जल प्रबंधन एवं जबलपुर के तालों का समीक्षात्मक अध्ययन (Study of water management and Ponds of Jabalpur)

जबलपुर के ताल,PC-Wikipedia
जबलपुर के ताल,PC-Wikipedia

मानव को जीवित रहने के लिए वायु के बाद दूसरा स्थान जल का ही है। इसके अतिरिक्त, कोई भी आर्थिक कार्य ऐसा नहीं है, जो जल के बिना संभव हो। वस्तुतः जल के बिना जीवन ही संभव नहीं है। सभ्यता के आदिकाल से ही मानव जल का उपयोग अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता रहा है। यह आवश्यकता प्रगति के साथ-साथ तेजी से बढ़ती जा रही है। आधुनिक समय में तकनीकी विकास के कारण जल संसाधनों का प्रचुर प्रयोग सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, मत्स्य पालन, जल परिवहन तथा उद्योग आदि के लिए किया जा रहा है, और जल की खपत मानव की प्रगतिशीलता का द्योतक बन गयी है। भूमिगत जल स्तर नीचे जाने से जल में लवणीयता भी बढ़ गयी है, क्योंकि भूमि के नीचे का मीठा पानी कम हो जाने से उसमें लवणयुक्त पानी मिलता जा रहा है। तटीय क्षेत्रों में भूमिगत जल स्रोतों में मीठा पानी कम हो जाने से समुद्र का खारा पानी रिसकर इन स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है।

जल के बिना जीवन असंभव है। आज संपूर्ण विश्व में जल प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। अगला विश्वयुद्ध भी जल के लिए हो सकता है, क्योंकि स्वच्छ जल के स्रोतों का निरंतर अभाव होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि मनुष्य ने जल के उपयोग में तो रूचि दिखाई, पर उसके अपव्यय व जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। आज संपूर्ण विश्व जल प्रबंधन के विषय में न सिर्फ सकारात्मक सोच विकसित कर रहा है, बल्कि जल प्रबंधन के लिए आधारभूत संरचनाएँ भी विकसित करने के लिए तत्पर है। 

"पानी दौड़ने की अपेक्षा चले' यह जल ग्रहण का सिद्धांत है 'संपूर्ण जल प्रबंधन का सिद्धांत है कि पानी न दौड़े न चले बल्कि रेंगता हुआ जमीन की गहराइयों में रूक जाए, जहां पर वह सूरज की रोशनी से भी न उड़ पाए। इस प्रकार जल का जमीन में भंडारण करके हम कुओं, तालाबों, नदी नालों से पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ जल प्राप्त कर सकते हैं। बिना आण्विक ऊर्जा के भी हम प्रगति कर सकते हैं, लेकिन जीवन को जल के बिना चलाना असंभव है। पेयजल आपूर्ति तथा स्वच्छता को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा गया है।"

भारत में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है और प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में निरंतर कमी होती जा रही है। राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद द्वारा 01 अप्रैल, 2002 को आम सहमति से राष्ट्रीय जलनीति, 2002 को स्वीकृति प्रदान की गई। इसमें पर्याप्त संस्थागत प्रबंधन के जरिए जल के पर्यावरण पक्ष और उसकी मात्रा एवं गुणवत्ता के पहलुओं का समन्वय किया गया है। इस नीति में जल संबंधी परियोजनाओं में भागीदारी, दृष्टिकोण एवं निवेश करने वालों का ध्यान रखने पर जोर दिया गया है।

मानव को जीवित रहने के लिए वायु के बाद दूसरा स्थान जल का ही। इसके अतिरिक्त कोई भी आर्थिक कार्य ऐसा नहीं है, जो जल के बिना संभव हो। वस्तुतः जल के बिना जीवन ही संभव नहीं है। सभ्यता के आदिकाल से ही मानव जल का उपयोग अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता रहा है। यह आवश्यकता प्रगति के साथ-साथ तेजी से बढ़ती जा रही है। आधुनिक समय में तकनीकी विकास के कारण जल संसाधनों का प्रचुर प्रयोग सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, मत्स्य पालन, जल परिवहन तथा उद्योग आदि के लिए किया जा रहा है, और जल की खपत मानव की प्रगतिशीलता का द्योतक बन गयी है। भूमिगत जल स्तर नीचे जाने से जल में लवणीयता भी बढ़ गयी है, क्योंकि भूमि के नीचे का मीठा पानी कम हो जाने से उसमें लवणयुक्त पानी मिलता जा रहा है। तटीय क्षेत्रों में भूमिगत जल स्रोतों में मीठा पानी कम हो जाने से समुद्र का खारा पानी रिसकर इन स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है।

दिल्ली, गाजियाबाद, फरीदाबाद में यमुना तथा हिंडन नदी का पानी औद्योगिक प्रदूषण से खराब हो गया है। इन क्षेत्रों में जल पुनर्भरण में यही प्रदूषित जल भूमि के नीचे जा रहा है, जिससे नलकूपों तथा पंपिंग सेटों से निकलने वाला पानी भी प्रदूषित ही है। आवश्यकता इस बात की भी है कि नदियों के पानी के उपभोग के मामले में राज्यों को अपने-अपने हितों को त्यागकर समग्र राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे. अब्दुल कलाम ने 56वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा था “हमारे - देश के एक भाग में बाढ़ और अन्य भागों द्वारा सूखे का सामना एक विरोधाभास है। सूखा बाढ़ का यह दुष्प्रपंच पुनरार्वतक हो गया है। इससे निपटने के लिए एक 'जल मिशन' समय की मांग है।" जल मिशन खेतों, गांवों, शहरों और उद्योगों को पूरे वर्ष पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करेगा और इसके साथ ही पर्यावरणीय शुद्धता को भी बनाए रखा जा सकेगा।

दिनांक 09.02.2014 को मध्यप्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री शिवराज चौहान ने एक महान कार्य किया है- नर्मदा को क्षिप्रा नदी में मिलाकर, जिससे मालवा के किसानों की भावी पीढियां फसलों का भरपूर लाभ लें सकेगी, साथ ही पीने के पानी की भी पर्याप्त व्यवस्था होगी। अभी कई नदियों को मिलाने की योजना माननीय मुख्यमंत्री जी ने की है। ऐसा देश के सभी राज्यों में हो सके, तो जल संकट से छुटकारा पाया जा सकता है। भारत में 80 प्रतिशत बीमारियों का कारण प्रदूषित जल है। जल में उपस्थित विभिन्न पदार्थ तथा सूक्ष्म जीव जैसे शैवाल इत्यादि जल में रंगत उत्पन्न करते हैं। नदियों किनारे बने विद्युत उत्पादन संयंत्र उन नदियों के पानी का ताप निरंतर बढ़ा रहे हैं। गांव में शुद्ध पेयजल की समस्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। लगभग एक लाख गाँवों में पेय जल की उचित व्यवस्था नहीं है। पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने से गाँवों में अपंगता, यकृत रोग, उदर रोगों की वृद्धि हो रही है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि हर तीन में से एक बच्चे की मृत्यु अशुद्ध पानी पीने से होती है। जल गुणवत्ता के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय जलीय संसाधनों में कार्बनिक और जीवाण्विक प्रदूषण अधिक प्रभावी है।

भारत में औसत वार्षिक वर्षा 114 सेमी. होती है, बावजूद इसके देश के लगभग सवा दो लाख गाँव जल समस्या से ग्रस्त हैं। इन गाँवों में सामान्यतः सतही जल उपलब्ध नहीं है। और कहीं है भी तो वह उपयोग के लायक नहीं है। भारत में एक ओर जहाँ चेरापूंजी में 1187 सेमी. वर्षा होती है। वहीं राजस्थान के कुछ हिस्सों में मात्र 10 सेमी. या इससे भी कम वर्षा होती है। वर्षा के असमान वितरण से देश का 16 प्रतिशत भाग नियमित रूप से जलाभाव की चपेट में रहता है। वहाँ के सीमित जल संसाधनों पर दिनों दिन दबाव बढ़ता जा रहा है। एक आंकलन के अनुसार गंगोत्री हिमनद 18 मी. प्रतिवर्ष की रफ्तार से पीछे खिसक रही है। उत्तराखण्ड स्थित पर्वतीय भाग के लगभग 50 प्रतिशत जल के स्रोत सूख गए हैं, जो कि खतरनाक स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अत्यधिक भू-जल के दोहन के कारण भू-जल का स्तर काफी नीचे चला गया है।

जल संकट के लिए जल प्रदूषण भी समान रूप से जिम्मेदार है। इससे सतही और भूमिगत जल स्रोत दोनों ही प्रभावित हैं। कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों और रासायनिक खादों के प्रयोग ने भूमिगत और सतही दोनों जल स्रोतों को प्रभावित किया है, औद्योगिक एवं घरेलू कचरे के साथ ही बाहरी अपशिष्टों से नदियों, झीलों, तालाबों, नालों के साथ-साथ समुद्री जल भी अत्यधिक प्रदूषित होने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को जल की गुणवत्ता और उपलब्धता के मानकों के आधार पर 120 वाँ स्थान दिया है। हमारे देश के 38 प्रतिशत शहरी व 82 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में जल को शुद्ध करने की व्यवस्था तक नहीं है। राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद् के अनुमान के आधार पर भारत में जल की कुल आवश्यकता वर्ष 2025 तक लगभग 2400 अरब घनमीटर होगी। वहीं देश में केवल सिंचाई कार्य के लिए वर्ष 2050 तक लगभग 2075 अरब घनमीटर जल की आवश्यकता होगी। अब सहजता से आने वाले समय के संदर्भ में अनुमान लगाया जा सकता है, क्योंकि उपलब्ध जल संसाधन की मात्रा सीमित है। निरंतर बढ़ती जनसंख्या, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगिक कचरों, पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण न केवल जल स्रोत नष्ट हो रहे हैं, बल्कि वर्षा में भी कमी आ रही है।

अतः जल संबंधी समस्याओं से निपटने एवं संबंधित नीतियों, कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए देश में व्यापक रूप से जागरूकता कार्यक्रम चलाने के उद्देश्य से वर्ष 2007 को जल वर्ष घोषित किया गया था। इतना सब होते हुए भी हम आज भी जल के प्रति संवेदनशील नहीं हुए हैं। स्वच्छ जल का आधे से अधिक भाग अनुचित तथा अव्यवस्थित प्रबंधन के कारण नष्ट हो जाता है।

इस समस्या से हम दो प्रकार से निपट सकते हैं:

एक तो जल को प्रदूषित होने से बचाने के उपायों द्वारा तथा दूसरा जल संरक्षण द्वारा।

जहां तक जल संरक्षण का प्रश्न है यह एक ऐसा विषय है, जिस पर सरकार के साथ-साथ स्थानीय निकायों तथा जन-समुदाय को भागीदारी निभानी होगी। स्थान-स्थान पर गाँव-गाँव में लघु तालाबों तथा बावड़ियों का निर्माण स्थानीय जनता के सहयोग से ही संभव है। एक ओर पेयजल संकट उत्पन्न हो गया है तो दूसरी ओर जल प्रदूषण से भी संकट उत्पन्न हो रहा है। दिन-प्रतिदिन जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण के कारण भी पेयजल संकट उत्पन्न हो गया है। शुद्ध पेयजल प्राप्त करना कठिन हो गया है। 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में ही लगभग 55 से 65 प्रतिशत तक जनसंख्या किसी न किसी रूप में जल संकट का सामना कर रही है, तथा संसार के 75 से 80 राष्ट्रों में जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। पारिस्थितिकीय संतुलन को स्थापित करने में जल की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। जल संतुलन को बनाए रखने के लिए जल संरक्षण की विधियों को अपनाया जाना आवश्यक है।

वर्षा से मिलने वाले जल में से 47% पानी नदियों में चला जाता है, जो भंडारण संरक्षण के अभाव में समुद्र में जाकर बेकार हो जाता है, इसे बचाया जा सकता है। इसके लिए वर्षा जल का संरक्षण और उसका उचित प्रबंधन ही एकमात्र रास्ता है। यह तभी संभव है, जब तालाबों के निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। पुराने तालाबों को पुनर्जीवित किया जाये । खेतों में सिंचाई हेतु पक्की नालियों का निर्माण किया जाये या पीवीसी पाइप का उपयोग किया जाये। 

बहाव क्षेत्र में बाँध बनाकर पानी को इकट्ठा किया जाये, ताकि वह समुद्र में बेकार न जा सके। बोरिंग ट्यूबवेल पर नियंत्रण लगाया जाये। यह जरूरी है कि पानी की उपलब्धता को शासन व समाज समझे। यह आमजन की जागरूकता- सहभागिता से ही संभव है, अन्यथा नहीं। भू-जल संरक्षण की खातिर देशव्यापी अभियान चलाया जाना अति आवश्यक है, ताकि भूजल का समुचित नियमन हो सके। इस चुनौती का सामना अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। यह आम आदमी के सहयोग से ही होगा।

जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने हेतु घरों से निकलने वाले वाहित जल व मलिन जल को संयंत्रों में पूर्ण उपचार करके ही नदी या समुद्र में छोड़ना, जलाशयों के आस-पास गंदगी, कूड़े-करकट डालने पर रोक, खेती में विषैले रासायनिक पदार्थों के अनावश्यक प्रयोग पर रोक, रासायनिक उद्योगों के अपशिष्ट जल व पदार्थों को जल स्रोतों में डालने पर रोक लगानी होगी। यदि विश्व में जल प्रदूषण की यही दर कायम रही तो आने वाले युग में पीने का पानी व खेतों में दिया जाने वाला पानी विषाक्त एवं प्रदूषित होगा।

फलतः उत्पादन कम होगा, भुखमरी, बीमारियां, महामारियाँ फैलेंगी। तथा जिस समुद्र व नदियों से अमृत एवं रत्न निकालते थे, वहां से विष निकलेगा।

भारत में जल प्राप्ति के स्रोत धरातलीय जलस्रोत एवं भूमिगत स्रोत हैं। पृथ्वी की सतह पर पाये जाने वाले जलस्रोतों में, नदियों, तलाबों, धाराओं, जलाशयों, नहरों, कुंडीकाओं को शामिल किया जाता है। जब वर्षा जल अलग-अलग सतही जलस्रोतों के द्वारा निवेशन क्रिया प्रणाली के द्वारा शैल-संधियों और संरध्रों से पृथ्वी के आंतरिक भागों में पहुंचता है तो उसे भूमिगत जल कहा जाता है। जल का उचित संरक्षण होना चाहिए, जिससे घटते जल स्तर को रोका जा सके, पर्यावरण संतुलन किया जा सके तथा कृषि उत्पादन किया जा सके। लघु जलस्रोत हमारी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। तालाबों व कुओं का निर्माण करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। 

सामान्यतः तालाब दो प्रकार के होते हैं-

  • प्राकृतिक तालाब
  •  कृत्रिम तालाब।

प्रकृति द्वारा निर्मित छोटे-बड़े गड्ढों को प्राकृतिक तालाब के अंतर्गत माना गया है। सामान्यतः इनका निर्माण जमीन के निचले हिस्से में होता है और इनमें आस-पास के भू-भाग का वर्षाजल एकत्र हो जाता है। जमीन को खोदकर वर्षा के जल को एकत्र करना कृत्रिम तालाब कहलाता है। 

यह लघु जल स्रोत केवल पानी को संचय करने के लिए ही नहीं होते, अपितु ये वनस्पति व जैविक प्रक्रियाओं के विशाल भंडार होते हैं, साथ ही तालाब के जल का उपयोग कृषि, बागवानी, उद्योग धन्धे, पेयजल की आपूर्ति आदि में किया जाता है। 

आधुनिक जीवन शैली, विकास के आधुनिक मॉडल तथा बढ़ती जनसंख्या के कारण ही भू-गर्भ जल का गहराता जल संकट है। 50 वर्ष पहले तक देश में आम आदमी की जीवन शैली परम्परागत थी। व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित थीं, देश में पर्याप्त जंगल, तालाब और प्रकृति प्रदत्त झीलें व जल भंडार क्षेत्र थे, वर्षा जल सीधे नदियों में न पहुँच कर धीरे-धीरे पहुँचता था। 

इस प्रक्रिया में जल रिस-रिसकर जाता था, जो रिसकर जमीन के अन्दर पहुँच जाता था, जिससे तालाबों, कुओं में साल भर पानी भरा रहता था और इनके सूखने की शिकायतें भी नहीं मिलती थीं। भारत में संसाधनों के प्रबंध का इतिहास बहुत पुराना सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई के दौरान विशाल जलाशयों के अवशेष प्राप्त हुए थे। वेदों व पुराणों में जल के संरक्षण, जल संचयन एवं जलविज्ञान से सम्बन्धित विषयों की जानकारी दी गई है। पुराण के अनुसार- "बावड़ी, पोखर, तालाब आदि से पांच मुट्ठी मिट्टी बाहर निकाले बिना उसमें शुभ नहीं है। “भारतीय राजवंशों ने अपने शासन काल में प्रजा की खुशहाली के लिए कुंडो (कुओं ), तालाबों, स्नानागारों, बांधों व नहरों का निर्माण कराया था, जिससे वर्षा के जल का बेहतर उपयोग हो सके।

11वीं शताब्दी में भोपाल के पास महाराजा भोज द्वारा निर्माण कराया गया तालाब लगभग 65,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ था।राजस्थान के जल संचयन की विधियाँ, अपनी अलग पहचान रखती हैं। आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में सिंचाई, तालाबों से होती है। 

नागालैंड में 'जीवो' नामक प्रणाली प्रचलित है, इसमें बरसाती पानी को तालाब में जमाकर सिंचाई की जाती है। गुजरात के कच्छ में 'विरड़ा' प्रणाली प्रचलित है। इसके अंतर्गत प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली झीलों में एक छिछला कुआं बनाया जाता है, जो विरड़ा कहलाता है। विरड़ा तकनीक की मदद से क्षेत्र के लोग साल भर की जरूरत के लायक वर्षा का जल संरक्षित रखते हैं। लघुजल स्रोत पर्यावरण संतुलन में बहुत सहायक होते हैं, इन स्रोतों के किनारे पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों तथा कीड़े-मकोड़ों के बीच अंतर-संबंध बना रहता है, वह जैव विविधता के विकास में सहायक होने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भूमिगत जलस्रोत, जल के संचयन के बहुत अच्छे साधन हैं।

वर्तमान में पर्यावरण असंतुलन के मुख्य कारण ग्लोबल वॉर्मिंग, हिम शिखरों का पिघलना, अल्पवर्षा, प्राकृतिक आपदाएं, लघु जल स्रोतों की कमी आदि हैं, क्योंकि वर्तमान में वर्षा जल इन स्रोतों में संरक्षित न होकर सीधे नदियों से समुद्र में चला जाता है, और पर्यावरण असंतुलन की समस्या बनी रहती है।

यह सत्य है कि भोजन जुटाने से अधिक महत्वपूर्ण दिनचर्या, पर्याप्त शुद्ध और स्वच्छ जल की व्यवस्था करने की है। जल की गुणवत्ता का नाश कर कोई समाज सुखी नहीं रह सकता। फलतः जल को प्रदूषित करने वाले कारणों पर नियंत्रण आवश्यक है। इसके लिए अनेक स्तर पर प्रयास वांछनीय हैं। सरकार व समाज की भागीदारी से ही इस समस्या से निपटा जा सकता है। सरकार कानून बना सकती है, लेकिन पालन समाज के सदस्य करते हैं। अतः विश्व के अनेक देशों में जल प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। भारत में जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए केन्द्रीय जल नियंत्रण अधिनियम लागू किया गया है, जिसके अंतर्गत प्रदूषित जल को बिना साफ किए नदी या झील में बहाना अपराध है। इसमें जल प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1974, नदी बोर्ड एक्ट, 1956, मर्चेंट नेवी एक्ट, 1974 और वॉटर प्रिवेंशन एण्ड कण्ट्रोल ऑफ एफ्लूएशन एक्ट 1977 विशेष उल्लेखनीय हैं। अब कारखानों और नगरीय प्रशासन को बाध्य किया जा रहा है कि वे अपने कचरे और गन्दे जल को उचित संयंत्रों की मदद से साफ करें और तब शुद्ध जल का बहाव नदी या झील में करें।

'जल संकट के लिए जल प्रदूषण भी समान रूप से जिम्मेदार है। इससे सतही और भूमिगत जलस्रोत दोनों ही प्रभावित हैं। कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों और रासायनिक खादों के प्रयोग ने भूमिगत और सतही दोनों जल क्षेत्रों को प्रभावित किया है, औद्योगिक एवं घरेलू कचरे के साथ ही बाहरी अपशिष्टों से नदियों, झीलों, तालाबों, नालों के साथ-साथ समुद्री जल भी अत्यधिक प्रदूषित होने लगा है।'

1866 में प्रकाशित जबलपुर के नक्शे में 52 तालाबों का शहर में स्थित होने का उल्लेख मिलता है। जबलपुर एक प्राचीन नगर है, इसका उत्कर्ष और विकास गोंड राजाओं के समय में हुआ। उन्होंने गढ़ा कटंगा को अपनी राजधानी बनाया था। गोंड राजाओं की तालाब और बावली बनवाने में रूचि थी। उनके समय में अनगिनत तालाब और बावलियाँ खुदवाई गईं।

जनश्रुति के अनुसार जबलपुर में 52 ताल-तलैया थीं। ये निम्नानुसार हैं-  

  • हनुमान ताल - इसी नाम के मोहल्ले में यह तालाब स्थित है। इसका वर्तमान क्षेत्रफल लगभग 17 एकड़ है।
  • फूटाताल  - इसी नाम के मोहल्ले में है जो सूख चुका है।
  • भँवरताल - इसे भरकर नगर निगम द्वारा इस पर सुंदर पार्क बना दिया गया है।
  • महानद्दा - यह अब कचरे से भरा दल-दल मात्र रह गया है। यहाँ मछली बाजार लगता है।
  • रानीताल - नगर के इस विशालकाय तालाब को गोंड रानी दुर्गावती द्वारा बनवाया गया था। यहाँ अब स्टेडियम बन गया है।
  • संग्राम सागर - इसे गोंड राजा संग्राम शाह द्वारा बनवाया गया था। वे गोंड राजाओं में सबसे प्रतापी राजा हुए भैरव मंदिर ( बाजनामठ), तालाब के मध्य स्थित आमरवास तथा हस्तिशाला उल्लेखनीय निर्माण हैं।
  • चेरीताल - इसे रानी दुर्गावती की परिचारिका (दासी) रामचेरी के नाम से बनवाया गया। जिससे इसका नाम चेरीताल पड़ा।
  • गुलौआ - यह तालाब गढ़ा में गौतम जी की मढ़िया के पास है।
  • सूपाताल - यह मेडीकल मार्ग पर स्थित है।
  • गंगा सागर - इसे गोंड नरेश हृदयशाह द्वारा बनवाया गया था। उन्होंने राज्य की कृषि की उन्नति के लिए बाहर से अनेक परिश्रमी कृषकों को बुलाकर अपने राज्य में बसाया।
  • कोलाताल - देवताल के पीछे की पहाड़ियों के मध्य स्थित है।
  • देवताल - गोंड इतिहास में इसका नाम विष्णुताल है। राधा वल्लभ संप्रदाय के भावसिन्धु में भी इसका वर्णन मिलता है। तालाब के चारों ओर अनेक मंदिर बने हुए हैं।
  • ठाकुरताल - यह रानी दुर्गावती के अमात्य दरभंगा निवासी महेश ठाकुर के नाम पर है। दरभंगा का राजघराना इन्हीं की संतान है।
  • तिरहुतिया ताल - यह तालाब महेश ठाकुर और उनके भाई दामोदर ठाकुर का स्मरण दिलाता है। ये दोनों भाई तिरहुत जिले (उत्तर बिहार) से यहाँ आए थे। गढ़ा में तिरहुलिया ताल और महेशपुर गाँव महेश ठाकुर की याद में है।
  • गुड़हाताल - यह गंगासागर के पास स्थित है।
  • सुरजला - गढ़ा जाने वाला मार्ग जो शाहीनाका होकर जाता है। उसके अंतिम छोर पर स्थित है।
  • अवस्थी ताल - यह हितकारिणी सभा के सदस्य स्वर्गीय सरजू प्रसाद अवस्थी के परिवार से संबद्ध है।
  • भानतलैया - यह घमापुर आधारताल मुख्य मार्ग से बड़ी खेरमाई के पीछे स्थित है।
  • बेनीसिंह की तलैया - यह तलैया बेनीसिंह के नाम पर है। अंग्रेजी राज्य से पूर्व इस क्षेत्र में उसका आतंक था।
  • श्रीनाथ की तलैया - यह शहर के बीच स्थित है, वर्तमान में फूल मंडी है।
  • जूड़ी तलैया - यहाँ अब घर बस गए हैं।
  • अलफखाँ (वर्तमान में तिलक भूमि की तलैया ) - 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह क्षेत्र अलफखाँ के आतंक के साये में साँसें ले रहा था। बाल गंगाधर तिलक के आगमन पर इसी तलैया पर उनकी आम सभा हुई थी। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की घटना की स्मृति में इसका नाम तिलक भूमि तलैया रख दिया गया, यह शहर के मध्य स्थित है।
  • सेवाराम की तलैया - सेवाराम, राजा गोकुलदास के दादा थे। जैसलमेर (राजस्थान) से आने के पश्चात् अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ उन्होंने यहीं से आरंभ की थी, उन्हीं के नाम पर इसे सेवाराम की तलैया कहा जाता है।
  • कदम तलैया - यह गुरंदी बाजार के पास स्थित थी, जिसमें सन् 1935-36 के आसपास जहूर थियेटर बना था।
  • मुड़चरहाई - यह कस्तूरबा प्राइमरी स्कूल गोल बाजार के पीछे थी।
  • माढ़ोताल - आईटीआई. और मनमोहन नगर दमोह नाका के पास इसी नाम से गाँव में यह तालाब स्थित है।
  • अधारताल - रानी दुर्गावती के मंत्री अधारसिंह कायस्थ की स्मृति में बनवाया गया था। इन्होंने नर्रई युद्ध में भाग लिया।
  • साँई तलैया - गढ़ा में रेलवे केबिन नं. 2 के समीप स्थित है
  • नौआ तलैया - गौतम जी की मढ़िया से गढ़ा बाजार को जाने वाले मार्ग पर बाएँ हाथ की ओर स्थित है।
  • सूरज तलैया - त्रिपुरी चौक के करीब स्थित है।
  • फूलहारी तलैया - शाहीनाका से आगे गढ़ा रोड पर दाहिने हाथ की तरफ भीतर की ओर स्थित है।
  • जिन्दल तलैया- गढ़ा के पुराने थाने से श्री कृष्ण मंदिर जाने वाले मार्ग पर स्थित है।
  • मछरहाई- शाहीनाका के समीप स्थित कन्या शाला से लगी हुई है।
  • बघा - गढ़ा हितकारिणी स्कूल के पीछे स्थित है।
  • बसा गढ़ा में भूलन रेलवे चौकी के पास है।
  • बालसागर- जबलपुर मेडीकल विश्वविद्यालय के क्षेत्र में अस्पताल के पीछे स्थित है। 
  • बालसागर  - यह ग्राम तेवर में है।
  • हिनौता ताल - भेड़ाघाट मार्ग पर आमाहिनौता ग्राम में है ।
  • गणेश ताल- मेडीकल विश्वविद्यालय के थोड़ा आगे स्थित है।
  • चौकीताल - लम्हेटा घाट सड़क पर स्थित है।
  • हाथीताल- यह ताल नैरोगेज रेल लाइन के समीप स्थित था। आजकल इसमें कालोनियों का निर्माण कर दिया गया है।
  • सूखाताल एनटीपीसी. के समीप जबलपुर पाटन मार्ग पर सूखाग्राम में स्थित है। इसके चारों ओर पक्के तटबंध बने हैं।
  • महाराज सागर - देवताल के समीप रजनीश आश्रम से लगा हुआ है।
  • कूड़नताल - भेड़ाघाट सड़क पर कूड़न गाँव में स्थित है।
  • अमखेरा ताल - अधारताल के पीछे अमखेरा गाँव में स्थित है।
  • बाबाताल - हाथीताल मुक्तिधाम के समीप हुआ करता था। कालोनियों के निर्माण ने इसका अस्तित्व मिटा दिया।
  • ककरैया तलैया महानद्दा से पहले गोरखपुर छोटी लाइन से लगा हुआ है।ह ताल स्थित है।
  • खम्बताल सदर क्षेत्र में कैंटोनमेंट अस्पताल प्रांगण से लगा हुआ है।
  • गणोताल - एमपीईबी. के अन्दर गणेश मंदिर के पीछे य
  • कटराताल - यह पूर्णरूप से सूख गया है। केवल शंकर की तलैया के नाम से थोड़ा-सा पानी बचा है।
  • मढ़ाताल - यह नगर के मध्य स्थित है। ताल के नाम पर अस्तित्व समाप्त हो चुका है।
  • खंदारी एवं परियट जलाशय - यहाँ से जबलपुर शहर को जलापूर्ति होती रहती है। यह प्रतिदिन लगभग 240 लाख गैलन पेयजल की आपूर्ति करता है। यह जबलपुर कुण्डम मार्ग पर स्थित है।

कलचुरी तथा गोंड काल में कृषि की उन्नति एवं अधिक पैदावार पर पूरा ध्यान दिया जाता था। इस काल में किसान वर्षा के अतिरिक्त अन्य साधनों से भी सिंचाई किया करते थे। इस काल के राजाओं ने सिंचाई के उद्देश्य से राज्य तालाब, कुएँ, बावड़ी, पोखर आदि का निर्माण कराया था। कलचुरी कालीन साहित्य में सिंचाई करने की प्रणालियों का उल्लेख मिलता है, कंधों पर पानी ले जाकर, नदियों व तालाबों तथा कुओं द्वारा चरखे एवं मोट से खेतों की सिंचाई की जाती थी। नालियाँ एवं मेंढ़ बनाकर खेतों तक पानी पहुंचाया जाता था। कृषि भूमि प्राकृतिक पानी के स्रोतों से दूर होती थी । अतः वहाँ पर नालियों द्वारा पानी ले जाया जाता था। इस प्रकार अनेक कृत्रिम नालियाँ, पोखर आदि का उल्लेख कलचुरि लेखों में मिलता है। कलचुरि कालीन लेखों में राजाओं द्वारा कुएँ के निर्माण का उल्लेख मिलता है।

 जल संरक्षण एवं परिवर्द्धन हेतु सुझाव

  • जल के महत्व और संरक्षण की आवश्यकता को जनचेतना के रूप में प्रत्येक स्तर पर प्रसारित करना, जल को प्रदूषण से बचाना।
  • उन्नत तकनीकी अपनाकर उद्योगों में जल की खपत कम करना, जल की उपलब्धता के अनुरूप फसल प्रतिरूप अपनाना एवं दैनिक जीवन में जल का अपव्यय रोकना।
  • सरकारी स्तर पर बनाये गये कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना ।
  • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भूमिगत सरोवरों का निर्माण करना।
  • भूमिगत जल का विवेकपूर्ण उपयोग करना ।
  • पानी के नलों को इस्तेमाल करने के बाद बंद रखें।
  • नहाने के लिए आवश्यकता से अधिक जल व्यर्थ न करें।
  • जल को कदापि नाली में न बहाएँ बल्कि इसे अन्य उपयोगों जैसे-पौधों अथवा बगीचे को सींचने अथवा सफाई इत्यादि में लाएँ।
  • सब्जियों तथा फलों को धोने में उपयोग किए गए जल का उपयोग फूलों तथा सजावटी पौधों के गमलों को सींचने में किया जा सकता है।
  • तालाबों, नदियों अथवा समुद्र में कूड़ा न फेंकें।
  • तालाबों के किनारे वृक्ष लगाने की प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • बांधों के किनारे गहरे गड्ढे खोदने चाहिए ताकि वर्षा जल तथा उसके साथ बहने वाली मिट्टी को इकट्ठा किया जा सके।
  • बेकार बह जाने वाले वर्षा जल के संग्रहण के लिए छोटे जलाशय तथा अन्तःस्रावी तालाब निर्मित करने चाहिए तथा उनकी वांछित देख-रेख होनी चाहिए।
  • हर वर्ष गर्मी के मौसम में नहरों, तालाबों व अन्य जलस्रोतों में जमे गाद की सफाई करनी चाहिए।

'जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने हेतु घरों से निकलने वाले वाहित जल व मलिन जल को संयंत्रों में पूर्ण उपचार करके ही नदी या समुद्र में छोड़ना, जलाशयों के आस-पास गंदगी, कूड़े-करकट डालने पर रोक, खेती में विषैले रासायनिक पदार्थों के अनावश्यक प्रयोग पर रोक, रासायनिक उद्योगों के अपशिष्ट जल व पदार्थों को जल स्रोतों में डालने पर रोक लगानी होगी। यदि विश्व में - प्रदूषण की यही दर कायम रही तो आने वाले युग में पीने का पानी व खेतों में दिया जाने वाला पानी विषाक्त एवं प्रदूषित होगा। फलतः उत्पादन कम होगा, भुखमरी, बीमारियां, महामारियां फैलेंगी। तथा जिस समुद्र व नदियों से अमृत एवं रत्न निकालते थे, वहां से विष निकलेगा।'

इस प्रकार कहा जा सकता है कि जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने हेतु घरों से निकलने वाले वाहित मल व मलिन जल को संयंत्रों में पूर्ण उपचार करके ही नदी या समुद्र में छोड़ना, जलाशयों के आस-पास गंदगी कूड़े-करकट डालने पर रोक, खेती में विषैले रासायनिक पदार्थों के अनावश्यक प्रयोग पर रोक, रसायनिक उद्योगों के अपशिष्ट जल व पदार्थों को जल स्रोतों में डालने पर रोक लगानी चाहिए।

लेखक संपर्क: डॉ. खेमसिंह डहेरिया प्रोफेसर, हिन्दी विभाग एवं अधिष्ठाता, मानविकी एवं भाषा संकाय,  इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकण्टक, अनूपपुर- 484887 (म.प्र.), मो. 9424684608,

ईमेलः khemsingh.daheriya@gmail.com   

स्रोत - जल चेतना, खण्ड 10, अंक 2, जुलाई 2021

 

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