जल प्रदूषण के कारण और प्रभाव | Water Pollution in Hindi

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जल प्रदूषण : कारण, प्रभाव एवं निदान (Water Pollution: Causes, Effects and Solution)


‘जल प्रदूषण’ केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, 2011
वर्तमान में वर्षा की अनियमित स्थिति, कम वर्षा आदि को देखते हुए उद्योगों को अपनी जल खपत पर नियंत्रण कर उत्पन्न दूषित जल का समुचित उपचार कर इसके सम्पूर्ण पुनर्चक्रण हेतु प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए। ताकि जलस्रोतों के अत्यधिक दोहन की स्थिति से बचा जा सके। हम पिछले अध्याय में पढ़ आये हैं कि पानी में हानिकारक पदार्थों जैसे सूक्ष्म जीव, रसायन, औद्योगिक, घरेलू या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से उत्पन्न दूषित जल आदि के मिलने से जल प्रदूषित हो जाता है। वास्तव में इसे ही जल प्रदूषण कहते हैं। इस प्रकार के हानिकारक पदार्थों के मिलने से जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणधर्म प्रभावित होते हैं। जल की गुणवत्ता पर प्रदूषकों के हानिकारक दुष्प्रभावों के कारण प्रदूषित जल घरेलू, व्यावसायिक, औद्योगिक कृषि अथवा अन्य किसी भी सामान्य उपयोग के योग्य नहीं रह जाता।

पीने के अतिरिक्त घरेलू, सिंचाई, कृषि कार्य, मवेशियों के उपयोग, औद्योगिक तथा व्यावसायिक गतिविधियाँ आदि में बड़ी मात्रा में जल की खपत होती है तथा उपयोग में आने वाला जल उपयोग के उपरान्त दूषित जल में बदल जाता है। इस दूषित जल में अवशेष के रूप में इनके माध्यम से की गई गतिविधियों के दौरान पानी के सम्पर्क में आये पदार्थों या रसायनों के अंश रह जाते हैं। इनकी उपस्थिति पानी को उपयोग के अनुपयुक्त बना देती है। यह दूषित जल जब किसी स्वच्छ जलस्रोत में मिलता है तो उसे भी दूषित कर देता है। दूषित जल में कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों एवं रसायनों के साथ विषाणु, जीवाणु और अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीव रहते हैं जो अपनी प्रकृति के अनुसार जलस्रोतों को प्रदूषित करते हैं।

जलस्रोतों का प्रदूषण दो प्रकार से होता है :-

1. बिन्दु स्रोत के माध्यम से प्रदूषण
2. विस्तृत स्रोत के माध्यम से प्रदूषण

 

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1. बिन्दु स्रोत के माध्यम से प्रदूषण :-


जब किसी निश्चित क्रिया प्रणाली से दूषित जल निकलकर सीधे जलस्रोत में मिलता है तो इसे बिन्दु स्रोत जल प्रदूषण कहते हैं। इसमें जलस्रोत में मिलने वाले दूषित जल की प्रकृति एवं मात्रा ज्ञात होती है। अतः इस दूषित जल का उपचार कर प्रदूषण स्तर कम किया जा सकता है। अर्थात बिंदु स्रोत जल प्रदूषण को कम किया जा सकता है। उदाहरण किसी औद्योगिक इकाई का दूषित जल पाइप के माध्यम से सीधे जलस्रोत में छोड़ा जाना, किसी नाली या नाले के माध्यम से घरेलू दूषित जल का तालाब या नदी में मिलना।

2. विस्तृत स्रोत जल प्रदूषण :-


अनेक मानवीय गतिविधियों के दौरान उत्पन्न हुआ दूषित जल जब अलग-अलग माध्यमों से किसी स्रोत में मिलता है तो इसे विस्तृत स्रोत जल प्रदूषण कहते हैं। अलग-अलग माध्यमों से आने के कारण इन्हें एकत्र करना एवं एक साथ उपचारित करना सम्भव नहीं है। जैसे नदियों में औद्योगिक एवं घरेलू दूषित जल या अलग-अलग माध्यम से आकर मिलना।

विभिन्न जलस्रोतों के प्रदूषक बिन्दु भी अलग-अलग होते हैं।

1. नदियाँ :- जहाँ औद्योगिक दूषित जल विभिन्न नालों के माध्यम से नदियों में मिलता है, वहीं घरेलू जल भी नालों आदि के माध्यम से इसमें विसर्जित होता है। साथ ही खेतों आदि में डाला गया उर्वरक, कीटनाशक तथा जल के बहाव के साथ मिट्टी कचरा आदि भी नदियों में मिलते हैं।

2. समुद्री जल का प्रदूषण :- सभी नदियाँ अंततः समुद्रों में मिलती हैं। अतः वे इनके माध्यम से तो निश्चित रूप से प्रदूषित होती हैं। नदियों के माध्यम से औद्योगिक दूषित जल और मल-जल, कीटनाशक, उर्वरक, भारी धातु, प्लास्टिक आदि समुद्र में मिलते हैं। इनके अतिरिक्त सामुद्रिक गतिविधियों जैसे समुद्री परिवहन, समुद्र से पेट्रोलियम पदार्थों का दोहन आदि के कारण भी सामुद्रिक प्रदूषण होता है।

जलस्रोतों की भौतिक स्थिति को देखकर ही उनके प्रदूषित होने का अंदाजा लगाया जा सकता है। जल का रंग, इसकी गंध, स्वाद आदि के साथ जलीय खरपतवार की संख्या में इजाफा, जलीय जीवों जैसे मछलियों एवं अन्य जन्तुओं की संख्या में कमी या उनका मरना, सतह पर तैलीय पदार्थों का तैरना आदि जल प्रदूषित होने के संकेत हैं। कभी-कभी इन लक्षणों के न होने पर भी पानी दूषित हो सकता है, जैसे जलस्रोतों में अम्लीय या क्षारीय निस्राव या मिलना या धात्विक प्रदूषकों का जलस्रोतों से मिलना। इस तरह के प्रदूषकों का पता लगाने के लिये जल का रासायनिक विश्लेषण करना अनिवार्य होता है।

जल को प्रदूषित करने वाले पदार्थों की प्रकृति मुख्यतः दो प्रकार की होती है-


1. जैविक रूप से नष्ट हो जाने वाले
2. जैविक रूप से नष्ट न होने वाले

मुख्यतः सभी कार्बनिक पदार्थयुक्त प्रदूषक जैविक रूप से नष्ट होने वाले होते हैं। ये प्रदूषक जल में उपस्थित सूक्ष्म जीवों के द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। वास्तव में कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म जीवों का भोजन होते हैं। सूक्ष्म जीवों की इन गतिविधियों में बड़ी मात्रा में जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग होता है। यही कारण है कि जब कार्बनिक पदार्थयुक्त प्रदूषक जैसे मल-जल या आसवन उद्योग का दूषित जल, जलस्रोतों में मिलता है तो उनकी घुलित ऑक्सीजन की मात्रा में उल्लेखनीय कमी आती है, कई बार ऐसा होने पर यहाँ उपस्थित जलीय जीव जैसे मछलियाँ आदि ऑक्सीजन की कमी के कारण मारे जाते हैं। इसके विपरीत अनेक प्रदूषक होते हैं, जो सामान्य परिस्थितियों में नष्ट नहीं होते, ऐसे प्रदूषकों में विभिन्न धात्विक प्रदूषक या अकार्बनिक लवणयुक्त प्रदूषक होते हैं।

कुछ प्रमुख प्रदूषक निम्नलिखित हैं :-

 

1. मल-जल या अन्य ऑक्सीजन अवशोषक प्रदूषक जैसे कार्बनिक अपशिष्ट।
2. संक्रामक प्रकृति के प्रदूषक जैसे अस्पतालों से निकलने वाला अपशिष्ट।
3. कृषि-कार्य हेतु उपयोग में लिये जाने वाले उर्वरक, जिनके पानी में मिलने से जलीय पौधों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होती है। तत्पश्चात ये जलीय वनस्पति पानी में सड़कर पानी में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग कर उसे धीरे-धीरे कम या समाप्त कर देती है। इस प्रकार वनस्पतियों के सड़ने से पानी से दुर्गन्ध आने लगती है।
4. औद्योगिक दूषित जल के साथ विभिन्न रसायन, लवण या धातुयुक्त दूषित जल, जलस्रोतों में मिलता है।
5. कृषि कार्य में उपयोग होने वाले रासायनिक कीटनाशक आदि भी वर्षाजल साथ घुलकर जब स्रोतों में आकर मिलते हैं। ये जटिल कार्बनिक यौगिक प्रकृति में कैंसर कारक (कार्सिनोजेनिक) होते हैं।
6. अनेक विकिरण पदार्थ भी जल के साथ बहकर प्राकृतिक जलस्रोतों में मिलते हैं।
7. अनेक उद्योगों जैसे आसवन उद्योग, पावर प्लांट आदि से निकलने वाले दूषित जल का तापमान अत्यंत उच्च होता है। उच्च तापमान युक्त दूषित जल किसी भी जलस्रोत में मिलकर उसका तापमान भी बढ़ा देते हैं। जिसका सीधा प्रभाव जलीय जीवों एवं वनस्पतियों पर पड़ता है।
8. घरेलू ठोस अपशिष्ट भी जल प्रदूषण का बड़ा कारण बनते हैं।
जल प्रदूषक कारकों को इनकी भौतिक अवस्था के आधार पर भी तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है :-

1. जल में निलम्बित अवस्था के आधार पर :- अनेक जल प्रदूषक, जल में निलम्बित अवस्था में रहते हैं। इन कणों का आकार एक माइक्रो मीटर से अधिक होता है। ये जल में निलम्बित अवस्था में होते हैं और पानी को कुछ देर ठहरा हुआ या स्थिर रखने पर ये नीचे बैठ जाते हैं। इन्हें आसानी से छानकर अलग किया जाता है।

2. जल के साथ कोलायडल अवस्था बनाना :- निलम्बित कणों से कुछ छोटे आकार के कण पानी के साथ कोलायडल अवस्था में आ जाते हैं। इन प्रदूषकों को सामान्य छनन प्रक्रिया से पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनके कण इतने छोटे होते हैं जो फिल्ट्रेशन माध्यम से होकर निकल जाते हैं।

3. घुलित प्रदूषक :- अनेक प्रदूषक पानी में अच्छी तरह घुल जाते हैं। ऐसे प्रदूषकों को सामान्य छनन की प्रक्रिया से पृथक नहीं किया जा सकता। इन्हें रासायनिक विधि से अन्य अभिकारकों की क्रिया के पश्चात ही पृथक किया जा सकता है।

प्राकृतिक जलस्रोतों को प्रदूषित करने में मल-जल के अतिरिक्त औद्योगिक दूषित जल भी प्रमुख कारक होते हैं। विभिन्न वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों एवं रसायन वेत्ताओं ने जल प्रदूषकों के आधार पर इन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँटा है। फर्ग्यूसन ने इन्हें सात श्रेणियों में बाँटा है जिनमें मल-जल, कैंसरकारक, प्रदूषक, कार्बनिक रसायन, अकार्बनिक रसायन, ठोस अपशिष्ट, विकिरण पदार्थ तथा उच्च ताप उत्पन्न करने वाले प्रदूषक शामिल हैं। इसी प्रकार सन 1972 में इनका वर्गीकरण इनके भौतिक एवं रासायनिक गुणों के आधार पर किया गया तथा इन्हें 10 श्रेणियों में बाँटा। इस आधार पर इन्हें इनकी अम्लीयता या क्षारीयता, इनमें उपस्थित खनिजों की सांद्रता, निलम्बित कणों की मात्रा, घुलित ऑक्सीजन का उपयोग करने की प्रवृत्ति विघटन योग्य कार्बनिक पदार्थों की मात्रा, कार्बनिक रसायनों की मात्रा, प्रदूषकों की विषाक्तता, रोग जनक कीटाणुओं की उपस्थिति, रासायनिक यौगिक जैसे नाइट्रोजन एवं फास्फोरस से युक्त रसायनों की उपस्थिति तथा अत्यधिक उच्च ताप का होना शामिल है।

पीटर ने इन प्रदूषकों की प्रकृति तथा इनके कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का भी अध्ययन किया। इसे हम निम्नानुसार श्रेणीबद्ध कर सकते हैं :-

 

क्रम

प्रदूषकों की प्रकृति या गुणधर्म

प्रभाव

1

अम्लीयता/क्षारीयता

जलस्रोत में सामान्य उदासीन पी.एच. को प्रभावित करते हैं, जिसके फलस्वरूप जल, पीने, कृषि या औद्योगिक उपयोग के योग्य नहीं रह जाता।

2

खनिजों की सांद्रता का बढ़ा होना

विभिन्न माइन्स या खदान क्षेत्र से निकलने वाले पानी में बड़ी मात्रा में खनिज घुले हुए होते हैं, इसके अतिरिक्त वे निलम्बित रूप में भी दिखाई देते हैं, जलस्रोतों में मिलकर ये उसे पीने, कृषि कार्य या औद्योगिक उपयोग के अयोग्य बना देते हैं।

3

निलम्बित कणों की मात्रा

जलीय जीवों के लिये हानिकारक

4

घुलित ऑक्सीजन का उपयोग

जलीय जीवों के लिये हानिकारक

5

विघटन योग्य कार्बनिक पदार्थों का बढ़ना

पानी में दुर्गन्ध, जलीय जीवों के लिये हानिकारक

6

कार्बनिक रसायनों की मात्रा

पेयजल एवं अन्य उपयोग के अयोग्य

7

प्रदूषकों की विषाक्तता

स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक

8

रोगाणुयुक्त

हैजा, पीलिया, डायरिया, हेपेटाइटिस आदि संक्रामक रोगों के होने का खतरा।

9

नाइट्रोजन या फास्फोरस युक्त

जलस्रोतों पर सुपोषण प्रभाव के कारण जलीय वनस्पतियों में अचानक वृद्धि होना, जिनके सड़ने से जलस्रोतों पर प्रदूषण का भार बढ़ जाता है।

10

अत्यधिक उच्च ताप का होना

जलीय जीवों एवं वनस्पतियों पर विपरीत प्रभाव

 

 

उद्योगों से निकलने वाले द्रव अपशिष्टों के अतिरिक्त विभिन्न गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाले रसायन या इनसे उत्पन्न होने वाले जल भी स्वयं में हानिकारक पदार्थों को समेटे होते हैं। ये घुलनशील या अघुलनशील पदार्थ जलस्रोतों में मिलकर उसे दूषित या पीने के उपयोग के अयोग्य बना देते हैं। इनमें से कुछ के बारे में हम संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
 

1. कीटनाशक या जैवनाशक :-


हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र में अनेक कीट ऐसे होते है; जो वनस्पतियों या वानस्पतिक उत्पादों पर आश्रित रहते हैं। कीटों के अतिरिक्त फसलों पर पनपने वाले परजीवी बैक्टीरिया या वायरस भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। कीट या अन्य परजीवी जब फसलों पर धावा करते हैं तो देखते ही देखते पूरी फसल को चट कर जाते हैं। इनसे फसलों को बचाने के लिये आवश्यकतानुरूप कीटनाशकों का छिड़काव फसलों पर किया जाता है।

कीटनाशकों के रूप में उपयोग में आने वाले ज्यादातर रसायन जटिल कार्बनिक यौगिक होते हैं। अधिकांश ऐसे यौगिक कार्बनिक पदार्थ कैंसरकारक होते हैं। इन रसायनों का छिड़काव करने पर ये पौधों की सतह पर अधिशोषित हो जाते हैं। वर्षा के दिनों में जब पौधों पर पानी पड़ता है तो ये रसायन पानी में घुलित रूप में आ जाते हैं, या पानी के साथ कोलायडल विलयन बना लेते हैं। दोनों ही अवस्था में ये पानी के स्रोत में निकलकर ये उसे दूषित कर हानिकारक बना देते हैं।

इसी प्रकार जल का भण्डारण आदि करते समय भी खाद्य सामग्री पर जैव विनाशक का उपयोग किया जाता है। ये जैव विनाशक भी जलस्रोतों को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।ज्यादातर पेस्टीसाइड या बायोसाइड्स क्लोरीनेटेड हाइड्रोकार्बन होते हैं। ये पेस्टीसाइड नॉन बायोडिग्रेडेबल या जैविक रूप से नष्ट न होने वाले रसायन होते हैं। इसीलिये इनके अत्यधिक दुष्प्रभाव जलस्रोतों और जलीय जीवन पर पड़ते हैं।

2. मल-जल अपवहन :-

देश की बढ़ती आबादी के साथ आवासीय कॉलोनियों का विस्तार भी हुआ है। इसी अनुपात में सीवेज अपशिष्ट की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी हुई है। आज भी हमारे देश में मल-जल के उपचार संतोषजनक व्यवस्था नहीं है। परिणाम-स्वरूप बड़ी मात्रा में ये दूषित जल सीधे ही नदियों में जा मिलता है। घरेलू दूषित जल में बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो नदियों के जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा को कम कर जलीय जीवों के लिये जीवन संकट खड़ा कर देते हैं।इसके अतिरिक्त ये रोगों के कारक भी होते हैं। अनेक संक्रामक रोग इनके कारण फैलते हैं।

3. औद्योगिक दूषित जल :-

विभिन्न उद्योगों से अलग-अलग प्रकृति का दूषित जल उत्पन्न होता है। ये प्राकृतिक जलस्रोतों पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। खाद्य उत्पाद आधारित उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अत्यधिक होती है, जिससे जलस्रोतों में घुलित ऑक्सीजन की सांद्रता को ये काफी कम कर देते हैं। इसी प्रकार डिस्टलरीज, पेपर मिल आदि से उत्पन्न दूषित जल भी इसी प्रकार का प्रभाव डालते हैं। रसायन उद्योगों, अभिरंजक तथा औषध निर्माण कारखानों से निकलने वाले दूषित जल की प्रकृति अत्यंत जटिल होती है और ये जलस्रोतों को अनेक प्रकार से दुष्प्रभावित करते हैं। अनेक औद्योगिक निस्रावों में भारी धातुओं की मात्रा अत्यधिक होती है। ये धातुएँ जलीय जीवों और वनस्पतियों पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। मानव जीवन पर भी इसका अनेक प्रकार से दुष्प्रभाव पड़ता है। ऐसे दूषित जल का उपयोग करने पर तो ये उन्हें सीधे प्रभावित करती ही हैं, साथ ही भारी धातु युक्त वनस्पतियों या इनसे प्रभावित मछलियों आदि के सेवन से भी ये धातुएँ मनुष्य के शरीर में पहुँच जाती हैं। इन भारी धातुओं के दीर्घगामी प्रभाव मनुष्य के शरीर में पड़ते हैं।

4. औद्योगिक एवं घरेलू ठोस अपशिष्ट एवं इनके अपहवन से :-

औद्योगिक या घरेलू ठोस अपशिष्ट को सीधे ही जलस्रोतों में विसर्जित किए जाने से तथा इसके अतिरिक्त इनके लिये बनाये गये निपटान स्थल से बहकर आने वाले जल (रन ऑफ वाटर) या इनसे उत्पन्न लीचेट के सीधे या वर्षाजल के साथ मिलकर जलस्रोतों में मिलने से भी जलस्रोतों का जल प्रदूषित होता है।

5. कृषि अपशिष्टों से :-

कृषि कार्य में सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल का उपयोग होता है। कृषि में उपयोग होने वाले पानी के उस भाग को छोड़कर जो कि वाष्पित हो जाता है या भूमि द्वारा सोख लिया जाता है, शेष बहकर पुनः जल धाराओं में मिल जाता है। इस तरह यह जल खेतों में डाली गई प्राकृतिक या रासायनिक खाद सहित कीटनाशकों, कार्बनिक पदार्थों, मृदा एवं इसके अवशेषों आदि को बहाकर जलस्रोतों में मिला देता है।

6. विकिरणयुक्त रसायनों से :-


नाभिकीय ऊर्जा केंद्रों, नाभिकीय परीक्षण केंद्रों, ऐसी प्रयोगशालाओं, जिनमें विकिरण सम्बन्धी प्रयोग किए जाते हैं, आदि से निकलने वाले दूषित जल में बड़ी मात्रा में रेडियो आइसोटोप्स होते हैं। ये जलस्रोतों में निकलकर उसे अत्यधिक हानिकारक बनाते हैं।

जल प्रदूषण

 

 

7. तेल अपशिष्ट एवं पेट्रोलियम पदार्थों से :-


सामुद्रिक गतिविधियों में समुद्री जहाजों से रिसाव, तेल एवं पेट्रोलियम उत्पादों के दोहन आदि के दौरान बड़ी मात्रा में समुद्री जल में तेल एवं पेट्रोलियम पदार्थों के अपशिष्ट मिलकर जलस्रोतों को प्रभावित करते हैं।

8. तापीय प्रदूषण :-


ताप विद्युत संयंत्रों से रासायनिक उद्योग एवं अन्य अनेक उद्योगों में जल का उपयोग शीतलन में किया जाता है। बहुधा प्रक्रिया के दौरान भी उच्च ताप युक्त दूषित जल उत्पन्न होता है। इस प्रकार के जल सामान्य जलस्रोतों में मिलकर उसका तापमान सामान्य से कई गुना बढ़ा देते हैं। फलस्वरूप जलीय जीवन एवं पारिस्थितिकीय तंत्र पर विपरीत असर पड़ता है।

9. प्लास्टिक एवं पॉलीथीन बैग्स से प्रदूषण :-


सामान्यतः प्लास्टिक बायोडिग्रेडेबल नहीं होता। इसके कुछ उत्पाद जैसे पॉलीस्टाईरीन आदि का विखंडन हो जाता है, लेकिन विखण्डन के उपरान्त ये निम्न किन्तु हानिकारक उत्पादों में बदल जाते हैं। पॉलीथीन के बैग्स भी जैविक रूप से नष्ट नहीं होते। जलस्रोतों में इन्हें डाले जाने पर इनमें जलीय जन्तुओं के फँसने से वे मर जाते हैं। इसी प्रकार जलीय वनस्पति भी इनमें फँसकर सड़ती हैं और पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं।

जल प्रदूषण के प्रभाव


जल को अमृत कहा गया है। जल के बिना हम सृष्टि की कल्पना नहीं कर सकते। जीवन के लिये वायु के बाद सबसे प्रमुख अवयव जल ही है। यही जल जो जीवन का अनिवार्य अंग है, जब इसमें हानिकारक, अवांछनीय या विषैले पदार्थ मिल जाते हैं तो ये विष बन जाता है।

हमारे देश में नदियों का दैनिक जीवन के साथ ही औद्योगिक दृष्टि से तो विशेष महत्त्व रहा ही है, ये सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती रही हैं। इन्हें मातृ-शक्ति का दर्जा देकर पूजा जाता है। पाँच जीवन दायिनी नदियों ने पंजाब की उपजाऊ भूमि को हरी-भरी फसलों की सौगात देकर वहाँ के किसानों की झोली भर दी। आज भी हम जलस्रोतों के रूप में इन नदियों पर ही सर्वाधिक निर्भर रहते हैं। नदियों के किनारे स्थित भूमि कृषि-कार्य हेतु सर्वथा उपयुक्त होती है। न सिर्फ सिंचाई वरन पेयजल की आपूर्ति के लिये भी हम नदियों पर ही निर्भर करते हैं। नदियों पर एनीकट्स बनाकर पानी को रोका जाना और शहर की पेयजल एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नदियों के जल का उपयोग आम बात है। विभिन्न औद्योगिक एवं मानवीय कारणों से नदियों के जल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। हमारे देश की विशाल एवं पवित्र गंगा, यमुना एवं नर्मदा जैसी नदियाँ भी जल प्रदूषण से अछूती नहीं हैं।

जल प्रदूषण का दुष्प्रभाव सीधे-सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। ये प्रभाव अल्पकालिक या दीर्घकालिक हो सकते हैं। कई बार जल प्रदूषण से स्वास्थ्य पर शनैः शनैः प्रभाव पड़ता है और काफी समय बीत जाने पर ज्ञात होता है कि स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव दूषित जल के कारण पड़ रहा है। लेकिन कई बार दूषित जल का उपयोग जानलेवा भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त दूषित जल के सम्पर्क में पेयजल के आने से अनेक ऐसे रोग हो जाते हैं; जिनसे जीवन पर संकट आ जाता है।

दूषित जल के दुष्प्रभावों पर चर्चा करने से पहले सन 1953 में जापान के मिनिमाता शहर में घटित घटना पर चर्चा करना उचित होगा। सन 1953 में जापान में मिनिमाता शहर में स्थित विनाइल क्लोराइड बनाने वाले एक रसायन उद्योग जिसमें निर्माण प्रक्रिया के रूप में मरक्यूरिक क्लोराइड एक उत्प्रेरक की तरह उपयोग में आता था, औद्योगिक निस्राव के साथ बड़ी मात्रा में निस्सारित किया गया। एक बड़ी झील में यह निस्राव एकत्र हुआ और मरकरी वहाँ पाई जाने वाली मछलियों के शरीर में पहुँच गई। इन दूषित मछलियों को खाने के कारण लगभग 43 लोग मृत्यु के शिकार हो गए। जाँच एवं परीक्षण से ज्ञात हुआ कि इन सभी के द्वारा यहाँ पाई जाने वाली मछलियों का सेवन किया गया था, जो स्वयं मरकरी को ग्रहण कर चुकी थीं। इस दुर्घटना ने दुनिया भर का ध्यान जल प्रदूषण के ऐसे दुष्प्रभावों की ओर खींचा जिनसे सीधे जल से नहीं वरन जलीय जीवों द्वारा प्रदूषित पानी के माध्यम से हानिकारक पदार्थों को ग्रहण करने और फिर इन्हें खाने पर इनसे होने वाले खतरनाक परिणामों की सम्भावना परिलक्षित होती है। जापान के शहर मिनिमाता में होने वाली इस दुर्घटना के कारण मरकरी विषाक्तता के इस रोग को मिनिमाता-डिसीज के नाम से भी जाना जाता है।

हमारे देश में केरल स्थित चालियार नदी में स्वर्ण निष्कर्षण एवं रेयान निर्माण इकाइयों से निकलने वाले मरकरीयुक्त दूषित जल के मिलने से चालियार नदी का जल प्रदूषित होने की घटना प्रकाश में आ चुकी है।

पारे या मरकरी के साथ ही अनेक भारी एवं विषैली धातुएँ अनेक औद्योगिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले दूषित जल में पाई जाती हैं, जिनका हानिकारक दुष्प्रभाव देखने में आता है।

यहाँ हम विभिन्न प्रदूषणकारी कारकों एवं उनके प्रभावों पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

1. दूषित जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों का प्रभाव :-


मल-जल या इसी प्रकार के दूषित जल जिसमें कार्बनिक पदार्थ बड़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं, स्वच्छ जलस्रोतों में मिलकर उनका बी.ओ.डी. भार बढ़ा देते हैं। अर्थात कार्बनिक पदार्थों जोकि जैविक रूप से विनष्ट होते हैं, के जलस्रोतों से मिलने से सूक्ष्म जीवाणु की क्रियाशीलता से जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही हानिकारक बैक्टीरिया के पेयजल में वृद्धि करने से डायरिया, हेपेटाइटिस, पीलिया आदि रोगों सहित अनेक चर्म रोगों के होने का खतरा भी बन जाता है।

हमारे देश में प्रतिवर्ष पेयजल के प्रदूषित होने से होने वाली इन बीमारियों के कारण अनेक मौतें होती हैं। विशेष कर वर्षाऋतु के समय जबकि रोगाणुओं के पनपने के लिये अनुकूल दशाएँ मिलती हैं। पेयजल से होने वाली बीमारियों का परिमाण भी बढ़ जाता है।स्वच्छ जल में फास्फेट एवं नाइट्रेट युक्त कार्बनिक यौगिकों के मिलने से जल में पोषक तत्वों की वृद्धि के कारण इनमें पाए जाने वाले शैवालों एवं अन्य जलीय पादपों की संख्या में तेजी से एवं अप्रत्याशित वृद्धि होती है। इस घटना को स्वपोषण या ‘यूट्रोफिकेशन’ कहा जाता है।

‘यूट्रोफिकेशन’ शब्द का जन्म ग्रीक शब्द यूट्रोफस से हुआ है। यूट्रोफिक शब्द का अर्थ है पोषित करने वाला। किसी जलस्रोत जैसे तालाब, झील आदि में कार्बनिक पदार्थ, नाइट्रेट एवं फास्फेट, के मिलने से उनमें इन पोषक तत्वों की सांद्रता बढ़ने के कारण जलीय वनस्पतियों की वृद्धि दर का बढ़ना ही, वास्तव में यूट्रोफिकेशन या स्वपोषण है। यद्यपि यूट्रोफिकेशन या स्वपोषण की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से भी होती है, जब वर्षा के जल के साथ विभिन्न कार्बनिक पदार्थ बहकर किसी जलस्रोत में मिलते हैं। लेकिन ऐसी प्राकृतिक स्वपोषण की घटना में अनेक वर्ष लग जाते हैं। लेकिन मानवीय गतिविधियों के कारण तीव्र स्वपोषण की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इसी आधार पर इसे दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।

(अ) प्राकृतिक स्वपोषण
(ब) उत्प्रेरित स्वपोषण

(अ) प्राकृतिक स्वपोषण :-


सामान्यतया किसी भी झील या तालाब में पोषक तत्वों की संख्या सीमित होती है जो उनके निर्माण, उस स्थान की मिट्टी, पानी की गुणवत्ता उसमें उपस्थित अपशिष्ट आदि पर निर्भर करती है। इस स्रोत के पारिस्थितिकीय तंत्र और जीवन चक्र पर इसमें उपस्थित पोषक तत्वों की मात्रा निर्भर करती है और इसी के द्वारा नियंत्रित होती है। उदाहरणार्थ झील में पाए जाने वाले शैवाल धीरे-धीरे झील में उपस्थित पोषक तत्वों से पोषित होते हैं और उसका उपयोग कर लेते हैं। इसी तरह जब शैवाल सड़कर नष्ट हो जाते हैं तो ये पोषक तत्व झील में पुनः उपलब्ध हो जाते हैं, ताकि अन्य शैवाल या जलीय वनस्पतियों के द्वारा इनका उपयोग किया जा सके। ये चक्र इसी प्रकार चलता रहता है और व्यवस्थित एवं संतुलित रहता है जब तक कि इस झील में किसी बाह्य स्रोत के द्वारा पोषक तत्वों का प्रवेश न हो।

(ब) उत्प्रेरित स्वपोषण :-


बाह्य माध्यम से इन पोषक तत्वों के जलस्रोत में प्रवेश के साथ ही उत्प्रेरित यूट्रोफिकेशन या स्वपोषण की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इस यूट्रोफिकेशन की प्रक्रिया के आरम्भ होने से स्वाभाविक रूप से जलस्रोत में पाए जाने वाली जलीय वनस्पति की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है और इसी प्रकार इनका विघटन या अपघटन भी काफी तीव्र गति से होने लगता है। लेकिन पोषक तत्वों का जलीय स्रोत में प्रवेश और उनका उपयोग होने के बाद जलीय वनस्पतियों का विष्टीकरण का चक्र जो पूर्व में सन्तुलित था अब वह सन्तुलन छिन्न-भिन्न हो जाता है, क्योंकि पोषक तत्वों का प्रवेश शैवाल आदि वनस्पतियों की वृद्धि को बढ़ा देता है। इनके नष्ट होने पर इनमें जमा पोषक तत्व पुनः उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार जलस्रोत में पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ती जाती है।

कार्बनिक पदार्थों की क्रमशः बढ़ती मात्रा धीरे-धीरे जलस्रोतों के तल पर एकत्र होने लगती है और इसी के कारण तलहटी पर जमा अपशिष्टों की मात्रा भी बढ़ने लगती है। जिससे धीरे-धीरे स्वैम्प, बैग्स, मार्श गैसें आदि का निर्माण होता है और अन्ततः जलस्रोत में उपस्थित पानी सड़ने लगता है।

जलस्रोत में पोषक तत्व या कार्बनिक पदार्थों के स्रोत भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।

1. घरेलू दूषित जल या मल-जल अपशिष्ट :-


तालाबों, झीलों आदि जलस्रोतों में स्वपोषण को बढ़ावा देने के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार इसे ही माना जा सकता है।

2. शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों से बहकर आया जल :-


विभिन्न स्थानों से बहकर आए जल में बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं। इनमें मृदा के साथ ही भूमिगत पड़े पत्तों की गाद, बगीचों, खेतों आदि में डाले गए उर्वरक, गोबर एवं अन्य जानवरों के अपशिष्ट आदि बहकर आते हैं।इसके अतिरिक्त वर्षा के जल के साथ वातावरण में उपस्थित नाइट्रेट, अमोनिया आदि भी बहकर जलस्रोतों में मिल जाते हैं।

3. औद्योगिक अपशिष्ट :-


कृषि एवं कृषि उत्पाद आधारित उद्योगों से बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थयुक्त दूषित जल उत्पन्न होता है, जिसे डिस्टलरीज, शक्कर कारखाने, राइस एवं पोहा मिलें, फूड प्रोसेसिंग या खाद्य प्रसंस्करण इकाइयाँ आदि। इनके दूषित जल में काफी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं। जिनमें फास्फेट एवं नाइट्रेट आदि बड़ी मात्रा में उपस्थित होते हैं।इन उद्योगों से उत्पन्न दूषित जल के जलस्रोतों में मिलने से भी ये स्व-पोषण की प्रक्रिया को बढ़ा देते हैं।

अतः कहना न होगा कि विभिन्न गतिविधियों के कारण यूट्रोफिकेशन की दर का बढ़ना उत्प्रेरित यूट्रोफिकेशन कहलाता है। ऐसा होने पर झील या तालाब में जलीय वनस्पतियों की वृद्धि दर अचानक बढ़ जाती है। यूट्रोफिकेशन जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुण-धर्मों पर प्रभाव डालता है। जलस्रोत में वनस्पतियों की तीव्र वृद्धि दर जलस्रोत के सामान्य संतुलन की स्थिति को भंग कर देती है। एक ओर तो जलस्रोत में शैवालीय वृद्धि मछलियों के उत्पादन को बढ़ाती है तो कभी-कभी कुछ शैवालों से स्रावित होने वाले या उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले हानिकारक रसायनों या स्रावों से मछलियाँ और जलीय जीव मारे भी जाते हैं। यूट्रोफिकेशन के फलस्वरूप अनियंत्रित रूप से जलीय वनस्पतियों की वृद्धि से झील का पानी गन्दा होने लगता है। जिससे उसका स्वरूप बिगड़ता जाता है और वो सौंदर्य की दृष्टि, पर्यटन अथवा नौकायन आदि के अयोग्य हो जाती है। वनस्पतियों के सड़ने के कारण पानी से दुर्गन्ध आने लगती है। प्रदूषण का स्तर बढ़ जाने से जल की गुणवत्ता खराब होने के साथ-साथ वह जलीय जीव-जन्तुओं के जीवन के लिये भी खतरनाक हो जाती है। धीरे-धीरे ताजे पानी की एक झील प्रदूषित और गन्दी झील में बदल जाती है।

इस प्रकार अति अनियंत्रित एवं अनियमित यूट्रोफिकेशन या स्वपोषण जलस्रोत पर अपना विपरीत असर डालते हैं। इन दुष्प्रभावों से झील को बचाने के लिये यूट्रोफिकेशन की प्रक्रिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है। इस हेतु कार्बनिक पदार्थयुक्त जल को झीलों में मिलने से रोकना, उनमें स्वच्छ एवं ताजे जल का प्रवाह, पोषक तत्वों एवं इनके जमाव को झील से हटाना, पोषक तत्वों से परिपूर्ण जल का अन्यत्र उपयोग कर कम पोषक तत्व युक्त पानी का मिलाना आदि शामिल हैं। इस प्रकार यूट्रोफिकेशन या स्वपोषण की दर को कम किया जा सकता है।

2. दूषित जल में उपस्थित भारी धातुओं का प्रभाव :-


विभिन्न धातु प्रसंस्करण इकाइयों, पेपर मिल, क्लोर-अल्कली इकाइयाँ, गैल्वेनाइजिंग या इलेक्ट्रोप्लेटिंग इकाइयाँ, धातु निष्कर्षण इकाइयाँ, बर्तन बनाने, बैटरी निर्माण या पुनर्चक्रण, रसायन उद्योग आदि अनेक औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले दूषित जल के साथ बड़ी मात्रा में धातुओं का उनके घुलनशील, अर्ध घुलनशील अघुलनशील रासायनिक यौगिकों या मिश्रण के रूप में निस्सारण होता है। निस्सारित जल के नालों के माध्यम से नदी-नालियों में मिलने से ये अशुद्धियाँ नदी जल में पहुँच जाती हैं। जहाँ से ये भोजन श्रृंखला के माध्यम से या सीधे ही पेयजल के माध्यम से हमारे शरीर में पहुँच जाती है। हमारे शरीर में पहुँच कर ये हमारे शरीर के विभिन्न हिस्सों पर विपरीत असर डालती हैं। कभी-कभी ये शरीर में एकत्र होकर धीरे-धीरे भी अपना प्रभाव दिखाती रहती हैं।

औद्योगिक अपशिष्टों से लीचेट के रूप में भारी धातुएँ उत्पन्न होती हैं, ये वर्षा के जल के साथ निकलकर जलस्रोतों को प्रदूषित करती हैं वहीं इनका अधिकतर दुष्प्रभाव भूमिगत जलस्रोतों पर देखा जाता है।

प्राकृतिक या विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण जलस्रोतों में भारी धातुओं के मिलने से जल पीने योग्य नहीं रह जाता।

विभिन्न धातुओं के मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव निम्नानुसार हैं :-

1. मरकरी या पारा :-


मरकरी या पारा एक अत्यंत विषैली धातु है, जिसका प्रभाव घातक एवं जानलेवा होता है। कार्बनिक एवं अकार्बनिक दोनों ही रूपों में मरकरी के यौगिक अत्यंत विषैले होते हैं। मरकरी, मिथाइल-मरकरी के रूप में खाद्य श्रृंखला में सर्वाधिक स्थाई रूप से रहने वाला प्रदूषणकारी तत्व है। मरकरी विषाक्तता के कारण जापान में एक ही साथ अनेक लोगों के मृत्यु के शिकार होने की घटना से हम परिचित हैं। देश के केरल प्रांत की चेलियार नदी में स्वर्ण निष्कर्षण एवं रेयान निर्माण इकाइयों से निकलने वाले मरकरीयुक्त दूषित जल के चेलियार नदी में मिलने से चेलियार नदी के पानी के वृहद पैमाने पर दूषित होने के सम्बन्ध में भी चर्चा की जा चुकी है। पेयजल में मरकरी की उपस्थिति मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र को क्षति पहुँचाती है।

2. कैडमियम :-


धातु निष्कर्षण इकाइयों जैसे जिंक निष्कर्षण इकाइयाँ, लेड-कैडमियम बैटरी उत्पादक या पुनर्चक्रण इकाइयों आदि से कैडमियम बड़ी मात्रा में प्रदूषक के रूप में उत्पन्न होता है। कैडमियम की पेयजल में उपस्थिति से उल्टी, दस्त एवं हृदय रोग हो सकते हैं।

3. क्रोमियम :-


क्रोमियमयुक्त विभिन्न रासायनिक यौगिकों जैसे पोटैशियम बाइक्रोमेट, पोटैशियम क्रोमेट आदि निर्माण इकाइयों से निकलने वाले दूषित जल तथा इसकी निर्माण प्रक्रिया से उत्पन्न होने वाले लीचेट, इन इकाइयों से बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले ठोस अपशिष्ट में क्रोमियम काफी मात्रा में उपस्थित होता है। ये अपने हैक्सावैलेंट रूप में जल में घुलनशील होते हैं फलस्वरूप इस अवस्था में ये अपने दुष्प्रभाव दिखाते हैं। पानी में घुलनशील अवस्थाओं में ये पीला रंग उत्पन्न करते हैं। क्रोमियम के लवण कैंसर कारक होते हैं।

4. आर्सेनिक :-


आर्सेनिक ट्रायवैलेंट अवस्था में घुलनशील रहकर अपनी विषाक्तता प्रदर्शित करता है। प्राकृतिक भूगर्भीय संरचनाओं से भूमिगत जल के आर्सेनिक से प्रदूषित होने की अनेक स्थानों में पाई गई है। अनेक औद्योगिक इकाइयों जहाँ दूषित जल के साथ आर्सेनिक मिला होता है, उनसे भी आर्सेनिक विषाक्तता होती है।

5. लेड :-


पश्चिम बंगाल के मिदनापुर सहित देश के अनेक स्थानों में भूमिगत जलस्रोतों में लेड की विषाक्तता पाई गई है। शरीर में लेड के प्रवेश करने पर ये लम्बे समय तक पाचन तंत्र में बना रहता है। एवं अनेक स्वास्थ्यगत परेशानियों को जन्म देता है।

 

जलस्रोतों में उपस्थित भारी धातुओं का स्वास्थ्य पर प्रभाव

क्रम

भारी धातुएँ

प्रभाव

1

मरकरी

मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र को क्षति

2

लेड

पाचन तंत्र एवं मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव

3

आर्सेनिक

चर्म रोग, हड्डियों में विकृति, मानसिक रोग

4

कैडमियम

मिचली, दस्त एवं हृदय रोग

5

क्रोमियम

कैंसर कारक

 

 

3. दूषित जल में उपस्थित पेस्टीसाईड्स का प्रभाव :-


बाग-बगीचों, खेतों आदि से बहकर आए रासायनिक कीटनाशक एवं उर्वरक जलस्रोतों में मिलकर उन्हें प्रदूषित कर देते हैं। ज्यादातर कीटनाशक जटिल कार्बनिक यौगिक होते हैं, जो वस्तुतः कैंसर कारक होते हैं। जलस्रोतों में रासायनिक कीटनाशकयुक्त दूषित जल के मिलने से जल की गुणवत्ता तो प्रभावित होती ही है साथ ही ये जलीय जीवों पर भी अपना हानिकारक प्रभाव डालते हैं। दूषित जल का उपयोग करने पर ये मानव स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुँचाते हैं। इनकी अत्यधिक मात्रा में उपस्थिति अनेक रोगों को जन्म देती है। वर्षाजल के बहाव के साथ आने वाले पानी में उर्वरक की उपस्थिति से स्वास्थ्य सम्बन्धी दुष्प्रभाव के अतिरिक्त उत्प्रेरित यूट्रोफिकेशन की स्थिति निर्मित होती है। जिसके सम्बन्ध में पूर्व में विस्तृत चर्चा की जा चुकी है।

4. औद्योगिक दूषित जल की अम्लीयता या क्षारीयता का कृषि भूमि पर दुष्प्रभाव :-


अनेक धात्विक इकाइयों जैसे गैल्वेनाइजिंग इकाइयाँ, एसिड प्लान्ट, फर्टिलाइजर प्लान्ट आदि से निकलने वाले दूषित जल की प्रकृति अम्लीय होती है। ये अम्लीय जल जब भूमि के सम्पर्क में आता है तो उसमें उपस्थित पोषक तत्व में अम्ल या अम्लीय जल में घुल जाते हैं और आवश्यक तत्वों को स्वयं में घोलकर भूमि को अनुपजाऊ या बंजर बना देते हैं। मृदा की सामान्य प्रकृति क्षारीय होती है। अत्यधिक अम्लीय दूषित जल के सम्पर्क में आने से मृदा की क्षारीयता कम हो जाती है। इसी प्रकार अनेक उद्योगों से निकलने वाला दूषित जल अत्यधिक क्षारीय प्रकृति का होता है, जैसे साबुन, कास्टिक सोडा।

जल प्रदूषण की समस्या हेतु निदान


जल प्रदूषण का मुख्य स्रोत औद्योगिक निस्राव एवं घरेलू स्रोतों से निस्सारित दूषित जल हैं।विभिन्न औद्योगिक गतिविधियों से बड़ी मात्रा में दूषित जल उत्पन्न होता है। इस दूषित जल में उपस्थित प्रदूषकों की प्रकृति और मात्रा औद्योगिक उत्पादन के अनुसार होती है। कुछ उद्योगों से उत्पन्न होने वाला दूषित जल अत्यंत प्रदूषणकारी प्रकृति का गन्दा या विषैली प्रकृति का होता है। जबकि कुछ उद्योगों का दूषित जल अधिक प्रदूषित नहीं होता। इसके अतिरिक्त शीतलन, बायलर ब्लोडाउन आदि से निकलने वाला जल अधिकतर सामान्य होता है। जिसे या तो किसी अन्य कार्य में लिया जा सकता है या पुनर्चक्रित किया जा सकता है।

जल प्रदूषण की स्थिति से बचने का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय यही है कि स्वच्छ जलस्रोतों में प्रदूषित जल को मिलने से रोका जाए। इस हेतु प्रत्येक स्रोत से निकलने वाले दूषित जल के समुचित उपचार के उपरान्त उसे किसी अन्य उपयोग में लाना अथवा प्रक्रिया में पुनर्चक्रित करना उचित होगा। निर्धारित मानदंडों के अनुरूप उपचारोपरान्त उपचारित जल को यदि आवश्यक हो तभी जलस्रोत में प्रवाहित किया जाना चाहिए।

इसके अतिरिक्त जलस्रोतों में होने वाली प्रदूषणकारी गतिविधियों जैसे नदियों/तालाबों पर शौच आदि क्रियाकलाप; घरेलू कचरा, मूर्तियाँ या पूजन सामग्री का विसर्जन, शवों को नदियों में बहाना आदि पर अंकुश लगाना चाहिए।नदियों में बहकर आने वाली गाद, वर्षा के सामान्य बहाव के द्वारा बाग-बगीचों खेतों में उपयोग किए जाने वाले रासायनिक फर्टिलाइजर एवं पेस्टीसाइड के बहकर आने से रोकने के उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

वर्तमान में वर्षा की अनियमित स्थिति, कम वर्षा आदि को देखते हुए उद्योगों को अपनी जल खपत पर नियंत्रण कर उत्पन्न दूषित जल का समुचित उपचार कर इसके सम्पूर्ण पुनर्चक्रण हेतु प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए। ताकि जलस्रोतों के अत्यधिक दोहन की स्थिति से बचा जा सके। इस हेतु उद्योगों को दूषित जल उपचार हेतु आधुनिकतम उपचार प्रक्रिया/संयंत्रों को प्रभावकारी ढंग से अपनाना चाहिए तथा यथा सम्भव शून्य निस्राव की स्थिति बनाना चाहिए। इस प्रकार घरेलू दूषित जल को उपचारित कर औद्योगिक उपयोग, वृक्षारोपण, सड़कों, उद्योगों में जल छिड़काव आदि में उपयोग किया जा सकता है।

प्राकृतिक जलस्रोतों विशेषकर नदियों को जल प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि इनमें दूषित जल के निस्सारण को रोका जाए।

जल-प्रदूषण के स्रोत


जल-प्रदूषण के स्रोत

जल-प्रदूषण के स्रोत

पानी की शुद्धता इसकी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक अवस्थाओं पर निर्भर करती है। जल प्रदूषण को इसकी सख्तता, अम्लीयता, क्षारीयता, पी0एच0, रंग, स्वाद, अपारदर्शिता, गंध, आक्सीजन मॉंग (रासायनिक एवं जैविक), रेडियो धर्मिता, घनत्व, तापमान आदि गुणों से पहचाना जा सकता है।

प्रदूषण के प्राथमिक अवयव

धनायन- जैसे कैल्सिमय, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज आदि। ऋणायन- जैसे क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई-कार्बोनेट, हाइड्राक्साइड, नाइट्रेट आदि। आयन रहित- आक्साइड, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसे (आक्सीजन, कार्बनडाई आक्साइड, नाईट्रोजन) आदि। सतही-जल की अपेक्षा भूजल अधिक शुद्ध होता है। क्षारीयता (कार्बोनेट, हाइड्राक्साइड), कैल्सिमय, तथा मैग्नीशियम के कारण भूजल में घुलनशील ठोस द्वारा जल की सख्तता बनी रहती है।

जल-प्रदूषण के कारक

समीपवर्ती क्षेत्रों से सिल्ट व सेडिमैंट का बहाव मानव एवं पशुओं द्वारा सीवेज व गंदगी का बहाव शहर की गंदगी, उद्योग-गंदगी एवं कृषि-गंदगी आदि द्वारा अधिकतम नदियों एवं झीलों का प्रदूषण होता है।

जल-प्रदूषण द्वारा उत्पन्न कठिनाइयॉं

घुलनशील आक्सीजन के स्तर में कमी, जिसके कारण जलीय-जीवन (मछली आदि) पर विपरीत असर पड़ता है। नैनीताल झील में घुलनशील आक्सीजन का स्तर 2.5 मिलि ग्राम प्रति लीटर के खतरनाक स्तर तक गिर चुका है। नाइट्रेट स्तर के 350 मि0ग्रा0/ली0 होने पर आरम्भिक यूट्रोफिकेशन स्थिति पैदा हो जाती है। नैनीताल झील में नाइट्रेट स्तर 250 मि0ग्रा0/ली0 होने से अग्रिम-यूट्रोफिकेशन की स्थिति आ चुकी है। झील की तली में विषैले पदार्थ जमा हो जाते हैं। कार्बनिक पदार्थ के कारण पेयजल की गुणवत्ता कम हो जाती है तथा विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवी रोगाणुओं के कारण मानव व पशुओं में जलीय-बीमारियॉं लग जाती है। मिट्टी के सूक्ष्म कणों (सिल्ट, क्ले) तथा अन्य कणों के निलम्बन द्वारा सूर्य की रोशनी पूर्णतः जल में प्रवेश नहीं करती, जिसके कारण जल में पौधों द्वारा खाना बनाने का कार्य (फोटोसिंथेसिस) कम हो जाता है।

जल-प्रदूषण के स्रोत

बिन्दु स्रोत - जिनका मुख्य स्रोत निश्चित होता है, जैसे अस्पताल, प्रयोगशालाएँ, बाजार, शहरी-गंदगी, होटल, छात्रावास आदि।

अ-बिन्दु स्रोत - जिनका मुख्य स्रोत निश्चित नहीं होता है, जैसे कृष्यभूमि से भूक्षरण, पर्वतीय-भूक्षरण, मृत-पशु, खाद, दवाएँ, कीटनाशक आदि।

जल प्रदूषण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पुस्तक भूमिका : जल और प्रदूषण

2

जल प्रदूषण : कारण, प्रभाव एवं निदान

3

औद्योगिक गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण

4

मानवीय गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण

5

भू-जल प्रदूषण

6

सामुद्रिक प्रदूषण

7

दूषित जल उपचार संयंत्र

8

परिशिष्ट : भारत की पर्यावरण नीतियाँ और कानून (India's Environmental Policies and Laws in Hindi)

9

परिशिष्ट : जल (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1974 (Water (Pollution Prevention and Control) Act, 1974 in Hindi)

 

 

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