जल चिकित्सा अर्थात पानी का इलाज

water therapy
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आज कल संसार में असंख्य प्रकार के रोग फैल रहे हैं, और उनको दूर करने के लिये लोग लाखों तरह की दवाइयों का आविष्कार कर रहे हैं। डॉ. आयुर्वेद, हकीम, होम्योपैथी, क्रोमोपैथी आदि चिकित्सा विधियाँ काम में ली जाती हैं कुछ समय से प्राकृतिक चिकित्सा का भी प्रचार हो रहा है। जर्मनी के लुई कुने, नीप, महात्मा जुस्ट आदि व अमरीका के श्री वर्नारमेकफेडन ने प्राकृतिक चिकित्सा का जगत में प्रचार करके संसार का भारी उपकार किया है। और वे अपना नाम अमर कर चुके हैं सबसे अधिक प्रकृति के अनुकूल महात्मा जुस्ट की चिकित्सा प्रणाली है। आज मैं अपने निज के अनुभव अध्ययन आदि के आधार पर 'पानी का इलाज' नाम की पुस्तक पाठकों की सेवा में अर्पण कर रहा हूँ।

इस पुस्तक में मैं यह दिखाने की कोशिश करूँगा कि संसार के सभी शारीरिक व मानसिक रोग केवल जल के विधि-पूर्वक प्रयोगों से (स्नान आदि से) किस प्रकार दूर हो सकते हैं और यह कि सभी रोगों का कारण एक है प्रकृति विरूद्ध जीवन और सभी रोगों का इलाज भी एक है अर्थात स्वाभाविक रहन-सहन।

इस पुस्तक में प्राकृतिक स्नान करने की पूरी तरकीब लिखूँगा और हर एक ऋतु में कितनी बार, कितने समय तक स्वाभाविक स्नान किया जाए यह भी लिखूँगा। इसके सिवा पूरी तरह यह समझाया जाएगा कि रोगों के इलाज में इस अद्भुत स्वाभाविक स्नान का कितना महत्त्व है और यह कि उचित पथ्य के साथ स्वाभाविक स्नान से सभी नई पुरानी व्याधियाँ अवश्य दूर हो सकती हैं। यह स्नान अति सरल, सस्ता और राम बाण नुस्खा है और हर एक मनुष्य आसानी से इस पुस्तक को पढ़कर स्वयं बिना गुरू के यह स्नान कर सकता है और अपने सभी रोग इससे दूर कर सकता है।

परमात्मा करे यह पुस्तक घर-घर में जाकर औषधियों के झूठे अंध विश्वास को दूर करे और लोग इसे पढ़कर निरोग बनें। यही मेरी हार्दिक इच्छा है। परमात्मा वह दिन जल्द लाए कि भारतवासी इस चिकित्सा का आदर करें।

यूँ तो सभी लोग स्नान नित्य किया करते हैं और स्नान के गुण भी सभी लोग बखान करते हैं परंतु आज स्नान का जिक्र इस पुस्तक में करूँगा वह रोजाना के स्नान से कुछ निराला होगा। पहले मैं प्राकृतिक स्नान (Tub bath) का वर्णन करूँगा और बाद में दूसरे जल के प्रयोगों का वर्णन भी इसी पुस्तिका में विस्तार पूर्वक करूँगा। जल के सब प्रयोग विधि पूर्वक लिखूँगा। बहुत से विद्वान लुई कुन्हे आदि जल चिकित्सा पर ग्रंथ लिख चुके हैं और उनके ग्रंथों ने लाखों करोड़ों को लाभ पहुँचाया है। परंतु उस स्नान व जल प्रयोगों में कुछ बातें प्रतिकूल भी है और कुछ अंश में प्रकृति विरुद्ध होने के कारण पूर्ण लाभ नहीं होता।

हमें सदा ही रोगों की चिकित्सा में अंत:करण की आज्ञानुसार चलना चाहिए। वही एक मात्र सच्चा आरोग्य पथ प्रदर्शक है। उसकी आज्ञानुसार चलने पर धोखा कभी नहीं हो सकता। यदि आप जानवरों और बच्चों के स्नान की तरीकीबों को ध्यान पूर्वक देखेंगे तो आपको भली-भाँति मालूम हो जाएगा कि असली स्वाभाविक स्नान कैसे करना चाहिए। वास्तव में स्वास्थ्य के अन्य नियमों की भाँति स्वाभाविक स्नान विधि भी भली-भाँति हम प्रकृति के भक्त जानवरों व बच्चों से सीख सकते हैं। इसके लिये विज्ञान वेताओं व आयुर्वेदाचार्यों आदि के पास जाकर सीखने की आवश्यकता नहीं है।

इसीलिये मैं सर्वसाधारण के लाभार्थ सरल स्वाभाविक स्नान का वर्णन करूँगा जो सर्वथा प्रकृति के अनुकूल है और जिसके नियम पूर्वक (पथ्य सहित) करने से सभी नए पुराने रोग अच्छे हो जाएँगे। जितनी चिकित्सा विधियाँ जितने प्रकार के स्नान आदि प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं वह धीरे-धीरे लुप्त हो जाएँगे जिस प्रकार आजकल रोजाना नई-नई दवाइयाँ निकल रही हैं और शीघ्र ही लुप्त होकर दूसरी दवाइयाँ उनके बजाए चलती रहती हैं। मगर इतना जरूर है कि दवाइयाँ अधिकांश पैसे कमाने की गरज से इजाद (आविष्कृत) होती है और प्राकृतिक उपचार जनसाधारण को सच्चा आरोग्य प्रदान करने के लिये होते हैं। और इसीलिये प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार करने वाले ईश्वर की कृपा के पात्र होंगे। और कुन्हेजुस्ट, मैकफेडन नीप प्रीस्नीज आदि की भाँति अपना नाम अमर कर जाएँगे।

प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार करना बड़ा भारी पुण्य कार्य है और यह ऐसा परोपकार है जिसके प्रचार से लाखों जानें बचाई जा सकती हैं और करोड़ों रोगियों को निरोग बनाया जा सकता है और करोड़ों रोगियों को निरोग बनाया जा सकता है। मेरी राय में मनुष्य समाज के सबसे बड़े सुख व धन आरोग्य को बनाये रखने के लिये स्वाभाविक चिकित्सा का जानना अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में स्वास्थ्य ही जीवन है और संसार के सब सुख वैभव कार्य आदि आरोग्य पर ही निर्भर हैं। रोगी मनुष्य तो मृतक के समान कष्टमय जीवन बिताते हैं ऐसे अनमोल आरोग्य की रक्षा सभी चाहते हैं परंतु खेद है कि आज मनुष्य समाज औषधि सेवन, ऑपरेशन, टीका, इंजेक्शन आदि मिथ्या उपचारों द्वारा निरोग होना चाहता है जो सर्वथा असंभव है। क्या प्रकृति के विपरीत साधनों से किसी को आज तक आरोग्य मिला है। नहीं।

मैं किसी के दिल दुखाने की गरज से या निंदा करने के लिये ऐसा नहीं लिख रहा हूँ ना कोई भी मेरे लिखे का बुरा माने मैं एक तुच्छ व्यक्ति हूँ। परंतु साथ ही अंत:करण की प्रबल प्रेरणा से केवल लोक कल्याण की भावना से यह साहित्य लिख रहा हूँ ताकि सर्वसाधारण इसे पढ़कर स्वयं बिना कोई दवा खाए बिना चीर-फाड़ का अपने व अपने कुटुंब का इलाज खुद ही कर लें और चिकित्सकों को अनावश्यक गुलामी व खर्चे से भी बच जाएँ। इसके लिये मैं कोई बात नहीं उठाना चाहूँगा चाहे मुझे गालियाँ मिले या प्रशंसा।

मैं जिस समय ये पृष्ठ लिख रहा हूँ उस समय मेरी आँखो के सामने वे सभी दुखद व नारकीय, हृदय को दहलाने वाले, करून दृश्य दिखाई दे रहे हैं जिनके स्मरण मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हमारी विधवा माताएँ बहनें लाखों करोड़ों की संख्या में विलाप कर रही हैं। उन्होंने अस्वाभाविक औषधियों आदि से चिकित्सा के परिणामस्वरूप अपने पतियों को खो दिया है - असंख्य माँ बाप अज्ञान वश अपनी संतानों को खोकर विलाप कर रहे हैं - लाखों करोड़ों व्यक्ति अंधे लूले, लंगड़े, कोढ़ी नपुंसक रोगी हैं और घोर कष्ट सह कर विलाप कर रहे हैं - क्षय, प्लेग, महामारी, हैजा मलेरिया आदि में लाखों घर उजड़ रहे हैं। इन बातों को देख कर कौन ऐसा होगा जिसका हृदय न पसीजेगा।

हमारी सरकार, नरेश, जनता आदि सभी काफी पैसा लगाकर असंख्य अस्पताल, औषधालय, नर्स हाउस, सेनेटोरियम खोल रहे हैं और करोड़ों रुपया वैद्य, डॉ., हकीमों पर दवाइयों औजारों आदि पर खर्च होता है। यत्न तो पूरा हो रहा है परंतु फिर भी रोग समूह अकाल मृत्यु दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं। इसका कारण क्या है समझ लें। घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदना व्यर्थ है। हमें समाज में ऐसे साधनों का प्रचार करना चाहिए कि भविष्य में लोग रोगी ही न हों और चिकित्सा की आवश्यकता न रहे।

आज मैं ऐसी स्वाभाविक सरल व अचूक चिकित्सा विधि का वर्णन करूँगा जिसका किसी एलोपैथी आयुर्वेद या हकीम आदि से संबंध नहीं है जिसमें कोई दवा नहीं लेनी पड़ती न कोई खास पाबंदी है बल्कि जो प्रकृति के आधार पर अवलंबित हैं और केवल अंतःकरण की आज्ञानुसार चलकर हम उससे अपने रोग दूर कर सकेंगे। यह जल चिकित्सा मनुष्य समाज खासकर रोगियों के लिये कल्पवृक्ष सा फल देने वाली सिद्ध होगी। और मैं आशा करता हूँ कि सभी इसके आश्चर्यजनक आरोग्यदायक गुणों का आदर करेंगे।

प्रकृति बहुत सरल है और प्राकृतिक चिकित्सा भी सरल है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि और सभी जितने इलाज के ठग हैं उनमें एक-एक बीमारी पर हजारों नुस्खे व उपचार हैं परंतु इस चिकित्सा में बड़ा भारी लाभ यह है कि इसमें सभी रोगों का एक इलाज है क्योंकि कारण भी सभी रोगों का एक ही है। अर्थात प्रकृति विरुद्ध रहन-सहन (मिथ्या आहार-विहार) है।

इसीलिये यह चिकित्सा विधि सबसे उत्तम है और किसी दिन मनुष्य जाति और सब प्रकृति विरुद्ध चिकित्साओं को छोड़कर इस ओर झुकेगी, अन्य विधियाँ लुप्त हो जाएगी।

डॉ. हकीम, आयुर्वेद, होम्योपैथी में वर्षों तक घोर परिश्रम करके परीक्षा पास की जाती है परंतु इस स्वाभाविक चिकित्सा में ऐसा झंझट कुछ नहीं करना पड़ता सिर्फ विज्ञान के झूठे मोह और अंधविश्वास से अपने आप को बचाना चाहिए और प्रकृति की बातों पर ध्यान देना चाहिए। बस इन्हीं बातों से हर एक मनुष्य इसे अच्छी तरह कर सकता है। इस चिकित्सा के जानने पर मनुष्य समाज को फिर किसी दवा या चीर-फाड़ की जरूरत नहीं होगी और वह सब डॉ., हकीम, वैध या प्राकृतिक चिकित्सकों की गुलामी और पराधीनता आदि से मुक्त हो जाएगा। और अपने रोगों की चिकित्सा अपने आप कर लेगा।

औषधियाँ कपोल कल्पित हैं इनसे बहुधा हानियाँ ही होती हैं परंतु प्रकृति सत्य व ध्रुव है इसलिये उसके मार्ग पर चलते हुए कभी धोखा नहीं हो सकता अर्थात जो दृढ़ होकर रोग होते ही प्राकृतिक चिकित्सा करने लग जाएँगे उन्हें रोग या अकाल मृत्यु से डरने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि दवा के इलाज में होता है।

प्रकृति की शरण में जाने से भयंकर से भयंकर रोग दम्मा, कुष्ठ संग्रहणी, क्षय आदि सभी समूल नष्ट हो जाते हैं जिन्हें कि आज लोग असाध्य या कष्टसाध्य समझते हैं। इसमें रोगी को इच्छा के विरुद्ध कोई दवा नहीं खानी पड़ती-कोई दबाव भी नहीं पड़ता- कुछ खर्चा भी नहीं पड़ता। बड़ी सरलता से आनंद पूर्वक धीरे-धीरे रोगों की बेड़ियाँ कट कर पूर्ण आरोग्य प्राप्त हो जाता है। इतना ही नहीं उसके मन और आत्मा शुद्ध व अधिक बलवान बन जाते हैं और मनुष्य देव स्वरूप सुंदर बन जाता है। सच्ची नैसर्गिक चिकित्सा शारीरिक व्याधियों के साथ-साथ मन के भी सभी विकारों का नाश कर देती है और मनुष्य को धर्मात्मा बना देती है। पाप, अत्याचार, घृणा, द्वेष, कलह उदासी आदि मानसिक विकारों का नाश हो जाता है और मनुष्य सुखी, प्रसन्न और विनयशील बन जाता है। और आजकल के छल-कपट व पाप से भरे हुए अभागे मनुष्य इससे फिर निष्कपटी, उदार, धर्मात्मा व दीर्घजीवी बन जाएँगे। और इस चिकित्सा विधि का प्रचार हो जाने से कलयुग के बजाए सतयुग आ जाएगा। लेखक तमाम प्रकृति विरुद्ध चिकित्सा विधियों की, डॉ.ी हकीम, आयुर्वेद आदि की भली-भाँति परीक्षा व अनुभव कर चुका है मगर कहीं भी शांति व आरोग्य प्राप्त नहीं हुए। केवल प्रकृति व उसके उपचारों का आश्रय लेने से ही सच्चा सुख व आरोग्य प्राप्त हुआ है यही प्रणाली सत्य है।

यदि ध्यान पूर्वक देखा जाए तो मालूम होगा कि समस्त रोगों का मूल कारण वायु का दूषित होना, शरीर का मल प्रसित होना अर्थात शरीर में विजातीय पदार्थों का व रोग जंतुओं का इकट्ठा होना है इसी सच्चे निदान के आधार पर रोगों की चिकित्सा होनी चाहिए और शरीर से मल पदार्थों को बाहर निकालने की कोशिश करनी चाहिए परंतु आज औषधि विज्ञान बिल्कुल उल्टा व गलत रास्ता बता रहा है। वह शरीर को मल रहित करके स्थाई रूप में निरोग बनाने के बजाए औषधियाँ धातु आदि अनेक वस्तुएँ शरीर में ढालकर और भी शरीर को दूषित बना देता है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि मनुष्य समाज लाखों करोड़ों की दवाइयाँ होते हुए भी दिनों-दिन अधिक रोगी होता जा रहा है। वास्तव में रोग हटाने का सच्चा तरीका यह है कि शरीर को अंदर से साफ किया जाए और वह भी स्वाभाविक उपचार पानी से किया जाए।

जिन महापुरुषों ने यह चिकित्सा विधि फैलाई है उनका मनुष्य समाज चिर ऋणी रहेगा। स्वाभाविक चिकित्सा का आरंभ जल चिकित्सा से होता है और चिकित्सा में जल के प्रयोग प्राकृतिक स्नान मुख्य हैं इसलिये आज मैं सच्चे स्वाभाविक प्राकृतिक स्नान (टव बाथ) का वर्णन करूँगा जिसे पढ़कर सर्व साधारण आरोग्य व दीर्घायु प्राप्त कर सकें।

परंतु यह जल स्नान भी प्रकृति के आदेशानुसार होना चाहिए न किसी वैज्ञानिक ढंग से, जिस प्रकार पशु, पक्षी, भैंस, सुअर, चिड़ियाँ आदि किसी से न पूछ कर स्वयं अपने अंत:करण की प्रेरणा के अनुसार स्नान करते हैं उसी प्रकार हमें भी अंतःकरण की आवाज पर ध्यान देकर यह स्नान करना चाहिए और वह विधि इस प्रकार है।

आप शायद यह समझेंगे कि नदी या तालाब आदि में कूदकर जो पूर्ण स्नान किया जाता है वही प्राकृतिक स्नान होगा। मगर ऐसा नहीं है बल्कि सर्व साधारण जो स्नान करते हैं वह प्रकृति विरुद्ध है। पानी में डूबकर गोता लगाना कोई लाभप्रद नहीं इसकी दलील यह है कि जानवरों को नदी, तालाब आदि पर ले जाइए वे दूर भाग जाएँगे और कभी डूब कर स्नान करना पसंद न करेंगे जैसा कि मनुष्य करते हैं इसी प्रकार दूसरे जल के उपचारों का प्रयोग भी जानवर अपने ऊपर राजी खुशी नहीं होने देते। अगर कोई खास जानवर घरेलू होने के कारण किसी गलत तरीके का आदि हो जाए तो यह कोई उदाहरण नहीं है।

इसके विपरीत हमारे जानवर भैंस जंगली सुअर, हिरण, बारहसिंघा वगैरह जो जंगलों में रहते हैं वे कीचड़ या पानी के गड्ढों में लेट जाते हैं और पेट को उसमें टिका लेते हैं और इधर उधर पेट को जमीन में रगड़ते हैं और इसके बाद वे जानवर वहाँ से उठते हैं और फिर वे कीचड़ व पानी में अपने चूतड़ व गुदा को टिका कर बैठते हैं। फिर वे थोड़ी देर बाद कीचड़ में इधर उधर लेटते हैं, कई बार ऊँचे सीधे होते हैं और फिर उसमें से उठकर बाहर आते हैं और अपने सारे शरीर को पृथ्वी, दरख्त और दूसरी चीजों से रगड़ते हैं। यह उनका स्वाभाविक स्नान होता है।

जल चिकित्साजल चिकित्सा इसी प्रकार पक्षियों की स्नान करने की तरकीब सुनिए। वे सुअर भैंस की तरह नहीं नहाते। पक्षी छोटे-छोटे पानी के गड्ढों या झरनों पर जाते हैं और अपनी चोंच पानी में डुबोते हैं और उससे सारे शरीर पर पानी फेंकते हैं और अपने परों से रगड़ते हैं फिर वे अपने शरीर को अपने सिर, चोंच व परों से मलते हैं और इस प्रकार स्वाभाविक स्नान करते हैं। आज इस पानी व कीचड़ के स्नान को लोग जंगली समझेंगे और घृण की दृष्टि से देखेंगे। भला नाजुक औरतें व मर्द स्नो-पाउडर आदि खूबसूरती बढ़ाने के लिये लगाते हैं उन्हें कीचड़ या पानी का स्नान क्यों अच्छा लगेगा परन्तु उन्हें याद रखना चाहिए कि कृत्रिम प्रकृति विरूद्ध साधनों से कभी सौंदर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये, जंगली बारह सिंघा हिरण को देखिए कितना सुंदर साफ सुथरा जानवर होता है जिसके सौंदर्य की उपमा कवि लोग दिया करते हैं वहीं हिरण सदा कीचड़ व पानी में स्वाभाविक स्नान किया करता है इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है सच्चा सौंदर्य ऐसे स्नान में ही मिल सकता है।

पशु व पक्षी भिन्न प्रकार से स्नान करते हैं क्योंकि उनके अंगों की बनावट भी भिन्न है। भैंस पानी में मनुष्य की भांति स्वाभाविक स्नान करती हैं चिड़िया दूसरे ढंग से नहाती है। पानी के स्नान में साफ कीचड़ या मिट्टी मिला लिया जाए तो बड़ा ही उपयोगी हो जाता है मनुष्य पहले कीचड़ में स्नान करके फिर साफ पानी में स्वाभाविक स्नान कर सकते हैं।

जो जानवर ऊँचे पहाड़ों में रहते हैं वे स्नान नहीं करते और हिंसक पशु भी स्नान नहीं करते क्योंकि पहाड़ों पर तो पानी नहीं मिलता और सर्दी अधिक होती है और हिंंसक जंतु रक्त के प्यासे होते हैं उन्हें शांति नहीं चाहिए। यदि वे स्नान करने लगें तो उनकी हिंसक वृत्ति जाती रहे और वे शिकार के अयोग्य हो जाएँगे। मनुष्यों में भी जो स्नान नहीं करते वे बड़े क्रूर हो जाते हैं और अधिकांश अंदरूनी गर्मी से दु:खी रहा करते हैं इसलिए हमें स्नान सदैव अवश्य करना चाहिए।

चूँकि मनुष्य सबसे श्रेष्ठ प्राणी है और उसमें बुद्धि व उच्च विचार आध्यात्मिक शक्तियाँ मौजूद हैं इसलिये उसकी मानसिक, आध्यात्मिक व शारीरिक सभी शक्तिययों का बढ़ाने के लिये व उसे दीर्घजीवी व निरोग बनाने के लिये प्राकृतिक स्नान से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। हमारे धर्मशास्त्रों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की स्नान विधियों की बड़ी महिमा गाई है जो सर्वथा सत्य है।

दानवीर कर्ण सदा ही नियम पूर्वक गंगा के बीच में कमर तक जल में खड़े होकर सुबह से दोपहर तक मंत्र जपा करते थे। लाखों करोड़ों साधु इसी प्रकार जल में स्नान किया करते हैं। यह स्नान स्वाभाविक स्नान से बहुत कुछ मिलता जुलता है। हर एक मनुष्य अंत:करण से प्रेरित होकर स्नान करता है और खास कर गुदा, पेडू, इंद्रियां व अन्य अंगों को पानी से धोने की व ठंडा करने की इच्छा सभी मनुष्यों की रहती है।

बस इन सब बातों पर ध्यान देने से स्वाभाविक स्नान की विधि समझ में आ जाएगी। जानवरों को देखो वे कीचड़ व पानी में किस प्रकार कष्ठ उठा कर अपने पेट, गुदा व इंद्रियों को मला करते हैं। बस इसी प्रकार मनुष्यों को भी पानी में अपने पेट, गुदा, इन्द्रियों आदि को मल कर धोना चाहिए इसमें किसी सामान की जरूरत नहीं है मगर झरने आदि जंगल में यह स्नान किया जाए तो बड़ा ही उत्तम है।

प्राकृतिक स्नान करने की तरकीब
सभी लोगों को इतना अवसर नहीं मिल सकता कि वे बाहर जाकर खुली हवा में तालाब या झरने में स्नान करें इसलिये कमरे में घर पर ही बड़ी चौड़ी बाल्टी Tub (टब) में स्नान करना चाहिए। कोई भी लंबी चौड़ी नाद या इस प्रकार का बर्तन हो कि मनुष्य उसमें आराम से बैठ जाए और घुटने ऊपर उठे रहे। टब सिमेंट टीन पीतल या काठ का बना हुआ अच्छा रहता है।

आजकल बहुत से लोग लुई कूने के मत के अनुसार गोल अंडे की शक्ल के टब रखते हैं जिसमें पांव बाहर रहते हैं परन्तु मेरी राय में चौड़ा लंबा टब अच्छा है जिसमें पांव बाहर नहीं रहते और इसमें सरलता अधिक है। स्नान करने वाला मनुष्य टब में नंगा होकर बैठ जाए। टब मैं पानी ताजा ठंडा होना चाहिए। (यानी आगे से गर्म किया हुआ ना हो ना बर्फ से किया हुआ ठंडा हो) पानी 4 या 5 इंच से अधिक गहरा ना हो यानी इतना सा गहरा हो कि चूतड़, पांव, और इंद्रियां आदि का अधिकांश भाग जल में डूबा रहे। सिर्फ पांव और चूतड़ पैंदे में टिके रहे और घुटने पानी से ऊपर उठे हुए रहने चाहिए यानी उकड़ू बैठना चाहिए। इसके बाद पांव, घुटने सीधे कर दिए जाएँ यानी फैला दिए जाएँ। इस तरह की तब के दोनों सिरों को छू जाए और एक हाथ से पानी पेडू पर जोर से फेंका जाए। दूसरे हाथ से जल्दी-जल्दी पेडू को बीच में व दोनों तरफ व ऊपर नीचे सब तरफ मलना चाहिए यानी एक हाथ से पेडू पर पानी फेंकते रहना चाहिए और दूसरे हाथ से पेडू व पेट के सभी हिस्से मिलते रहना चाहिए।

यदि स्नान करने वाली स्त्री हो तो उसे चाहिए कि वह अपने गुप्त भागों को पानी के अंदर खूब मले और धोएँ। जंघा से ऊपर के व पेट के सभी भाग पानी में खूब अच्छी तरह मले व धोए जाए। इसी प्रकार पुरुष भी अपनी इंद्रियों को व गूदा व इंद्रिय के बीच के भाग को पानी में खूब धोए व मले। यह क्रिया 5 से 15 मिनट तक की जाए। इसके बाद सारे शरीर पर पानी डालकर स्नान कर डालना चाहिए और खूब हाथों से मल कर स्नान कर लेना चाहिए। अगर स्नान करने वाले को मदद चाहिए तो दूसरा आदमी मदद दे सकता है यानी एक पानी डालता जाए दूसरा मलता जाए। परंतु यह बात कमजोरों के लिये है जिनमें शक्ति हो उन्हें स्वयं ही सब क्रिया करना चाहिए। इसके बाद सारे शरीर को हाथों से ही मल कर सुखा देना चाहिए। तोलिया व अन्य वस्तु से नहीं सुखाना चाहिए। क्योंकि वह बनावटी है। स्नान के बाद कमजोर रोगी को चाहिए कि पानी को मल कर सुखा देने की क्रिया किसी बलवान निरोग पुरुष से कराएँ ताकि बल व गर्मी प्राप्त हो। स्नान के बाद या पहले किसी भी प्रकार का तेल या उबटन न लगाया जाए। इस प्रकार का स्नान (जननेंद्रियों को जल से धोना) पुरुषों व विशेषतया स्त्रियों के लिये तो बड़े ही लाभदायक सिद्ध होगा। स्त्रियों के योनि संबंधी सभी रोग खाज, जलन, पीड़ा आदि सभी रोग इस क्रिया से अच्छी हो जाती है।

स्नान करने की टब काठ की लकड़ी की श्रेष्ठ है, पीतल व टीन की भी काम में ली जाती है पत्थर या सीमेंट की टब भी खुली हवा में स्नान के लिये अच्छी रहती है।

स्नान करने के बाद
स्नान कर चुकने पर रोगी को चाहिए कि वह कुछ देर तक नंगा ही इधर-उधर टहलें अगर कमरा हो तो खिड़कियाँ सब खोल ले। खुली जगह और भी अच्छी है। लेकिन यह ध्यान रहे कि स्नान से ठंडक होती है और उसके बाद खास कर जाड़े में गर्मी लाना अत्यंत आवश्यक है। गर्मी लाने में देर या त्रुटि करना मूर्खता है। स्नान के बाद (जाड़े में) धूप में बैठना या टहलना चाहिए या कोई आसान शारीरिक व्यायाम करना चाहिए और अगर ऐसा ना हो तो रुई के बिछौने या गर्म कंबल में कुछ मिनट रहकर गर्मी लाना चाहिए।

परंतु सबसे श्रेष्ठ और उत्तम सुलभ साधन गर्मी लाने का धूप का स्नान है यानी स्नान कर चूकने पर कुछ मिनट तक सुहावने धूप में नंगे बदन बैठकर गर्म होना चाहिए।

स्नान कितनी बार कितनी देर तक करना चाहिए?
स्नान का समय अधिकांश मौसम व रोगी के शरीर पर निर्भर है। गर्मी में यह स्नान 15-20 मिनट तक किया जा सकता है परंतु जाड़े में दो-तीन मिनट ही किया जाना चाहिए इसी प्रकार बलवान पुरुष अधिक देर व कमजोर पुरुष थोड़े समय में ही स्नान कर लेते हैं यहाँ पर भी हर एक मनुष्य को अपने अंतःकरण की आवाज पर ध्यान देना चाहिए और उतनी ही देर यह जल स्नान करना चाहिए जितनी देर सुहावे। अनिच्छा से या अधिक देर स्नान करना प्रकृति विरुद्ध आचरण है और इससे हानि हो सकती है।

स्नान करने में यह ध्यान रहे कि आधी देर तक पेट पेडू आंते आदि को मलना चाहिए और आधा समय इंद्रिय आदि गुप्त स्थानों को धोने व मलने में खर्च करना चाहिए। मगर सारे शरीर को धोने में जो समय लगता है वह इसमें शामिल नहीं है वह अलहदा है और मल कर सुखा देने में जो समय लगता है वह भी इससे भिन्न है। कितनी बार दिन में स्नान करना चाहिए यह रोगी की इच्छा पर निर्भर है। जाड़े में केवल एक ही बार करना ठीक है। गर्मी में 2 या 3 बार भी किया जा सकता है। जाड़े में धूप में बैठकर यह स्नान करना ठीक है और रोज ना हो सके तो दूसरे या तीसरे दिन यह स्नान किया जाए और जिस रोगी की इच्छा जाड़े में स्नान करने कि न हो उसे यह स्नान नहीं करना चाहिए। उसे वायु स्नान, धूप स्नान करना काफी है। स्वतंत्र प्रकृति में कई जानवर घंटों स्नान किया करते हैं और कई थोड़ी ही देर में यह स्नान कर लेते हैं और बहुत से जानवर थोड़ी-थोड़ी देर में कई बार स्नान करते हैं और कई ऐसे हैं जो कई दिन नहीं स्नान करते और एक ही दिन में काफी देर स्नान करते हैं। यही हाल मनुष्यों का भी है।

मगर इसमें भी हर एक मनुष्य स्वतंत्र है कोई दबाव नहीं है। नैसर्गिक चिकित्सा प्रणाली में किसी रोगी की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कराया जाता। स्नान करने के लिये पानी को कभी गर्म नहीं करना चाहिए और स्नान अधिक गर्म कमरे में भी नहीं करना चाहिए। खिड़कियाँ सदा खुली रहे ताकि साफ हवा पूरी तरह अंदर आती रहे। स्नान के बाद पांवों को व गुदा को खूब अच्छी तरह धो डालना चाहिए ताकि यह साफ हो जाए क्योंकि आरोग्य साधन में गुदा व पांव को साफ रखना व ठंडा रखना बहुत ही आवश्यक है। इनके गर्म रहने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

अगर झरने या नदी में स्नान किया जाए तो बड़ा ही अच्छा है। खुली हवा में यह स्नान करना आश्चर्यजनक लाभ दिखाता है। पर जल गहरा कभी न होना चाहिए। पूर्ण स्नान या तैरना यह स्वाभाविक स्नान नहीं कहे जा सकते हैं। स्वाभाविक स्नान तो वही है जिसकी विधि ऊपर बताई जा चुकी है।

जिन गाँवों में नदी, नाले, झरने, बावड़ी तालाब आदि हों वहाँ के लोग उन स्थानों पर टब रखकर स्नान कर सकते हैं ताकि खुली हवा व ताजा पानी दोनों मिल सकें। स्नान करते समय आराम से बैठना चाहिए। कष्ट सहन करके बैठना ठीक नहीं है।

यह प्राकृतिक स्नान अन्य सब स्नानों से भिन्न है और गुणों में अपनी बराबरी नहीं रखता। कई लोग टब में पानी भर कर चुपचाप बैठना या लेटना ही स्वाभाविक स्नान समझते हैं पर ऐसा नहीं है इस स्नान में पानी में बैठ कर पेट, आंतों और इन्द्रियों को धोना और मलना पड़ता है और फिर सारे शरीर को हाथों से ही मल कर सुखाया जाता है। तौलिया आदि से नहाना या सुखाना प्रकृति विरुद्ध है हाथ श्रेष्ठ साधन है।

एक बात और है जितनी चिकित्साएँ प्रकृति के अनुकूल होगा उतनी ही जल्दी रोग अच्छे होंगे। अब तक सब प्रकार के स्नान कुछ ना कुछ कृत्रिमता लिये होते थे और इसीलिये इलाज में इतनी सफलता नहीं मिलती थी। परंतु यह स्नान सर्वथा प्रकृति के अनुकूल है और इसीलिये संसार के सभी रोग नि:संदेह इससे दूर हो सकते हैं। परीक्षा करने पर इसकी महिमा अपने आप मालूम पड़ जाएगी। इस स्नान में तौलिये की जरूरत नहीं है और पानी को गर्म करने की भी जरूरत नहीं है और इसमें बहुत थोड़े से पानी की जरूरत है और किसी भी दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं है। हर एक स्त्री, पुरुष, बच्चा स्वयं आसानी से यह स्नान कर सकता है। टब भी बहुत सस्ता है। गरीब अमीर सब खरीद सकते हैं और यह टब स्नान के सिवा घर के कामों में भी उपयोगी है।

इसीलिये यह स्नान किसी दिन सर्व साधारण में प्रचलित होता जा रहा है। एक बात और है कि यह स्नान हर एक मनुष्य घर के सिवा सफर में भी कर सकता है। लोटे या गिलास से पानी डालते जाओ और एक हाथ से पेडू, इंद्रियाँ और गुदा आदि को मलते जाओ फिर पूर्ण स्नान कर डालो और शरीर को मल कर सुखा दो। केवल ध्यान में रखने की बात यह है कि पेट के सब भाग और इंद्रियां गूदा आदि ठंडे पानी से धोए जाने चाहिए, ठंडी होनी चाहिए और पानी डालकर मिलनी चाहिए। यही प्राकृतिक स्नान है और यही आरोग्य का एक प्रधान साधन है। लेखक की लेखनी में इतनी शक्ति नहीं है कि इस स्नान की महिमा पूरी तरह वर्णन कर सके पर पाठकों के लाभार्थ यथा शक्ति वर्णन करने का यत्न करूँगा।

प्राकृतिक स्नान के लाभ
यह प्राकृतिक स्नान नियम पूर्वक पथ्य सहित करने से सब व्याधियों को दूर कर सकता है और प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है। पहले के मनुष्य जंगल में रहते थे क्योंकि उन्होंने घर नहीं बनाए थे और नंगे पाँव ही रहते थे। बरसात में भी पहले के लोग गीली धरती पर नंगे पांव चलते थे और खड़े भी नंगे ही रहते थे और जब बैठने की आवश्यकता होती थी तो नंगे ही गीली जमीन पर चूतड़ को टेक कर बैठते थे और अब भी जंगली जातियाँ ऐसा ही करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ की पांव व चूतड़ (नितम्ब) का हिस्सा प्रकृति ने गीलापन व ठंडक में रहने योग्य बनाए हैं और इन्हें ठंडा व गीला रखकर ही मनुष्य निरोग व दीर्घ जीवी हो सकता है। शरीर रचना भी हमारी ऐसी ही है।

जल चिकित्साजल चिकित्सा इसके विपरीत आज का पथ-भ्रष्ट शिक्षित मनुष्य समाज अपने पांव और गुदा आदि को गर्म रखता है। हर समय जूते व कपड़ों से लगा रहता है। मोटे रुई के गद्दों पर बैठता है जिससे वह अनेक भयंकर रोग भगंदर, बवासीर, अंड वृद्धि, आंत उतरना आदि रोगों क शिकार हो रहा है और अनेक बनावटी दवाइयाँ लेकर व झूठे इलाज करा कर भी इन रोगों को दूर करने में वह आवश्यक व लाभदायक समझता है। जमीन पर बैठना के खिलाफ शान समझता है। ठंडे पानी से परहेज करता है और अपने दिमाग से निकाली हुई घातक औषधियों का सेवन करता है। यही उसके अध: पतन के बीमार होने के कारण हैं। इसलिये यदि हमलोग फिर पूर्ण रुप से निरोग व दीर्घायु बनना चाहें तो फिर हमें औषधि विज्ञान के भूत से बचना चाहिए और पशु-पक्षियों की भांति प्रकृति की शरण में जाना चाहिए तभी रोगों से छुटकारा पाकर सुखी हो सकते हैं। न इसमें किसी पढ़ाई की जरूरत है ना किसी कला कौशल की। बल्कि हमें विज्ञान, डॉ. आयूर्वेद, हकीम, होमियो आदि से दूर भागना चाहिए और अंतःकरण की आवाज सुन कर उस पर चलना चाहिए वही सच्चा गुरु है।

हमें इस बात को जानने की कोई जरूरत नहीं है कि हमारे शरीर की रचना कैसी है अंदर क्या होता है, पाचन क्रिया कैसे होती है और औषधियो का अंदर जाकर कैसा असर होता है आदि। यह सब ज्ञान मनुष्यों को भ्रम में डालने वाला है और इस ज्ञान (औषधि विज्ञान) Science of Medicine के फेर में पड़ने वाला कभी सच्चा स्वास्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता। सच कहा है, औषधि सेवन से लाखों बेमौत मरते हैं और करोड़ों के जीवन नष्ट हो रहे हैं। परंतु इतना समझ लेने पर भी हर एक मनुष्य से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सभी अस्वाभाविक रहन-सहन को छोड़कर प्रकृति की शरण में आ जाएगा। यह सब धीरे-धीरे हो सकेगा। इसलिये मैं समय व परिस्थिति का पूरा ध्यान रख कर ही रोगों के कारण व नैसर्गिक चिकित्सा विधि स्नान आदि का वर्णन करूँगा ताकि सभी परिस्थिति का ध्यान रखकर इससे लाभ उठा सकें।

रोगों का सच्चा कारण
आजकल लोग रोगों के कारण समझने में बड़ी भूलें करते हैं। कई लोग तो पूर्व जन्म “कृतं पापं व्याधि रुपेन बाधते'' वाली लकीर के फकीर हैं। कई कीटाणुओं, चूहों, मच्छरों, मक्खियों को ही रोगों का कारण समझते हैं? पर यह सब केवल भ्रम व मिथ्या कल्पना है। वास्तव में मनुष्य समाज के रोगी होने के कारण हैं प्रकृति विरुद्ध बहुजन अस्वाभाविक आहार अर्थात ऐसा भोजन जिसे प्रकृति ने मनुष्य के लिये नहीं बनाया और जिसे उसका पेट, आंते आदि पूर्ण रूप से पचाने व ग्रहण करने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रकृति विरुद्ध भोजन (अधिकांश आग में पका हुआ- दाल रोटी मांस मसाले मिठाई आदि) पूरा हजम नहीं होता। कुछ अधपचा पेट में रह जाता है और रोज थोड़ा-थोड़ा आमाशय आंत आदि में पड़ा रह कर सड़ने लगता है और फिर इसके मल पदार्थ बनकर खून में मिलकर सारे शरीर में फैल जाते हैं और यही मल पदार्थ समस्त व्याधियों, पीड़ाओं व दुखों के मूल कारण हैं। इसी के संघर्षण से आंतरिक गर्मी पैदा होती है। इसके सिवा गंदी सड़ी तंग जगह की हवा में रहने से, धूप रोशनी व पृथ्वी से दूर रहने से, अधिक कपड़ों से लदे रहने से व मानसिक उद्वेगों से भी रोग पैदा होते हैं। इन मल पदार्थों के आंदोलन व संघर्षण से शरीर में गर्मी पैदा होती है।

इसलिये रोगों के इलाज में सब से पहले हमें स्वाभाविक उपचारों द्वारा। शरीर के अंदर की गर्मी को कम करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बिना हम इलाज में सफल नहीं हो सकते- साथ ही हमें शरीर की जीवन शक्ति अथवा जठराग्नि को भी प्रबल बनाना चाहिए। (चूरण आदि खाकर नहीं-स्वाभाविक उपायों से) जठराग्नि ही ऐसी चीज है जो शरीर का प्राण है। वही भोजन को पचा कर सब रस बनाती है और रस से बचे पदार्थों को व मल पदार्थों को शरीर से बाहर मल-मूत्र पसीना आदि द्वारा बाहर फेंकती है और जिस पर मनुष्य का जीवन निर्भर है। यह दोनों बातें प्राकृतिक स्नान से सिद्ध हो जाती हैं।

उदर सब रोगों का निवास स्थान है और जननेंद्रियां नाड़ी समूह की जड़ हैं इसलिये पेट व इन्द्रियां पर ठंडे जल के प्रयोग व स्पर्श से अंदर की गर्मी तुरंत कम हो जाती है इसी प्रकार स्नान में पेडू व इंद्रियों को धोने से नसें अपना काम करने लगती हैं और अंदर भारी शांति होती है और अग्नि प्रबल हो जाती है। गुदा आदि भाग भी जल के स्पर्श से ठंडे होकर उनकी गर्मी दूर हो जाती है।

इस स्थान पर मैं जनसाधारण में फैले हुए भ्रम को दूर करने का यत्न करूँगा- बहुत से लोग ठंडे जल के स्नान से इसलिये डरते हैं कि अंदर की गर्मी दूर होकर इससे शीत सन्निपात हो जाएगा क्योंकि उनके व उनके स्वास्थ्य के ठेकेदार चिकित्सकों का ऐसा ख्याल जमा हुआ है कि शरीर के अंदर गर्मी बनी रहना जरूरी है और उसके न रहने से मनुष्य मर जाता है पर यह उनकी भूल है। जिन मनुष्यों में अंदरूनी गर्मी अधिक होती है। वे रोगों के शिकार होते हैं- गर्मी दूसरी वस्तु है और जठराग्नि दूसरी बात है। अत्यधिक गर्मी बढ़ने से ही शीत सन्निपात आदि रोग उत्पन्न होते हैं और आजतक किसी भी रोगी को स्वाभाविक उपचारों से शीत सन्निपात में लेखक ने नहीं देखा सुना जबकि दवाइयों के खास कर धातु दवाइयों से हजारों रोगी शीत सन्निपात होकर मरते देखे गए हैं। शीत सन्निपात में भी प्राकृतिक चिकित्सक ठंडे जल का स्नान, ठंडी हवा का नग्न स्नान, गीली बालू का बिछौना, मिट्टी की पट्टी आदि प्रयोग करते हैं जिससे शीत में आए हुए बहुत से रोगी मरने से बचा लिये गए हैं।

मैं दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि आज संसार में जितने भी प्रकृति विरुद्ध उपचार, इलाज के तरीके चल रहे हैं वे सदा ही हानि करते हैं चाहे लोगों की नजरों में जाहिर तौर पर रोगों के लक्षण मिट क्यों न जाएँ। दुर्भाग्य से आज हमारे देश वासी औषधियों की नि:सारता व हानियों को नहीं समझते- वे दवा के जरिए रोग हटाने का यत्न करते हैं और प्रकट में रोगों को दबा हुआ देख कर अपनी सफलता पर प्रसन्न होते हैं पर उन्हें यह पता नहीं कि वे बड़ा धोखा खा रहे हैं।

वे अपने हाथों से अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं- उनकी आँखें उस समय खुलती हैं जब उस दवा का असर दूर होने के बाद उसके भयानक दूसरा रोग आ घेरता है। बजाए तीव्र रोग (acute disease) के दीर्घ रोग (chronic disease) हो जाता है जिसका इलाज करना मुश्किल हो जाता है और अक्सर रोगी धीरे-धीरे दुख पाकर मौत के घाट उतरता है पर फिर पछताने से कोई परिणाम नहीं होता।

यही कारण है कि अनेक प्रकृति विरुद्ध चिकित्सा विधियाँ, अनेक औषधियाँ रोज निकलती रहती है और चंद महीने कुछ चमक दमक दिखाकर शीघ्र ही गायब हो जाती हैं। क्योंकि उनमें कोई सार नहीं होता। आज इंजेक्शन का जोर है कल वेक्सिनेशन (टीके) का, परसों ऑपरेशन (चीड़ फाड़) का जोर है तो किसी दिन बिजली का। कभी अयुर्वेदोक्त भस्मे बनाई जाती हैं, कभी गोलियां, कभी कुश्ते बनाए जाते हैं, कभी नामर्दी के तिला। कभी लिंफ बनाए जाते हैं कभी मलहम और कभी होमियो पैथी को गोलियों की प्रशंसा सुनने में आती है और यह आशा की जाती है मनुष्य समाज के रोग इनसे दूर होकर घट जाएँगे। पर दुर्भाग्य से बात बिल्कुल उल्टी हो रही है। बजाए रोग अच्छे होकर घटने के बढ़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों औषधालय, अस्पताल आदि की वृद्धि हो रही है त्यों-त्यों जन साधारण में रोगों की व उनसे होने वाली अकाल मृत्यु की वृद्धि हो रही है।

पर सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सभी लोग बिल्कुल औषधियों के गुलाम बने हुए हैं और उनके दिल पर यह खयाल पक्का जमा हुआ है कि दवा खाए बिना रोग दूर हो ही नहीं सकते। और अगर लोगों से कहा जाता है कि दवा से रोग अच्छे नहीं होते बढ़ते हैं जानवर व जंगली जातियाँ सभी बिना दवा खाए निरोग रहते हैं-तो वे आश्चर्य करते हैं और नाना प्रकार की दलीलें पेश करते हैं- कोई भी यह ख्याल नहीं करता कि इस बात की परीक्षा करें कि बिना दवा पानी, हवा, मिट्टी स्वाभाविक आहार आदि से ही संसार के सब रोग दूर हो सकते हैं। वे तो ऊँट व भेड़ों की तरह देखा देखी सब काम करना पसंद करते हैं। जैसा लोग करते हैं वैसा वे भी करते हैं- अच्छ-बुरे की पहचान करने का कष्ट नहीं करते।

लेखक ने स्वयं अपने शरीर पर व दूसरों के शरीर पर अनुभव करके देखा है तो सदा यही परिणाम निकला है कि सच्चा आरोग्य प्राप्त करने का सही उपाय सच्चा मार्ग केवल प्रकृति का अनुसरण करना ही है। यह जानने की कोशिश करना मूर्खता है कि स्वाभाविक उपचारों का शरीर पर क्या परिणाम होगा। सभी स्वाभाविक उपचारों का शरीर पर सदा ही अच्छा प्रभाव पड़ेगा और प्रकृति विरुद्ध उपचार दवा, चीर-फाड़, इंजेक्शन, टीका आदि पर हर हालत में शरीर का सत्यानाश ही करेंगे कभी लाभ नहीं होगा। सारांश यह है कि यदि कोई मनुष्य प्रकृति के उद्देश्यों व रहस्यों को समझ लेगा तो उसे अपनी आरोग्य रक्षा के लिये किसी भी डॉ., वैद्य या हकीम की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी और न उसे कोई देशी या अंग्रेजी दवा खाने की जरूरत पड़ेगी। जिस प्रकार सच्चे ब्रह्मज्ञानी को यह संसार मिथ्या दिखाई देता है उसी प्रकार सच्चे प्रकृति के भक्तों को सभी वैद्य, हकीम, डॉ., दवाइयाँ औजार आदि मिथ्या व अनावश्यक नजर आते हैं। उनकी नजरों में वे प्रकृति को ही सब कुछ समझते हैं।

इस प्राकृतिक स्नान से ऐसी शांति, ताजगी मिली कि कभी किसी अन्य उपचार दवा या स्नान से नहीं मिली थी। अन्य साथियों व रोगियों ने भी इस स्वाभाविक स्नान व गुणों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। अलबत्ता कुछ एक व्यक्ति इससे होने वाले रोग निवारक कष्टों से डर गए। एक महोदय जिन्हें दमा का रोग था कुछ दिन स्नान करने पर सूखी खांसी से गीली खांसी हो गई। पहले कफ सूखा था इससे गीला होकर गिरने लगा जो बड़ा ही अच्छा लक्षण है रोग निकलना शुरू हो गया। धूप के स्नान से भी इन महाशय के फेफड़ों में कुछ दर्द होने लगा था कि रोग जन्तुओं का नाश हो रहा था। जो रोगी प्राकृतिक चिकित्सा से इतना डरते हैं और दवाइयों से प्रेम करते हैं उन्हें शायद स्वप्न में भी सच्चा आरोग्य व सुख प्राप्त नहीं हो सकते।

स्नान से सभी को दिन भर बल व शांति रहती है और स्नान के बाद शरीर में काफी फूर्ति व ताजगी जान पड़ती। इसके सिवा जठराग्नि की प्रबलता, दिनभर पांव गर्म रहना, पसीने द्वारा मल निकलना, हर समय की प्रसन्नता, साहस का बढ़ना व चंचलता, बुद्धि का तीव्र होना आदि लाभ इस स्नान से हुए हैं। इस स्नान से मुर्दा सरीखे शरीरों में जान आ गई है। मुरझाए चेहरे खिल उठे हैं मंदाग्नि वाले खूब खाने लगे हैं और सारांश दु:खी लोग फिर सुखी हो गए हैं। ऐसा यह स्नान है फिर भी जन साधारण, गरीब भारतीय इस सस्ते रामबाण इलाज का आदर न करें तो यह उनके दुर्भाग्य की बात ही है।

पर जिन लोगों ने प्रकृति को समझ लिया है उनका यह दृढ़ विश्वास है कि प्रकृति से सभी उपचार अचूक हैं और रोगी मनुष्यों के लिये वरदान हैं और सदा ही उनसे लाभ होता है। हानि कभी नहीं होती। इसी प्रकार आज अगर हर एक परिवार में इस स्नान का रिवाज हो जाए तो कुटुंबी लोग निरोग व सुंदर बन जाएँगे और उन्हें कोई दवा न खानी पड़ेगी। फिर दवा के इलाज के हिमायती उनके आरोग्य व सौंदर्य व सुख को देख कर ईर्ष्या करेंगे और उन्हें मालूम हो जाएगा कि मनुष्यों की बुद्धि से निकली हुई औषधियाँ हमें निरोग नहीं बना सकती केवल प्रकृति के उपचार से ही ऐसा कर सकते हैं।

प्राकृतिक स्नान करने के लिये पानी सदा ही ठंडा होना चाहिए। गर्म पानी कभी न हो। आग में गर्म करने से पानी में कोई गुण नहीं रहता। अल्पताजो लोग स्नान आंरभ करें या जाड़े का मौसम हो और स्नान करने वाला कमजोर व्यक्ति हो तो पानी कुछ गर्म किया जा सकता है या गर्म कमरे में स्नान किया जा सकता है।

इस स्नान से शीत नहीं आता न कभी कोई हानि होने की संभावना है इसलिये निडर होकर जल में बैठना चाहिए। एक बार पेडू व इन्द्रियों को धोने व मलने के बाद अंदर ठंडक पहुँच जाएगी और रक्त चारों ओर फैल जाएगा उसके बाद ठंडे पानी में बैठने में कोई कठिनाई नहीं होगी बल्कि स्नान सुहाने लगेगा। पानी जितना ठंडा होगा लाभ उतना ही अधिक होगा परन्तु जाड़े के मौसम में अगर अधिक देर न बैठा जाए तो दो मिनिट ही काफी होगा। और जाड़ा रोकने के लिये जाड़े में स्नान करते समय ऊपर गर्म कंबल डालकर यह स्नान किया जा सकता है। मगर किसी भी रोगी को बिना उसकी इच्छा के जबरदस्ती यह स्नान नहीं करना चाहिए उस हालत में हवा का स्नान, मिट्टी की पट्टी या धूप का स्नान आदि करना चाहिए।

स्नान के लिये पानी अधिक गहरा न हो अधिक पानी से इतना लाभ न होगा, कमजोरी आएगी - 4 या 5 इंच से यानी हथेली की चौड़ाई से अधिक गहरा न हो- स्नान के बाद मालिश मलना व जल सुखाने की क्रिया किसी खास कायदे या विधि से करने की आवश्यकता नहीं है- यह स्नान करने वाले की मर्जी पर है उसे अपने अंत: करण की आज्ञानुसार सब क्रिया करना चाहिए।

स्नान के लिये सबसे बढ़िया जगह तो जंगल या बाग है जहाँ शुद्ध वायु रहती है, वास्तव में शुद्ध हवा में किया हुआ स्नान ही पूर्ण लाभ देता है और सोना व सुगंध वाली बात हो जाती है, जिस प्रकार भोजन आदि घर में करने की अपेक्षा जंगल में करने से अधिक आनंद व लाभ होता है उसी प्रकार स्नान भी जंगल में या बाग में या झरने आदि में करने पर बड़ा ही आश्चर्य जनक लाभ होता है।

स्त्रियों को मासिक धर्म होने पर या प्रसूता होने की हालत में यह स्नान कुछ समय बंद रखना चाहिए परन्तु उनकी इच्छा उस समय भी स्नान करने की हो तो जरूर कर सकती हैं। परन्तु स्त्रियों के लिये नंगे पांव जमीन पर चलना, रोशनी व हवा का स्नान, मिट्टी की पट्टी, स्वाभाविक भोजन सदा ही उत्तम है, यह क्रियाएँ कभी न छोड़नी चाहिए।

स्नान करते समय कमरे की खिड़कियाँ खोल देनी चाहिए, जाड़े में बंद रखी जा सकती हैं। स्नान भोजन से पहले या प्रात: काल 9, 10 बजे से पहले कर लेना अच्छा है गर्मियों में तीसरे पहर भी किया जा सकता है।

इस स्नान पर यह बता देना आवश्यक समझता हूँ कि यह स्नान उन सब स्नानों से भिन्न है जो अब तक लोग करते आए हैं या जिसका आम रिवाज है जैसे शरीर पर पानी डाल देना, जल में खड़े रहना, तैरना या टब में खाली बैठे रहना या केवल इन्द्रियों को धो डालना (Sitz bath) यह सब क्रियाएँ इस स्नान से भिन्न है और शरीर को इतना लाभ नहीं करती बल्कि समस्त शरीर को पानी में अधिक देर रखना हानि भी क सकता है क्योंकि हमारी त्वचा पानी में डूबी रहने से हवा से दूर हो जाती है और छिद्रों में होकर हवा का आना जाना बंद हो जाता है जिस प्रकार कपड़े हमारे शरीर का सत्यानाश कर रहे हैं उसी प्रकार सारे शरीर को पानी में डुबोने से हानियाँ होती हैं और यह अस्वाभाविक भी है इसलिये मेरी राय में आरोग्य के इच्छुकों को चाहिए कि अन्य विधियाँ छोड़ कर ऊपर लिखी विधि से ही प्राकृतिक स्नान करें तभी सच्चा आरोग्य प्राप्त होगा।

मैं आशा करता हूँ कि गरीब भारतीय जनता बहुमूल्य निरर्थक औषधियों का झूठा मोह छोड़ कर इस सस्ते रामबाण उपाय स्नान को अपनाएगी जो बड़ा सरल है। गरीब अमीर बूढ़े जवान औरतें सभी समान रूप से प्रकृति की देन इस वरदान से लाभ उठा सकते हैं यदि रोगी मनुष्य इस स्नान को करेंगे तो रोगों से मुक्त हो जाएँगे और निरोग मनुष्य इसे करेंगे तो स्थाई आरोग्य व दीर्घ जीवन प्राप्त करेंगे।

सच पूछा जाए तो आज कोई विरले ही नीरोग मिलेंगे कोई न कोई रोग जरूर मिलेगा क्योंकि अस्वाभाविक जीवन बिताने से आग में पकाया भोजन करने से गंदी हवा में रहने से खूब कपड़े लादने से तंबाकू चाय आदि खाने से मनुष्य अवश्य रोगी होंगे इसमें संदेह नहीं है, चाहे ऐसे अस्वाभाविक जीवन बिताने वाले प्रकट में रोगी न हो पर उनका शरीर विजातीय द्रव्यों से भरा रहता है और किसी भी समय रोग उन्हें आकर घेर लेगा।

आज जिधर देखो रोगों की भरमार है, बचपन से ही विद्यार्थी कमजोर बुजदिल होने लगे हैं चश्मा लगाने लगते हैं और अनेक घृणित क्रियाएँ अस्वाभाविक मैथुन के आदि हो जाते हैं, दण्ड दिए जाने पर भी उनकी आदतें नहीं छूटती, वास्तव में यह रोग है जिनका इलाज होना चाहिए, कन्याएँ क्वारपन में गर्भपात करने लगती हैं क्योंकि प्रकृति विरुद्ध खान पान से वे असमय में विकार युक्त हो जाती हैं और प्रकृति के बलवान आवेगों को रोकने में असमर्थ होकर पाप के गड्ढ़े में गिरती हैं पर इसका उपाय दण्ड नहीं है - पवित्र जीवन तभी होगा जब मनुष्य स्वाभाविक भोजन करने लगेंगे अन्यथा ब्रह्मचर्य साधन असंभव है।

लोग मदिरा पीते हैं अंडे खाते हैं तंबाकू, चाय, कोकीन, भांग और गांजा सेवन करते हैं और अपना जीवन बिगाड़ लेते हैं ऐसे मनुष्य अपने परिवार के लिये शत्रु समान है उनकी इन आदतों को छुड़ाने के लिये यह प्राकृतिक स्नान एक राम बाण उपाय है।

पुरूष व्यभिचारी हो रहे हैं स्त्रियाँ कुरूप कुल्टा हो जाती हैं यह अस्वाभाविक खान पान रहन-सहन के परिणाम हैं और कोई कारण नहीं है। आज बचपन में ही प्रेम आदि रोग घेर लेते हैं किसी की बुद्धि मंद हो जाती है। किसी के दांत गिर जाते हैं किसी के बाल सफेद हो जाते हैं तो किसी को क्षय रोग घेर लेता है। जो लड़कियाँ व लड़के बचपन में अति सुन्दर, कोमल स्वभाव के होते हैं वे ही अस्वाभाविक जीवन के कारण कुरूप व बुरे स्वभाव वाले बन जाते हैं। मनुष्य से वे राक्षस बन जाते हैं। हंस से कौए बन जाते हैं। इन सब रोगों व शिकायतों को दूर करने के लिये प्राकृतिक स्नान अति उत्तम व अचूक साधन है। यह स्नान बड़ी भारी शांति व ताजगी देने वाला है। जीवन से निराश आत्म हत्या को उतारू होने वालों के प्राण बचाने वाला है। क्रूर स्वभाव वालों को दयावान, पापियों का धर्मात्मा बना देता है।

नशेबाजों का नशा छुड़ाने वाला यह अद्वितीय नुस्खा है। सारे संसार में इधर उधर भटकने वाले निराश रोगियों के लिये यह अमर बूटी है और दुखी मनुष्य का सुखी बनाने वाला अमोघ साधन है। क्या लोग ऐसे गुणों की खान सुलभ इस स्नान को अपनाएँगे। अवश्य मैं बार-बार पाठकों से अनुरोध करूँगा कि वे औषधि विज्ञान के भूत से अपने को बचाकर प्रकृति की शरण में आएँगे और इस स्नान का हृदय से स्वागत करेंगे। फिर उन्हें मालूम हो जाएगा कि स्वाभाविक उपचार ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जो काम कोई दवा से नहीं हो सकता वह हम इस स्नान से होता है। इस स्नान से पेट की गर्मी दूर होती है और जठराग्नि इतनी प्रबल हो जाती है कि खाए हुए पदार्थों को पचा डालती और शरीर के अंदर इक्ट्ठे हुए मल पदार्थों को बल पूर्वक बाहर फेंक देती है। यह स्नान कब्ज नहीं होने देता। अलबत्ता स्वाभाविक आहार आदि अन्य उपचार भी साथ-साथ अवश्य होते रहना चाहिए। लकवा, संग्रहणी, मोतीझरा, हैजा, पेट का फोड़ा, क्षय प्रदर, हिस्टीरिया आदि रोगो में विधिपूर्वक प्राकृतिक स्नान के आश्चर्य जनक लाभ होंगे और मिथ्या विरुद्ध चिकित्साओं से होने वाली असामयिक मृत्यु फिर न होंगी।

एक बड़ा भारी गुण इस स्नान में यह भी है कि इसको करने वाला सभी बुरे व्यसनों से बच जाता है। उसकी जठराग्नि इतनी प्रबल हो जाती है कि वह किसी भी विजातीय व हानिकर पदार्थों को शरीर में नहीं जाने देगी। इस स्नान को करने वाला स्वयं स्वाभाविक जीवन बिताने लग जाता है।

आजकल अधिकांश लोग बुरी लतों में फँसे हुए हैं। कोई परस्त्रीगामी है, कोई सुलफा गांजा पीता है, कोई सिगरेट बीड़ी हुक्का पीता है कोई शराब पीता है, कोई अमल खाने व पोस्त पीने का आदि है, कोई रात दिन दवा खाने का आदि है, कोई जुवारी है इस प्रकार ज्यादातर लोग शरीर या मन के रोगों में फँसे हुए हैं। ऐसे लोग यदि यह स्नान करने लग जाएँ तो यह सब बुरी आदतें अपने आप छूट जाएँगी। इतना ही नहीं बराबर कुछ दिन यह स्नान करने से वे इन बुरी आदतों व नशे आदि से बड़ी घृणा करने लगेंगे।

सभी प्रकार के रोगी चाहे वे दुर्बल हों या बलवान, उन्हें मोतीझरा हो या मलेरिया, चाहे गठिया हो या लकवा, मंदाग्नि हो या संग्रहणी, कान के रोगी हों या गले के हो, क्षयी हों या जलंधर वाले हों, वे सभी इस स्नान के द्वारा आरोग्य लाभ कर सकेंगे। सारांश जो आज रोगों से दु:ख पाकर विलाप कर रहे हैं जो सब इलाज करके निराश हो बैठै हैं जिनका जीवन अंधकार मय हो गया है वे भी इस अमृत तुल्य प्राकृतिक स्नान को करके सुखी व निरोग बन सकेंगे।

परन्तु आजकल के सभ्य शिक्षित लोग प्रकृति के इन सरल व सस्ते किंतु रामबाण उपचारों को फालतू व मजाक की चीजें समझकर इनसे घृणा करते हैं। वे प्रकृति को वश में करना चाहते हैं और अपनी बनाई हुई जहरीली दवाइयाँ रोगियों को खिलाकर उन्हें निरोग बनाना चाहते हैं। वे जहर पीकर अमर होना चाहते हैं पर उन्हें सच्चे आरोग्य की कल्पना भी नहीं है।

आज मानव समाज करोड़ों रुपया अंग्रेजी देशी दवाइयों में, अस्पताल बनवाने आदि में खर्च कर रहा है क्योंकि सभी का विश्वास दवाइयों में है और सभी डॉ. वैद्य, हकीमों के ही इलाज का पूरा विश्वास करते हैं और जो दवा भी दी जाए उसी पर वे विश्वास कर लेते हैं, चाहे उससे मृत्यु ही क्यों न हो जाए। परन्तु आज अगर कोई उनसे कहे कि दवा लेने की जरूरत ही नहीं है बिना दवा केवल मिट्टी, पानी, हवा, स्वाभाविक भोजन आदि से ही भयंकर से भयंकर समझे जाने वाले रेाग भी नष्ट हो जाते हैं, तो वे जवाब देते हैं कि ईश्वर ने जड़ी बूटियाँ, दवा आदि भी हमारे ही लिये बनाई हैं वे भी तो प्राकृतिक ही हैं फिर उनमें क्या बुराई है?

सच है सभी चीजें प्रकृति से ली हुई हैं। धतूरा, संखिया कुचले के बीज, अफीम आदि भी प्रकृति ही उपजाती है। जिन्हें खाने से तुरंत मृत्यु हो जाती है और शराब, तंबाकू, भांग, गांजा, सुलफा आदि भी प्रकृति दत्त हैं जिनके खाने से लाखों करोड़ों के जीवन नष्ट हो गए और घर बर्बाद हो गए। यह भी अवश्य उपयोगी ही हैं। आज अधिकांश औषधियाँ संखिया गंधक, अफीम आदि जहरीली वस्तुओं से व सोना, अभ्रक, मोती, तांबा आदि व लोह आदि धातुओं से बनाई जाती हैं और रसायनिक क्रियाओं द्वारा तैयार करके औषधालयों में रखी जाती हैं। और मनुष्यों के आरोग्य की रक्षा व रोगों के नाश की आशा इनसे की जाती है। खेद है कि मनुष्य समान बुद्धि होते हुए भी मूर्ख है। जो विष या धातु स्वाभाविक कच्ची अवस्था में हमारा आहार नहीं है जिसे हम कच्चा नहीं खा सकते उनकी भस्म होने पर रसायनिक क्रिया होने पर वे हमारे लिये क्यों उपयोगी व हित कर हो सकते हैं। तैयार किए जाने पर यह पदार्थ शरीर के लिये और भी घातक सिद्ध होते हैं।

जब तक संसार में औषधियाँ प्रचलित हैं तब तक सच्चा आरोग्य असंभव है इसमें संदेह नहीं। वास्तव में यदि आज लोग रोगों से छुटकारा पाना चाहे तो उन्हें न दवा की जरूरत है न किसी वैद्य, डॉ., हकीम की और न प्राकृतिक चिकित्सकों की ही आवश्यकता है। सभी चिकित्सकों की गुलामी से बचना ही आरोग्य साधन का श्रेष्ठ मार्ग है। आरोग्य रक्षा के लिये हमें प्रकृति की ओर लौटना चाहिए। जानवरों के रहन सहन को देखना चाहिए कि वे निरोग क्यों रहते हैं बस फिर अपने आप मामला साफ हो जाएगा। और किसी से पूछने की जरूरत न रहेगी। वैसे आप जितने डॉ. वैद्यों के पास जाएँगे उतने ही भिन्न इलाज बताएँगे। एक डॉ. कहेगा Codliver Oil (मछली का तेल) पीओ वह बड़ी अच्छी दवा है।

परन्तु भोले मनुष्य निरपराध मछलियों को मार कर उनका खून या तेल पीकर हत्या के भागी तो बने होंगे। उससे आज तक भी बलवान व निरोग होते किसी को देखा है? हरगिज नहीं। जो वस्तु स्वाभाविक अवस्था में हम नहीं खा सकते, उसका परिवर्तन करने पर वह हमारा आहार कैसे हो सकती है? इसीलिये सब प्रकार की धातु, दवाइयाँ, विष मास मदिरा जड़ी बूटियाँ आदि हमारा भोजन नहीं है और सदा ही हानिकारक होते हैं।

बहुत से लोग अपने बुद्धि से रोगियों को गर्म पानी का स्नान कराते हैं। कोई भाप का स्नान कराते हैं और यह आशा की जाती है कि इनसे रोग समूह दूर होंगे पर यह भारी भूल है। प्रकृति में ऐसे स्नान की कोई गुंजाईश नहीं है और वाष्प स्नान के प्रयोगों से चमड़ा कमजोर हो जाता है और अक्सर रोगी घबरा जाते हैं। क्योंकि शीतल जल के स्पर्श से ही प्राणियों को शांति व ताजगी व आरोग्य मिलते हैं पानी को गर्म करने पर वह इस योग्य नहीं रहता कि लाभ कर सके। अक्सर गर्म पानी व भाप के स्नान से हानि होती है। खासकर गर्मी के मौसम में तो भूलकर भी भाप का स्नान या गर्म पानी का स्नान न कराया जाए अन्यथा हानि की पूर्ण संभावना है। चाहे बहुत से प्राकृतिक चिकित्सक भी इसके करने की राय दें पर मैं तो भाप के स्नान का विरोधी हूँ। भाप के स्नान के बजाए, रोशनी हवा का स्नान, जल स्नान, बालू का बिछौना, पृथ्वी में अंगों को गाड़ने के प्रयोग विधि पूर्वक करना अति उत्तम है।

इसलिये हर हालत में हमें प्रकृति की ओर लौटना चाहिए उसी के आधार पर चलकर हम आरोग्य प्राप्त कर सकेंगे। प्रकृति कभी धोखा नहीं देती। सदियों से जनता प्रकृति को भूली हुई है और औषधियों की आदि हो गई है। इसलिये प्रकृति को भूल गई है। बात-बात में लोग विज्ञान की शरण लेते हैं। रोगों की हजारों प्रकार से परीक्षा की जाती है। एक्सरे, रक्त विश्लेषण, यंत्र परीक्षा आदि का रिवाज बढ़ता जा रहा है परन्तु सभी जानते हैं कि इन आडंबरों से जन साधारण के आरोग्य में कितनी अवनति होती जा रही है। टीके के परिणाम स्वरूप लाखों मनुष्य दीर्घ रोगों के शिकार हो रहे हैं पर टीके का रिवाज बढ़ता ही जा रहा है।

इधर स्वतंत्र प्रकृति के प्राणियों को देखिए। यह न दवा खाते हैं न रोगों की परीक्षाएँ कराते हैं न शरीर के अंदर के भागों को देखते हैं न वैज्ञानिकों से पूछने जाते हैं कि क्या खाएँ क्या पहनें, जिससे आरोग्य बना रहे। वास्तव में प्रकृति की इच्छा यह नहीं है कि उसके जीव दवा खाएँ या चीर फाड़ कराएँ या शरीर के अंदर के हाल जानें। इन बातों से उल्टे हानि होती है और मनुष्य सच्चे मार्ग से फिर कर रोगों में फँसता जा रहा है। जितनी वैज्ञानिक खोज की जा रही है उतनी ही नई-नई व्याधियाँ फैलती जा रही है क्योंकि शरीर का विष इन उपचारों से शरीर के अंदर ही दबा दिया जाता है और काल पाकर वह भीषण दीर्घ रोगों का कारण बन जाता है। जिस कुनाइन को मलेरिया की रामबाण अचूक दवा समझा जाता था आज उसी कुनाइन को वैज्ञानिक हानिकर क्षय आदि का कारण समझ कर उसका विरोध करने लगे हैं। एक दिन सभी औषधियों के विरोध में ऐसी भावनाएँ फैल जाएँगी।

औषधि विज्ञान का आविष्कार मनुष्य के अधःपतन के साथ-साथ शुरू हुआ है। जब से लोग कपड़े पहनने लगे, आग में पका भोजन खाने लगे, पक्के मकानों में रहने लगे तभी से मनुष्य जाति का अध:पतन आरंभ हुआ और तभी से औषधियों का आविष्कार हुआ - जिस रोज मनुष्य प्रकृति की ओर लौटेंगे औषधि विज्ञान स्वयं लुप्त हो जाएगा।

सच पूछा जाए तो रोगों की चिकित्सा में हर एक मनुष्य को स्वयं इतना ज्ञान होना चाहिए कि वह अपना इलाज खुद कर ले। इसके लिये किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है, परंतु यह सब तभी होगा जब लोग प्रकृति के उद्देश्यों को समझ लेंगे और उसके अनुकूल चलने लगेंगे। मेरी राय में आज सबसे बड़ा पुण्य कार्य यह है कि लोगों को ऐसी शिक्षा दी जाए कि वे अपने रोगों का इलाज खुद कर लें। तभी संसार में सच्चा सुख सच्चा आरोग्य व शान्ति का साम्राज्य होगा अन्यथा नहीं -

इतना होने पर भी बड़े हर्ष का विषय है कि लोग प्राकृतिक स्नान का महत्त्व समझने लगे हैं और बहुत जगह इसका प्रचार हो चला है। वास्तव में अब तक प्रचलित सभी स्नानों से यह स्नान श्रेष्ठ व आश्चर्य जनक लाभदायक है। बहुत से जंगल के जानवर विधि पूर्वक यह प्राकृतिक स्नान करते हैं और इसके द्वारा आरोग्य, व दीर्घायु सौंदर्य प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में भी इसका प्रचार हो जाए और बच्चे जवान बूढ़े, स्त्री सभी निःसंकोच होकर यह प्राकृतिक स्नान करने लग जाएँ तो सभी जगह आरोग्य का साम्राज्य हो जाए और रोगों की वृद्धि रुक जाए। जिस प्रकार अन्य प्रकृति विरुद्ध पदार्थ मांस, मंदिरा, मसाले मिठाइयां, नशा दवाइयाँ हमें बहुत अच्छी न लग कर फल मेवा आदि अधिक सुहाते हैं और यही श्रेष्ठ भी है उसी प्रकार अन्य सब प्रकार के वाष्प स्नान, कटिस्नान, मेहनस्नान आदि सबसे अधिक हमें यह स्वाभाविक स्नान पसंद आएगा और फिर हम इसके महान रोगनाशक गुणों का हृदय से स्वागत करेंगे और हमें आश्चर्य जनक शांति व ताजगी मिलेगी।

इसलिये हमें प्रचलित झूठे रिवाजों को छोड़कर विश्वास और श्रद्धा के साथ इस रामबाण दवा को प्राकृतिक स्नान का आश्रय लेना चाहिए। जिन्हें आजकल लोग रोग कहते हैं चाहे वे किसी भी प्रकृति विरुद्ध दवा से या इलाज से ठीक न हुए हों, वे सभी विधि पूर्वक स्वाभाविक आहार पर (दूध फल मेवा) रह कर अवश्य ठीक होंगे।

एक बात और है। आजकल इतनी तरह की हानिकर दवाइयाँ रोगियों को दी जाती हैं कि जिनका सेवन करने से शरीर रूपी मशीन की बड़ी ही हानि होती है। दवा से अंदर के कल पुर्जे हृदय, उदर आंते आदि बिल्कुल बेकार हो जाते हैं इसलिये दीर्घ और कठिन रोगों से इस स्नान प्राकृतिक स्नान के साथ-साथ स्वाभाविक भोजन, हवा और रोशनी का स्नान (नग्न रहना), मिट्टी की पट्टियाँ, पृथ्वी की शक्ति, मर्दन, जंगल की हवा आदि स्वाभाविक उपचार भी अवश्य करना चाहिए ताकि रोग जल्दी और स्थायी रूप से ठीक हो जाएँ।

सैकड़ों हजारों वर्षों से दवा के भूत से जिनका दिमाग खराब हो रहा है ऐसे लोग ठंडी हवा ठंडे पानी के प्रयोगों का नाम सुनकर चौंक पड़ते हैं। ठंडी हवा को सभी वैद्य डॉ. हकीम रोगकारक बताते हैं। अफसोस जीवन के मुख्य तत्व, रोगों के लिये रामबाण उपचार ठंडी हवा और ठंडे पानी के विरुद्ध कैसे झूठे विचार लोगों के दिल में घुस रहे हैं इसीलिये हर एक परिवार रोग व अकाल मृत्यु का ग्रास बन रहा है। और भी आश्चर्य की बात सुनिये रोगियों को पथ्य में अमृततुल्य फल, मेवा, कंद, मूल, दूध, शाक आदि मना किए जाते हैं और रोगों के मुख्य कारण, अन्न आदि वस्तुएँ खिलाई जाती हैं और फिर यह आशा की जाती है कि रोग नष्ट हो जाएँगे।

जिन्हें जाड़ा मालूम था वे टब में केवल उदर आंतो इंद्रियां आदि को ही ठंडे पानी से मल कर धोएँ सारे शरीर का स्नान न करें और स्नान करते समय ऊपर से कंबल ओढ़कर यह स्नान कर सकते हैं और फिर गर्म हो सकते हैं।

हमारे धर्मशास्त्रों में भी ठंडे पानी के स्नान की बड़ी महिमा लिखी है। वास्तव में जल शरीर का मुख्य तत्व है और प्रकृति ने अपने प्राणियों की शरीर रक्षा व रोग निवारण के लिये जल बनाया है और जल एक बड़ी भारी रोगनाशक वस्तु है। इसीलिये हमारे धर्मशास्त्रों ने भिन्न-भिन्न तीर्थों के स्नान की इतनी महिमा गाई है और स्नान को इतना धार्मिक महत्त्व दिया गया है। गंगा स्नान का प्रशंसा तो कहने में भी नहीं आ सकती। वास्तव में बात भी ऐसी ही है। यदि प्रकृति के उद्देश्यों के अनुसार स्वाभाविक स्नान किया जाए तो उससे अनंत लाभ है।

पर आज लोग प्रकृति के उपचारों को भूल औषधि विज्ञान के फेर में पड़े हुए हैं, धातु दवा, डॉ.ी दवा, इंजेक्शन, ऑपरेशन, टीका, जड़ी-बूटी आदि के उपयोग से स्वास्थ्य लाभ की आशा की जाती है, जो कभी पूरी नहीं हो सकती। परिणाम में लाखों प्रकार के नए-नए रोग दिखाई दे रहे हैं।

किसी को दमा, किसी को संग्रहणी, किसी की आँखें खराब हैं, किसी को गर्मी सुजाक है, किसी को प्रमेह है, किसी स्त्री को प्रदर है, किसी को हिस्टीरिया कोई क्षय रोग से दुखी है, तो किसी का दिमाग खराब हो रहा है। इन रोगों को मिटाने के लिये तरह-तरह के इलाज व नई-नई दवाइयाँ दी जाती है, पर फिर भी ठीक नहीं होते।

मेरी राय में इन सब का कारण प्रकृति विरुद्ध खान-पान व रहन सहन है और इलाज भी सब का एक है-स्वाभाविक जीवन रोगों की चिकित्सा में सफलता तभी मिल सकती है जब हम उनके असली कारणों का पता लगाएँ। जब हम यह जानते हैं कि मिथ्या- प्रकृति विरुद्ध आहार विहार से रोग उत्पन्न होते हैं तो हमें अपना आहार विहार सब प्रकृति के अनुकूल बनाना चाहिये और प्रकृति के उपचार प्राकृतिक जल स्नान, मिट्टी के प्रयोग; हवा स्नान स्वाभाविक भोजन आदि काम में लेने चाहिए। औषधियाँ लेने से कभी सच्चा आरोग्य नहीं मिल सकता। इसलिये सब रोगों से उपरोक्त प्राकृतिक जल स्नान अवश्य करना चाहिए। सच बात तो यह है कि सभी रोग कष्ट, अकाल मृत्यु मनुष्यों व पशुओं में प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से होते हैं, अन्यथा स्वतंत्र प्रकृति में हर एक प्राणी, हर एक वृक्ष, हर एक स्थान सुंदर निष्पाप व निर्विकार होता है।

मनुष्यों का भी यही हाल है। जो वन में रहते हैं, फल, मेवा, दूध आदि खाते हैं, नग्न रहते हैं, नंगी धरती पर सोते हैं, वे कभी रोगी नहीं होते, न उनमें विकार होते हैं और आजकल हमलोग रात दिन कपड़ों से लदे रहते हैं। गंदी हवा में गंदे व तंग व बन्द पक्के मकानों में रहते हैं। पलंग व गद्दों पर सोते हैं, तरह-तरह की तैयारियाँ मिठाई, मसाले, रोटी, मांस, मदिरा, तंबाकू आदि खाते पिते हैं और इसलिये अनेक रोगों से दु:खी रहते हैं। अब अगर हमें रोगों से बचना है तो यथाशक्ति अपनी स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रकृति की ओर आना चाहिए तभी रोगों से छुटकारा मिलेगा अन्यथा कभी नहीं। जितनी रोग की हालत बढ़ गई हो उतना ही पूर्ण रूप से जीवन को स्वाभाविक बनाना चाहिए।

रामायण को पढ़ने से ज्ञात होगा कि रामचन्द्रजी, लक्ष्मण जी, सीता जी, आदर्श व्यक्ति थे, उनकी शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिक शक्तियाँ किसी से छिपी नहीं थी उनका जीवन आदर्श था। उनमें असाधारण बल, असीम उदारता, परम दयालुता आदि दैवी गुण थे। उनके रूप की प्रशंसा करते हुए कवि समूह थक गए। यह गुण क्या औषधि सेवन से प्राप्त हुए थे? नहीं ये गुण स्वाभाविक जीवन, तपस्या से प्राप्त हुए थे। बस इसी प्रकार हर एक पुरुष, स्त्री जहाँ तक हो सके फिर अपने जीवन को प्रकृति के अनुकूल बना कर निरोग, सुन्दर, दीर्घ जीवी, सुखी बना सकते हैं।

आरोग्य व बल के सिवा सच्चा सौंदर्य भी केवल प्रकृति के उपचारों से, स्वाभाविक स्नान, मिट्टी के प्रयोग, फलाहार आदि से ही प्राप्त हो सकते हैं। अन्य उपचार बाम, स्नो पाउडर लेप आदि से रूप उलटा बिगड़ता है। इसलिये सच्चा सौंदर्य प्राप्त करने की इच्छा करने वाली हर एक महिला को चाहिये कि स्वाभाविक उपचारों से काम लें।

बच्चों को निरोग रखने के लिये, उनकी बुद्धि बढ़ाने के लिये, और उनका भावी जीवन सुखमय बनाने के लिये, अन्य उपचारों के साथ स्वाभाविक स्नान अवश्य कराना चाहिए। हमारे स्कूल व कॉलेजों के विद्यार्थी समूह को इस दैवी स्नान की विधि व गुण सिखाए जाएँ। फिर विद्यार्थी बुद्धियुक्त बन जाएँगे और अनेक प्रकार के दुर्व्यसन व कुटेवों से बच जाएँगे। इस स्नान के करने से उनका विद्यार्थी जीवन उज्जवल व पवित्र बन जाएगा। और वे शांति व उत्साह से अपने पाठ समाप्त कर सकेंगे।

इसी प्रकार यदि यह सीधा सादा प्राकृतिक स्नान छोटी-छोटी व बड़ी बालिकाओं को सिखाया जाए (जिसमें केवल उदर आंत जननेंद्रिय आदि को ठंडे जल से कुछ देर मल कर धोया जाता है) तो बालिकाएँ आदर्श गृहिणी बन सकेगी। वे स्वयं जब प्रत्यक्ष इस स्वाभाविक जल स्नान के गुणों का अनुभव करेंगी तब वे भविष्य में अपने बच्चों की व पति की भी अनेक रोगों से रक्षा कर सकेंगी और इस प्रकार अपना जीवन सुखी से बिता सकेंगी।

इतना ही नहीं अन्य उपचारों के साथ-साथ स्त्रियाँ यह स्नान करने लग जाएँ तो वे मृत्यु तुल्य प्रसव पीड़ा से मुक्त हो जाएँगी। बड़े सुख से वे बच्चे पैदा कर सकेंगी और स्त्री समाज में जो आजकल अनेक व्याधियाँ प्रदर, हिस्टीरिया, उदर रोग, क्षय आदि फैल रहे हैं वे नष्ट हो जाएँगे और हमारी स्त्रियों का जीवन बड़ा सुखी हो जाएगा, क्या समाज इस सीधे-साधे स्नान व अन्य स्वाभाविक उपचारों के प्रचार में यत्न करेगा?

सभी व्याधियाँ नई या पुरानी प्रकृति विरुद्ध आहार विहार से होती हैं। आग में पकी हुई खुराक व अस्वाभाविक खुराक को पचाने में आंतो को बड़ा भारी जोर आता है और वे काम करते-करते थक जाते हैं और हर रोज थोड़ा-थोड़ा भोजन बिना पची हालत में आंतो में पड़ा रहता है और दीर्घ रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आंतो में पड़े भोजन शेप के सड़ने से वह दूषित पदार्थ के रूप में समस्त शरीर में फैल जाता है और समस्त धातुओं को खराब करके शरीर को निकम्मा कर देता है। यहाँ तक कि मल पदार्थों के कारण हृदय व मस्तिष्क भी खराब होकर मनुष्य पागल, पापी या निकम्मे बन जाते हैं।

मल पदार्थ रोजाना मल-मूत्र, पसीने कफ आदि के रूप में शरीर से निकलते रहते हैं परन्तु अधिक मात्रा में जब शरीर में मैल भर जाता है तो प्रकृति बलपूर्वक तेज बीमारी पैदा करके मैल निकालने की कोशिश करती है। खासकर शरीर को ठंडी तेज हवा, ठंडा पानी, गीली धरती आदि का संपर्क होने से तेज बीमारियाँ जुकाम सर्दी बुखार आदि होते हैं जो हल्के रोग हैं और जब कभी वेग अधिक हो तो चेचक, हैजा, मोतीझरा, मलेरिया आदि खूब जोर से हो जाते हैं और अन्दर रक्त का तीव्र संघर्षण होने से इनमें बुखार तेज रहता है।

तेज बीमारियाँ वास्तव में हमारे शरीर को साफ करके नया बना देती हैं और वास्तव में हमारी शत्रु नहीं बल्कि मित्र हैं। आज लोग इनसे बुरी तरह डरते हैं इसका कारण यह है कि वे प्रकृति के उद्देश्यों को नहीं समझते। यदि वे इन बातों को समझ लें कि बुखार जुकाम, मलेरिया, हैजा आदि को प्रकृति मलग्रसित शरीर की सफाई के लिये उत्पन्न करती है तो फिर वे इन रोग निवारक कष्टों से नहीं डरेंगे बल्कि आनंद से स्वागत करेंगे। वास्तव में बुखार आदि तेज बीमारियाँ बिल्कुल भयानक रोग नहीं हैं। वे भयानक प्राणनाशक उसी समय होते हैं जब कि इनका इलाज गलत तौर पर प्रकृति विरुद्ध किया जाता है अर्थात मृत्यु इन रोगों में तभी होती है जब बीमार को तरह-तरह की देशी अंग्रेजी दवाइयाँ दी जाती हैं या पानी दिया जाता है या इच्छा के विरुद्ध भोजन दे दिया जाता है वरना मृत्यु का कोई भय है नहीं। इन बातों से (दवा देने से हवा से दूर रखने आदि से) शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है। और मल पदार्थ जो बाहर वेगपूर्वक निकलने वाले होते हैं वे अन्दर रह जाते हैं और इसी से रोगी इन प्रकृति विरुद्ध उपचारों से मर जाते हैं या सदा के लिये भयानक दीर्घ रोगों के शिकार होकर जन्म भर के लिये दुखी हो जाते हैं।

सभी जानते हैं कि जुकाम ठंडे पानी के स्नान से या ठंडी हवा लगने से होता है और नाक या मुँह से मल पदार्थ बाहर निकलता है अर्थात जुकाम के द्वारा प्रकृति शरीर के अंदर भरे हुए कचरे रक्त के मैल कफ रींट आदि को बाहर निकालती है मगर लोग इसे हानिकर समझकर दवा लेते हैं जिससे जुकाम बंद हो जाती है और उसके बजाए बुखार, सिरदर्द आधाशीशी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। चेचक, मोतीझरा आदि में भी गलत इलाज से चेचक या मोतीझरा ठिठक जाते हैं पूरी तरह नहीं उभरते और शरीर का मैल दवा आदि देने से अन्दर दबा दिया जाता है। अपराध अपना और दोष ईश्वर के सिर रखा जाता है।

प्राय: हर एक रोग में मल पदार्थों के संघर्षण से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और इस गर्मी का मुख्य स्थान पेट होता है जिसमें रोग रहता है। यह गर्मी तेज बीमारियों में अधिक बढ़ जाती है और शरीर बड़ा ही गर्म हो जाता है। हर एक चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह इस गर्मी को दूर करने का प्रयत्न करे। प्राकृतिक जल स्नान से यह बढ़ी हुई गर्मी बहुत कुछ कम हो जाती है। खासकर ठंडा पानी जब पेट में स्पर्श होता है तब रोगी को बड़ी भारी शांति और बल प्राप्त होते हैं, बड़ा आनन्द मिलता है। इतना ही नहीं इस प्राकृतिक स्नान से जठरागि भी बड़ी प्रबल हो जाती है और वह बल पूर्वक शरीर का मैल बाहर फेंक कर शरीर को निरोग कर देती है। स्नान के उपयोग से शीर्घ मल-मूत्र अधिक वेग से होने लग जाते हैं और पसीना आदि काफी निकलता है और इस प्रकार धीरे-धीरे शरीर पुन: स्वस्थ हो जाता है।

इसलिये प्रचलित झूठे हानिकर दवा के इलाज को छोड़कर रोगी की इच्छा का ध्यान रखते हुए मोतीझरा, मलेरिया, हैजा, प्लेग, जुकाम, बुखार आदि सभी तीव्र रोगों में विश्वासपूर्वक रोगी को यह प्राकृतिक स्नान अवश्य कराया जाना चाहिए और उसके बाद रोगी को धूप में लिटाकर या गर्म कपड़ों में सुलाकर पसीना लाने की कोशिश करना चाहिए ताकि रोग हल्का होकर ठीक हो जाए। सबसे अधिक लाभदायक क्रिया तेज बीमारियों में यह है कि रोगी को नंगा करके टहलाया जाए या नंगा लेटा रहने दिया जाए ताकि ठंडी हवा उसके बदन को लगती रहे।

इसके सिवा रोगी के कमरे की सभी खिड़कियाँ रात-दिन खुली रहने दो चाहे जाड़ा हो या गर्मी। साफ ताजा हवा हर समय शरीर के लिये आवश्यक है। इस नियम को तोड़ने से ही लाखों बेमौत मर रहे हैं। रोगी का भोजन भी यथाशक्ति स्वाभाविक (फल, मेवा, दूध, शाक) होना चाहिए: फिर आप देखेंगे कि भयंकर से भयंकर तेज बीमारियाँ कैसे जल्द अच्छी हो जाती है। और यह कि उनसे शरीर कैसा नया बन जाता है! यह भी मालूम होगा प्रकृति ने यह बीमारी शरीर की सफाई और भलाई के लिये भेजी थी न कि बुराई के लिये।

एक बात और है कि अगर रोग शुरू होते ही स्वाभाविक उपचारों से कम लिया जाए तो रोग अति शीघ्र अच्छे हो जाते हैं और बढ़ने की कोई गुंजाईश नहीं रहती। मगर आजकल रोग शुरू होते ही रोगी को दवा देकर कमरे में बंद कर दिया जाता है और जब रोग इन कारणों से भयानक अवस्था को पहुँच जाती है तब सच्चा इलाज कराने की सूझती है। फिर उतनी आशा बचने की नहीं रहती। इसलिये यदि हम लोग रोग आरंभ होते ही प्राकृतिक उपचार करेंगे तो रोग बढ़ने या अकाल मर जाने का भय नहीं होगा। मगर जहाँ देखो दवा, दवा के भूत से सभी ग्रसित हैं। बिना दवा के रोग दूर हो सकते हैं यह बिरले ही समझते हैं और समझ कर भी कोई इस भूत से बचते हैं। सच पूछिए तो औषधियाँ शरीर का सत्यानाश कर डालती हैं। औषधियों से शरीर की रोग नाशक शक्ति जठराग्नि मंद हो जाती है। रोग शरीर में दब जाता है और इसी रोग के दब जाने को लोग इलाज समझते हैं, वाह रे अंध विश्वास। यह भी कोई इलाज का ढंग है?

अगर आपके पाखाने को भंगी बाहर फेंकने के बजाए अंदर ही रहने दे और उसे मिट्टी वगैरा से ढक दे तो क्या उसने अपना कर्तव्य पालन किया? क्या यह सच्ची सफाई हुई। क्या उसका परिणाम भयंकर नहीं होगा? बस यही हाल दवा के इलाज का है। अव्वल तो खराब भोजन आदि से शरीर में हम कचरा भर देते हैं। फिर जब प्रकृति उसको निकाल कर शरीर की सफाई करना चाहती है तो हम दवा खाकर उस कचरे को बाहर निकालने के बजाए अंदर दबा देते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि, भयंकर दमा कोढ़ संग्रहणी, क्षय आदि हो जाते हैं और लाखों रोगी औषधि विज्ञान को श्राप देते हुए कष्ट पाकर मर रहे हैं।

इन दीर्घ रोगों की बढ़ी हुई हालत में शरीर की जठराग्नि दवा खाते-खाते बिल्कुल कमजोर हो जाती है- हृदय, उदर, आंते बिल्कुल निकम्मे हो जाते हैं और खाल भी क्रियाहीन सी हो जाती है- और पहले की भांति शरीर अपने अंदर भरे हुए मैल को बलपूर्वक तेज बीमारी उत्पन्न करके बाहर नहीं फेंक सकता कि यही कारण है कि ऐसे दीर्घ रोगों में दवाइयाँ बिल्कुल निष्फल रहती हैं- इस हालत में किसी रोगी के शरीर में अंदर बुखार बनी रहती है, किसी के फेंफड़े में क्षय शुरू हो जाता है, किसी के नासूर, किसी के आँख या किसी के दिमाग में खराबी हो जाती और रोगी का शरीर जर्जर हो जाता है- आजकल मधुमेह गर्मी, कोढ़, गठिया, पागलपन, क्षय, संग्रहणी आदि दीर्घ पुराने रोगों से समाज अत्यंत दु:खी है और अनेक प्रकृति विरुद्ध उपचार करने पर भी रोगी ठीक नहीं होते और ज्यों-ज्यों दवा खाते हैं यह रोग बढ़ते ही जाते हैं।

बहुत समय से शरीर में जमे हुए मल पदार्थों ने शरीर के हर एक अंग को बिगाड़ दिया है और काठ के धुन की भांति शरीर को नष्ट करता है। यह खास बात है कि ऐसे दीर्घ रोगियों को कोई तेज बीमारी जुकाम सर्दी बुखार मोतीझरा आदि नहीं होते क्योंकि जठराग्नि बिल्कुल धीमी निकम्मी हो जाती है और दवा देने से रही सही शक्ति भी नष्ट हो जाती है।

सच पूछा जाए तो यह लक्षण इन रोगों में बहुत खराब हैं और दीर्घ रोगों के इलाज में सच्ची सफलता तभी हो सकती है जबकि प्राकृतिक स्नान आदि स्वाभाविक उपचारों से मंद हुई जठराग्नि को शनैः शनैः तेज किया जाए ताकि वह बलवान होकर तीव्र रोग उत्पन्न कर सके और शरीर का पुराना मैल बाहर निकालकर शरीर निरोग बने। जितने तेज रोग दीर्घ रोगियों को उत्पन्न होंगे वे उतना ही जल्दी ठीक होंगे। मगर यह सब तभी संभव है जब चिकित्सक स्वयं इस भेद को समझ लें और फिर दृढ़ता और धैर्य के साथ लगातार महीनों या वर्षों तक दीर्घ रोगी की स्वाभाविक चिकित्सा करते रहें। फिर उन्हें अवश्य सफलता मिलेगी।

सभी नई पुरानी बीमारियों में स्वाभाविक स्नान के साथ-साथ अन्य उपचार, हवा, धूप, स्नान मिट्टी की पट्टियाँ, स्वाभाविक भोजन आदि भी परम आवश्यक हैं। हमें सदा यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रकृति कभी धोखा नहीं देती और प्राकृतिक उपचारों से कभी भी किसी भी रोग में हानि हो सकती, चाहे बीच में कैसे ही खराब लक्षण और रोगनाशक कष्ट क्यों न उत्पन्न हो और लोग उनसे ही क्यों न डरें।

नोट - प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली की ओर झुकने वालों के मार्ग में अक्सर उनके मित्र, घरवाले, अड़ौसी, पड़ौसी, रिश्तेदार आदि बड़े बाधक बना करते हैं। लेखक को इसका बड़ा कटु अनुभव है। वे अक्सर रोगियों को गलत रास्ते चला देते हैं और उनके सर्वनाश का कारण बन जाते हैं। जो लोग गंभीर होते हैं वे ऐसी अज्ञान की बातों पर ध्यान नहीं देते और बराबर अपने मार्ग पर अटल रहते हैं पर जो कच्चे दिल के होते हैं वे इन लोगों की बातों में आकर प्राकृतिक चिकित्सा छोड़कर औषधियों के फेर में पड़ जाते हैं और अपने जीवन को नष्ट कर देते हैं। वास्तव में प्रेरणा करने वाले रूढ़ियों के गुलाम होते हैं।

वे बचारे आरंभ से ही वैद्य, हकीम, डॉ. की गुलामी करते रहे और दवा के झूठे इलाज के आदि हैं उन्हें बिल्कुल भी ज्ञात नहीं है कि संसार में ऐसे सरल, सस्ते व शर्तिया इलाज मौजूद हैं जिनसे सभी रोग अवश्य दूर होते हैं। फिर हमें शांत और दृढ़चित्त रहना चाहिए। प्रकृति और उसके उपचारों की निंदा करने वालों को क्षमाकर देना चाहिए। हमें सबसे अधिक इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में सच्चाई है तो अवश्य एक दिन इसका प्रचार होगा और जो लोग इसे एक मजाक या फालतू चीज समझते हैं वे इसके गुणों के सामने सिर झुकाएँगे- वह समय अति निकट है यह ऐसा परिवर्तन है जिसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

हर एक कठिन दीर्घ रोग में भी यह प्राकृतिक स्नान आश्चर्य जनक प्रभाव दिखाएगा। वर्षों से उदर आंत आदि में गर्मी इकट्ठी होने से वे बेकार होकर सूखे हो जाते हैं। छोटी बड़ी आंतों के तंतु व सभी भाग शुष्क व निर्बल हो गए हैं और वे शरीर के भोजनशेष मल को बाहर फेंकने योग्य नहीं रहते और भयंकर रोग कब्जी बद्धकोष्ठ हो जाता है। ऐसी हालत में पेट पर ठंडा पानी लगाने से और विधिपूर्वक मल कर स्नान करने से अंदर की गर्मी व सूखापन दूर होगा। उदर की पाचनशक्ति आंतों की रस ग्रहण शक्ति व बड़ी आंत की मल निवारक शक्ति प्रबल हो जाती है और बेचारे गरीब निराश रोगियों को ऐसी शांति, सुख व ताजगी मिलेगी जिसकी उन्हें स्वप्न में भी आशा न थी और जो किसी भी बहुमूल्य औषधि से भी प्राप्त होना असंभव था।

बहुत से लोग यह पूछेंगे कि सभी रोगों में, खास कर सिर, कान व आँख के रोगों में, नासूर भगंदर में, रसोली, अंडवृद्धि, नपुंसकत्व, हिस्टीरिया आदि में इस स्वाभाविक जल स्नान से क्या लाभ होगा? मगर यह भ्रम है। अवश्य लाभ होगा। सभी जानते हैं कि मल पदार्थ पेट में इक्ट्ठे होते हैं और वहाँ से खून में मिलकर पीप, गंदा पानी, कफ आदि के रूप में सब जगह फैल जाते हैं। इसलिये इन मल पदार्थों को वापिस पेट में पहुँचा कर मल मूत्र के रूप में निकाल देना यह स्वाभाविक स्नान का ही काम है। और कोई दवा यह आश्चर्यजनक कार्य नहीं कर सकती। यह स्नान ऐसा अद्भुत लाभदायक व रोगनाशक इलाज है कि आजकल के असाध्य समझे जाने वाले भयंकर रोग क्षय, पागलपन, नासूर, दमा, सुजाक मंदाग्नि, मोटापन, बांझपन कोढ़ आदि जो किसी भी इलाज से ठीक न हुए हों वे भी बराबर विधि पूर्वक स्वाभाविक भोजन पर रह कर इससे पूर्ण रूप से अच्छे हो जाते हैं। अलबत्ता बड़े पुराने कठिन दीर्घ रोगों में संतोष और धैर्य की पूर्ण आवश्यकता है, जल्दबजी करने से काम नहीं चलता। जो रोग शरीर में पूरी तरह घर कर चुका है उसे धीरे-धीरे ही निकाला जा सकता है। फिर भी अन्य उपचारों के साथ इस स्नान से लाखों निराश व दु:खी रोगग्रसित आत्माओं को आरोग्य व दीर्घजीवन प्राप्त होगा और बहुत से परिवार नष्ट होने से बच जाएँगे। इतना ही नहीं कभी-कभी औषधियों की गर्मी से संतृप्त मृतप्राय रोगी भी इस स्नान से मरते-मरते बच गए हैं।

मनुष्यों की अपेक्षा पशु प्रकृति की इच्छानुसार चलते हैं इसलिये वे सदा निरोग रहते हैं। जब कभी उन्हें चोट या घाव हो जाए तो वे पीड़ित स्थान पर ठंडा पानी रखते हैं। और ठंडा करते हैं और कभी-कभी उन स्थानों को चाटा करते हैं इसी प्रकार जलचिकित्सा में भी सब प्रकार की चोट, घाव, जलन, दर्द पीड़ा, सूजन फोंड़ा फुंसी, दाद, खाज आदि को ठंडे जल में धोया जाता है और फिर उन पर विधि पूर्वक पानी का कपड़ा ठंडे जल से भिंगो कर रखा जाता है और फिर ऊपर से लेप या ऊन की गर्म पट्टी बांध दी जाती है या पानी डाला जाता है या अंग प्रत्यंग समयानुसार जल में डुबाए जाते हैं और इनसे आश्चर्यजनक लाभ होता है जिसे देखकर जल के आश्चर्यजनक प्रयोगों पर विश्वास करना ही पड़ता है। ऐसे मामलों में मिट्टी की पट्टियाँ और भी अधिक लाभदायक सिद्ध हुई हैं। आश्चर्यजनक लाभ होगा। बड़े घावों में, पागल कुत्ते के काटने में, कठिन चोटों में अन्य उपचारों के साथ यह जल स्नान बड़ा ही लाभप्रद सिद्ध होगा।

इस स्नान से चोटों में सूजन नहीं होगी नमवाद पड़ेगा और बड़ी जल्दी ठीक हो जाएँगे। सभी प्रकार के जहरीले जानवर काटने में चोट घावों में स्वाभाविक जीवन बड़ा ही लाभ दायक होता है। आज चिकित्सालयों में फोड़े, नासूर चोट घावों में जब मवाद बंद नहीं होता या सूजन हो जाती है तो डॉ. बड़े परेशान होते हैं पर उन्हें यह मालूम नहीं कि मवाद का बनना तभी बंद होगा जब भोजन प्रकृति के अनुकूल होगा अन्यथा कोई ऐसा उपाय नहीं जिससे मवाद बनना बंद किया जा सके। जानवरों के घाव चोट इसलिये इतनी जल्दी अच्छे हो जाते हैं कि वे स्वाभाविक भोजन करते हैं इसलिये उनका रक्त शुद्ध रहता है उसमें मनुष्यों के रक्त की भांति मवाद नहीं होता। मनुष्यों के चोट घाव इसलिये भयंकर हो जाते हैं कि दूषित रक्त मवाद आदि चोट घाव की जगह इकट्ठे हो कर वहाँ से निकलने लगते हैं और जब तक वे बंद न हो जाए घाव भरते नहीं और चोट अच्छी नहीं होती। ऐसी हालत में स्वाभाविक जल स्नान से पूर्ण लाभ होता है।

क्योंकि स्नान से मल पदार्थ घाव चोट की तरफ न जाकर आमाशय में आ जाते हैं और मल मूत्र के रूप में वहाँ से निकल जाते हैं। यदि हमें शरीर का सच्चा हित करना है तो चोट घाव फोड़े दर्द आदि की चिकित्सा ठंडे जल या मिट्टी से करना चाहिए, दवा, सेंक या भाप के स्नान का जहाँ तक हो सर्वथा त्याग ही करना उचित है। वास्तव में चिकित्सकों को चाहिए कि वे इलाज करते समय यह अवश्य ध्यान रखें कि इस प्रकार इलाज किया जाए कि रोग भी जड़ से चला जाए और शरीर को हानि भी न हो।

मगर खेद है आज कल के लोग रोगों के इलाज में क्षणिक लाभ को ही उत्तम समझते हैं। प्रकृति विरुद्ध चिकित्सा चीर-फाड़ आदि से होने वाली हानियों को नहीं जानते। मेरी राय में जहाँ तक हो सके चीर फाड़, काट-पीट से बचना ही अच्छा है क्योंकि चीर-फाड़ की क्रिया सर्वथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और चीर-फाड़ से मनुष्य शरीर पर बड़ा भारी घातक आरोग्यनाशक प्रभाव पड़ता है और शरीररूपी मशीन बिल्कुल कमजोर हो जाती है। यह जरूरी नहीं है कि लक्षण उसी समय प्रकट हो (ऑपरेशन से होने वाली हानियाँ और उसकी अनावश्यकता का पूरा वर्णन अलहदा पुस्तक में किया जाएगा और यह भी वर्णन रहेगा कि चीर-फाड़ के बजाए क्या इलाज करने से रोग दूर होंगे) वास्तव में ऑपरेशनरूपी अर्धमृत्यु के मुँह में जाने से पहले रोगियों को चाहिए कि वे पूर्ण रूप से स्वाभाविक उपचार मिट्टी जल, आहार आदि के प्रयोग आजमाएँ फिर उन्हें मालूम हो जाएगा कि लगभग 99 फीसदी चिर-फाड़ अनावश्यक ही है। और चीर-फाड़ से कहीं श्रेष्ठ चिकित्सा प्रणाली भी मौजूद है। टूटी हड्डियाँ, पसलियाँ, चोट आदि सभी केवल पट्टियाँ बाँधने से ही ठीक नहीं होते बल्कि स्वाभाविक आहार स्नान आदि भी आवश्यक है।

उपसंहार
अंत में इतना ही कह कर समाप्त करता हूँ कि कोई भी मनुष्य इस पुस्तक को पढ़कर आश्चर्य में न डूबे बल्कि इसे पढ़कर इस पर विचार करें और स्वयं इस स्नान की परीक्षा करें। फिर उसे मेरे कथन की सच्चाई मालूम हो जाएगी। जिस प्रकार ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने पर ज्ञानी के लिये संसारी माया की आवश्यकता नहीं रहती और न वह उस पर मोहित होता है, उसी प्रकार स्वाभाविक स्नान व अन्य प्रकृति के उपचारों को जान लेने के बाद किसी भी वैद्य डॉ. हकीम या चिकित्सक या दवा की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और न वह दवा के झूठे इलाज में पड़ कर स्वास्थ्य को ही नष्ट करेगा। मेरी राय में यह स्नान बच्चे बूढ़े जवान स्त्री पुरूष रोगी निरोगी पापी व्यसनी सभी के बड़े काम की चीज है खासकर हर प्रकार के रोगियों के लिये चाहे वे जीवन से निराश हो चुके हो यह स्नान कल्प वृक्ष के समान फल दायक सिद्ध होगा।

स्त्रियों के लिये हर एक रोग में यह स्नान परम गुणदायक होगा। उनके सभी प्रकार के गुप्त व प्रकट रोग, गर्भाशय आदि के रोग जिनसे वे रात दिन दुखी रहते हैं इस स्नान के विधि पूर्वक पथ्य सहित करने से नष्ट हो जाएँगे। यहाँ तक कि जिन्होंने संतान का मुँह तक नहीं देखा है वे भी पुत्रवती बन सकेंगी और जिनका दूध खराब हो गया है उनका दूध शुद्ध हो कर बच्चे जीने लग जाएँगे।

इसी प्रकार बच्चों के सभी रोग सूखना, दस्त, खांसी, कब्ज, तुतलाना, चेचक आदि सभी नष्ट हो जाएँगे और वे प्रसन्न तेजस्वी और निरोग बन जाएँगे। यहाँ तक कि उनमें जो पैतृक बीमारियाँ होंगी वह भी इस स्नान के प्रयोग से दूर हो जाएँगी। जो पुरुष मोटे फफ्फस अथवा नपुंसक या हीनशक्ति हैं व अन्य रोगों से ग्रसित हैं उनके रोग दूर होकर पुन: जीवन व बल प्राप्त होगा।

हर प्रकार के पापी व्यसनी नशेबाज लोग अगर इस स्नान को करने लगेंगे तो उनकी सब बुरी आदतें, नशा आदि अपने आप छूट जाएँगे और उनका अंधकारमय जीवन फिर सुखी हो जाएगा। देश में सब जगह लोग शराब अफीम तंबाकू, चाय चरस आदि से अपने जीवन, धन व दीर्घायु का सत्यानाश कर रहे हैं। लाखों तो इनकी हानियाँ समझते हुए भी इनसे नहीं बच सकते। वे किसी खास लत (craving) या आंतरिक इच्छा के वशीभूत होकर नशा करते हैं। और स्वाभाविक स्नान से यह कुटेव (craving) या रोग बिल्कुल जाता रहेगा। और फिर मजबूर करने पर भी वह व्यक्ति नशा आदि कुटेव को पसंद नहीं करेगा।

यदि लोग चाहते हैं कि समाज से सब रोग, दुर्व्यसन, पाप आदि नष्ट हो जाएँ तो इस स्नान का प्रचार करना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बालक दीर्घजीवी, बलवान व बुद्धिमान व साहसी हों तो उन्हें यह स्नान अवश्य कराया जाए और हर एक स्कूल में इसकी शिक्षा का प्रबंध होना चाहिए।

इसी प्रकार कन्याओं को यह स्नान सीखना चाहिये ताकि वे भविष्य में सुखपूर्वक रह सकें। परमात्मा करे हमारे देशवासी मिथ्या जड़ी बूटी, दवा, इंजेक्शन, धातु दवाइयाँ आदि से होने वाली हानियों से बचें और कल्पवृक्ष के समान आरोग्य दायक इस दैवी प्राकृतिक स्नान का आदर करें। फिर सभी जगह आरोग्य सुख का साम्राज्य होगा और इतनी संख्या में रोगी नजर न आएँगे। ईश्वर यह शुभ समय शीघ्र लाए। मारे पुस्तकें पढ़कर अपना इलाज आप करें। न चिकित्सक की जरूरत न दवा की। हर एक गृहस्थ को सदा ये पुस्तकें अपने पास रखनी चाहियें ताकि वह इन्हें पढ़कर अपना व अपनी स्त्री बच्चों का इलाज अपने आप कर लें।

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