जल, ज़मीन और हवा का हक

भूमि, हवा आदि आदिवासियों की है, इसलिए वहां जो कोई परियोजना लगती है, उसमें पचास फीसद हिस्सा आदिवासियों का हो ताकि वे मूल मालिक रहें। इसके बाद 26 फीसद हिस्सा संबंधित कंपनी का हो और शेष 24 फीसद उन विस्थापितों का, जो परियोजनाओं से विस्थापित हो रहे हैं, लेकिन नये कानून में इनका कोई जिक्र नहीं है। इसमें आदिवासियों के समक्ष कुछ टुकड़े फेंकने की बात है, जिससे वे और उजड़ेंगे।

नये कानून में आदिवासियों के समक्ष कुछ टुकड़े फेंकने की बात है, जिससे वे उजड़ेंगे और उनके अस्तित्व पर और संकट पैदा होगा। मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा संसद में हाल ही में पेश भूमि अधिग्रहण, राहत और पुनर्वास विधेयक 2011 न तो किसानों के हित में है और न ही कृषि के हित में। यह नासमझी-भरा, गैर-जिम्मेदाराना और जन-विरोधी कानून है, जिसमें आदिवासी क्षेत्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। इससे आदिवासियों का विनाश शुरू हो जायेगा। सच पूछें तो यह एक ऐसा विधेयक है जो अब तक के किये-कराये पर पानी फेर देगा। पुराने कानून में भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक हित के लिए किये जाने का प्रावधान था और इसके लिए तीन मुख्य वजहें- आधारभूत विकास, औद्योगिक विकास और शहरीकरण बतायी गयी थी। नये कानून में इसे 'सेलेक्टिव' कर दिया गया है। इसमें यह कहा ही नहीं गया है कि भूमि अधिग्रहण किन स्थितियों में किया जायेगा।

आज स्थिति यह है कि यदि उत्तर-पूर्व को छोड़ दें तो शेष भारत में औद्योगीकरण और शहरी विकास के नाम पर आदिवासियों को इस तरह से उजाड़ा गया है कि वे अपनी जड़ों से दूर हो चुके हैं। रायगढ़, रांची आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जहां आज आदिवासी नाम मात्र को ही रह गये हैं। इसी प्रकार यदि आप बस्तर इलाके में जायें तो आपको सड़क के किनारे आदिवासियों का एक भी गांव नजर नहीं आयेगा। आखिर आदिवासी गये कहां? दरअसल होता यह है कि जहां से सड़कें निकलती हैं, कुछ समय बाद व्यापारी आदि वहां आकर पांच-दस एकड़ जमीन ले लेते हैं जो धीरे-धीरे सौ-दो सौ एकड़ तक पहुंच जाती है और आदिवासी वहां से उजड़कर दूर जंगल में चले जाते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत जारी है। आदिवासी इलाकों में जिस रफ्तार से शहरीकरण और औद्योगीकरण बढ़ रहा है, उनकी संख्या उसी रफ्तार में घट रही है।

हम लोगों ने वर्षों के संघर्ष के बाद आदिवासी इलाकों में पेसा कानून लागू करवाया था। इसे सभी अधिसूचित क्षेत्र में लागू होना चाहिए और इसका सख्ती से पालन होना चाहिए। नये कानून में इसका कोई जिक्र ही नहीं है। मैं इसे संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध मानता हूं। उदाहरण के लिए, कहीं एक जगह सौ एकड़ जमीन ली गयी। जमीन वाले को कुछ पैसे मिल गये। इसके बाद जब वहां शहरी और औद्योगिक विकास होना शुरू होता है तो पैसे वाले और उनके लठैत घूमने लगते हैं। वे आम आदमी के लिए कुछ नहीं सोचते। इससे स्थानीय लोगों में रोष पैदा होता है जिसकी परिणति भयावह होती है। मेरा मानना है कि जहां की जमीन ली जाये, वहां के रहने वाले को बराबरी का हक मिले। उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो। किसान की गरिमा बनी रहे। अपने ही पुरखों की जमीन बेचकर वे मजूदर बनने पर विवश न हो लेकिन इसका उलटा हो रहा है।

आदिवासी इलाकों में चप्पे-चप्पे में खनिज पदार्थ भरे हुए हैं। इसे जब आप कंपनियों को दे देंगे और कंपनियां जब वहां से खनिज आदि निकालने के लिए मशीनें लगा देंगी, तो पचास या सौ साल बाद स्थानीय आदिवासियों के खड़े रहने की जगह कहां होगी? इस मामले में भूरिया समिति की सिफारिशें लागू होनी चाहिए, जिन्होंने कहा था कि पानी, भूमि, हवा आदि आदिवासियों की है, इसलिए वहां जो कोई परियोजना लगती है, उसमें पचास फीसद हिस्सा आदिवासियों का हो ताकि वे मूल मालिक रहें। इसके बाद 26 फीसद हिस्सा संबंधित कंपनी का हो और शेष 24 फीसद उन विस्थापितों का, जो परियोजनाओं से विस्थापित हो रहे हैं, लेकिन नये कानून में इनका कोई जिक्र नहीं है। इसमें आदिवासियों के समक्ष कुछ टुकड़े फेंकने की बात है, जिससे वे और उजड़ेंगे।

लेखक प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं। अशोक प्रियदर्शी से बातचीत पर आधारित
 

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