सभी भूजल पर निर्भर होते चले जा रहे हैं इसका परिणाम यह हो रहा है कि ‘भूजल’ स्तर हर साल एक फुट की रफ्तार से नीचे जा रहा है। इससे उत्तर भारत के 11 करोड़ से अधिक लोग भीषण जल संकट से जूझ रहे हैं। यह आकलन अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा ने किया था। जमीन का सीना चीरकर लगातार पानी खींचने का ही परिणाम है कि आज देश के 5723 में से 839 ब्लाक डार्क जोन में आ चुके हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जल जीवन है, यह सत्य है कि इंसान भोजन के बिना कई दिन जीवित रह सकता है पर पानी के बिना नही! जल और जीवन का घनिष्ट सम्बन्ध है। यदि जल है तो कल है, जल नहीं तो कल नहीं। जैसे पहले रहीम जी ने कहा था कि बिन पानी सब सून यह वाक्य जीवन में पानी के महत्त्व को व्यक्त करता है। जीवन और प्रकृति का सम्पूर्ण सौन्दर्य पानी पर ही निर्भर है। इसलिये जल को जीवन कहा गया है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करना असम्भव है।
सून से आशय शून्य से और निरर्थक होने से है। पानी के और भी अर्थ होते हैं जैसे चमक या कान्ति और स्वाभिमान हर जगह और हर अर्थ में पानी अपनी विशिष्टता में अद्वितीय और अनिवार्य है। पानी मनुष्य के लिये ही आवश्यक नहीं है बल्कि यह पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, प्रकृति सभी के लिये उपयोगी एवं आवश्यक है। यह मनुष्य को मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ रखते हुए बल में वृद्धि करता है।
विगत अनेक वर्षों से पानी की कमी को महसूस किया जा रहा है, जल संकट कल महासंकट न हो जाये। यह सोचने का वक्त आ गया है। भारत में ही नहीं विश्व में भी इसके दुरुपयोग को रोकना होगा। मनुष्य की लापरवाही ने ही जल संकट को जन्म दिया है। पहले से सचेत रहते तो बढ़ती जनसंख्या का प्रभाव जल संकट में उतना न पड़ता, जितना आज दिखाई दे रहा है। नदियों ने नालों का रूप ले लिया है, झरने सूखने लगे हैं अगर अब भी इस संकट को नहीं समझ पा रहे हैं तो ये बुद्धिमानी नहीं, अपनी जड़ें हम स्वयं खोद रहे हैं।
जल की बर्बादी को रोकना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार या शासन से अधिक जिम्मेदारी है आम जनता की। हर क्षेत्र में हो रहे जल के दुरुपयोग को देश का प्रत्येक नागरिक ध्यान देने लगे और जल संरक्षण, प्रबन्धन में विशेष भूमिका निभाने लगे तो यह संकट निश्चित ही दूर हो सकता है। आज जल की कमी को देखते हुए तरह-तरह की आशंकाएँ भविष्य के लिये की जा रही हैं। यदि सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नही जब उन 90 करोड़ लोगों में शामिल होंगे जो पानी को तरसेंगे और जिसका सबसे बड़ा कारण है नगदी, खेती, औद्योगीकरण, शहरीकरण और लाइफ स्टाइल में पानी का बेतहाशा खर्च।
अगर देखा जाये तो यह भारत में लगभग 60 वर्षों में जल की उपलब्धता एक तिहाई रह गई है। अतः 1952 के मुकाबले 33 फीसदी जल समाप्त हो चुका है और जनसंख्या पहले की अपेक्षा 33 करोड़ से बढ़कर 115 करोड़ हो गई है, इस प्रकार तीन गुना अधिक की वृद्धि हो चुकी है और यह अभी तीव्र गति से बढ़ती चली जा रही है। आज सभी भूजल पर निर्भर होते चले जा रहे हैं इसका परिणाम यह हो रहा है कि ‘भूजल’ स्तर हर साल एक फुट की रफ्तार से नीचे जा रहा है। इससे उत्तर भारत के 11 करोड़ से अधिक लोग भीषण जल संकट से जूझ रहे हैं। यह आकलन अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा ने किया था।
जमीन का सीना चीरकर लगातार पानी खींचने का ही परिणाम है कि आज देश के 5723 में से 839 ब्लाक डार्क जोन में आ चुके हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में देश का कोई हिस्सा नहीं बच पाया है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर जगह जल को लेकर मारा-मारी है। देश के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले 35 शहरों में किसी भी क्षेत्र में औसतन एक घंटे से अधिक पानी की आपूर्ति नहीं की जाती है। कई शहरों में टैंकर ही जल की आपूर्ति का साधन बन चुके हैं। पानी के लिये कतारों में लगना भी अब लोगों की दिनचर्या में शामिल हो चुका है।
गाँवों में स्थिति और भी खराब है, पूर्व में जो जल पाँच मिनट की दूरी पर उपलब्ध होता था वह आज आधे घंटे चलकर उपलब्ध हो पाता है, और कभी-कभी नहीं भी। राजस्थान और गुजरात के गाँवों में यह स्थिति आम है और दक्षिण के राज्य भी अपवाद नहीं हैं। एक सर्वेक्षण में भारत में 15 फीसदी जलस्रोत सूखने की स्थिति में पहुँच चुके हैं। विश्व में सबसे अधिक, लगभग 20 लाख, ट्यूबवेल भारत में हैं और जो लगातार जमीन का सीना फाड़कर पानी खींच रहे हैं इससे वर्ल्ड बैंक के इस आकलन में कोई सन्देह नहीं होता कि अगले 25 वर्षों में भूजल के 60 फीसदी स्रोत खतरनाक स्थिति में पहुँच जाएँगे।
यह स्थिति भारत के लिये और भी दयनीय इसलिये है कि वहाँ जल का 70 फीसदी भाग, भूजल के स्रोतों से ही पूरा होता है। तब न फसल उगाने के लिये पानी होगा, न कल-कारखानों में सामान बनाने के लिये, कृषि और उद्योग धंधे भी बर्बाद हो जाएँगे और भारत की एक बड़ी आबादी जल की एक-एक बूँद को तरसेगी।
जल विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ वर्ष पूर्व लोगों ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भारत में भूजल भण्डार कभी खाली भी हो सकते हैं। कुछ फीट की खुदाई करो बस जल हाजिर, लेकिन कुछ वर्षों में भारतीय जनता ने इतनी बेरहमी से इनका दोहन किया आज ये बड़ी तीव्र गति में खाली हो रहे हैं। इसलिये आने वाले कुछ सालों में ये पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा की रिपोर्ट कहती है कि 2002 से 2008 के दौरान ही देश के भूजल भण्डारों से 109 अरब क्यूबिक मीटर (एक क्यूबिक मीटर = एक हजार लीटर) पानी समाप्त हो चुका है।
विगत तीन वर्षों में स्थिति और बदतर हुई है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी के एक अध्ययन से यह बात दिलचस्प रूप से सामने आई है कि भारत की आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ने के साथ ही देश में जल संकट और भी गहरा हो जाएगा। भारत में जी.डी.पी. बढ़ने से आय में वृद्धि हो रही है इससे लाइफ स्टाइल में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है एवं आधुनिक लाइफ स्टाइल के कारण पानी की खपत में बढ़ोत्तरी हो रही है। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की माँग 85 लीटर है जो सन 2025 तक 125 लीटर होने की सम्भावना है।
2025 तक जनसंख्या में वृद्धि होने से यह लगभग एक अरब 45 करोड़ के आस-पास हो जाएगी। इससे प्रतिदिन पानी की माँग में कुल 8000 करोड़ लीटर की बढ़ोत्तरी होगी, जिसका सीधा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा। इस बढ़ी हुई माँग को पूरा करने के लिये भूजल के स्रोतों की ओर ताकना पड़ेगा जिनमें से अधिकांश अनेक वर्षों पूर्व ही समाप्त हो चुके होंगे। अतः सरकार बढ़ी हुई माँग के अनुसार जल की आपूर्ति करने में असमर्थ हो जाएगी। इसका कारण यह है कि वर्तमान समय में जल की उपलब्धता 3076 लीटर है जो उस समय तक घटकर आधे से भी कम रह जाएगी।
यदि वर्तमान जल संकट को देखते हुए भविष्य की ओर देखें तो सन 2025 में विश्व की आबादी 8 अरब और 2025 तक 9 अरब को पार कर चुकी होगी। यू.एन. वाटर का कहना है कि अगले 15 वर्षों में दुनिया के 180 करोड़ लोग ऐसे देशों में रह रहे होंगे जहाँ पानी लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुका होगा। इन देशों में घाना, केन्या, नामीबिया सहित बड़ी संख्या में अफ्रीकी व एशियाई देशों की होगी। अभी 6 में से 1 व्यक्ति जल के लिये जूझ रहा है उस समय दो तिहाई अर्थात साढ़े पाँच अरब लोग भीषण जल संकट से जूझ रहे होंगे। शहरीकरण से समस्या और भी अधिक जटिल होगी।
वर्ल्ड बैंक के अनुसार सन 2020 तक दुनिया की आधी आबादी शहरी क्षेत्रों में रह रही होगी। नई शहरी जनसंख्या तक पानी पहुँचाना एक कठिन चुनौती होगी। संयुक्त राष्ट्र मानकों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन न्यूनतम 50 लीटर पानी मिलना चाहिए, पर स्थिति इससे बदतर है, विश्व के 6 में से एक व्यक्ति को इतना पानी नहीं मिल पाता है। यानी 89.4 करोड़ लोगों को बेहद कम पानी में अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती है।
भारतीय पैमानों पर देखें तो एक व्यक्ति को रोजाना कम-से-कम 85 लीटर पानी मिलना चाहिए लेकिन भारत में 30 फीसदी लोगों को ही यह मिल पा रहा है। इनमें से अधिकांश गाँवों के हैं पर शहरों में भी हालत बिगड़ती जा रही है। सब-सहारा अफ्रीकी देशों जैसे- कांगो, नामीबिया, मोजंबिक, घाना इत्यादि देशों के दूरस्थ गाँवों में तो लोगों को महीने में औसतन 100 लीटर पानी मुश्किल से मिल पाता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले सालों में इस खर्चे में भारी कटौती करनी होगी। यह वर्तमान समय की स्थिति है। इससे यह बात सामने आती है कि जल का संकट किस तरह महासंकट की ओर अग्रसर है। देखा जाये तो आने वाले वर्षों में पानी की माँग और आपूर्ति में अन्तर लगातार बढ़ता जाएगा।
यदि भारत का उदाहरण लें तो अभी पानी की कुल माँग 700 क्यूबिक किलोमीटर है जबकि उपलब्ध पानी 330 क्यूबिक किलोमीटर है। सन 2050 में माँग करीब दुगुनी हो जाएगी। पानी की माँग में इजाफा, जनसंख्या में वृद्धि की तुलना में कहीं तेजी से होगा। 1990 और 1995 के बीच यही हुआ था, इस दौरान दुनिया की आबादी तीन गुना बढ़ी लेकिन पानी की खपत 6 गुना से भी अधिक हो गई। यू.एन. वाटर के 2025 तक के अनुमान कहते हैं कि विकासशील देशों में पानी का दोहन 50 फीसदी और विकसित देशों में 18 फीसदी बढ़ेगा। वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ और काउंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउथी बालों का कहना है कि सन 2050 तक मनुष्य के लिये पानी की आपूर्ति में 80 फीसदी की बढ़ोत्तरी करनी होगी।
प्रश्न यह है कि यह पानी कहाँ से आएगा, अभी यह कोई नहीं जानता। पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिये पानी का दोहन करना ही होगा अर्थात इससे जल संकट और भी बढ़ेगा। जिसके दुष्परिणाम उभरकर विस्थापन के रूप में आएँगे और यह विस्थापन का सबसे बड़ा कारण जल संकट होगा। अनेक क्षेत्रों में पानी समाप्त हो चुका होगा ऐसे में लोग उन क्षेत्रों में जाएँगे जहाँ पानी उपलब्ध होगा। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार सन् 2030 तक 70 करोड़ लोगों को अपने क्षेत्रों से विस्थापित होने के लिये मजबूर होना पड़ेगा।
विस्थापन का एक दुष्प्रभाव यह भी होगा कि विस्थापित लोग जिन क्षेत्रों में जाएँगे वहाँ आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएँ जन्म लेंगी। यहाँ तक कि स्थायी निवासियों और विस्थापितों के बीच पानी को लेकर संघर्ष भी होगा। जिन देशों में ये विस्थापित जाएँगे वहाँ की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त भार बढ़ जाएगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आने वाले वर्षों में जल को लेकर संघर्ष बढ़ जाएगा। स्टीवन सोलोमन ने अपनी पुस्तक ‘वाटर’ में नील नदी के जल संसाधन को लेकर मिस्र एवं इथियोपिया के बीच विवाद का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए कहा कि दुनिया में सबसे विस्फोटक क्षेत्र, पश्चिम एशिया में अगला युद्ध पानी को लेकर ही होगा।
इस क्षेत्र में इजराइल, फिलिस्तीन, जार्डन एवं सीरिया में दुर्लभ जल संस्थानों पर नियंत्रण को लेकर गहरी बेचैनी है जो युद्ध के रूप में सामने आ सकती है। अतः जल संकट को लेकर तृतीय विश्वयुद्ध को नकारा नहीं जा सकता। अगर यही हालात रहे और समय रहते जल संरक्षण के ठोस प्रयास न किये गए तो युद्ध को किसी भी कीमत में टाला नहीं जा सकता।
साहित्य में जल का महत्त्व
साहित्य में जल का अत्यन्त महत्त्व है, चाहे प्राचीन काल हो या मध्यकाल। प्रकृति जो आदिम युग से मनुष्य के जीवन का आधार रही है आधुनिक जीवन में वह उससे छिनती जा रही है। जिन ऋतुओं की मर्यादा, उल्लास, आनंद, निश्छलता, सरलता, सामूहिक जीवन के रंगारंग पर्व, उत्सव और सरोकार, रचनाओं में दृष्टिगत थे उनके रंग आधुनिकता के रंग में फीके हो चुके हैं। साहित्य से पाठक दूर हो गया है उसका एक कारण साहित्य का प्रकृति से दूर होना भी है।
वर्तमान समय की आवश्यकता है साहित्य में जल के महत्त्व को उकेरना, क्योंकि मनुष्य ने विश्व की सबसे मूल्यवान और गतिमान जीवन तत्व को प्रदूषित कर दिया है। मध्य काल के कवियों ने जल को प्रेम, दर्शन, जीवन, प्रकृति, प्रतीक, रूपक, बिम्ब में गूँथकर एक सम्पूर्ण रूप दिया। उस साहित्य की आज पुनः आवश्यकता है, साहित्य में जल के महत्त्व को प्राचीनकाल से ही देखा जा सकता है।
विश्व की प्रथम कविता, ऋग्वेद के ‘अपसूक्त’ को माना गया है। इसके पश्चात वैदिक औपनिषदिक साहित्य में जल के सन्दर्भ में अपरिमित लिखा गया है। महादेवी वर्मा जी ने भी जल के बारे में लिखते हुए कहा कि आग हूँ जिससे दुलकते बिंदु हिम जल के इन पंक्तियों से आभास होता है कि जल और जीवन या जल और साहित्य पर जल का कितना महत्त्व है। साहित्य में जल को अनेक साहित्यकारों, कवियों ने गम्भीरता से विचार कर महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
इस प्रकार अनेक कवियों ने जल के महत्त्व को समझते हुए अपने साहित्य में किसी-न-किसी रूप में उसका उल्लेख किया है। मध्यकालीन कवियों को भी जल की चिन्ता रही है उन्होंने जल संरक्षण को लेकर अपनी कविताओं में इसका उल्लेख किया है। कबीर के साहित्य से यह पता लगता है कि अनेकों वर्ष पूर्व सिकन्दर लोदी ने नहरों से सिंचाई करने पर कर देने का नियम बनाया था। इस कारण सिकंदर लोदी के समय निर्धन कृषक अपनी सिंचाई कुओं या तालाबों से करते थे। गरीब किसान खेतों पर पानी जमा करने हेतु खेत की मिट्टी निकालकर उसे गहरा कर देते थे। इन खेतों को निचला खेत अथवा बोहड़ा कहा जाता था। कबीर ने अपनी साखियों में इन निचले खेतों के प्रयोग को अभिव्यक्ति दी है।
राम नाम करि बोहड़ा बादी बीच तघाई।
अन्तिकाल सूका पड़े तो निरफल कदे न जाई।
इसी प्रकार तुलसीदास जी का ध्यान प्राचीनकाल के पवित्र जलस्रोतों की ओर गया है क्योंकि उस समय ये प्रदूषित नहीं थे सूखा होने पर भी खेतों में पर्याप्त पानी मिलता था। उन्होंने इन पंक्तियों में तालाबों को सद्गुणों का अथाह भण्डार बतलाते हुए इन्हें महापुरुष के रूप में कहा है-
समिटि-समिटि जल भरहिं तलाबा
जिमि सद्गुण सज्जन यदि आबा।
उस समय की नदियों और तालाबों को सन्तों के हृदय के समान पवित्र और निर्मल माना जाता था। वे कहते हैं कि
सरिता, सर निर्मल जल सोहा,
सन्त हृदय जस गत मद मोहा।
इस प्रकार मध्ययुगीन कवियों ने जल की पवित्रता का उल्लेख जगह-जगह साहित्य में किया है।
निष्कर्ष यह है कि पवित्र कही जाने वाली नदियाँ आज प्रदूषित हो गई हैं। आज जल के प्रदूषण और संकट का संरक्षण करना हम सभी का दायित्व है। प्राचीन कवियों व साहित्यकारों ने जिस प्रकार जल की पवित्रता और उपयोगिता को समझकर समाज के समक्ष उसकी तस्वीर प्रस्तुत की है, वर्तमान समय में भी वैसे ही जनचेतना की आवश्यकता है। फिर साहित्य तो समाज का दर्पण है, और रचनाओं के माध्यम से ही जन-जन को सन्देश देकर जल संकट की वर्तमान समस्याओं का निदान किया जा सकता है, क्योंकि जल नहीं तो कल नहीं, जल ही जीवन है और साहित्य में जल के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) शासकीय ठाकुद रणमत सिंह महाविद्यालयरीवा (म.प्र.)
मोबाइल- 09425424234
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Post By: Editorial Team