भारतीय परंपरा में पानी सिर्फ पानी नहीं रहा। वह हमारी चिंतन परंपरा का हिस्सा रहा है। हमारे दैनिक जीवन से लेकर धार्मिक अनुष्ठानों तक बिना जल के कोई कार्य पूरे नहीं होते। लेकिन दुर्भाग्य से अब हम उस जल-चिंतन को भूल गए हैं, इसलिए जल भी हमसे रूठता जा रहा है। कोशिश पानी को बचाने की होनी चाहिए, सिर्फ पूजने की नहीं।
पानी पर बात करने से पहले मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहता हूं जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। मैं ऐसे इलाके का रहने वाला हूं, जहां सबसे कम पानी पाया जाता है। वहां मैं मुफ्त में गरीबों का इलाज करता रहा। उस समय रतौंधी एक बड़ी समस्या थी और यह पानी से जुड़ी बीमारी थी। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘‘तुम इजाज का पैसे तो लेते नहीं फिर इलाज क्यों करते हो। पैसा लेकर इलाज करने वाले तो लाखों लोग हैं। तुम उसका इलाज करो जिसके पास पैसा नहीं है और वह धरती है।’’ उस बुजुर्ग की बात ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी, और मैंने पानी और जमीन का इलाज करना शुरू कर दिया।
शुरूआत बहुत मामूली स्तर पर हुई थी, मैं अकेला नहीं था। लोग जुड़ते गये और कारवाँ बनता गया। आज मैं कह सकता हूं, हमने अपने पिछले पैंतीस वर्षों में ग्यारह हजार आठ सौ तालाब, जोहड़, नदी और नहरों को पुनर्जीवित करने का काम किया है। अपने इन पैंतीस साल के अनुभव में मैंने पाया कि भारत पानी को लेकर कभी विपन्न नहीं था, बल्कि ‘दुनिया का गुरू’ माना जाता था क्योंकि भारत के लोग पानी से ही अपने भगवान का, अपने अतिथि का सम्मान करते रहे हैं।
इसका सबसे बड़ा कारण रहा है कि भारतीय पानी को ‘प्राण’ मानते रहे हैं, इसलिए जो प्राणों से प्राण है उसे भगवान मानते हैं, क्योंकि माना जाता है कि प्रकृति को पानी की पानी ही पुनर्जीवित कर सकता है। पानी को लेकर भारत में छह ‘आर’ हैं। पहला है ‘रिस्पेक्ट आफ वॉटर’। दूसरा है ‘रिड्यूस ऑफ वाटर’ जीवन में कम से कम पानी का उपयोग करो और साफ जल को गंदे जल में ना मिलने दो। तीसरा है ‘रिट्रीट, रिसाइकिल और रियूज़’। ये जो 3 शब्द हैं रिट्रीट, रिसाइकिल और रियूज, ये तो यूरोप, अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे देशों में भी मिल जाएंगे। पानी के बारे में, लेकिन ये जो तीन शब्द हैं ‘रिस्पेक्ट आफ वॉटर’, रिड्यूस आफ वाटर और ‘रिजुलेट नेचर बाइ वाटर’ वे सिर्फ भारत में ही मिलते हैं। यानी प्रकृति को पुनर्जीवित करने का काम पानी ही कर सकता है। और तो यह जो पानी का एक सांस्कृतिक पक्ष है सिर्फ भारत में मिलता है। शायद यही कारण है कि कम पानी के बावजूद अभी तक भारतीय लोग पानीदार बने रहे।
हमारी सभ्यताएं आमतौर पर नदियों के किनारे ही फली-फूलीं, लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी तो लोगों को नदियों से दूर जाकर बसना पड़ा। पर वहां भी उन्होंने तालाब बनाए। इन तालाबों की खासियत है यह रही कि यह मनुष्यों के साथ-साथ नदियों को भी पोषित करते रहे थे। इसके बाद फिर जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, तो हमने कुएं बनाए, बावड़ियाँ बनाईं। इस तरह जैसे-जैसे मनुष्य को जल-स्रोत से दूर जाना पड़ा तो उसने तालाब, बावड़ियाँ, ताल, झाल, पाल आदि बनाकर पानी का संरक्षण किया। इसी कारण हम पानीदार बनी रहे। पर जब भारत में अंग्रेजी शासक आए तो उन्होंने कहना शुरु किया कि ‘यह तो सपेरों का देश है यह ठहरा हुआ पानी पीते हैं’। ठहरा पानी तो दूषित है। अंग्रेज यह बात नहीं जानते थे कि वर्षा जल शुद्ध और पवित्र होता है और जब वह इकट्ठा होता है, तो वह सूर्य की किरणों और हवा के स्पर्श से शुद्ध होता रहता है। यह ज्ञान उन्हें नहीं था। राजस्थान में जो वर्षा का जल इकट्ठा होता था, उसे हम ताजा-पानी कहते थे और अगर किसी को पेट की बीमारी होती थी, तो हम उसी से उसका इलाज कर लिया करते थे।
हमारे लिए जल सिर्फ जीवन देने वाला ही नहीं रहा, यह तो रहा ही, बल्कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भूमिका भी रही। हमारी कोई भी पूजा जल के बिना नहीं होती। लेकिन लगभग सौ साल पहले हमारा जल-दर्शन मिट्टी में दब गया और हम दूसरे की नकल करने लगे और अपने तालाब के पानी को गंदा मान लिया। और बस जबसे हमने अपने तालाब के पानी को गंदा मानना शुरू किया, यह समस्या शुरू हो गई। वैसे तो हम तालाबों को गंदा करते ही हैं और आज तो सचमुच तालाब का पानी गंदा हो गया। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। इसका कारण यह था कि तालाब क्षेत्र में कोई भी शौच के लिए नहीं जाता था। इस तरह तो पहले हमने अपने तालाबों, बावड़ियों और कुओं को गंदा माना, फिर वह अनुपयोगी हुए और बाद में हमने उन्हें कचरे से भर दिया। इस तरह हमारे यह पारंपरिक जलस्रोत मरते चले गए।
आप दिल्ली को ही लें, तो जो पंचकुइयां रोड है वह पहले 5 कुओं का इलाका था। इनसे इलाके के लोगों को वहां से पानी मिल जाता था। कन्याकुमारी से कश्मीर तक और गोवा से गुवाहाटी तक हमारी जल-संरक्षण के सामुदायिक व्यवस्था थी। एक परंपरा थी कि राजा पानी के काम के लिए जमीन देता था, प्रजा पानी के काम के लिए पसीना बहाती थी। और महाजन धन और भोजन की व्यवस्था करता था। इस तरह एक ‘सामुदायिक विकेंद्रित जलप्रबंधन’ था भारत का। जो पिछले 100 वर्षों में जेहन से, ज्ञान से और व्यवहार से विस्थापित हो गया। इस ज्ञान के विस्थापन के बाद हमारे समाज में पानी की विकृति पैदा होने लगी और अंततः हम विनाश की ओर बढ़ गए।
ध्यान देने की बात है कि आजादी के समय जितनी जमीन पर हमारे यहां सूखा पड़ता था, उससे 10 गुना जमीन पर आज सूखा पड़ता है। इस समय 13 बड़े राज्यों के करीब 327 जिलों में अकाल है। इसी तरह बाढ़ भी बढ़ने लगी है। पहले बाढ़ आती भी थी तो दो-चार दिन में पानी निकल जाता था। और लोग बाढ़ का आनंद लेते थे। आज बाढ़ आती है तो गंदगी और बीमारी लाती है। पिछले साल बारिश में आठ गुना ज्यादा जमीन पर बाढ़ आई। इस तरह से बाढ़ और सुखाड़ पानी के ज्ञान और सांस्कृतिक समझ के विस्थापन से आना शुरू हुआ है। जलप्रबंधन के पारंपरिक ज्ञान के विस्मरण के बाद हम जलप्रबंधन की यूरोपीय केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर चले गए और यह भूल गए कि प्रकृति में जल सीमित है। प्रकृति एक तरह से रिजर्व बैंक है जिसमें से अगर पैसा डालोगे नहीं और निकालते ही रहोगे, तो एक दिन वह खत्म हो जाएगा।
हम जो कभी पानीदार देश थे और आज अगर बेपानी हो रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण पानी के दर्शन और उसके सांस्कृतिक पक्ष को भुलाना है। हमारे जो जलतीर्थ थे, उनमें ज्यादातर जल-पर्यटन में बदल गए और जो जल-दर्शन देने वाले स्थान थे, वे उपभोग की वस्तु बन गए। आज पानी बाजार की चीज बन गया है जो पहले कभी नहीं था। पानी का बाजार इन दिनों सबसे मुनाफे का बाजार है। हमें बताया जाता है कि जो पानी हम पीते हैं, वह प्रदूषित और बीमारियां फैलाता है। इस दुष्प्रचार ने बोतलबंद पानी का उपयोग बढ़ा दिया। जिस पानी पर सब का समान अधिकार था, वह बाजार का हो गया। पानी को हम कभी खरीदकर नहीं लाते थे। अब जो लोग कहते हैं कि भारत पुरुष प्रधान देश है और जो पुरुष प्रधान व्यवस्था है वह शोषण की व्यवस्था है। लेकिन मैं कहता हूं कि भारत कभी पुरुष प्रधान नहीं था।
अंत में यही कहना चाहूंगा कि हम अभी अपने जलतीर्थ और जलदर्शन के साथ भारतीय ज्ञानतंत्र का इस्तेमाल करें तभी भारत को पानीदार बनाया जा सकता है।
(लेखक पानी के प्रसिद्ध जानकार हैं।)
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