पिछले दिनों मध्यप्रदेश में समाज को पानी का अधिकार ( Right to water) सौंपने के बारे में कार्यशाला सम्पन्न हुई थी। इस कार्यशाला में सरकार ने पानी की चिन्ता करने वाले अनेक लोगों को आमंत्रित किया था। सरकार की ओर से इस कार्यशाला में विभिन्न विभागों के मुखिया, पीएचईडी के प्रमुख्य सचिव, विभाग के इंजीनियर-इन-चीफ, सारा अमला, पानी से सम्बद्ध विभागों के वरिष्ठ अधिकारीगण और राज्य के मुख्य सचिव ने भाग लिया था। विभागीय मंत्री भी मौजूद थे। इस कार्यशाला में पानी के अधिकार के साथ-साथ साल-दर-साल गहराते पेयजल संकट पर भी विचार-विमार्श हुआ था। दिन भर चली कार्यशाला के दो मुख्य सन्देश थे। पहला संदेश था - जल संकट से निपटना और दूसरा सन्देश था - समाज को पानी पर अधिकार प्रदान करना। संक्षेप में, मध्यप्रदेश सरकार हर नागरिक को पेयजल के साथ-साथ पानी का अधिकार भी मुहैया करना चाहती है।
भास्कर में प्रकाशित खबर से पता चलता है कि भोपाल की पेयजल समस्या को निपटाने के लिए राज्य सरकार ने सिंचाई के लिए बने कोलार बांध की कुल क्षमता 273 मिलीयन क्यूबिक मीटर में से करीब 61 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी पेयजल के लिए आरक्षित किया है। इस आरक्षण के कारण, जल संसाधन विभाग को हर हाल में इतना पानी पेयजल के लिए देना, बन्धनकारी है। प्रकाशित खबर से पता चलता है कि राज्य सरकार, पानी की किल्लत दूर करने के लिए प्रदेश के सभी सिंचाई बांधों पर यह नियम लागू करने पर विचार कर रही है।
विदित है कि भारतीय संविधान के आर्टीकल 21 में प्रत्येक नागरिक को प्रदूषणमुक्त पानी उपलब्ध कराने का उल्लेख है। राष्ट्रीय जल नीति 2012 के पेरा 2.2 के अनुसार राज्यों द्वारा पानी के प्रबन्ध को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धान्त के आधार पर करने की आवश्यकता पर बल दिया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ और मानवाधिकार काउंसिल ने भी पेयजल को मानवाधिकार के रूप में दी मान्यता देने की पैरवी की है। इन सारे प्रावधानों की रोशनी में राज्य सरकार का कदम सराहनीय तथा स्वागत योग्य है। दिनांक 18 अगस्त, 2019 को दैनिक भास्कर (भोपाल संस्करण) में प्रकाशित समाचार से पता चलता है कि प्रदेश सरकार का पीएचई विभाग पेयजल संकट से निपटने के लिए गंभीर प्रयास कर रहा है। प्रकाशित समाचार से पता चलता है कि भले ही प्रदेश में अब तक पर्याप्त बरसात हुई हो पर पिछले सालों का अनुभव बताता है कि गर्मी आते-आते अनेक इलाकों में पेयजल संकट गहरा जाता है। उस कठिन समय में सरकार और समाज पानी की किल्लत से जूझते हैं। जिन इलाकों में पानी की किल्लत सबसे अधिक त्रासद होती है उनमें बुन्देलखंड, मालवा, ग्वालियर-चम्बल क्षेत्र के अनेक स्थान सम्मिलित हैं। यह तकलीफ गहरी खदानों वाले इलाकों में भी देखी जाती है। संकट का मुख्य कारण है भूजल स्तर के बहुत नीचे गिरने के कारण नदी-नालों, कुओं, तालाबों और नलकूपों का गर्मी आते आते असमय सूख जाना। गौरतलब है कि हालात साल-दर-साल बद से बदतर हो रहे हैं। बरसात की कमी-बेशी का कुछ खास असर नहीं हो रहा है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में लगातार बढ़ती आबादी को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। सन 1963 में बडे तालाब की क्षमता बढ़ाई गई। आसपास के जल स्रोतों से पानी उठाया गया। हाल ही में नर्मदा से पानी लाकर भोपाल वासियों की प्यास बुझाई गई। इसके अलावा, नगर में अनेक निजी नलकूप हैं जो व्यक्तिगत स्तर पर पानी की कमी से निपटने में नागरिकों की पेयजल समस्या को कम करते हैं। भूजल दोहन के लगातार बढ़ने के कारण, गर्मी आते-आते नगर के कोलार इलाके में अनेक नलकूप सूख जाते हैं। इस कारण नगरवासियों को पानी प्राप्त करने के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ती है। सरकार को भारी भरकम रकम खर्च करनी पड़ती है। यही सब प्रदेश के विभिन्न इलाकों की, रात दिन बढ़ने वाली कहानी है, जिसकी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं थी।
भास्कर में प्रकाशित खबर से पता चलता है कि भोपाल की पेयजल समस्या को निपटाने के लिए राज्य सरकार ने सिंचाई के लिए बने कोलार बांध की कुल क्षमता 273 मिलीयन क्यूबिक मीटर में से करीब 61 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी पेयजल के लिए आरक्षित किया है। इस आरक्षण के कारण जल संसाधन विभाग को हर हाल में इतना पानी पेयजल के लिए देना, बन्धनकारी है। प्रकाशित खबर से पता चलता है कि राज्य सरकार, पानी की किल्लत दूर करने के लिए प्रदेश के सभी सिंचाई बांधों पर यह नियम लागू करने पर विचार कर रही है। अखबार का कहना है कि नए बांधों के लिए ये प्रस्ताव किया जा सकता है कि उसका 20 प्रतिशत पानी, पेयजल के लिए सुरक्षित रखा जावे। इस बिन्दु पर मध्यप्रदेश के पीएचई मंत्री का कहना है कि प्रदेश में कहीं भी जल संकट न हो, इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं। लोगों को पानी का अधिकार देने के लिए जो कुछ किया जा सकता है, वह कर रहे हैं। यह भी उसी दिशा में उठाया जाने वाला कदम है।
सभी जानते हैं कि देश में पानी की सबसे अधिक खपत खेती में है। उसके बाद उद्योग में तथा सबसे कम खपत पेयजल की आपूर्ति में है। जहाँ तक पानी बचाने का प्रश्न है तो समाज से अपेक्षा है कि वह पानी की खपत कम करे। वहीं उद्योगों से पानी को रिसाइकिल कर उपयोग को तर्कसंगत बनाने की बात कही जाती है। खेती, जिसमें सबसे अधिक पानी खर्च होता है, यदि पानी की बचत करता है तो बहुत जल्दी परिदृष्य बदलेगा। हानिकारक रसायनों का उपयोग कम होगा। खाद्यान्न सुरक्षित बनेंगे। समाज की सेहत पर बुरा प्रभाव घटेगा। विदेष व्यापार बढ़ेगा। अतः मध्यप्रदेश सरकार का कदम स्वागत योग्य है।
अन्त में, जल संकट का केनवास बहुत बड़ा है। उस संकट की अनुगूँज अब सब तरफ सुनाई दे रही है। चेन्नई, जिसे कुछ साल पहले तक रेन वाटर हारवेस्टिंग का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता था, आज बहुत बुरी स्थिति में है। यह स्थिति अपेक्षा करती है कि हम प्रिसक्रिपव्टिव विकल्पों के मोह से बाहर निकलें। पानी बचाओ अभियान के साथ-साथ जमीन के नीचे का पानी बढ़ाओं अभियान संचालित करें। भूजल दोहन की हर साल होने वाली वृद्धि के मुकाबले दो-तीन गुना अधिक रीचार्ज करें। अल्पायु, मंहगे और कम पानी का संचय और रीचार्ज करने वाली संरचानाओं (गली प्लग, लूज बोल्डर चेक, कंटूर बोल्डर वाल, गैबियन, सोख्ता गड्ढा, चैक डेम इत्यादि) के निर्माण के मोह को त्यागें। हमें याद रखना चाहिए कि पानी का संकट मुहल्लों, कतिपय ग्रामों या बसावटों तक सीमित नही है। उसका बीज कहीं और है। वहीं से वह संकट नीचे उतरता है और गहराता है। उसकी अनुगूँज नगरों में अधिक तथा ग्रामीण अंचल में कम सुनाई देती है। सुझाव है कि संकट के स्रोत को उसके उदगम पर ही समाप्त करना चाहिए। एक बात और, हमस ब को जल स्वराज के लिए काम करना चाहिए। इसके लिए जल स्वावलम्बन का स्वप्न संजोना होगा। तभी जल संकट से मुक्ति मिलेगी।
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