भारत में, सिंचित क्षेत्र निवल बुवाई क्षेत्र का लगभग 36 प्रतिशत है। वर्तमान में कृषि क्षेत्र में संपूर्ण जल उपयोग का लगभग 83 प्रतिशत जल उपयोग में लाया जाता है। शेष 5, 3,6 और 3 प्रतिशत जल का उपयोग क्रमश: घरेलू, औद्योगिक व उर्जा के क्षेत्रों तथा अन्य उपभोक्ताओं द्वारा किया जाता है। भविष्य में अन्य जल उपयोगकर्ताओं के साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने के कारण विस्तृत होते हुए सिंचित क्षेत्र के लिए जल की उपलब्धता सीमित हो जाएगी। सिंचाई की परंपरागत सतही विधियों में जल की क्षति अधिक होती है। यदि ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई की विधियों को अपनाया जाए तो इन हानियों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इन सभी सिंचाई की विधियों में से ड्रिप सिंचाई सर्वाधिक प्रभावी है और इसे अनेक फसलों, विशेषकर सब्जियों, बागानी फसलों, पुष्पों और रोपण फसलों में व्यापक रूप से उपयोग में लाया जा सकता है। ड्रिप सिंचाई में इमीटरों और ड्रिपरों की सहायता से पानी पौधों की जड़ों के पास डाला जाता है या मिटटी की सतह अथवा उसके नीचे पहुंचाया जाता है। इसकी दर 2-20 लीटर/घंटे अर्थात बहुत कम होती है। जल्दी-जल्दी सिंचाई करके मृदा में नमी का स्तर अनुकूलतम रखा जाता है। ड्रिप सिंचाई के परिणामस्वरूप जल अनुप्रयोग की दक्षता बहुत उच्च अर्थात लगभग 90-95 प्रतिशत होती है। विशिष्ट ड्रिप सिंचाई प्रणाली चित्र में दर्शायी गयी है।
ड्रिप सिंचाई का इतिहास
भारत के कुछ भागों में प्राचीन परंपरा के अंतर्गत ड्रिप सिंचाई का उपयोग हुआ है और इसके द्वारा घर के आंगन में रखे तुलसी के पौधे की सिंचाई की जाती थी। गर्मियों के मौसम में पौधों की सिंचाई के लिए वृक्षों या पौधों के पास एक छोटा छेद करके पानी से भरा घड़ा लटका दिया जाता था जिससे बूंद-बूंद कर पानी टपकता रहता था। अरूणाचल प्रदेश के आदिवासी किसानों ने पतले बांस को पानी के प्रवाह के रूप में नाली का इस्तेमाल करते हुए ड्रिप सिंचाई प्रणाली को आदिप्रथा के रूप में अपनाया था। उप-सतही सिंचाई में ड्रिपरों का उपयोग जर्मनी में 1869 में पहली बार किया गया। 1950 के दशक के दौरान और इसके पश्चात पैट्रोरसायन उद्योग में हुई तेजी से वृद्धि से कम लागत पर प्लास्टिक के पाइपों का निर्माण करना संभव हुआ। ये पाइप धातु या सीमेंट-कंक्रीट से बने पाइपों की तुलना में सस्ते व सुविधाजनक थे। प्लास्टिक के पाइप दबाव के अंतर्गत जल को वहन करने में सुविधाजनक होते हैं तथा इन्हें वांछित संरचना में आसानी से तैयार किया जा सकता है।
प्लास्टिक से बने ड्रिप सिंचाई के खेतों या बागों में उपयोग में आने वाले पाइप व्यवहारिक दृष्टि से उत्तम होते हैं। ड्रिप सिंचाई प्रणाली का विकास खेत फसलों के लिए इजराइल में 1960 के दशक के आरंभ में तथा आस्ट्रेलिया व उत्तरी अमेरिका में 1960 के दशक के अंत में हुआ। इस समय अमेरिका में ड्रिप सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र है जो लगभग 1 मिलियन हैक्टर है। इसके बाद भारत, स्पेन, इजराइल आदि देश आते हैं। भारत में पिछले लगभग 15 वर्षों के दौरान ड्रिप सिंचाई के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि हुई है। वर्तमान में, भारत सरकार के प्रयासों के परिणामस्वरूप हमारे देश में लगभग 3.51 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई की जाती है जबकि 1960 में यह क्षेत्र केवल 40 हैक्टेयर था। महाराष्ट्र (94,000 है.), कर्नाटक (66,000 है.) और तमिलनाडू (55,000 है.) कुछ ऐसे राज्य हैं जिनमें बड़े क्षेत्रों में ड्रिप सिंचाई की जाने लगी है। भारत में सिंचाई की ड्रिप विधि से अनेक फसलें सींची जाती हैं। सबसे अधिक प्रतिशत वृक्षों में की जाने वाली ड्रिप सिंचाई का है जिसके बाद लता वाली फसलों, सब्जियों, खेत फसलों व अन्य फसलों का स्थान आता है।
ड्रिप और सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों के लिए विकास की क्षमता
• ड्रिप सिंचाई प्रणाली सभी बागानी व सब्जी वाली फसलों के लिए उपयुक्त है।
• ड्रिप सिंचाई प्रणाली को प्याज और भिंडी सहित घनी फसलें उगने वाले खेतों में भी सफलतापूर्वक अपनाया जा सकता है।
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के बागवानी में प्लास्टीकल्चर अनुप्रयोगों पर राष्ट्रीय समिति ने अनुमान लगाया है कि देश में कुल 27 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई का उपयोग किया जा रहा है।
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