कौशल, अनिता और प्रीती... एक अंधेरी जिंदगी के गवाह
गिरिडीह के विश्वनाथ नर्सिंग होम के डॉक्टर शमशाद कासमी साफ कहते हैं कि फैक्ट्रियों की वजह से जल और जलवायु दोनों बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। डॉ कासमी कहते हैं कि सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है। और यही वजह है कि कौशल, अनीता और प्रीति पैदा लेते ही लाचार हो गए हैं।
तीन साल का कौशल कोल अपने कच्चे घर की दीवारों से ही टकराकर हर रोज दसियों बार गिरता है। चोट लगती है लेकिन अब वो रोता नहीं। ना ही उसकी मां बसंती देवी दौड़कर उसे उठाती है। मां-बेटे दोनों ने इस सच को स्वीकार कर लिया है। दरअसल कौशल की आंखों की रौशनी पैदा होने से पहले ही छिन गई थी। अनीता सात साल की है। कभी अपने पैरों पर चल नहीं पाई। ना ही अपने हाथों से खाना खा पाई। रोज अपनी छोटी बहन हीरा को स्कूल जाते देखती है। तरसती है, तड़पती है लेकिन कुछ कर नहीं सकती। पिता रामजीत कोल का कलेजा बेटी की हालत को देखकर कचोटता है। बाप-बेटी दोनों एक दूसरे की आंखों का दर्द पढ़ लेते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते। बात ये है कि अनीता पैदा ही विकलांग हुई और तब से उसके हाथ-पैरों में कोई जुम्बिश तक नहीं हुई।प्रीति चार साल की है। खूब उछलकूद मचाती है और कौशल की तरह ही कई बार दीवारों से टकरा भी जाती है। लेकिन फिर खुद से खड़ी होकर धमाचौकड़ी में लग जाती है। शादी के दस साल बाद काफी मन्नत-मनौती के बाद गीता देवी के कोख में बच्चा पलने लगा था लेकिन जब प्रीति पैदा हुई तो उसकी दोनों ही आंखों की रौशनी गुम थी। पिछले दस सालों में गिरिडीह के गादी श्रीरामपुर पंचायत में कौशल, अनीता और प्रीति जैसे कई बच्चे जन्म से विकलांग पैदा हुए हैं और ये फेहरिश्त दिनों दिन लंबी होती जा रही है। कई बच्चे तो विकलांग पैदा होते ही मौत के मुंह में समा गए। यहां एक दूसरा सच यह भी है कि इसी इलाके में पिछले एक दशक के अंदर देखते ही देखते घनी आबादी के बिल्कुल आस-पास दर्जनों स्टील-आयरन फैक्ट्रियां खड़ी हो गईं। बुजुर्ग भूकर कोल जब कहते हैं कि इन फैक्ट्रियों ने ही हमारे बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर दी है तो हमें थोड़ा सोचने को मजूबर होना पड़ता है। क्या वाकई इन फैक्ट्रियों और विकलांग पैदा होते बच्चों में कोई नाता है? जानना जरूरी था !
गिरिडीह शहर से यही कोई दस किलोमीटर के फासले पर है गादी श्रीरामपुर पंचायत। जैसे-जैसे आप गिरिडीह शहर की सीमा को छोड़ते जाएंगे आप सांसों में घुटन-सी महसूस करते दिखेंगे। थोड़े-थोड़े फासले पर रोलिंग मिल, जहां सरिया-छड़-एंगल बनता है; और स्पंज आयरन फैक्ट्रियां, जहां कच्चे लोहे को पिघलाया जाता है; चिमनी से धुआं उगलती दिखती चली जाएंगी। आसमान की नीलिमा काले-काले धुएं से जंग करती और फिर हार कर कालिमा ओढ़ी मालूम पड़ेगी। फैक्ट्रियों के आस-पास के पेड़ों की हरियाली पर कालिमा पुती हुई नजर आएगी। पेड़ों की पत्तियां हरी की जगह काली-मटमैली दिखती मिलेंगी। गादी श्रीरामपुर पंचायत के पड़ोसी उदनाबाद और मोहनपुर पंचायतों में ऐसा ही कुछ हाल है। इन तीनों पंचायतों में करीबन साठ-पैंसठ स्टील-आयरन फैक्ट्रियां हैं, जिसने इलाके में धुएं का काला साम्राज्य पसार रखा है।
इन इलाकों में एक दिन क्या महज एक पहर गुजारने भर से दम घुटने लगता है। ऐसे में उनके बारे में जरा सोचिए जो पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं और डॉक्टरों की माने तो खतरे की खोह में रह रहे हैं।
गिरिडीह के विश्वनाथ नर्सिंग होम के डॉक्टर शमशाद कासमी साफ कहते हैं कि फैक्ट्रियों की वजह से जल और जलवायु दोनों बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। डॉ कासमी कहते हैं कि सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है। और यही वजह है कि कौशल, अनीता और प्रीति पैदा लेते ही लाचार हो गए हैं। डॉ कासमी कहते हैं कि फैक्ट्री वाले इलाके के बाशिंदों में सांस, फेफड़े की बीमारी ज्यादा पाई जाती है।
चतरो गांव में एक मजदूर संगठन समिति है, जो फैक्ट्रियों के मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने का दावा करती है। 27 साल के नौजवान प्रधान मुर्मू इसके सचिव हैं। मुर्मू साफ तौर पर कहते हैं कि इन फैक्ट्रियों ने जीना हराम कर दिया है। मुर्मू हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए लेकिन फैक्ट्रियों से होने वाले नुकसान का पूरा लेखा-जोखा एक विशेषज्ञ की तरह मिनटों में पेश कर देते हैं।
फैक्ट्रियों से निकलने वाले डस्ट यानी गर्द से सबसे ज्यादा दिक्कत है। पास के कलहामांजो में फैक्ट्रियां से निकले गर्द का इतना ऊंचा टीला बन गया है, जिसे देखकर एक कुदरती पहाड़ होने का अंदेशा होता है। कोयले और लोहे के छोटे-छोटे कण मिले डस्ट को फैक्ट्री वाले कलहामांजो इलाके में डंप करते चले गए और देखते ही देखते डस्ट का पहाड़ खड़ा हो गया। बरसात के दिनों में ये खतरनाक गर्द बारिश के पानी के साथ मिलकर आस-पास के खेतों में पहुंच जाता है। और जिन-जिन खेतों में ये डस्ट पहुंचता है उसकी पैदावार धीरे-धीरे खत्म हो जाती है यानी जमीन बर्बाद हो गयी!
डस्ट मिला पानी जमीन के अंदर समाता है जिसके चलते भूजल भी प्रदूषित होता जा रहा है। इलाके में कुएं का पानी विषाक्त होता जा रहा है। फैक्ट्रियों से निकला पानी भी यूं ही खेतों और नदियों में बहा दिया जाता है, जिससे ये भूमिगत जल में मिलकर जहर बनता जा रहा है। कलहामांजो डंपिंग ग्राउंड के पास के गांव महुआटांड़ के बुजुर्ग भूकर कोल कहते हैं कि फैक्ट्री शुरू होने के पहले पानी में कोई दिक्कत नहीं थी, अब तो पानी में काला छाला जैसा पड़ जाता है। यानी जल बर्बाद हो गया!
फैक्ट्री वालों ने डस्ट के डंपिंग ग्राउंड के लिए गैरमजरूआ जमीन तो लीज पर ली है लेकिन धीरे-धीरे जंगल विभाग की जमीन तक डस्ट फैलता जा रहा है। इस हानिकारक डस्ट से जंगल के पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचा रहा है। धीरे-धीरे हरियाली खत्म होती जा रही है। और जमीन भी बंजर हो जाने की वजह से नए पौधे लहलहा नहीं पा रहे। यानी जंगल बर्बाद हो गया!
गादी श्रीरामपुर पंचायत के हेठपहरी, कलहामांजो, पिपराटांड़, पुरनी पेटरिया, गंगापुर, चतरो, मंझिलाडीह जैसे तमाम गांवों का पानी प्रदूषित हो चला है। फिल्टर बूते के बाहर की बात है इसलिए लोग छानकर पानी पीते हैं लेकिन इससे खतरा जाता नहीं। विषाक्त पानी को ही विकलांग पैदा होते बच्चों की वजह माना जा रहा है। और डॉक्टर शमशाद कासमी भी अपने अनुभवों से इस तर्क को सही मानते हैं। यानी जिंदगी बर्बाद हो गई!
फैक्ट्री की वजह से बच्चों के विकलांग पैदा होने की थ्योरी को फैक्ट्री मालिक एक झटके में खारिज कर देते हैं। गिरिडीह चैंबर्स ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष गुणवंत सिंह सलूजा बड़ी बेफिक्री से कहते हैं कि तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। सलूजा खुद स्टील फैक्ट्री मालिक हैं और उनका मोंगिया टीएमटी ब्रांड सरिया विज्ञापनों में छाया रहता है।
सलूजा कहते हैं कि अगर फैक्ट्रियों की वजह से बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं तो ऐसा इक्का-दुक्का क्यों होता है, पूरी बस्ती ही विकलांग पैदा क्यों नहीं होती। लेकिन एक सच ये भी है कि इस इलाके में कई लोग प्रेगनेंट होते ही महिलाओं को उनके मायके या दूसरी जगह भेज देते हैं। अफसोस के साथ भूकर कोल ठेठ अंदाज में कहते हैं कि हमरा कौसला जैसन आंधर बुतरू अब ना चाहीं... मतलब हमें कौशल की तरह के दृष्टिहीन बच्चे और नहीं चाहिए।
गिरिडीह निवासी और फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे अरविंद गुप्ता दो टूक कहते हैं कि फैक्ट्रियों ना सिर्फ लोगों की सेहत का नुकसान पहुंचा रही हैं बल्कि सरकार के राजस्व को भी चौपट कर रही हैं। गुप्ता बताते हैं कि अधिकतर फैक्ट्रियां कायदे-कानून और नीति-नियम सब की धज्जियां उड़ाकर चलाई जा रही हैं। गुप्ता का दावा है कि प्रदूषण के मानकों, लेबर एक्ट, फैक्ट्री एक्ट का यहां जमकर उल्लंघन हो रहा है। गुप्ता खुद इस मामले में कई सालों से दिलचस्पी लेते रहे हैं और वो इस बाबत सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दाखिल करने वाले हैं।
अजीब बात ये भी है कि गिरिडीह में इंडस्ट्रियल एरिया के तौर पर मुख्य रूप से सिहोडीह इलाका नॉटीफाइड है लेकिन अधिकतर फैक्ट्रियां लगाई गईं गादी श्रीरामपुर, उदनाबाद और मोहनपुर पंचायत में जहां भारी आबादी बसती है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि आखिर इसके खिलाफ कोई आवाज क्यों नहीं उठाता? जवाब परेशान लोग ही देते हैं।
तेजतर्रार युवा भागीरथ मंडल कहते हैं कि फैक्ट्री के मालिक तो खुद नेता हैं, इसलिए वो क्यों आवाज उठाएंगे। ये सच है कि मौजूदा विधायक निर्भय शाहाबादी का परिवार स्टील फैक्ट्री से जुड़ा हुआ है। पूर्व विधायक मुन्नालाल भी सरिया फैक्ट्री के मालिक हैं। ऐसे में लाजिमी है कि सेहत को तबाह करती फैक्ट्रियों के खिलाफ सड़क से लेकर सदन तक सवाल नहीं ही उठेगा! इसके अलावा भी कई नेताओं की यहां फैक्ट्रियां हैं या फिर फैक्ट्रियों में उनकी हिस्सेदारी है। स्थानीय ग्रामीण रामरतन राय तंज कसते हुए कहते हैं कि अब जो नेता भावी विधायक बनने की होड़ में हैं उनकी भी यहां फैक्ट्रियां हैं।
फैक्ट्रियों के खिलाफ कुछ साल पहले एक जोरदार आंदोलन जरूर हुआ था। जिन गांवों के दायरे में फैक्ट्रियां आती हैं, वहां के लोग गोलबंद होकर सड़क पर उतरे थे। हफ्ते भर तक विरोध और विद्रोह चलता रहा। जिला प्रशासन भी हलकान रहा। लेकिन धीरे-धीरे ये पूरी मुहिम मरती चली गई क्योंकि आंदोलन के अगुवा ने ही चुप्पी की चादर ओढ़ ली। इसके बाद तो फैक्ट्रियां फिर से फुल स्पीड में चलने लगीं और बदस्तूर हवा-पानी में जहर घोलने लगीं। आखिर ऐसा हुआ क्यों?
मजदूर संगठन समिति से जुड़े कालीचरण सोरेन कहते हैं कि जो भी फैक्ट्री के खिलाफ आवाज उठाता है या तो उसे धमका कर चुप करा दिया जाता है या फिर रुपया चमका कर अपने पाले में कर लिया जाता है। ऐसे में फैक्ट्रियों से परेशान लोग खुद को ठगा महसूस करते हैं और इस उम्मीद में बैठ जाते हैं कि उनका सवाल उठाने कोई फरिश्ता आएगा।
बड़ा हल्ला करके हमेशा कहा जाता है कि फैक्ट्रियां भले धुआं उगलें लेकिन रोजगार का एक बड़ा जरिया होती हैं और इसकी वजह से पलायन की त्रासदी पर रोक भी लगती हैं। लेकिन समाजवादी जन परिषद से जुड़े उदय कुमार सिन्हा ऐसा नहीं मानते। वो कहते हैं कि गिरिडीह की फैक्ट्रियों से स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं बल्कि बेगार मिलता है।
गादी श्रीरामपुर पंचायत के मुखिया मणिलाल साव जोर देकर कहते हैं कि जब इन फैक्ट्रियों के होने के बावजूद इलाके से पलायन रूक नहीं रहा तो फिर यहां के लोग सिर्फ इन फैक्ट्रियों का धुआं क्यों खाएं? वाजिब सवाल है और सच ये भी है कि अधिकतर स्थानीय ग्रामीणों को फैक्ट्री में काम नहीं मिलता और इसीलिए फैक्ट्री से निकले डस्ट में वो अपनी रोजी-रोटी तलाशते दिख जाते हैं। कलहामांजो इलाके में जो डस्ट का पहाड़ जैसा डंपिंग ग्राउंड है वहां लोहे के छोटे-छोटे कण तलाशते हैं स्थानीय युवक। मुंह अंधेरे सुबह से ढलती शाम तक धूल के बीच छोटे-छोटे बच्चे और नौजवान चुंबक से लोहे के बुरादे चुनते हैं और यही कोई सौ रुपए बना पाते हैं। बदले में जिंदगी भर की बीमारी अपने अंदर भी समा लेते हैं।
डस्ट डंपिंग ग्राउंड में लोहे के बुरादे चुनने वाले तेजो कोल बड़ी लापरवाही से कहते हैं कि ऐसे भी मरना है, वैसे भी मरना है तो फिर क्या डरना है। तेजो की तरह ही महादेव और नारायण कोल भी सोचते हैं और डंपिंग ग्राउंड में बगैर नागा किए लोहे का बुरादा बटोरने पहुंच जाते हैं।
जिला प्रशासन को भी सब खबर है। जिले के डीसी डीपी लकड़ा का कहना है कि उन्हें गड़बड़ियों के बारे मे जानकारी मिली है और इस बाबत एक जांच टीम बना दी गई है। हालांकि फैक्ट्री मालिक गुणवंत सिंह सलूजा ये जरूर मानते हैं कि फैक्ट्री है तो प्रदूषण तो होगा ही। लेकिन जब उनसे ये पूछा जाता है कि क्या आप सबों की कोई कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी जिसे सरकारी भाषा में सीएसआर यानी सामाजिक जिम्मेदारी कहा जाता है, है या नहीं है तो वे टका-सा जवाब दे देते हैं कि हम कोई टाटा-बिड़ला नहीं हैं। फैक्ट्री मालिकों का अपना तर्क हो सकता है लेकिन इस सवाल का उनके पास जवाब नहीं कि कौशल, अनीता, प्रीति जैसे बच्चों का आगे क्या होगा? तो वहीं इलाके के लोग इस दहशत में जी रहे हैं कि गर्भ में कहीं कोई और कौशल तो नहीं पल रहा!
-साभार - रविवार.कॉम
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