विश्व के करीब चार प्रतिशत जल स्रोतों के रहते भारत को जल अतिरेक वाला देश होना चाहिए था। लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक, 2012 में भारत जलाभाव से ग्रस्त देश बन कर उभरा। ऐसे में हम नदियों को प्रदूषित रखने का जोखिम नहीं ले सकते। सो, पहले यह जानना अपेक्षित होगा कि किन कारणों से यह स्थिति पैदा हुई। फिर यह भी कि क्या उपाय किए जाएं जिनसे भारत साफ और अविरल जल संसाधनों की पहले वाली स्थिति को प्राप्त हो।
जो अपशिष्ट 38,254 मिलियन लीटर जल, उपचार के उपरांत जलाशयों या नदियों में बहाया जाता है, उसका 90 प्रतिशत जल पर्यावरण संबंधी पैमानों पर खरा नहीं उतरता। गंदे पानी का उपचार इस तरीके से किया जाना चाहिए कि वह नहाने के लिए उपयुक्त हो। विश्व बैंक के आंकलनों के मुताबिक, अभी भारत में ताजे पानी की कुल उपलब्धता का करीब 13 प्रतिशत औद्योगिक जल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आकलन यह भी इंगित करते हैं कि आने वाले समय में औद्योगिक इस्तेमालों तथा ऊर्जा उत्पादन में जल का उपयोग सालाना 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा।
अभी देश के जल स्रोतों से मिलने वाला जल विश्व स्वास्थ्य संगठन के जल-गुणवत्ता संबंधी मानकों को पूरा नहीं करता। तेज औद्योगिकीकरण और शहरीकरण तथा कृषि एवं सिंचाई संबंधी दोषपूर्ण तौर तरीकों के चलते यह स्थिति बनी है।
भारत में 70 प्रतिशत जल प्रदूषण शहरी घरों, जिनमें भारत की कुल जनसंख्या का 36 प्रतिशत हिस्सा आबाद है, से निकले कचरे से होता है। यह जानकारी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट से मिली है। चरमराई आधारभूत सुविधाओं के कारण शहरों के कचरे-अपशिष्टों के मात्र 31 प्रतिशत भाग का ही उपचार हो पाती है। बाकी का कचरा-अपशिष्ट बिना उपचार किए यूं ही छोड़ दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि शहरी जनसंख्या के मात्र 38 प्रतिशत लोगों को ही स्वच्छता-सफाई की सुविधा मुहैया है। शहरी आबादी के 78 प्रतिशत लोगों के पास निर्मल जल की सुविधा उपलब्ध है।
वर्षा-जल का 65 प्रतिशत हिस्सा बहकर समुद्र में चला जाता है। देश की कृषि के 70 प्रतिशत हिस्से के वर्षा-आधारित होने के मद्देनजर वर्षा-जल का इस प्रकार बहकर समुद्र में जा मिलना प्रमुख क्षति है। वर्षा-जल बहने के दौरान भू-क्षरण, नदियों में बाढ़ तथा जलाशयों और नदियों में गाद भरने जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
साफ-सफाई की खराब स्थिति के चलते 2006 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद-जीडीपी के 6.4 प्रतिशत (328,500 करोड़ रुपए) जितने के बराबर आर्थिक अवसरों से देश को वंचित रहना पड़ा था।
साफ-सफाई की खराब स्थिति से जल-प्रदूषण होता है, जिससे व्यापक स्तर पर बीमारियां फैलती हैं। सार्वजनिक स्रोतों की क्षति भी होती है।
भारत में प्रति वर्ष 210 बिलियन क्यूबिक मीटर भू-जल निकाला जाता है। यह मात्रा विश्व में सर्वाधिक है। आज सिंचित क्षेत्र के 60 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्र में भू-जल का इस्तेमाल किया जाता है। परिणामतः देश के 60 प्रतिशत से ज्यादा जिलों में भू-जल की कमी और गुणवत्तविहीन जल जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह जानकारी 11वीं पंचवर्षीय योजना की मध्यकालिक समीक्षा से मिली है।
भारत अभी प्राप्त वर्षा-जल का केवल 35 प्रतिशत भाग ही उपयोग कर पा रहा है। वर्षा-जल के संचयन संबंधी परियोनाओं को प्रभावी तरीके से क्रियान्वित किया जाए तो अभी जो क्षति हो रही है, उसका 65 प्रतिशत उपयोग में लाया जा सकता है।
घरों में दोहरे फ्लश शौचालय, जल उपयोग-रहित मूत्रालयों तथा कुशल फुहारा स्नान प्रणालियों जैसी नई तकनीकों के इस्तेमाल से जल की क्षति खासी हद तक रोकी जा सकती है।
प्रदूषित हो चुके जलाशयों, नदियों आदि में ऐसी वनस्पतियां और सूक्ष्म जीवाणुओं का इस्तेमाल हो जिनसे पानी की गुणवत्ता में सुधार आए। अभी हमें 130 वनस्पतियों की जानकारी है, जिनका इस प्रकार की प्रक्रियाओं में उपयोग किया जा सकता है।
अपशिष्टों को यों ही छोड़ देने पर निगरानी रखने की गरज से मजबूत पर्यावरणीय-विधिक नेटवर्क होना जरूरी है। इससे उद्योगों पर नजर रखी जा सकेगी। उनसे होने वाले जल प्रदूषण का समय-समय पर आकलन किया जा सकेगा।
(स्रोत : वर्ल्ड बैंक, बीएआईएफ, सीपीसीबी और प्लानिंग कमीशन)
कारण
90% औद्योगिक अपशिष्ट
जो अपशिष्ट 38,254 मिलियन लीटर जल, उपचार के उपरांत जलाशयों या नदियों में बहाया जाता है, उसका 90 प्रतिशत जल पर्यावरण संबंधी पैमानों पर खरा नहीं उतरता। गंदे पानी का उपचार इस तरीके से किया जाना चाहिए कि वह नहाने के लिए उपयुक्त हो। विश्व बैंक के आंकलनों के मुताबिक, अभी भारत में ताजे पानी की कुल उपलब्धता का करीब 13 प्रतिशत औद्योगिक जल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आकलन यह भी इंगित करते हैं कि आने वाले समय में औद्योगिक इस्तेमालों तथा ऊर्जा उत्पादन में जल का उपयोग सालाना 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा।
75% प्रदूषण
अभी देश के जल स्रोतों से मिलने वाला जल विश्व स्वास्थ्य संगठन के जल-गुणवत्ता संबंधी मानकों को पूरा नहीं करता। तेज औद्योगिकीकरण और शहरीकरण तथा कृषि एवं सिंचाई संबंधी दोषपूर्ण तौर तरीकों के चलते यह स्थिति बनी है।
70% शहरीकरण
भारत में 70 प्रतिशत जल प्रदूषण शहरी घरों, जिनमें भारत की कुल जनसंख्या का 36 प्रतिशत हिस्सा आबाद है, से निकले कचरे से होता है। यह जानकारी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट से मिली है। चरमराई आधारभूत सुविधाओं के कारण शहरों के कचरे-अपशिष्टों के मात्र 31 प्रतिशत भाग का ही उपचार हो पाती है। बाकी का कचरा-अपशिष्ट बिना उपचार किए यूं ही छोड़ दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि शहरी जनसंख्या के मात्र 38 प्रतिशत लोगों को ही स्वच्छता-सफाई की सुविधा मुहैया है। शहरी आबादी के 78 प्रतिशत लोगों के पास निर्मल जल की सुविधा उपलब्ध है।
65% वर्षा-जल की क्षति
वर्षा-जल का 65 प्रतिशत हिस्सा बहकर समुद्र में चला जाता है। देश की कृषि के 70 प्रतिशत हिस्से के वर्षा-आधारित होने के मद्देनजर वर्षा-जल का इस प्रकार बहकर समुद्र में जा मिलना प्रमुख क्षति है। वर्षा-जल बहने के दौरान भू-क्षरण, नदियों में बाढ़ तथा जलाशयों और नदियों में गाद भरने जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
6.4% साफ-सफाई की खराब स्थिति
साफ-सफाई की खराब स्थिति के चलते 2006 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद-जीडीपी के 6.4 प्रतिशत (328,500 करोड़ रुपए) जितने के बराबर आर्थिक अवसरों से देश को वंचित रहना पड़ा था।
साफ-सफाई की खराब स्थिति से जल-प्रदूषण होता है, जिससे व्यापक स्तर पर बीमारियां फैलती हैं। सार्वजनिक स्रोतों की क्षति भी होती है।
210 गिरता भू-जल स्तर
भारत में प्रति वर्ष 210 बिलियन क्यूबिक मीटर भू-जल निकाला जाता है। यह मात्रा विश्व में सर्वाधिक है। आज सिंचित क्षेत्र के 60 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्र में भू-जल का इस्तेमाल किया जाता है। परिणामतः देश के 60 प्रतिशत से ज्यादा जिलों में भू-जल की कमी और गुणवत्तविहीन जल जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह जानकारी 11वीं पंचवर्षीय योजना की मध्यकालिक समीक्षा से मिली है।
समाधान
वर्षा-जल सहेजा जाए
भारत अभी प्राप्त वर्षा-जल का केवल 35 प्रतिशत भाग ही उपयोग कर पा रहा है। वर्षा-जल के संचयन संबंधी परियोनाओं को प्रभावी तरीके से क्रियान्वित किया जाए तो अभी जो क्षति हो रही है, उसका 65 प्रतिशत उपयोग में लाया जा सकता है।
दैनिक जल-उपयोग हो कम
घरों में दोहरे फ्लश शौचालय, जल उपयोग-रहित मूत्रालयों तथा कुशल फुहारा स्नान प्रणालियों जैसी नई तकनीकों के इस्तेमाल से जल की क्षति खासी हद तक रोकी जा सकती है।
जैवोपचार
प्रदूषित हो चुके जलाशयों, नदियों आदि में ऐसी वनस्पतियां और सूक्ष्म जीवाणुओं का इस्तेमाल हो जिनसे पानी की गुणवत्ता में सुधार आए। अभी हमें 130 वनस्पतियों की जानकारी है, जिनका इस प्रकार की प्रक्रियाओं में उपयोग किया जा सकता है।
औद्योगिक संकुलों का नियमन
अपशिष्टों को यों ही छोड़ देने पर निगरानी रखने की गरज से मजबूत पर्यावरणीय-विधिक नेटवर्क होना जरूरी है। इससे उद्योगों पर नजर रखी जा सकेगी। उनसे होने वाले जल प्रदूषण का समय-समय पर आकलन किया जा सकेगा।
(स्रोत : वर्ल्ड बैंक, बीएआईएफ, सीपीसीबी और प्लानिंग कमीशन)
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Post By: Shivendra