कभी बड़ी संख्या में पाए जाने वाले घड़ियाल, कछुआ, मछली और मेंढक जैसे जल-जीवों का अस्तित्व संकट में है। इनमें कुछ जीव संरक्षित घोषित हैं फिर भी इनका अवैध शिकार हो रहा है। कछुए को 1985 में संरक्षित घोषित किया गया था। कुछ माह पूर्व उत्तराखंड के शिकारगंज में चार लोगों के पास दुर्लभ जाति के 80 कछुए बरामद हुए। नवम्बर 2010 में बंगलुरू में शिकारियों के पास 128 कछुए पकड़े गये। देश में प्रतिवर्ष हजारों कछुए मारे जा रहे हैं। सभी जीव-धारियों में कछुए का जीवनकाल सबसे लम्बा माना गया है। लंदन के चिड़ियाघर में एक कछुए का जन्मकाल 1904 अंकित है। अनुमान है कि यह प्राणी धरती पर छह करोड़ वर्षों से अपना अस्तित्व बनाया हुआ है। कछुओं के हत्यारों ने उन्हें जमीन पर तो मारा ही, समुद्र में भी उनका विध्वंस करने में कोई कोताही नहीं की। प्राचीन काल से हिन्द महासागर का अल्डबरा द्वीप समूह और प्रशान्त महासागर का गलापागोस द्वीप कछुए के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इस क्षेत्र से गुजरने वाले नाविकों ने जी भरकर यहां की कछुआ आबादी पर हाथ साफ किया। अनुमान है कि विगत शताब्दी में यहां से साढ़े आठ लाख कछुए लूटे गए।
कछुओं को इस कदर मारने के पीछे जहां इनका शर्मीला और अहिंसक होना जिम्मेदार है। वहीं एक साल या उससे भी अधिक अर्से तक बिना भोजन-पानी के जिन्दा रहने की उनकी प्रवृत्ति प्रदत्त क्षमता भी नाविकों को इन पर जोर जुल्म के लिए उकसाया। जहाजों के नाविक अल्डबरा या गलपापोश में कछुओं को रस्सियों से जकड़कर अपने जहाजों पर डाल लेते थे और आवश्यकता अनुसार इन्हें भोजन में उपयोग करते थे। 1985 तक यहां कछुओं के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया था। तब से इस द्वीप समूह के दो सौ वर्ग किलोमीटर अल्डबरा, क्षेत्र में और एक सौ किमी. गलपागोश क्षेत्र के आरक्षित घोषित किया गया है। अल्डबरा के कछुए छोटे आकार के होते हैं। परंतु गलपागोश के कछुए डेढ़ मीटर तक लम्बे और 220 किलोग्राम वजन के पाए जाते हैं। अब इस आरक्षित क्षेत्र में दर्जनों अन्य समुद्री प्राणी भी आश्रय पा रहे हैं।
दस अक्टूबर 2009 को हरिद्वार क्षेत्र में गंगा नदी के किनारे एक घड़ियाल पकड़ा गया था। वह धूप सेंक रहा था। उसे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। एक समय था जब गंगा में डॉलफिन को छोड़कर सभी जल जन्तु पाए जाते थे। जनसंख्या का बढ़ता दबाव और प्रदूषण के कारण यहां के जलजीव समाप्त हो गए। 1960 से पहले गंगा में घड़ियालों का वर्चस्व था। तब गंगा स्वच्छ पानी से भरी रहती थी। उस समय लोग घड़ियालों को देखने गढ़मुक्तेश्वर जाते थे। यहां गंगा किनारे दर्जनों घड़ियाल लेटे रहते थे। उस समय गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक पूरे गंगा क्षेत्र में घड़ियाल रहते थे। शिकारी उनका शिकार करते थे। बाद में वे दुर्लभ हो गए। प्रसिद्ध प्राणी विशेषज्ञ डॉ. बस्टर्ड ने 1974 में ही घड़ियालों के लुप्त होने की चेतावनी दी थी। इसके बाद केन्द्र सरकार ने घड़ियालों के पुनर्वास की योजना शुरू की थी। केन्द्र सरकार के निर्देश पर 1978 में चंबल नदी में घड़ियाल अभयारण्य की स्थापना की गई। इस पर पांच करोड़ रुपए सालाना खर्च होता है। हालांकि 2007 में एक ही उम्र के 113 घड़ियालों का इस नदी में मौत के कारणों को आज तक पता नहीं चल पाया है। घड़ियालों के अंडे बचाने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने चंबल के बहाव के लगभग 500 किमी. क्षेत्र में रेत के खनन को बंद करा दिया है। इस समय कुल 1200 घड़ियाल हैं।
अपने देश में मछलियों की स्थिति भी बदतर होती जा रही है। तालाबों के अस्तित्व की समाप्ति और नदियों में प्रदूषण के चलते मछलियों की आपूर्ति का एकमात्र सहारा समुद्र रह गया है। इस समय कुछ नदियां या नदियों का कुछ भाग जहां प्रदूषण की मात्रा कम है वहां चीन और अफ्रीका की दबंग मछलियों ने आतंक मचा दिया है। इनके चलते देशी प्रजाति की मछलियों को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है। मत्स्य वैज्ञानिकों का मानना है कि लड़ाकू और परिवार बढ़ाने में माहिर विदेशी मछलियों की बढ़त पर जल्द अंकुश नहीं लगा तो 2015 तक देश की सभी प्रमुख नदियों पर इनका अधिकार हो जाएगा। यहां की स्थानीय राहू, कतला, पठिन, टेंगना, नयन आदि देशी मछलियां दुर्लभ हो जाएंगी। हमारी नदियों में 146 किस्म की मछलियां मौजूद हैं लेकिन इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। इसी तरह, मेढ़कों का विनाश होना भी चिन्ता का सबब बन गया है।
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