जल के इष्टतम उपयोग हेतु आवश्यक जल प्रबंधन

जल के इष्टतम उपयोग हेतु आवश्यक जल प्रबंधन
जल के इष्टतम उपयोग हेतु आवश्यक जल प्रबंधन

सारांश

जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। जल के बिना मानव जीवन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, उदाहरणतः घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उत्पादन, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास एवं अन्य सामान्य अनुप्रयोग हेतु जल एक अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जल संसाधन की उपलब्धता में भारतवर्ष का स्थान कनाडा एवं अमेरिका के बाद तृतीय स्थान पर आता है। भारतवर्ष में उपलब्ध जल हमें मुख्यतः वर्षा एवं हिमपात से मुख्यतः वर्षा ऋतु के चार महीनों, जून से सितंबर के मध्य प्राप्त होता है। देश में प्राप्त होने वाली वर्षा के स्थानिक एवं कालिक रूप से परिवर्तनीय होने के कारण देश के विभिन्न भागों में प्राप्त वर्षा की मात्रा भिन्न-भिन्न पाई जाती है। वर्षा की इस परिवर्तनीयता के कारण देश के अधिकांश भागों में समान समयांतराल पर जनमानस को सूखे एवं बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है, जो कि देश की एक ज्वलंत एवं भीषण समस्या है। यद्यपि देश में जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होने के बावजूद पर्याप्त है, तथापि उपलब्ध जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबंधन न होने के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जल की कमी का सामना करना पड़ता है। देश में उपलब्ध सीमित जल को वर्षा ऋतु में एकत्रित करके यथा समय मानव की जल आवश्यकताओं की पूर्ति करना, देश में उपलब्ध जल संसाधनों का एक महत्वपूर्ण कार्य है। वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में जल के इष्टतम उपयोग में जल प्रबंधन की भूमिका महत्वपूर्ण है। सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष रहती है। अतः यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल के उपयुक्त प्रबंधन द्वारा उपलब्ध जल को एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाये, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हो।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जल संसाधन विकास देश के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगिक विकास के कारण देश में घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उपलब्धता आदि के कारण जल की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। यद्यपि हमारे देश में उपलब्ध जल संसाधन पर्याप्त हैं, परंतु उनका पूर्णतः उपयोग करने में हम सक्षम नहीं हैं। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबन्धन किया जाए। बढ़ती जनसंख्या एवं जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग न होने के कारण इस क्षेत्र में देश को जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। यदि उपलब्ध जल संसाधनों के इष्टतम प्रबन्धन करने के प्रयत्न संभव नहीं हुए तो जल के क्षेत्र में भयंकर चुनौती सामने आ सकती है। अतः जल संसाधन प्रबन्धन के क्षेत्र में जल के प्रति लोगों में जागरूकता होना भी आवश्यक है। सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ जन मानस को जल की प्रत्येक बूंद के इष्टतम उपयोग के लिए प्रयास करने होंगे। अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए जल संकट से उत्पन्न त्रासदी के जिम्मेवार सिद्ध होंगे।

Abstract

Water is a basic need for the life of human beings. Water is an essential resource for the use in several sectors such as drinking, Agriculture, industrial as well as economic growth of the life. After Canada & America, India is on the top third position in the availability of water resources. In India the water receives mainly in four monsoon months from June to September through Snow & Rainfall. Variability of rainfall occurs in the different parts of the country based on place & time, due to which people of India face the problem of drought & flood on frequent interval, which is a major problem of the country. Since, there is sufficient water resources are available in the country but due to the improper management of these available resources, human being have forced to face the water shortage problems for their day to day usages. It is necessary to store the available water properly during rainy season and fulfill the demands of mankind according to their needs. Keeping in view, the present availability of water resources of the country and increasing demands of water in future due to regular increase in population, it is essential that available water may be used in a optimum manner for which water management will play an important role. Generally, rivers carry a maximum part of annual flow in the rainy season only, however the water demand continues during the whole year, hence it is essential that the excess available water during the rainy season must be stored and may be used at the time when natural flow in the river may insufficient to fulfill the human demands. In brief, it may conclude that water resources are important for the development of the country. Demands of water resources are regularly increasing due to increase in population, industrial development etc. We are having sufficient water resources, but we are unable to use them properly. Hence, it is essential that proper management of available water resources and their optimum use should be made. Public awareness for the same is also important. 

प्रस्तावना

जल मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। स्वच्छ जल संसाधनों की अनुपलब्धता एवं जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप जल की बढ़ती मांग के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को जल की कमी की समस्या का सामना करना पड़ता है। पृथ्वी का तीन चौथाई क्षेत्र जलमग्न होने के कारण इसे नीले गृह के रूप में भी जाना जाता है। आंकलन के अनुसार पृथ्वी पर उपलब्ध जल की कुल मात्रा लगभग 14 लाख घन किमी है तथा यदि इस जल को पूरी पृथ्वी पर समान रूप से फैला दिया जाए तो लगभग 3 किमी मोटी पर्त तैयार हो जाएगी।

पृथ्वी पर उपलब्ध जल का लगभग 97% भाग सागरों एवं माहासागरों में खारे जल के रूप में उपलब्ध है तथा कुल उपलब्ध जल का 2.7% भाग ही स्वच्छ जल के रूप में पाया जाता है। इस स्वच्छ जल का लगभग 75% भाग ध्रुवीय क्षेत्रों में हिम के रूप में तथा 22.6% भाग भूजल के रूप में पाया जाता है। शेष जल का सूक्ष्म भाग नदियों एवं झीलों में उपलब्ध है। इस प्रकार पृथ्वी पर उपलब्ध जल का एक लघु अंश मात्र ही जनमानस के उपयोग हेतु उपलब्ध है। स्वच्छ जल संसाधनों की अनुपलब्धता एवं जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप जल की बढ़ती मांग के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को जल की कमी की समस्या का सामना करना पड़ता है।

वर्तमान में भारतवर्ष की कुल जनसंख्या लगभग 125 करोड़ है जो विश्व की सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 16% है। जिसके सापेक्ष देश में स्वच्छ जल संसाधनों की उपलब्धता विश्व में उपलब्ध जल संसाधनों का मात्र 4% ही है। यद्यपि भारत में हिमपात सहित लगभग 4000 घन किलोमीटर अवक्षेपण प्राप्त होता है, तथापि अवक्षेपण एवं हिमपात से प्राप्त होने वाले जल के अधिकांश भाग के संचयन एवं संरक्षण हेतु देश में पर्याप्त साधन अनुपलब्ध हैं। बढ़ती जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार वर्ष 2050 तक देश की कुल जनसंख्या लगभग 164 करोड़ तक पहुँच जाना संभावित है। परिणामतः देश में प्रति व्यक्ति स्वच्छ जल की उपलब्धता वर्ष 2001 में प्रति व्यक्ति 1820 घन मीटर/वर्ष की तुलना में 2050 में प्रति व्यक्ति 1140 घन मीटर/वर्ष तक पहुँच जाना संभावित है। जबकि वर्ष 2050 तक विभिन्न गतिविधियों हेतु कुल जल आवश्यकता लगभग 1450 घन मीटर/वर्ष होगी। जल की यह आवश्यकता वर्तमान में उपलब्ध उपयोगी जल संसाधनों (1120 घन मीटर/वर्ष) की तुलना में बहुत अधिक है।

भारतवर्ष में उपलब्ध जल हमें मुख्यतः वर्षा एवं हिमपात से प्राप्त होता है। देश में प्राप्त वार्षिक अवक्षेपण का लगभग 80% भाग मुख्यतः वर्षा ऋतु के चार माह में ही प्राप्त हो पाता है। देश में प्राप्त होने वाली वर्षा के स्थानिक एवं कालिक रूप से परिवर्तनीय होने के कारण देश के विभिन्न भागों में प्राप्त वर्षा की मात्रा भिन्न-2 पाई जाती है। जहां देश में एक ओर पश्चिमी राजस्थान में न्यूनतम 100 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है, वहीं दूसरी ओर मेघालय के भागों में अधिकतम 10000 मिलीमीटर से अधिक वार्षिक वर्षा आंकलित की जाती है। सारणी-1 में भारतवर्ष के विभिन्न नदी बेसिनों में उपलब्ध सतही एवं भूजल संसाधनों एवं पति व्यक्ति जल उपलब्धता को  दर्शाया गया है। सारणी से यह स्पष्ट है कि देश में उपलब्ध सतही एवं भूजल की कुल मात्रा 1869 घन किलोमीटर एवं 432 घन किलोमीटर है। स्थलाकृति एवं अन्य कारणों से हम उपलब्ध भूजल के साथ-साथ सतही जल में से मात्र 690 घन किलोमीटर जल का ही उपयोग कर पाते हैं। उपलब्ध सतही जल का पूर्णतः उपयोग न कर पाने का मुख्य कारण उपलब्ध सतही जल को संचयित करने के लिए श्रेष्ठ संचयन स्थलों की अनुपलब्धता है।

सारणी-1: भारतवर्ष में नदी बेसिनों में उपलब्ध जल संसाधन संभाव्यता (घन किलोमीटर में)

क्र.सं.

नदी बेसिन का नाम

नदी बेसिन में उपलब्ध औसत वार्षिक सतही जल संभाव्य

नदी बेसिन में उपलब्ध औसत वार्षिक भूजल जल संभाव्य

1.  इंडस (भारतीय सीमा में)
 
73-31 26-49
2. गंगा 525-02 170-99
3. ब्रह्मपुत्र बराक आदि
 
585-60 26-55
4. गोदावरी 110-54 40-65
5. कृष्णा 78-12 26-41
6. कावेरी 21-36 12-30
7. पेन्नार 6-32 4-93
8. पूर्व प्रवाह की नदियां
 
38-98  
9. महानदी 66-88 16-46
10. ब्राह्मणी (और) बैतरनी 28-48 4-05
11. सुबर्णरेखा 12-37 1-82
12. साबरमती 3-81  
13. माही 11-02  
14. पश्चिमी प्रवाह की नदियां 216-04  
15. नर्मदा 45-64 10-83
16. तापी 14-88 8-27
17. अन्य लघु नदियां 31-00  
  शेष बेसिन   81-68
  कुल योग 1869-00 431-43


सारणी-1 से स्पष्ट है कि उपलब्ध जल ससाधनों का 60%  भाग गंगा-ब्रह्मपुत्र-बराक नदी तंत्र में तथा 11% भाग पश्चिमी घाट के उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। उपलब्ध जल संसाधनों का मात्र लगभग 16 % भाग देश की अन्य प्रमुख नदियों जैसे महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि में उपलब्ध है।

वर्षा की इस परिवर्तनीयता के कारण देश के अधिकांश भागों में समान समयांतराल पर जनमानस को सूखे एवं बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है, जो कि देश की एक ज्वलंत एवं भीषण समस्या है। जहां एक ओर न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्रों में ग्रीष्म ऋतु में नदियों के सूख जाने एवं भूजलस्तर में कमी हो जाने के कारण उत्पन्न सूखे से पेयजल तक की भीषण समस्या उत्पन्न हो जाती है, तथा फसलों को सिंचाई हेतु जल न प्राप्त होने के कारण कृषि क्षेत्र को भयंकर हानि का सामना करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर देश के अधिकतम वर्षा वाले क्षेत्रों उदाहरणतः ब्रह्मपुत्र एवं गंगा नदी बेसिन के भागों में जनमानस बाढ़ की विभीषिका से ग्रसित हो जाता है। जिसके कारण क्षेत्र में संपत्ति एवं जान-माल की भयंकर हानि होती है।

जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग में समस्याएँ, उनके कारण व समाधान हेतु जल प्रबंधन की आवश्यकता किसी देश की आर्थिक एवं सामाजिक समृद्धि को सुरक्षित रखने हेतु यह आवश्यक है कि देश में कृषि, उद्योगों एवं घरेलू उपयोग के क्षेत्रों के लिए आवश्यक स्वच्छ जल की पर्याप्त उपलब्धता हो। अपर्याप्त जल योजनीकरण, जल जागरूकता के क्षेत्र में कमी एवं आवश्यक संसाधनों के उपयुक्त कार्यान्वयन में कमी के कारण जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबन्धन निरन्तर कठिन होता जा रहा है। परिणामस्वरूप देश में स्वच्छ जल की स्थिति दिन प्रतिदिन भयावह होती जा रही है। देश के अनेक भागों में विभिन्न समयान्तराल पर जल की अत्यधिक कमी एवं भूजल का निरन्तर घटता जल स्तर इस समस्या का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सतही जल एवं भूजल में बढ़ते प्रदूषण के कारण उपलब्ध स्वच्छ जल संसाधनों की गुणवर्त्ता में भी क्षय होता जा रहा है। स्वच्छ जल की बढ़ती आवश्यकता के कारण विभिन्न राज्यों एवं समुदायों के मध्य जल के क्षेत्र में पारस्परिक मतभेदों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। जिसके परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार को जल संबंधी विषयों को अपने आर्थिक एवं राजनीतिक एजेंडा में सम्मिलित करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।

वर्ष 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतवर्ष की जनसंख्या लगभग 35 करोड़ थी तथा प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता 5000 घनमीटर थी। जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण देश की वर्तमान जनसंख्या लगभग 130 करोड़ तक पहुंच गई है। जिसके सापेक्ष प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगभग 1120 घन मीटर/व्यक्ति तक पहुंच गई है तथा निकट दशकों में, इस मान में और अधिक कमी होना सम्भावित है। घरेलू सीवेज, औद्योगिक बहि-प्रवाह तथा कृषि में उपयोग किये जा रहे रसायनों, उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग के परिणामस्वरूप उपयुक्त गुणवत्ता वाले जल की अधिक कमी हो रही है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि देश के जल संसाधनों का मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही स्वरूपों में निरन्तर क्षय हो रहा है। भारतवर्ष में जल संसाधन प्रबन्धन संबंधी समस्याओं के प्रमुख कारण एवं उनके समाधान हेतु आवश्यक जल प्रबंधन तकनीकों को निम्न खंडों में वर्णित किया गया है।

  • उपलब्ध जल का असमान वितरण
  • बाढ़ एवं सूखा
  • भूजल से अनियंत्रित जल निकासी
  • जल ग्रसनता
  • अनुपचारित सीवेज का नदी जल में प्रवाह
  • वर्षा जल संग्रहण
  • उपलब्ध जल का असमान वितरण

भारतवर्ष में स्थानिक एवं कालिक दोनों स्तरों पर जल उपलब्धता अत्यधिक परिवर्तनीय है। जल आवाह क्षेत्र पैमाने पर भी जल उपलब्धता में वृहत्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। जहां एक ओर ब्रह्मपुत्र-बराक बेसिन में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 14100 घनमीटर/वर्ष है वहीं दूसरी ओर साबरमती बेसिन में यह मान लगभग 300 घन मीटर/वर्ष है। अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार यदि देश की जल उपलब्धता 1700 घन मीटर/वर्ष/व्यक्ति से कम है तो उसे जल दबाव के क्षेत्र में तथा यह मान 1000 घन मीटर/व्यक्ति/वर्ष से कम होने पर उसे जल की कमी वाले क्षेत्र में वर्गीकृत किया जाएगा। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यद्यपि भारत का स्थान अन्तर्राष्ट्रीय सूची में जल कमी वाले देशों में सम्मिलित नहीं है तथापि वास्तविक स्थिति कहीं अधिक भयावह है।

देश में जल संसाधनों में असमान वितरण का प्रमुख कारण असमान वर्षा प्राप्त होना है। हमारे देश में उपलब्ध वर्षा का लगभग 75%-80% भाग वर्षा ऋतु के चार महीनों में प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त देश के अलग-अलग भागों में प्राप्त वर्षा की मात्रा में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है।

देश के जल संसाधनों के असमान वितरण संबंधी समस्या के समाधान के लिए यह आवश्यक है कि देश में उपलब्ध स्वच्छ जल का उपयुक्त संचयन किया जा सके। इसके लिए बड़े बांध, बैराज इत्यादि के निर्माण द्वारा अतिरिक्त जल के संचयन हेतु आवश्यक संचयन क्षमता में वृद्धि किए जाने की आवश्यकता है। जिससे अतिरिक्त जल को व्यर्थ जाने से बचाया जा सके। इस अतिरिक्त जल को आवश्यकतानुसार जल की अरतिरिक्त मांग को पूर्ण करने में किया जा सकता है।

इस संबंध में वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, जल क्षेत्र में कार्यरत अभियन्ताओं आदि के मध्य मतभेद पाया जाता है। जल संचयन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, जहां एक ओर जल क्षेत्र में कार्यरत वैज्ञानिक बड़े बांधों की आवश्यकता का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणविदों एवं जल क्षेत्र में कार्यरत कुछ वैज्ञानिक पर्यावरणीय कारणों से बड़े बांधों का विरोध करते है। वास्तव में यह एक चर्चा का विषय है कि बड़े बांधों का निर्माण आवश्यक है या नहीं।

इसके साथ-2 यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक बांध के लिए उपयुक्त जलाशय प्रचालन नीतियाँ तैयार की जाएँ। जिससे जलाशय में वर्षा ऋतु में एकत्रित कर समयबद्ध नीति द्वारा आवश्यकतानुसार एकत्रित जल का वितरण किया जा सके।

बाढ़ एवं सूखा

बाढ़

बाढ़ देश के विभिन्न भागों में बारम्बार पाई जाने वाली एक प्राकृतिक आपदा है। भारतवर्ष में वर्षा का 80% - 90 % भाग मानसून के चार महीनों में ही प्राप्त होने के कारण इस ऋतु में देश का अधिकांश भाग बाढ़ग्रस्त हो जाता है। बाढ़ के प्रमुख कारणों में जल के उच्च प्रवाह हेतु नदी खंडों की अपर्याप्त क्षमता, नदी तटों में बढ़ता अवसादन एवं जल निकासी में अवरोधकता प्रमुख है। इसके अतिरिक्त चक्रवात एवं बादलों के फटने के कारण भी बाढ़ आपदा की समस्या पाई जाती है। चित्र-2 में बाढ़ के एक दृश्य को दर्शाया गया है।

चित्र-2: बाढ़ का एक दृश्य

भारत में उत्तराखंड राज्य में वर्ष 2013 में बाढ़ से होने वाली त्रासदी इस समस्या का नवीनतम उदाहरण है। वर्ष 2013 में 14 से 17 जून के मध्य बादलों के फटने के कारण उत्तराखंड में आई विनाशकारी बाढ़ एवं भूस्खलन देश में 2004 के सुनामी के बाद की सबसे बड़ी आपदा है। इस अवधि में क्षेत्र में सामान्य से लगभग 375 mm अधिक वर्षा रिकार्ड की गई है। जिसके कारण उत्तराखंड में विशिष्टतः केदारघाटी एवं रूद्रप्रयाग जिले में भयंकर तबाही हुई। एक अनुमान के अनुसार लगभग हजारों लोग मृत्यु को प्राप्त हो गये। पुलों एवं सड़कों के नष्ट होने के कारण लगभग एक लाख तीर्थ यात्री विभिन्न स्थानों पर मार्ग में फंस गये। जिन्हें भारतीय वायु सेना द्वारा हेलीकाप्टरों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया। कई हजार मकान ध्वस्त हो गये तथा हजारों गांव इससे प्रभावित हुए।

इस त्रासदी से यद्यपि केदारनाथ मन्दिर ध्वस्त नहीं हुआ, लेकिन इसके निकटवर्ती होटल, रेस्ट हाउस, केदारनाथ कस्बा पूरी तरह धवस्त हो गये। उत्तराखंड में आई इस बाढ़ का परिणाम दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों तक देखा गया। उत्तर प्रदेश के 23 जिलों के 608 गांव के 7 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए तथा सैकड़ों लोग काल का ग्रास बन गये। चित्र-3 में केदारनाथ बाढ़ त्रासदी का एक दृश्य को दर्शाया गया है।

चित्र-3: केदारनाथ बाढ़ त्रासदी का एक दृश्य

इस त्रासदी के अवसर पर भारतीय सेना, वायु सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीमा सुरक्षा बल इत्यादि द्वारा सम्मिलित रूप से बचाव कार्य चलाये गये। हेलीकॉप्टरों एवं वायु सेना के हवाई जहाजों द्वारा इस बचाव कार्य में पूर्ण योगदान प्रदान किया गया।

बाढ़ प्रबंधन तकनीकें

एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष देश में लगभग 1600 व्यक्ति बाढ़ के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं, लगभग तीन करोड़ लोग गृह-विहीन हो जाते हैं एवं 80 लाख हेक्टेयर से अधिक उपजाऊ कृषि भूमि बाढ़ग्रस्त हो जाती है। परिणामतः देश को अरबों रूपये की हानि का प्रतिवर्ष सामना करना पड़ता है। यद्यपि बाढ़ का पूर्णतः समाधान संभव नहीं है तथापि उपयुक्त बाढ़ प्रबन्धन तकनीकों के उपयोग द्वारा एक सीमा तक बाढ़ आपदा से बचाव किया जा सकता है, जिसके लिए उपयुक्त बाढ़ प्रबन्धन तकनीकों को मुख्यतः दो वगों में विभाजित किया जा सकता है।

संरचनात्मक प़तियांः संरचनात्मक पद्धतियों के अन्तर्गत जलाशय, बांध, तटबंध बैराज, चैनल सुधार तकनीकें, एवं बाढ़ जल मार्गाभिगमन से सम्बद्ध संरचनाओं के निर्माण द्वारा क्षेत्र को बाढ़ संबंधी आपदा से मुक्त किया जा सकता है। यद्यपि इनके निर्माण हेतु अत्यधिक धन एवं समय की आवश्यकता होती है।

असंरचनात्मक पद्धतियांः इन संरचनाओं के अन्तर्गत जनमानस को बाढ़ मैदानी क्षेत्र से दूर रखा जाता है, ताकि बाढ़ से उनके जीवन एवं धन सम्पदा की हानि को बचाया जा सके। बाढ़ पूर्व चेतावनी के द्वारा संभावित बाढ़ से लोगों को पूर्व में ही सचेत कर दिया जाता है ताकि वे बाढ़ के समय मैदानी क्षेत्रों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर अपने जान-माल की सुरक्षा कर सके।

बाढ़ प्रबंधन हेतु भारत सरकार द्वारा समय-समय पर अनेकों नीतियाँ बनाई गई। इनमे बाढ़ प्रबंधन नीति (1954), राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट (1980), समाकलित जल संसाधन विकास योजना के लिए राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट (1999) एवं राष्ट्रीय जल नीति (2002) प्रमुख है। राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट (1999) एवं राष्ट्रीय जल नीति (2002) की प्रमुख संस्तुतियों में यह स्वीकार किया गया है कि बाढ़ से पूर्ण उपचार संभव नहीं है तथापि उपयुक्त जल प्रबंधन नीतियों जैसे। बाढ़ पूर्वानुमान, बाढ़ मैदानी क्षेत्रों का उपयुक्त प्रयोग, बाढ़ आपदा प्रबंधन, नदी तटों का उपयुक्त अभिकल्पन एवं निर्माण, बड़े बांधों के निर्माण द्वारा संचयन क्षमता में वृद्धि इत्यादि जल प्रबंधन तकनीकों के प्रयोग द्वारा एक सीमा तक बाढ़ आपदा से सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।

सूखा

देश के अधिकांश भागों में सूखे की समस्या पाई जाती है। अधिकांशतः किसी स्थान विशेष पर वर्षा की कमी या आवश्यक जल की अनुपल्बधता की स्थिति को सूखे के रूप में व्यक्त किया जाता है। किसी क्षेत्र विशेष में वर्षा के विलम्बित होने या वर्षा के न होने के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है। सूखे की अवस्था में आवश्यक उपयोगों के लिए जल उपलब्ध नहीं हो पाता है। जल की उपलब्धता में 50% या अधिक कमी होने की स्थिति को तीव्र सूखे एवं 25 - 50% के मध्य कमी होने पर माध्य सूखे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। क्षेत्र में सूखे की स्थिति में पेय जल उपलब्धता, सिंचाई हेतु जल, घरेलू उपयोग, जल शक्ति नौकायन, आर्थिक उन्नति इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित होते हैं। चित्र-4 एवं 5 में तीव्र सूखे के एक दृश्य को दर्शाया गया है।

चित्र-4: तीव्र सूखे का कृषि पर प्रभाव

सूखे की समस्या का नवीनतम उदाहरण वर्ष 2012 में जून से सितम्बर माह के दौरान निम्न वर्षा होने के कारण वर्ष 2013 में महाराष्ट्र में विगत 40 वषों की तुलना में पड़ने वाला सर्वाधिक भयंकरतम सूखा है। इस सूखे से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में महाराष्ट्र के सोलापुर, अहमदनगर, सांगली, पुणे, सतारा, बीड एवं नासिक जिले हैं। इसके अतिरिक्त लातूर, उस्मानाबाद, नांदेड, औरंगाबाद, जालना, जलगांव एवं धुले जिलों के निवासी भी सूखे की इस समस्या से अत्यधिक प्रभावित हुए।
 

चित्र -5 सूखे से त्रासदी का एक दृश्य

बाढ़ एवं सूखा प्रबंधन

बाढ़ एवं सूखे से बचाव हेतु जल का उपयुक्त प्रबंधन किए जाने की आवश्यकता है, जिससे उपलब्ध जल का इष्टतम उपयोग किया जा सके। बाढ़ एवं सूखे से बचाव हेतु यह आवश्यक है कि जल अधिकता वाले क्षेत्रों से जल का स्थानान्तरण जल सूखे वाले क्षेत्रों में किया जाए। इससे देश में सूखे के साथ साथ बाढ़ से बचाव के प्रबंधन में भी योगदान किया जा सकता है। इस संबंध में जल संसाधन मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण द्वारा अन्तः बेसिन जल स्थानान्तरण योजना के अन्तर्गत नदियों को जोड़ने की योजना (चित्र-6) एक श्रेष्ठ कदम है। इस योजना के अन्तर्गत बाढ़ अधिकता वाली नदियों के जल को जल की कमी वाली नदियों में स्थानान्तरित करने की योजना है।

चित्र-6: राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण की अन्तः बेसिन जल स्थानान्तरण योजना

इसके परिणामस्वरूप देश में बाढ़ एवं सूखे दोनों से ही संबंधित समस्याओं का समाधान संभव हो सकेगा। यद्यपि इस योजना के क्रियान्वयन के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता होगी, तथापि योजना को उपलब्ध धन के आधार पर विभिन्न चरणों में पूर्ण किया जा सकता है। इसके साथ-2 योजना के कार्यान्वयन के लिए विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं, जनमानस का पुनर्वास की समस्या के साथ-2 विभिन्न अंतर्राज्यीय मतभेदों से संबन्धित समस्याओं का भी सामना करना पड़ेगा। तथापि योजना के सफलतापूर्वक कार्यान्वयन होने की स्थिति में देश में बाढ़ एवं सूखे की समस्याओं से मुक्ति मिल सकेगी।

भूजल से अनियंत्रित जल निकासी

भारतवर्ष में कृषि क्षेत्र के विकास में भूजल का अत्यधिक योगदान है। विशिष्टतः विगत चार-पांच दशकों में भूजल से सिंचाई में अत्यधिक वृद्धि हुई है। इसके कारण कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति आ गई है। यद्यपि इसके कारण भूजल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है तथा भूजल निकासी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में 1950 में जहां लगभग 38 लाख कूप एवं 3000 गहरे ट्यूबवैल उपलब्ध थे, वहीं चार दशकों के पश्चात यह संख्या बढ़कर 1 करोड़ कूप, 54 लाख प्राइवेट ट्यूबवैल तथा 60,000 गहरे ट्यूबवैल तक पहुंच गई है। भूजल की अत्यधिक निकासी के कारण कुछ नदी बेसिनों के जल स्तर में तीव्र गिरावट पाई गई है। दक्षिण भारत के कठोर-चट्टानी क्षेत्रों में जहां सतही जल के स्रोत सीमित हैं तथा वर्षा अनियमित हैं, भूजल की स्थिति क्रान्तिक स्तर तक पहुंच गई है। भूजल की अनियंत्रित निकासी के कारण भूजल स्तर में तीव्र कमी के साथ-साथ जल की गुणवर्ता में भी हृास पाया गया है। तटीय क्षेत्रों में यह स्थिति समुद्री जल के अनाधिकृत प्रवेश के कारण भी पाई गई है। चित्र-7 में भूजल से होने वाली अनियंत्रित जल निकासी को प्रदर्शित किया गया है।

                          चित्र 7: भूजल से अनियंत्रित जल निकासी

भूजल एक सुरक्षित जल संसाधन है जो बिना प्रदूषित हुए सैकड़ों वषों तक उपलब्ध रहता है। भूजल का प्रबंधन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि भूजल स्तर में अत्यधिक कमी न हो। भूजल स्तर में क्रांतिक स्तर तक होने वाली कमी के कारण क्षेत्र में जन मानस को घरेलू उपयोगों के लिए भी जल की कमी का सामना करना पड़ता है। जिससे क्षेत्र में अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः यह आवश्यक है कि भूजल की अनियंत्रित जल निकासी को प्रतिबंधित किया जाए जिससे भूजल के रूप में उपलब्ध जल संसाधनों का प्रयोग आपात स्थितियों में ही किया जाए।

जल ग्रसनता

जब किसी क्षेत्र के भूजल के स्तर में वृद्धि इस स्तर तक बढ़ जाती है कि फसलों के जल क्षेत्र में मृदा छिद्र संतृप्त हो जाते हैं तथा वायु का सामान्य आवागमन अवरूद्ध होने के कारण आक्सीजन के स्तर में कमी व कार्बन डाई आक्साइड के स्तर में वृद्धि हो जाती है। तब उस क्षेत्र को जल ग्रसित क्षेत्र कहा जाता है। जल ग्रसनता की समस्या विशिष्टतः उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहां मृदा में लवणता पाई जाती है तथा खारे जल व नहरों द्वारा क्षेत्रों में सिंचाई की जाती है। सिंचाई हेतु जल के अति उपयोग के कारण देश का वृहत्त क्षेत्र जल ग्रसनता से त्रस्त है। ऐसे क्षेत्र जहां भूजल स्तर अधिक हो वहां भूमि में लवणता एवं फसल का न्यूनतम उत्पादन प्राप्त होता है। नहर से प्रदान किये जाने वाले जल द्वारा सिंचाई भूजल से की जाने वाली सिंचाई की तुलना में सस्ती होने के कारण कृषक नहर की सिंचाई को प्राथमिकता प्रदान करते हैं तथा फसल को आवश्यकता से अधिक जल प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। इसके परिणामस्वरूप अतिरिक्त जल मृदा अंतःस्त्रवण द्वारा भूजल तक पहुंचकर भूजल के स्तर में इस सीमा तक वृद्धि कर देता है जिससे फसल का जड़ क्षेत्र पूर्णतः सतृप्त हो जाता है। भविष्य में धीरे-धीरे इस भूमि में लवणता में वृद्धि होने के कारण अन्ततः भूमि कृषि के लिए अयोग्य हो जाती है।

जल ग्रसनता उत्तरी भारत के गंगा मैदानी क्षेत्रों, राजस्थान एवं गुजरात के शुष्क भागों एवं तटीय क्षेत्रों में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में फसल उत्पादकता पूर्णतः प्रभावित होती है। इस समस्या के समाधान हेतु यह आवश्यक है कि क्षेत्र में जल प्रबंधन नीति इस प्रकार प्रचालित की जाए जिससे भूजल एवं सतही जल का संयुग्मी किया जाए। भूजल एवं सतही जल के संयुग्मी उपयोग द्वारा सिंचाई मूल्यों में यथा संभव बचत तथा उपलब्ध जल का इष्टतम उपयोग किया जा सकता है।

अनुपचारित सीवेज का नदी जल में प्रवाह

घरेलू सीवेज, औद्योगिक वहिःप्रवाह तथा कृषि में उपयोग किये जाने वाले रसायनों, कीटनाशकों एवं उर्वरकों के प्रयोग के कारण इनसे प्राप्त व्यर्थ जल प्रदूषित होता है। इस जल को बिना उपचार किए सामान्यतः नदी जल में प्रवाहित कर दिया जाता है जिसके कारण नदी का शुद्ध जल दूषित हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि इस दूषित जल का नदी जल में प्रवाहित करने से पूर्व उपचार किया जाए। जिससे नदी जल को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।

निष्कर्ष

उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है की वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में उपलब्ध जल संसाधनों का उपयुक्त विकास अत्यंत आवश्यक है। किसी क्षेत्र के लिए जल संसाधन परियोजनाओं का विकास जल नियंत्रण एवं जल गुणवत्ता के किए तैयार की जाने वाली योजनाओं के परिकल्पन एवं निर्माण पर निर्भर करता है। सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष रहती है । अतः यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल को एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाये, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हैं । संचयन परियोजनाओं का निर्माण, एवं नदियों  का अन्तर्योजन देश में अविरल जल संसाधन प्रबंधन के लिए नितांत आवश्यक है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जल संसाधन विकास देश के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगिक विकास के कारण देश में घरेलू उपयोग , खाद्यान्न उपलब्धता आदि के के कारण जल की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। यध्यपि हमारे देश में उपलब्ध जल संसाधन पर्याप्त हैं, परंतु उनका पूर्णतः उपयोग करने में हम सक्षम नहीं हैं। अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि जल संसाधनों  का उपयुक्त प्रबन्धन किया जाए। बढ़ती जनसंख्या एवं जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग न होने के कारण इस क्षेत्र में देश को जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं, यदि उपलब्ध जल संसाधनों के इष्टतम प्रबन्धन करने के प्रयत्न संभव नहीं हुए तो जल के क्षेत्र में भयंकर चुनौती सामने आ सकती है। अतः जल संसाधन प्रबन्धन के क्षेत्र में जल के प्रति लोगों में जागरूकता होना भी आवश्यक है। सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ जन मानस को जल की प्रत्येक बूंद के इष्टतम उपय¨ग के लिए प्रयास करने होंगे। अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए जल संकट से उत्पन्न त्रासदी के जिम्मेवार सिद्ध होंगे।

References 

  • Mishra, S.K., and Agarwal, P.K., “अभियांत्रिकी जल विज्ञान (Book awarded from Dr Rajendra Prasad award by ICAR))” Ajay Printers & publishers, Roorkee, ISBN 81 86463-24-0. 
  • Jain, Sharad K., Agarwal, P.K. and Singh, V. P., Hydrology & Water Resources of India, Springer Publishers, Water Science & Technology Library, Part 57, 2007 । 
Path Alias

/articles/jala-kae-isatatama-upayaoga-haetau-avasayaka-jala-parabandhana

Post By: Shivendra
×