जल की महिमा का बखान एक गीत में इस प्रकार किया गया है- ‘जल न होता तो ये जग जाता जल।’ आज सचमुच दुनिया जलने के कगार की ओर बढ़ रही है। तमाम दूरद्रष्टा यह कह भी चुके हैं कि तीसरा विश्व-युद्ध पानी के लिये होगा। इस साल के जबर्दस्त सूखे ने भारत के एक बड़े भूभाग में लोगों को बूँद-बूँद पानी के लिये तरसा कर रख दिया। इसके साथ ही पानी को लेकर हमारी जमीनी हकीकत और इन्तज़ाम की कलई भी खुल गई। यदि हम अब भी न चेते तो यह नासमझी ही नहीं मूर्खता भी कहलाएगी।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की यह अपील कि किसान भाई इस गर्मी में धान की फसल न उगायें। धान की बजाय कम पानी में होनी वाली अन्य फसलें उगायें-यहाँ काबिले गौर है। एक किलो धान पैदा करने में तीन-चार हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार धान की खेती का मतलब हुआ धरती के गर्भ का पानी चूस डालना।
गौर करें तो पता चलता है कि आजादी के तुरन्त बाद वर्ष 1950-51 से लेकर 1959-60 तक हमारे देश में एक भी ट्यूबवेल नहीं था। तब हमारी कुल सिंचित भूमि 24.04 प्रतिशत थी। जिसमें 10.114 प्रतिशत नहरों, 4.631 तालाबों, 7.083 कुँओं तथा 2.209 प्रतिशत पानी के अन्य स्रोतों का योगदान था। सन 1960 से देश में ‘हरित क्रांति’ की शुरुआत होती है, क्योंकि बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिये खाने के लाले पड़े थे। यहीं से देश में विदेशी संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का चलन शुरू हुआ। यह प्रयोग सबसे पहले हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में शुरू किया गया। इन बीजों से अच्छा उत्पादन लेने के लिये भारी मात्रा में पानी की जरूरत थी। इसलिये सरकार ने तमाम उपाय किये, सिंचाई के कई बड़े प्रोजेक्ट शुरू किये और साथ ही ट्यूबवेल का जोर पकड़ा। ट्यूबवेल मतलब धरती के गर्भ से पानी निचोड़ने की मशीन।
अब दस साल आगे चलते हैं। वर्ष 1967-70 में सिंचाई के साधनों में हमारे पास कुल 12.838 प्रतिशत नहरें थीं, 4.059 प्रतिशत तालाब, 3.739 ट्यूबवेल, 7.438 कुएँ और 2.356 पानी के अन्य स्रोत थे। इस प्रकार कुल सिंचित क्षेत्र 30.2 प्रतिशत था। यानी इन दस सालों में 10 प्रतिशत अधिक भूमि में सिंचाई होने लगी।
इसके बाद सीधे 2008-09 पर चलते हैं जहाँ तक के आँकड़े उपलब्ध हैं। यहाँ 16.596 प्रतिशत नहरें, 1.979 प्रतिशत तालाब, 26.013 प्रतिशत ट्यूबवेल, 12.563 कुएँ, 6.045 अन्य स्रोत मिलाकर कुल सिंचित क्षेत्र 63.2 प्रतिशत हो गया।
इन आँकड़ों की समीक्षा साफ बताती है कि 60 के दशक से हमारा सारा ध्यान ट्यूबवेल खोदने पर रहा। हमने खेती-बाड़ी के एक बड़े भूभाग को ट्यूबवेल के भरोसे छोड़ दिया। आजादी के लगभग 70 सालों में हम नहरों को दुगुना से आगे नहीं बढ़ा पाये। कभी पानी से लबालब रहने वाले तालाब हमने उजाड़ डाले। बेहद आसान और सुविधाजनक रास्ता अपना लिया ट्यूबवेल का। पानी खींचकर धरती के अंदर से खोखली कर डाली।
हाल में किये गये एक अध्ययन के अनुसार देश के विभिन्न कुँओं के जलस्तर में 47 प्रतिशत की कमी आई है। कुँओं के जलस्तर में कमी आने का सीधा अर्थ है कि देशव्यापी स्तर पर भूजल स्तर 47 फीसदी तक गिर गया है। देश के प्रमुख 91 जलाशयों के पानी में भी लगभग 25 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई है। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के मुताबिक अप्रैल माह के प्रथम पखवाड़े तक इन जलाशयों की क्षमता 157.79 अरब घन मीटर के मुकाबले केवल 122.16 अरब घन मीटर ही उपलब्ध है। पानी की कम उपलब्धता के मामले में मंत्रालय का मानना है कि विगत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष पानी की उपलब्धता 33 फीसद कम दर्ज की गई है। पिछले दस वर्षों के औसत से इस जल की उपलब्धता की तुलना करें तो इसमें 23 प्रतिशत की कमी आई है। राजस्थान के 33 में से 19 जिले वर्तमान में पानी की कमी से जूझ रहे हैं।
अब जब पिछले तीन सालों में गर्मी और सूखे ने हमारी खाल सुखा डाली है, गला सूख चुका है, धरती पपड़ी बन गई है, किसान खुद को मिटाने पर तुल गए हैं तो सरकारों के हाथ-पाँव फूलने लगे हैं। ऐसे में अचानक कहाँ से आये पानी। पानी को तो संभाल कर रखना पड़ता है। रहीमदास जी यूँ ही थोड़े कह गये थे-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
सूखा पहली बार पड़ा हो ऐसा भी नहीं है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश तथा आंशिक तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बिखरा बुन्देलखण्ड क्षेत्र विगत लगभग एक दशक से सूखे से जूझ रहे हैं। आज जो हालात हैं वे एक दिन या फिर एक मौसम-चक्र के चलते नहीं हुए हैं। अधिकतर नदियाँ हिमालय से निकलती हैं, परन्तु इन नदियों में अनेक नदियाँ बिना ग्लेशियर वाली हैं। वे नदियाँ जो ग्लेशियर से नहीं निकलती हैं बरसात के भरोसे होती हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी अनेक नदियाँ हैं जो छोटे-छोटे स्रोतों से मिलकर बनती हैं, जिनमें से अनेक नदियाँ लगभग सूख चुकी हैं। बाद में ये नदियाँ गंगा, युमना, महानदी, शारदा, कृष्णा, सतलुज, झेलम, ब्रह्मपुत्रा आदि बड़ी नदियों में समा जाती हैं। इसी प्रकार ब्रह्मपुत्रा, सतलुज, सिंधु, झेलम आदि नदियाँ भी मध्य व उच्च हिमालय के विभिन्न ग्लेशियरों तथा झीलों-सरोवरों से निकलती हैं। दक्षिण भारत एवं पश्चिम भारत की नदियों के अलावा भारत की सभी नदियाँ किसी न किसी सरोवर, झील या ग्लेशियर से निकलती हैं तथा सदानीरा हैं।
ऐसे में सरकार की ‘नदी जोड़ो योजना’ काफी कारगर साबित हो सकती है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने राज्य के सौराष्ट्र और कच्छ में पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिये नर्मदा नदी का पानी पाइप लाइन बिछाकर इन स्थानों में भिजवाया।
दरअसल सूखा और पेयजल की एक-दूसरे से जुड़ी हुई समस्याएँ हैं, परन्तु यह मानना है कि उपलब्ध जल का 75 प्रतिशत हिस्सा केवल खेती-बाड़ी पर ही खर्च होता है। जल संसाधनों के वितरण और प्रबंधन पर एक नये सिरे से सर्वेक्षण की आवश्यकता है, ताकि यह पता चल सके कि पानी की सबसे ज्यादा और पहली जरूरत कहाँ तथा किसे है। साथ ही यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि जल संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग तथा बर्बादी कौन और कहाँ कर रहे हैं। इस पर नये सिरे से नीति बनानी चाहिए।
देवास मॉडल को अपनाने की जरूरत
उमाकांत उमराव को लोग जिलाधीश की बजाय जलाधीश; जल का देवता; कहकर बुलाते हैं। नहीं तो मध्य प्रदेश का देवास जिला महाराष्ट्र के विदर्भ की राह पर चल पड़ा था। उमराव जब देवास के डीएम बनकर आए तो प्रशासन क्या चलाते, जिले में तो पानी का हाहाकार मचा था। पेयजल के साथ-साथ खेती-किसानी चौपट हो चुकी थी। सौ-सौ एकड़ वाले किसान तक कर्ज में डूबे थे।
बहुत ही मुश्किल काम था। ऐसे में उमराव ने जल संरक्षण को मुख्य मुद्दा बनाकर काम करना शुरू कर दिया। इनमें कुछ ऐसे किसान भी थे जिनके खुद के तालाब थे और उन्होंने पिछले कुछ सालों से जल समस्या का सामना नहीं किया था। इनको रोल मॉडल बनाकर उमराव ने दस बड़े किसानों को उनके खेत में तालाब बनवाने के लिये राजी किया। उन्होंने जल संरक्षण के नारे ‘जल बचाओ-जीवन बचाओ’ को ‘जल बचाओ-लाभ कमाओ’ में तब्दील कर दिया। देखते ही देखते सैकड़ों लोगों ने इस मॉडल पर काम करना शुरू कर दिया। इसमें किसान को जमीन के 10 फीसदी हिस्से पर तालाब बनाना होता था और उसका टेक्निकल सहयोग सरकार देती थी और लागत किसान को वहन करनी होती थी। दो साल बाद ही जब इसकी सफलता से लोग रूबरू हुए, तो किसान स्वयं आगे बढ़कर तालाब की संस्कृति में शामिल हो गए। आज वहाँ खुशहाली लौट आई है और न केवल जीविकोपार्जन एवं रोजगार में सुधार हुआ है, बल्कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य का स्तर भी बढ़ गया है। आज कई गाँवों में तो 100 से 150 तालाब हैं। |
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