कहा जाता है कि जल है तो कल है, पर अब इसे एक सवाल की तरह देखा जाना चाहिए कि जल ही नहीं होगा तो कल कैसा? पर्यावरण की समझ रखने वाले लोगों को यह सवाल बड़े स्तर चिंतित कर रहा है। इधर कुछ ही सालों में हमने पानी के अनेक भंडारों को गंवा दिया और अब प्यास भर पानी के लिए सरकारों के मोहताज होते जा रहे हैं। ऐसा ही एक उदहारण के इंदिरा गाँधी नहर के कारण राजस्थान में दिखाई देता हैं।पानी को किसी भी प्रगोगशाला में नहीं बनाया जा सकता हैं प्रकृति ने हमें पानी का अनमोल खजाना सौंपा हैं, लेकिन हम ही सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं । हमने उत्पादन और मुनाफे की होड़ में धरती की छाती में गहरे से गहरे छेद कर हजारों सालों में संग्रहीत सारा पानी निकाल लिया हैं,और अपने पारंपरिक व प्राकृतिक संसाधनों और पानी सहेजने की तकनीकों व तरीकों को भुला दिया है। स्थानीय परंपरा को बिसरा दिया और लोगों के परंपरागत ज्ञान और समझ को पीछे धकेल दिया।
पढ़े-लिखे लोगों ने समझा कि उन्हें अनपढ़ों के अर्जित ज्ञान से कोई सरोकार नहीं और उनके किताबी ज्ञान की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं। जबकि समाज का परंपरागत ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से छनता हुआ लोगों के पास तक पहुंचा था। समाज में पानी बचाने, सहेजने और उसकी समझ की कई ऐसी तकनीकें मौजूद रही हैं, जो अधुनातन तकनीकी ज्ञान के मुकाबले आज भी ज्यादा कारगर साबित हो सकती है।भारत में अगर पचास लीटर पानी प्रतिव्यक्ति रोज़ाना की खपत मानें तो 1.5 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी की जरूरत है। आबादी की घटत-बढ़त के आधार पर पानी की घटत-बढ़त देखी जा सकती है। तथ्य बताते हैं कि वास्तव में पानी की कमी का संकट उतना नहीं है, जितना इसके प्रबंधन, संरक्षण और संयमित उपयोग को लेकर है। पेयजल की कोई सुसंगत नीति जहां जरूरी है, वहीं आम सहमति भी जरूरी है।
वर्षा, भूजल, नद-जल के रूप में मिलने वाला पानी समुचित उपाय और प्रणाली के जरिए ही पीने योग्य बनाया जा सकता है। पानी के एक-एक बूंद के प्रति हमारा भाव कैसा है, इसी पर सब कुछ निर्भर करता है। वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि बरसाती पानी का सुसंगत इस्तेमाल करने और इसके समुचित संरक्षण से ही जल समस्या का समाधान संभव है। ऐसा ही एक पहल राजस्थान के बीकानेर जिले में स्थित उरमूल ट्रस्ट ने एच्.डी.एफ.सी. बैंक की सहायता से मरूगंधा परियोजना पोकरण के अंतर्गत 5 ग्राम पंचायतों में 14 ग्रामीण परिवारों ने बारिश के पानी को घर की छतो से 89 पारम्परिक टांको में करीब 10 लाख लीटर पानी को संरक्षीत किया हैं. आइये एक नजर पानी के वर्तमान आकड़े पर डालते हैं।
पानी के वर्तमान आकड़े
पानी तक़रीबन 70 प्रतिशत पर्थ्वी की भूमि को ढकता है परंतु इसमें से केवल 3 प्रतिशत साफ़ पानी है। इसमें से 2 प्रतिशत पर्थ्वी के ध्रुवीय बर्फीले इलाको में है और केवल 1 प्रतिशत प्रयोग करने योग्य पानी नदियों, झीलों और तालाब,टांके,कुई, बावड़ी,इत्यादी में है। विश्व स्तर पर 70 प्रतिशत पानी का इस्तमाल खेती बाड़ी के लिये होता है, भारत में 90 प्रतिशत पानी खेती बाड़ी के लिये, तक़रीबन 7 प्रतिशत कारखानों पर और 3 प्रतिशत घरेलु काम के लिये। आज की तारीख में सालाना कुल साफ़ पानी लिया जाता है वह तक़रीबन 3800 क्यूबिक किलोमीटर है, आज से 50 साल पहले के मुकाबले दुगना (बांधों का विश्व आयोग, 2000)। अध्यन दिखलाते है की एक आदमी को अधिकतम से अधिकतम 20 से 40 लीटर पानी की ज़रुरत होती है रोज़ पीने और सौच के लिए। दुनिया भर में 1 बिलियन से ज़्यादा लोगो के पास साफ़ पानी का पहुंच नहीं है। यह आकड़े युही बढ़ते रहेंगे अगर हमने पानी प्रबंधन नहीं सीख जाये ।
राजस्थान में थार मरुस्थलीय क्षेत्र पानी का प्रबंधन
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती, मानस, चून।
थार मरुस्थल में पानी के प्रति समाज का रिश्ता बड़ा ही आस्था भरा रहा है। पानी को श्रद्धा और पवित्रता के भाव से देखा जाता रहा है। इसीलिए पानी का उपयोग विलासिता के रूप में न होकर, जरूरत को पूरा करने के लिए ही होता रहा है। पानी को अमूल्य माना जाता रहा है। इसका कोई ‘मोल’ यहां कभी नहीं रहा। थार में यह परंपरा रही है कि यहां ‘दूध’ बेचना और ‘पूत’ बेचना एक ही बात मानी जाती है। इसी प्रकार पानी को ‘आबरू’ भी माना जाता है। अगर आप भारत में वर्षा का मानचित्र देखो और समझो कि राजस्थान में किस तरह पूर्व से पश्चिम की ओर जाने पर वर्षा कम होती जाती है।थार के मरुस्थल में बहुत कम वर्षा तो होती ही है और कभी –कभी तो कई साल ऐसे भी गुजर जाते है जब एक बूंद पानी नहीं बरसता। इसका कारण अरावली पर्वत है। दरअसल अरब सागर से उठने वाली मानसूनी हवाएँ नर्मदा और ताप्ती की घाटियों से होकर भारत के मध्य भाग में प्रवेश करती हैं और रुकावट न होने के कारण ये नागपुर के पठार तक चली जाती हैं। अरब सागर से उठने वाली मानसूनी हवाओं की एक शाखा राजस्थान की तरफ भी बढ़ती है। पर यहाँ मानसूनी हवाएँ इस पर्वत के पास से गुजर जाती हैं और ऊपर हिमालय की पहाड़ियों से टकराकर बारिश करवा देती हैं।
राजस्थान के निवासी भी मानसून की झमाझम से सराबोर होते अगर अरावली पर्वत का स्थान जरा बदला सा होता। अगर ये पर्वत उत्तर-दक्षिण में न होकर पूर्व से पश्चिम दिशा में फैला होता तो अरब सागर से उठने वाली पानी भरी हवाएं इससे टकराकर राजस्थान को खूब भिगोती और राजस्थान में सूखे और रेगिस्तान के बजाय हरी भरी वादियां लहलहा रही होती। पर ऐसा ना होते बुए भी यहाँ के समुदाय ने बिना किसी मनेजमेंट की डीग्री के बिना ही अपनी दूरदर्शिता और प्रबंधन से पान की कमी को काफी हद तक कम किआ और जल संग्रहण के ऐसे तरीके विकसित किए, जिससे मनुष्यों तथा पशुओं की पानी की आवश्यकताएं पूरी की जा सके। इनमें से एक प्रमुख तरीका है टाँका द्वारा बारिश का पानी घरो की छतो से जमा करना।
टांका का परिचय
टांका एक प्रकार का छोटा ऊपर से ढका हुआ भूमिगत खड्डा होता है इसका प्रयोग मुख्यत: पेयजल के लिये वर्षाजल संग्रहण हेतु किया जाता है। टांका आवश्यकता व उद्देश्य विशेष के अनुसार कहीं पर भी बनाया जा सकता है। परम्परागत तौर पर निजी टांके प्राय: घर के आंगन या चबूतरों में बनाये जाते हैं, जबकि सामुदायिक टांकों का निर्माण पंचायत भूमि में किया जाता है। चूँकि टांके वर्षाजल संग्रहण के लिये बनाये जाते हैं इसलिये इनका निर्माण आंगन/चबूतरे या भूमि के प्राकृतिक ढाल की ओर सबसे निचले स्थान में किया जाता है। ।
राजस्थान में टाँकों का इतिहास
राजस्थान में टाँकों का इतिहास बहुत पुराना है। ऐसा कहा जाता है कि सर्वप्रथम टाँका वर्ष 1607 में राजा सूर सिंह ने बनवाया था। जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में भी वर्ष 1759 में महाराजा उदय सिंह ने ऐसा टाँका बनवाया था। वर्ष 1895-96 के महा-अकाल में ऐसे टाँके बड़े स्तर पर बनवाए गए। सबसे बड़ा टाँका करीब 350 वर्ष पहले जयपुर के जयगढ़ किले में बनवाया गया था। इसकी क्षमता साठ लाख गैलन (लगभग तीन करोड़ लीटर) पानी की थी। यहाँ अधिकांश स्थानों पर भूमिगत जल खारा है तथा भूजल अधिक गहराई पर है, ऐसे क्षेत्रो में टाँका, स्वच्छ तथा मीठा पेयजल पाने का सुविधाजनक तरीका है। मरुस्थल में रहने वाले परिवार जिन्हें पेयजल दूर से लाना पड़ता है, उनके लिये पानी का टाँका एक अनिवार्य आवश्यकता है। सबसे बड़ा टाँका करीब 350 वर्ष पहले जयपुर के जयगढ़ किले में बनवाया गया था। इसकी क्षमता साठ लाख गैलन (लगभग तीन करोड़ लीटर) पानी की थी।
बनावट
परम्परागत रूप से टांके का आकार चौकोर, गोल या आयताकार भी हो सकता है। जिस स्थान का वर्षाजल टांके में एकत्रित किया जाता है उसे पायतान या आगोर कहते हैं और उसे वर्ष भर साफ रखा जाता है। संग्रहित पानी के रिसाव को रोकने के लिये टांके के अन्दर चिनाई की जाती है। आगोर से बहकर पानी सुराखों से होता हुआ टांके में प्रवेश करता है। सुराख के मुहानों पर जाली लगी होती है ताकि कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ टांके के अन्दर प्रवेश न कर सके। तथा टाँके में एक से लेकर तीन तक प्रवेश द्वार (इनलेट) बनाए जाते हैं, जिनके द्वारा पानी टाँके के अन्दर जाता है। टाँके के मुँह पर चूने पत्थर या सीमेन्ट की पक्की बनावट की जाती है। टाँके में एक तरफ निकास द्वार बनाया जाता है जिससे अधिक पानी आने पर बाहर निकाला जा सके। टाँके से पानी निकालने के लिये टाँके की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी तथा रस्सी की सहायता से टाँके से पानी खींचा जाता है। आगोर पानी इकट्ठा करने का माध्यम है। कई क्षेत्रों में टाँको का आगोर प्राकृतिक ढालदार जमीन का होता है। कई क्षेत्रों में विशेषकर रेतीले स्थानों पर कृत्रिम आगोर बनाना पड़ता है। यह टाँके सामान्यतया घरों के पास बनाए जाते हैं।
टाँके में एक से लेकर तीन तक प्रवेश द्वार (इनलेट) बनाए जाते हैं, जिनके द्वारा पानी टाँके के अन्दर जाता है। (फोटो- पुखराज जयपाल कलस्टर समन्वयक उरमूल ट्रस्ट, मरूगंधा परियोजना पोकरण) आगोर या कैचमेन्ट एरिया (या टाँके का जलग्रहण-कैचमेंट क्षेत्र, जहाँ से वर्षा-जल एकत्रित किया जाता है) आगोर से बहकर पानी सुराखों से होता हुआ टांके में प्रवेश करता है। सुराख के मुहानों पर जाली लगी होती है ताकि कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ टांके के अन्दर प्रवेश न कर सके.
टाँके में एक तरफ निकास द्वार बनाया जाता है जिससे अधिक पानी आने पर बाहर निकाला जा सके। फोटो- पुखराज जयपाल कलस्टर समन्वयक उरमूल ट्रस्ट, मरूगंधा परियोजना पोकरण) टाँके से पानी निकालने के लिये टाँके की छत पर एक छोटा ढक्कन लगा होता है, जिसे खोलकर बाल्टी तथा रस्सी की सहायता से टाँके से पानी खींचा जाता है। फोटो- पुखराज जयपाल कलस्टर समन्वयक उरमूल ट्रस्ट, मरूगंधा परियोजना पोकरण) बीकानेर स्थित उरमूल ट्रस्ट ने मारुगंधा प्रोजेक्ट जो एचडीएफसी बैंक के सहयोग से संचालित है के माध्यम से पोखरण जिले के 14 ग्राम पंचायतो में 89 नये टांको का निर्माण किया है, और 14 पुराने टांको की मरम्मत करवाई और लोगों को मौके पर पहले सीजन में ही करीब 10 लाख लीटर पानी उपलब्ध हुआ हैं। जिससे 125000 रू0 की प्रथम सीजन में बचत हुई हैं।
/articles/jala-haai-tao-kala-haai-0