्छी क्षमता वाली सिंचाई विधियों को अपनाना-खेत में पानी भरने तथा बार्डर स्ट्रिप विधियां जिनसे पानी का बहुत अपव्यय होता है, की अपेक्षा मेड़ और नाली विधि उचित पाई गई है । अब कुछ ऐसे रिज-फरो प्लान्टर विकसित किए गए हैं जो यांत्रिक विधि से मेड़ों पर बुआई अथवा पौध लगा सकते हैं तथा उनके द्वारा बनाई गयी नालियों को सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जासकता है । हाल में नालियों द्वारा सिंचित बीज शैया गेहूं और दलहनी फसलों में जल की बचत करने की फसल तकनीक के रूप में लोकप्रिय हो रही है । इन फसलों में नालियों द्वारा सिंचाई करने से जल की 35-40 प्रतिशत बचत हो जाती है । इसके अतिरिक्त, एक-एक कूंड छोड़कर सिंचाई करने से और भी जल बचाया जा सकता है । गन्ने में एक-एक कूंड क्रमशः छोड़कर सिंचाई करके तथा गन्ने की पत्तियों को पलवार के रूप में प्रयोग करके 55 प्रतिशत जल से ही सामान्य उपज प्राप्त की जा सकती है । गंगा के मैदानी क्षेत्रों में सूरजमुखी, मक्का, कपास, टमाटर व सरसो की फसलों में दो कूंडों के मध्य एक कूंड छोड़कर सिंचाई करने से 12-30 प्रतिशत जल की बचत की जा सकती है ।

स्प्रिंकलर, माइक्रो -स्प्रिंकलर तथा टपक सिंचाई जैसी आधुनिक सिंचाई प्रणालियों द्वारा जल उपयोग की क्षमता के साथ-साथ पोषक तत्व उपयोग क्षमता में भी सुधार लाया जा सकता है । धान और जूट जैसी फसलों को छोड़कर अन्य सभी फसलों में स्प्रिंकलर तथा माइक्रो-स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली अपनायी जा सकती है । स्प्रिंकलर विधि द्वारा सिंचाई करने से जल की आवश्यकता में 20-30 प्रतिशत तक कमी लाई जा सकती है व साथ ही साथ उपज में 30-40 प्रतिशत के मध्य वृद्धि हो सकती है । टपक सिंचाई प्रणाली द्वारा सिंचाई करने से जल उपभोग क्षमता 58 से 90 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकती है । इसी कारण यह प्रणाली तीव्रता से अत्यंत लोकप्रिय हो रही है । सिंचाई की सामान्य विधियों की अपेक्षा टपक सिंचाई द्वारा कपास (169 प्रतिशत), अंगूर (134 प्रतिशत), आलू (46 प्रतिशत), गन्ना (163 प्रतिशत) व टमाटर (145 प्रतिशत) की जल उपभोग क्षमता में सुधार पाया गया है । इस प्रणाली के अपनाने से जल की बचत के साथ- साथ उर्वरकों का भी प्रबंधन उचित रूप से होता है तथा खरपतवारों तथा रोगों व कीटों से भी फसलों को कम क्षति पहुंचती है ।

● सर्ज सिंचाई कूड़ों / बार्डर द्वारा सतही सिंचाई करने की नई विधि है जिसमें पानी की लगातार आपूर्ति के बजाय सर्ज में जलापूर्ति की जाती है । इस प्रणाली से हल्की मृदा में जल अधिक गहराई तक नहीं जा पाता है । केबिलगेशन प्रणाली एक नवीनतम विकसित स्वचालित सतही सिंचाई करने की विधि है जिसमें प्रक्षेत्र फसलों, बागों व पेड़ों में सुगमता से सिंचाई की जा सकती है । इस प्रणाली में पूर्व निश्चित मात्रा में स्वचालित विधि से सिंचाई की जाती है, जिससे न तो जल अधिक गहराई में जाता है न ही बहकर व्यर्थ होता है । कम ऊर्जा के सटीक प्रयोग वाली यह प्रणाली कम दाब वाली सिंचाई के लिए उपयुक्त रहती है ।

● भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के क्षेत्रय अभियांत्रिकी शोध केन्द्र, पटना द्वारा विकसित एल.ई.डब्ल्यू.ए. प्रणाली गेहूं, दलहनी तथा तिलहनी फसलों में बहुत कम निवेश ही जल उपयोग क्षमता में वृद्धि कर देता है । इस प्रणाली को अपनाने से गेहूं पर किये गये प्रक्षेत्र परीक्षणों में स्प्रिंकलर प्रणाली की अपेक्षा जल की 10-15 प्रतिशत तथा ऊर्जा की 30-50 प्रतिशत तक बचत हुई है ।

स्वतंत्रता के बाद भारत में ताजे जल की प्रति व्यक्ति घटती उपलब्धता

वर्ष

जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता (मी3)

1947

6008

1955

5300

1990

2464

1997

1967

2005

1731

● ● फसलों की जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए अन्य जल बचत विधियां अपनाने के साथ ही समन्वित फसल प्रबंधन क्रियायें अपनाना भी अत्यंत आवश्यक हैं । फसलों की उपज तथा जल उपयोग क्षमता में सुधार करने के लिए जल एवं पोषक तत्व की उच्च क्षमता वाली प्रजातियां, सामयिक बुआई, प्रभावी फसल प्रबंधन, सामयिक खरपतवार प्रबंधन तथा कीट एवं रोग प्रबंधन आवश्यक हैं । सामान्यतया शीघ्र से मध्यम अवधि वाली प्रजातियों की जल आवश्यकता देर से पकने वाली प्रजातियों की अपेक्षा कम होती है । उपयुक्त पौध संख्या एवं पंक्तियों में बुआई भी जल उपयोग क्षमता को प्रभावित करती है । जल उपयोग क्षमता को उपयुक्त अंतर्सस्य पद्धति, जल संरक्षण तथा कम कर्षण क्रियाओं द्वारा सुधारा जा सकता है ।

कुछ प्रमुख फसलों की जल उपयोग क्षमता

फसल

जल आवश्यकता (मि.मी.)

उत्पादकता (टन/हैक्टर)

जल उपयोग क्षमता (कि.ग्रा./हैक्टर मि.मी.)

धान

1100

5.5

5.0

मक्का

440

6.3

14.3

मूंगफली

470

2.8

6.3

गेहूं

320

4.5

14.1

सरसों

150

1.7

11.3

आलू

500

35.0

70.0

प्याज

820

35.6

43.4

मटर

155

2.2

14.2

तिल

270

0.9

3.3

गन्ना

1700

97.0

57.0

चना

220

2.4

10.0

अलसी

160

1.9

11.9

बारानी दशाओं में जल उपयोग क्षमता में सुधार

सिंचाई की सुविधाओं का पूरा उपयोग करने के बाद भी निकट भविष्य में भारतीय कृषि बारानी दशा पर ही निर्भर रहेगी । वर्तमान में कुल फसल उत्पादन का 52 प्रतिशत योगदान बारानी कृषि द्वारा ही होता है । बारानी कृषि जहां एक तरफ मध्य तथा पश्चिमी राज्यों में वर्षा की कमी की समस्या से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर उत्तर-पूर्वी राज्यों में वर्षा की अधिकता तथा जल भराव की समस्या से ग्रस्त है । अतः जल उपयोग क्षमता को सुधारने की रणनीति सभी स्थानों के लिए अलग-अलग बनानी होगी, परंतु इसके लिए कुछ सामान्य विधियां उल्लेखित हैं :
 

टपक सिंचाई द्वारा जल की उत्पादकता

फसल

उत्पादकता में वृद्धि(प्रतिशत)

जल की बचत(प्रतिशत)

जल उत्पादकता में वृद्धि(प्रतिशत)

केला

52

45

+173

कपास

27

60

+255

अंगूर

23

48

+134

गन्ना

6

60

+163

टमाटर

5

27

+49

बंदगोभी

2

60

+150


● फसल उत्पादन के लिए सीमित मात्रा में नमी उपलब्ध हेने के कारण उत्पादन में वृद्धि और जल उपयोग क्षमता में सुधार करने के लिए जल उपयोग क्षमता में सुधार करने के लिए जल की एक-एक बूंद का संरक्षण किया जाना चाहिए । खेतों में फसल अवशेषों को पलवार के रूप में प्रयोग करना नमी संरक्षण की प्राचीनतम, मितव्ययी तथा समय परीक्षित विधि है । बिना पलवार के प्रयोग की तुलना में धान के भूसे की पलवार को 5 टन प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करने पर सब्जियों की उत्पादकता व जल उपयोग क्षमता में क्रमशः 45 तथा 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई । हल्की मृदाओं में निराई तथा पौध संख्या कम करने के बाद खरपतवारों तथा घासों को भी पलवार के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है । खेतों की सतह पर बार-बार होइंग द्वारा धूल पलवार बनाई जा सकती है । टमाटर, भिण्डी, मिर्च, आलू, मटर, शिमला मिर्च तथा पपीते में पलवार के प्रयोग के साथ-साथ सिंचाई करने से उत्पाकता में वृद्धि के साथ-साथ जल उपयोग क्षमता में वृद्धि के साथ-साथ जल उपयोग क्षमता में सुधार लाया जा सकता है ।

● उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र व राजस्थान के कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्यम ढलान वाली भूमि में कृषकों द्वारा खेतों का समतलीकरण, बंध बनाकर व संरक्षण कूंड बनाकर मृदा में जल का संरक्षण किया जा रहा है ।

● मध्य भारत में ग्रीष्मकाल में खेतों की गहरी जुताई भी जल संरक्षण की एक प्रमुख विधि है । इससे वर्षा का जल भूमि में काफी गहराई तक अवशोषित हो जाता है, जिसका उपयोग आगामी मौसम की फसलों के सफल उत्पादन के लिए किया जा सकता है । उच्च उत्पादकता प्राप्त करने तथा जल उपयोग क्षमता में सुधार करने के लिए जल संरक्षण कर्षण तथा शून्याकर्षण अत्याधुनिक फसल प्रबंधन विधि के रूप में लोकप्रिय हो रही हैं । संरक्षण कर्षण में भूमि की सतह पर फसल अवशेषों की पर्याप्त मात्रा छोड़ दी जाती है, जो पलवार का कार्य करती है । जबकि शून्याकर्षण में फसल की बुआई एवं उर्वरकों का प्रयोग बगैर खेत की छेड़खानी किये ही किया जाता है । इससे मृदा में जल संरक्षित रहता है, फसल का विकास भी अच्छा होता है तथा उत्पादकता भी अधिक मिलती है । गंगा के मैदानी क्षेत्रों में शून्याकर्षण विधि द्वारा गेहूं के अंतर्गत क्षेत्र निरंतर बढ़ रहा है ।

नहर सिंचाई प्रणाली में जल की क्षति के स्रोत

स्रोत

प्रतिशत क्षति

मुख्य नहर

15-20

वितरण और लघु नहरें

6-8

प्रक्षेत्र नालियां

20-22

प्रक्षेत्र वितरण

25-27

निक्षालन और पौधों द्वारा स्वतः

भाप बनकर एवं वाष्पोत्सर्जन

28-29

वाटर हार्वेस्टिंग तथा वाटरशेड प्रबंधन


वाटर हार्वेस्टिंग जल संरक्षण की सबसे प्रभावी और सस्ती विधि है । वाटर हार्वेस्टिंग के निचले इलाकों में चैक डैम बनाकर वर्षा के जल को संरक्षित किया जाता है तथा इसका उपयोग फसलों की जीवनदायी सिंचाई करने में किया जाता है । 100 मिलियन मीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों के खेतों तथा उथले तालाबों में जल एकत्रित करना चाहिए तथा संरक्षित जल के रिसाव रोकने के लिए पॉलीथीन लाइनिंग प्रयोग करना चाहिए ।

भूगर्भीय जल प्रबंधन


उत्तर प्रदेश में भूगर्भीय जल सिंचाई का प्रमुख स्रोत है । अतः जल उपयोग क्षमता में सुधार लाने हेतु भूगर्भीय जल की रिसाइकलिंग अत्यंत आवश्य है । उत्तर प्रदेश में खेतों के तालाबों के निर्माण / सुधार (133), जल निकासी द्वारा निकले जल की रिसाइकलिंग (45.61 कि.मी.), पर्कोलेशन पिट्स / कुए (67) तथा कृष्णी नदी पर चैक डैम के निर्माण द्वारा भूगर्भीय रिचार्ज कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है । इससे भूगर्भीय जल के स्तर में 2 से 5 मीटर तक वृद्धि हुई है । कुओं तथा नलकूपों द्वारा भूगर्भीय जल के उपयुक्त उपयोग पर अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना के अंतर्गत अपरिवर्तनीय पी.वी.सी. नलकूपों का विकास, उन्नत प्रौपेलर पम्प, उन्नत फुट वाल्व, आदिवासी क्षेत्रों में चेन पम्पों, प्रभावी रिफ्लक्स वाल्व व उथले नलकूपों में कम लागत वाली वैल स्क्रीन्स जैसी जल उपयोग क्षमता में प्रभावी सुधार करने वाली अनेकों को विधियां विकसित की गई हैं।

एक-एक कूंड छोड़कर सिंचाई करने से जल की बचत

फसल

जल की बचत (प्रतिशत)

सूरजमुखी

12.0

गोभी सरसों

18.0

कपास

27.0

टमाटर

16.0

मक्का

29.0

गन्ना

45.0

सतही तथा भूगर्भीय जल दोनों का सहउपयोग


इस विधि में सतही तथा भूगर्भीय जल दोनों का सहउपयोग इस प्रकार किया जाता है कि एक निश्चित पद्धति की जल उत्पादकता दोनों प्रकार के जल की उत्पादकता दोनों प्रकार के जल की उत्पादकता के जोड़ से अधिक हो । इस विधि द्वारा सिंचाई करने से नदियों द्वारा जल स्तर घटने के कारण नहरों में जलापूर्ति की समस्या काफी हद तक निदान हो जाता है तथा फसलों की जोड़ों के पास जल स्तर तथा लवणता बढ़ने की समस्या भी नहीं रहती । दोनों प्रकार के स्रोतों का जल प्रयोग करने से अधिक लवणता वाले भूगर्भीय जल का उपचारित किए बगैर प्रयोग में लाया जा सकता है । पश्चिमी यमुना नहर कमाण्ड में ऑग्मैन्टेशन नलकूपों का निर्माण सतही तथा भूगर्भीय जल के सहउपयोग का सजीव उदाहरण है ।

स्प्रिंकलर सिंचाई द्वारा फसलों में जल बचत

फसल

जल बचत(प्रतिशत)

उत्पादकता में वृद्धि (प्रतिशत)

गेहूं

30

18-36

मक्का

41

36

आलू

46

4

चना

69

57

मूंगफली

20

40

लोबिया

19

3

बंदगोभी

40

3

भिण्डी

28

23

जल के विविध उपयोग


मछली उत्पादन के तालाबों तथा द्वितीयक जलाशयों से नहरों को गुजारकर तथा बंधों पर सब्जी तथा फलों के वृक्षों को लगाकर जल भराव वाले क्षेत्रों में जल को विविध उपयोगों में लाना एक लोकप्रिय तकनीक है । साप्ताहिक जल के बदलाव से 10 टन/ हैक्टर अधिक मछलियां पैदा करके अतिरिक्त आय भी अर्जित की जा सकती है । वर्षा जल की हार्वेस्टिंग / खेत के तालाबों / चैकडैम में मछली पालन करके जल के उपयोग के साथ जल की उपयोग क्षमता में सुधार लाया जा सकता है ।

जल प्रबंधन में सहभागिता


नहर कमाण्ड क्षेत्रों में, नहर के आरंभिक, मध्य और पिछले छोर का नहर का पानी प्रयोग करने वाले किसानों, सरकारी अधिकारियों / कर्मचारियों तथा ग्रामवासियों की एक समिति नहरों द्वारा जलापूर्ति का समय, दर और आपूर्ति की आवृति निर्धारित करती है किसान भाई आपस में विचार-विमर्श करके एक ऐसी फसल योजना (बुआई एवं सिंचाई का समय) तैयार करें जिसमें सिंचाई के जल का न तो दुरुपयोग हो और न ही कमी पड़े । इस प्रकार ग्राम स्तर पर फसलों की उत्पादकता के साथ-साथ उनकी जल उपयोग क्षमता भी बढ़ती है अतः समय की मांग है कि हम जल की प्रत्येक बूंद का उपयोग करें एवं इसके दुरुपयोग को रोकें, अन्यथा आने वाले समय में सफल एवं टिकाऊ खेती के लिए जल की आपूर्ति एक प्रश्न चिन्ह बनकर रह जायेगी ।

 

 

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