जल के अधिकार का क्रियान्वयन

यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि आबादी के सभी वर्गों को पानी और स्वच्छता की सुविधा मिले। वंचित समुदायों, प्रवासी बसाहटों से दूर रहने वाले समाज के वर्गों की पहचान कर और उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान देने से समान वितरण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। जल को अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है और यह अनेक प्रकार के कार्यों में काम आता है। इन उपयोगों को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। जीवन के लिए जल, नागरिकों के लिए जल और विकास के लिए जल। जीवन के लिए जल को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि इसका सम्बन्ध न केवल मानव-मात्र के अस्तित्व के लिए जल के प्रदाय से है, बल्कि अन्य प्राणियों के जीवन से भी है। जल का यह कार्य पर्यावरण प्रणालियों की सम्पोषणीयता की गारण्टी को आवश्यक रूप देता है ताकि न्यूनतम मात्रा में अच्छा पानी सभी के लिए उपलब्ध हो सके।

नागरिकों के लिए जल का सम्बन्ध सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजिनक संस्थाओं के लिए पानी का प्रावधान करना है और इसका सम्बन्ध व्यक्ति और समुदाय के सामाजिक अधिकारों से भी है। इस कार्य में समग्र रूप से समाज के हितों का ख्याल रखा जाता है। इसमें सामाजिक समरसता और समानता के मूल्य निहित हैं। विकास हेतु जल एक आर्थिक क्रिया है और इसका ताल्लुक उन उत्पादक गतिविधियों से है जो कृषि के लिए सिंचाई, पनबिजली अथवा उद्योग जैसे निजी हितों को पूरा करते हैं। यह एक ऐसी क्रिया है जिसको सबसे अन्तिम वरीयता मिलनी चाहिए। परन्तु विकासार्थ जल सभी सतहों और भूजल स्रोतों से प्राप्त होने वाले पानी की सर्वाधिक मात्रा की खपत करता है, और यही जल के स्थानीय अभाव के साथ-साथ प्रदूषण की समस्याएँ पैदा करने के लिए मुख्यतः उत्तरदायी है।

लोगबाग परम्परा से ही स्थानीय रूप से उपलब्ध सतही और भूजल संसाधनों का उपयोग जीवन और आजीविका के लिए करते रहे हैं। वृहद सिंचाई, औद्योगीकरण और शहरीकरण जैसी आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ जनसंख्या के बढ़ते दबाव से इन जल स्रोतों की माँगों पर विपरीत प्रकार का प्रभाव पड़ा है। प्रायः इसका अर्थ 'जीवन के लिए जल' को 'नागरिकों के लिए जल' और 'विकास के लिए जल’ की ओर मोड़ देने के लिए निकाला जाता है। अर्थात पीने के काम और घरेलू उपयोग जैसी जीवनरक्षा आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले और लोक स्वास्थ्य से जुड़े उपयोगों से इसे परे ले जाना है। अतः आशा है कि जल के मानवाधिकार को मान्यता देने से ‘जीवन के लिए जल’ की सर्वोच्च प्राथमिकता बनाए रखने में मदद मिलेगी।

जल के अधिकार को अनेक बाध्यकारी अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों में स्वीकार किया गया है। अन्तरराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रसंविदा (इण्टरनेशनल कॅवनेण्ट ऑन सिविल एण्ड पॉलिटिकल राइट्स, 1966) में सम्मिलित जीवन के अधिकार जैसे अन्य मानवाधिकारों के अभिन्न अंग में इसे मान्यता दी गई है। अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा (इण्टरनेशनल कॅवनेंट ऑन इकोनॉमिक सोशल एण्ड कल्चरल राइट्स, 1966) में शामिल स्वास्थ्य, भोजन, आवास और उपयुक्त जीवन स्तर के अधिकारों में भी जल के अधिकार को स्वीकार किया गया है। ये अधिकार अन्य अनेक अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सन्धियों में भी दिए गए हैं। ये सन्धियाँ उन सभी देशों के लिए मानना आवश्यक है जिन्होंने उन पर हस्ताक्षर किए हैं। इन मुख्य अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार सन्धियों में दो हैं- महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव उन्मूलन सम्मेलन (कंवेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वीमेन, 1979) और बाल अधिकारों पर सम्मेलन (द कंवेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड, 1989) तथा विश्व जल परिषद, 2006।

जल का मानवधिकार


जल का अधिकार जल पर अधिकार नहीं है। जल का अधिकार प्राथमिक मानवीय आवश्यकताओं के लिए आवश्यक जल की मात्रा पर केन्द्रित है, जबकि जल पर अधिकार किसी विशेष प्रयोजन के लिए पानी के उपयोग अथवा पानी की उपलब्धता से सम्बन्धित होता है। जल पर अधिकारों से सम्बन्धित कानून में पानी का इस्तेमाल कौन और किन हालात में कर सकता है, जैसे समाहित होते हैं, और यहाँ तक कि यह कानून विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट प्रयोजनों के लिए पूर्व निर्धारित पानी की मात्रा का आवण्टन भी कर सकता है। जल का मानवाधिकार प्राथमिक मानवीय आवश्यकताओं के लिए पानी की आवश्यक मात्रा पर केन्द्रित है, जो कि लगभग 50 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। पेयजल का अधिकार पर्यावरण संरक्षण अथवा संसाधनों के एकीकृत प्रबन्धन से जुड़े आम मुद्दों की ओर ध्यान नहीं देता। अधिकांश मामलों में, जल के मानवाधिकार के क्रियान्वयन के लिए पानी लेने से, जल पर आम अधिकारों के तहत अन्य उपयोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (विश्व जल परिषद्, 2006 द्वारा जारी ‘जनरल कमेण्ट सं. 15’)

जल का अधिकार जल पर अधिकार नहीं है। जल का अधिकार प्राथमिक मानवीय आवश्यकताओं के लिए आवश्यक जल की मात्रा पर केन्द्रित है, जबकि जल पर अधिकार किसी विशेष प्रयोजन के लिए पानी के उपयोग अथवा पानी की उपलब्धता से सम्बन्धित होता है। जल मानवाधिकार विषय पर 2002 संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेज में जारी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समिति (सीईएससीआर) के जनरल कमेण्ट सं. 15 में पहली बार स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला गया था। जनरल कमेण्ट सं, 15, सीईएससीआर के प्रावधानों और जीवन का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार जैसे मौलिक मानवाधिकारों की आम स्वीकृति पर आधारित अधिकारिक वैधानिक व्याख्या है।

“जल का मानवाधिकार प्रत्येक व्यक्ति को उसके निजी और घरेलू उपयोग हेतु पर्याप्त, सुरक्षित, स्वीकार्य, भौतिक रूप से और कम कीमत पर उपलब्ध पानी का अधिकार प्रदान करता है। डिहाइड्रेशन से होने वाली मृत्यु को रोकने, जलीय रोगों के खतरे को कम करने और उपभोग, खाना पकाने, निजी और घरेलू स्वच्छता की आवश्यकतओं को पूरा करने के लिए सुरक्षित जल की उपयुक्त मात्रा प्रदान करना आवश्यक है।” (जनरल कमेण्ट सं. 15, सीईएससीआर, 2002)

जल के मानवधिकार के घटक


जनरल कमेण्ट सं. 15 में जल के मानवाधिकार की जो व्याख्या की गई है, उसमें निम्नलिखित शामिल हैं :
  1. जल अस्तित्व के लिए मौलिक शर्त है और समुचित जीवन स्तर के लिए अपरिहार्य है।
  2. जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह मात्रा लगभग 50 लीटर प्रतिदिन की है। 20 लीटर प्रतिदिन न्यूनतम तो होना ही चाहिए।
  3. जल उपभोग के लिए समुचित होना चाहिए। इसका अर्थ है कि हर काम के लिए पानी की गुणवत्ता ठीक होनी चाहिए।
  4. पेयजल रंग, गन्ध, स्वाद के हिसाब से स्वीकार्य होना चाहिए। उपभोग के लिए सुरक्षा के सर्वोच्च स्तर का पालन होना चाहिए।
  5. पानी प्राप्त करना सभी लोगों के बूते में होना चाहिए और आवश्यक वस्तुओं के क्रय में किसी व्यक्ति के सामर्य् को प्रभावित नहीं करना चाहिए।
  6. पानी लोगों की सहज पहुँच में होना चाहिए; या तो घर के अन्दर या फिर घर के आसपास ही उपलब्ध होना चाहिए।
  7. जल के मानवाधिकार में स्वच्छता या अधिकार भी निहीत है। जनरल कमेण्ट सं. 15 इस बारे में आगे कहता है, राज्यों (सरकारों) का यह दायित्व है कि पानी विशेषकर ग्रामीण और वंचित शहरी क्षेत्रों में सुरक्षित महिलाओं और बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखकर प्रदान की जाए।

जल के अधिकार का क्रियान्वयन


जल के अधिकार का क्रियान्वयन सरकार को यह दायित्व सौंपता है कि वह लोगों के जल के अधिकार का सम्मान करे ताकि उसे अनुचित तरीके से पानी की सुविधा से वंचित नहीं किया जा सके। अन्य लोगों के हस्तक्षेप से लोगों की रक्षा की जानी चाहिए। इसके अलावा उपयुक्त कानून पारित कराने, कार्यक्रमों की योजना तैयार करने और उस पर अमल करने, बजट आवण्टित करने और उसकी प्रगति पर निगरानी रखने जैसे जल अधिकारों पर अमल करने के लिए आवश्यक उपायों को अपनाना भी इन दायित्वों में शामिल है।

भारत में सुरक्षित पेयजल का अधिकार संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों के अन्तगर्त धारा 21 में निहित जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है।भारत में सुरक्षित पेयजल का अधिकार संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों के अन्तगर्त धारा 21 में निहित जीवन के अधिकार का ही हिस्सा है। मानव उपभोग के लिए पानी के प्राथमिक आवण्टन को भी राष्ट्रीय जल नीतियों के माध्यम से स्थापित किया गया है। पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक बुनियादी ढाँचे में विशाल राशि का निवेश किया गया है। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) में संस्थागत सुधारों, कुशल संचालन एवं प्रबन्धन तथा समान वितरण के जरिये शत-प्रतिशत ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पानी की व्यवस्था करने की बात कही गई है।

भारत के संविधान, राष्ट्रीय जल नीतियों और पंचवर्षीय योजनाओं में सुरक्षित पेयजल के प्रावधान के महत्त्व देने के बावजूद 48 करोड़ से भी अधिक लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित मापदण्ड के अनुसार, प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष मामूली रूप से केवल 1880 घन मीटर पानी की उलब्धता के कारण, 180 देशों में भारत का स्थान 133वां है। जल प्रदाय सेवा पूरी तरह से असन्तोषजनक है। इस क्षेत्र को अनेक जटिल समस्याओं से जूझना पड़ रहा है, और उनका कोई आसान समाधान भी नहीं है।

तथापि, जल के अधिकार और इसके साथ जुड़े दायित्वों के नजरिये से भारतीय सन्दर्भ में कार्रवाई के लिए निम्नांकित क्षेत्रों पर ध्यान दिया जा सकता हैः
  1. इस बात को स्वीकार किया जाना जरूरी है कि पानी और स्वच्छता कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे खैरात में बाँटा जाए। पानी और स्वच्छता प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। अतः राज्य को उसे प्रदान करना चाहिए और उसकी सुरक्षा की जानी चाहिए।
  2. सरकार को और लोगों को जल के अधिकार और उसके कारण सरकार पर आए दायित्वों के बारे में जागरूक बनाना होगा।
  3. यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि आबादी के सभी वर्गों को पानी और स्वच्छता की सुविधा मिले। वंचित समुदायों, प्रवासी बसाहटों से दूर रहने वाले समाज के वर्गों की पहचान कर और उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान देने से समान वितरण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
  4. विभिन्न स्तरों पर परामर्शकारी मंचों का गठन किए जाने की आवश्यकता है ताकि पानी के सम्भरण और संरक्षण के बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया में लोगों को शामिल किया जा सके। इस प्रक्रिया में भाग लेने के लिए लोगों को शक्ति और अधिकार प्रदान करने होंगे। परामर्शकारी प्रक्रियाओं से नागरिकों के जल अधिकार की सुरक्षा के लिए जनहित याचिकाओं का सहारा लेने की जरूरतों में कमी आएगी।
  5. एक ऐसी व्यवस्था विकसित किए जाने की आवश्यकता है जहाँ सरकारी अधिकारियों और जल प्रदाय निकायों को पानी और स्वच्छता की सुविधा सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सके। निर्णय लेने की प्रक्रिया के उपयुक्त स्तरों को परिभाषित कर इसे हासिल किया जा सकता है। जल के अधिकार सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर अमल के लिए प्रभारी सर्वाधिक उपयुक्त राजनीतिक प्राधिकारी को चिन्हित किए जाने से इस काम में मदद मिलेगी। इसका अर्थ होगा कि संस्थागत प्रबन्ध, वितीय तन्त्र और संचालन के विकल्पों को स्पष्टतः और पारदर्शिता से परिभाषित किया जाएगा और सभी शामिल प्राधिकारियों ने इसे समझ लिया है।
  6. पानी की आपूर्ति और साफ-सफाई के लिए जल संसाधनों की सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए इन संसाधनों के दुरुपयोग को रोककर सरकारी नीति में यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि ‘जीवन के लिए जल’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है।
  7. पीने और घरेलू उपयोग के लिए दिए जाने वाले पानी की गुणवत्ता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि जल के मानव अधिकार पर अमल करने का जितना दायित्व सरकारी अधिकारियों का है, उतना ही उपभोक्ताओं का भी। उपभोक्ताओं का यह दायित्व है कि वे सुनिश्चित करें कि न केवल उनके अधिकारों की रक्षा हो रही है बल्कि पानी को बर्बाद और प्रदूषित होने से बचाने, सेवाओं के लिए उचित मूल्य और प्रभार अदा करने, अभाव के समय लगाए गए प्रतिबन्धों का पालन करने और व्यक्तिगत स्वच्छता सुनिश्चित करने अथवा स्वच्छता सेवाओं का लाभ उठाने में सरकार के साथ मिलकर काम करना भी उनका ही कर्तव्य है।

(लेखकद्वय पुणे स्थित विश्व जल संस्थान से सम्बन्धित हैं)

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