1.
मैंने कहीं पर लिखा ही है कि मेरे भारत-यात्रा के वर्णन केवल साहित्य-विलास नहीं है, बल्कि भारत-भक्ति का और पूजा का एक प्रकार है। भगवान के गुण गाना जिस तरह नवधा भक्ति का एक प्रकार है, उसी तरह भारत की भूमि, उसके पहाड़ और पर्वत-श्रेणियां, नदियां और सरोवर, गांव और शहर, उनमें बसे हुए लोग और उनका पुरुषार्थ, उनके आश्रय में रहनेवाले ग्राम्य पशु-पक्षी और उनके साथ असहयोग करके आजादी का आनंद लेने वाले वन्य पशु-पक्षी- आदि सबका वर्णन करके उनका परिचय बढ़ाना भारत-भक्ति का एक अत्यंत आनंददायी प्रकार है। यह भक्ति एकांत में भी की जा सकती है और लोकांत में भी। जब कभी नवयुवकों-की कोई घुमक्कड़ टोली मुझसे मिलने आती है और कहती है कि ‘आपकी यात्रा की पुस्तकें पढ़कर हम भारत की यात्रा करने के लिए निकल पड़े हैं’ तब मुझे बड़ा आनन्द होता है, और मैं उनकी ओर ऐसी कृतज्ञ-बुद्घि से देखता हूं, मानों वे मुझ पर उपकार करने के लिए ही निकलें हों।
मेरे इन यात्रा-वर्णनों में से ऐसे सब वर्णन, जिनमें मैंने भारत की नदियों को भक्ति-कुसुमों की अंजली अर्पित की है, एकत्र करके ‘लोकमाता’ के नाम से गुजराती तथा मराठी में जनता के सामने बहुत पहले मैंने रख दिए हैं। महाभारतकार ने हमारी नदियों को ‘विश्वस्य मातरः’ कहा है। इन स्तन्यदायिनी माताओं का वर्णन करते हुए हमारे पूर्वज कभी नहीं थके। और मेरा अनुभव है कि इन्हीं नदियों के नये प्रकार के स्रोत यदि लोगों के सामने रखे जायें तो उनका आज के लोग भी प्रेमपूर्वक स्वागत करते हैं।
अब स्वराज्य सरकार की ओर से हाल में स्थापित हुई ‘साहित्य अकादमी’ (भारत-भारती-परिषद) ने सूचना की कि, ‘लोकमाता’ में दूसरे और कुछ प्रवास-वर्णन मिलाकर एक पुस्तक मैं तैयार करूं; ‘साहित्य अकादमी’ हिन्दुस्तान की प्रमुख भाषाओं में उसका अनुवाद करवाकर प्रकाशित करेगी।
इस अनुग्रह को स्वीकार करते समय मैंने सोचा कि उसमें किसी भी स्थान के यात्रा-वर्णन जोड़ने के बदले नदी, प्रपात और सरोवरों के साथ मेल खा सकें ऐसे सागर, सागर-संगम और सागर-तट की विविध लीला का ही वर्णन यदि दूं, तो पंचमहाभूतों में से एक अत्यन्त आह्लादक तत्त्व की लीला का वर्णन एक स्थान पर आ जायेगा और इस नयी पुस्तक में एक प्रकार की एकरूपता भी रहेगी। यह विचार मित्रों को और ‘साहित्य अकादमी’ के गुजराती सलाहकारों तथा संचालकों को पसन्द आया। अतः ‘लोकमाता’ ‘जीवनलीला’ के रूप में पाठकों की सेवा करने के लिए निकल पड़ी।
‘लोकमाता’ में केवल नदियों के ही वर्णन होने से उसके मुखपृष्ठ पर महाभारत का ‘विश्वस्य मातरः’ वाला श्लोक ठीक मालूम होता था। अब उसने व्यापक ‘जीवनलीला’ का रूप धारण किया है, अतः इस श्लोक का उपयोग करने में अव्याप्ति को दोष आ जाता है। फिर भी परंपरा की रक्षा के लिए यह श्लोक इस पुस्तक में भी भक्तिभाव से रहने दिया है।
‘जीवनलीला’ की गुजराती आवृत्ति ने लोकसेवा की यात्रा शुरू की और तुरन्त उसके हिन्दी अनुवाद का सवाल खड़ा हुआ। नवजीवन प्रकाशन मंदिर ने अपनी नीति के अनुसार हिन्दी आवृत्ति प्रकाशित करने का भार स्वयं उठाया और मेरी सूचना के अनुसार अनुवाद का काम वर्धा में मेरे पास रहे हुए श्री रवीन्द्र केलेकर को सौंपा। उन्होंने बड़ी योग्यता और प्रेम के साथ यह अनुवाद समय पर कर दिया। सारा अनुवाद मैं देख चुका हूं और मुझे उससे संतोष है।
गुजराती आवृत्ति के लिए जो टिप्पणियां अध्यापक श्री नगीनदास पारेख ने तैयार की थीं, उन्हीं का उपयोग इस आवृत्ति के लिए किया गया है। हमारे देश में जहां संदर्भ-ग्रंथों की कमी है और अच्छे पुस्तकालय भी बहुत कम जगह पर पाये जाते हैं, विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, किन्तु सामान्य संस्कार-रसिक पाठकों के लिए भी टिप्पणियां लाभदायक होती हैं। (इस ग्रंथावली में हमने टिप्पणियों का समावेश नहीं किया है-संपादक)
अनुवाद और टिप्पणियां देखकर मेरे अन्तेवासी श्री नरेश मंत्री ने अपने ही उत्साह से ‘जीवनलीला’ की सूची बनाकर दी। आजकल के जमाने में सूची की आवश्यकता अनुक्रमणिका से कम नहीं मानी जाती। पाठक तो सूची बनाने वाले को धन्यवाद दे ही देंगे, क्योंकि अनुक्रमणिका और सूची ग्रंथ की दो आंखें मानी जाती हैं।
मेरी इस किताब के लिए इस तरह टिप्पणियां और सूची देने का उत्साह दिखाकर नवजीवन प्रकाशन मंदिर ने विद्यानुरागी पाठकों के धन्यवाद अवश्य ही हासिल किए हैं।
जब तक मेरी यात्रा चलती है और भक्तियुक्त स्मृति काम देती है, मेरी किताबों का कलेवर बढ़नेवाला ही है। गुजराती ‘जीवनलीला’ के प्रकट होने के बाद जीवनलीला से संलग्न दसेक मौलिक हिन्दी लेख और तैयार हो गये, जिनको इस हिन्दी आवृत्ति में स्थान देकर मेरी ‘जीवन’-भक्ति को मैंने अद्यतन (up-to-date) बनाया है। ऐसे नये लेखों को अनुक्रमणिका में तारकांकित किया गया है। अब इस विषय में ज्यादा लिखने का उत्साह नहीं है, किन्तु भारत के नद-नदी, तालाब-सरोवर, प्रपात और समुद्र-तट, वार्षिक जल-प्रलय और मरुभूमि के मृगजल आदि का विविध वर्णन नये जमाने के नयी प्रतिभा वाले उदीयमान लेखकों की कलम से निकले हुए लेखों में पढ़ने की इच्छा या लालसा है। पं. बनारसीदास जी ने हिन्दी लेखकों का ध्यान इस क्षेत्र की ओर कब का आकर्षित किया है।
26-01-58,
स्वातंत्रय का गणतंत्र-दिवस
काका कालेलकर
2.
वस्तुतः पंचमहाभूतों के संयोग से ही जीवन अस्तित्व में आता है। फिर भी हमारे लोगों ने केवल पानी ही जीवन कहा, इसमें बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। पृथ्वी के आसपास चाहे उतना वायुमंडल घिरा हुआ हो, और इस ‘वात के आवरण’ के बिना हम भले एक क्षण जी भी न सकें, फिर भी पृथ्वी का महत्त्व है उसको घेरकर रहनेवाले उदावरण (पानी का आवरण) के ही कारण। उदक में जो ताजगी है, जो जीवन-तत्व है, वह न तो अग्नि की ज्वाला में है, न पवन या आंधी-तूफान में है। पानी जहां बहता है वहां शीतलता प्रदान करता है, रेगिस्तान को भी वह उपवन बनाता है, और प्राणिमात्र अनेक प्रकार के जीवन-प्रयोग कर सकें ऐसी सुविधाएं प्रदान करता है। जल का स्वभाव चंचल है, तरल है, ऊर्मिल है। और इससे भी विशेष, वत्सल है।
प्रकृति के निरीक्षण का आनंद अनुभव करते हुए पहाड़, खेत, बादल और उनके उत्सव रूप सूर्योदय तथा सूर्यास्त के रंग-चमत्कार मैंने देखे हैं। हरेक की खूबी अलग हरेक की चमत्कृति अनोखी होती है, फिर भी पानी के प्रवाह या विस्तार में से जो जीवन-लीला प्रकट होती है, उसके असर के समान दूसरा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं है। पहाड़ चाहे जितना उत्तुंग या गगनभेदी हो, जब तक उसके विशाल वक्ष को चीरकर कोई बड़ा या छोटा झरना नहीं कूदता, तब तक उसकी भव्यता कोरी, सूनी और अलोनी ही मालूम होती है।
संस्कृत में ‘डलयोः सावर्ण्यम्’ न्याय से जल को जड़ भी कहते होंगे। किन्तु सच पूछा जाय तो जल को जड़ कहने वाले की बुद्धि ही जड़ होनी चाहिये। जड़ता का यदि कहीं अभाव है तो वह जल में ही है।
पहाड़ को देखते ही उसके शिखर तक चढ़ने का दिल होगा और संभव हुआ तो शिखर पर पैर चलेंगे भी। पानी की भी यही बात है। मनुष्य जब तक नदी का उद्गम और मुख नहीं ढूंढता, तब तक उसे संतोष नहीं होता। पानी को देखते ही उसके समीप जाने का दिल होता ही है। वह यदि पेय हो तो प्यास न होते हुए भी उसको चखने का मन होता है। स्नान से बाह्य शरीर और पान से शरीर के अंदर का भाग पावन किए बगैर मनुष्य को तृप्ति ही नहीं होती। अन्य सहूलियत न हो तो वह पानी का आचमन करेगा, अथवा कम से कम पानी की दो बूंदें आंखों की पलकों पर जरूर लगायेगा।
हिमाचल के ठंडे प्रदेश में जहां कपड़े उतारना भी मुश्किल हैं वहां हमारे धर्मनिष्ठ लोग पंचस्नानी करते हैं! पानी में अंगुलियां डुबोकर उनसे माथे को छूने पर एक स्नान पूरा हुआ! दो आंखों को छूने पर दूसरे दो स्नान हो गये। फिर वही पानी की बूंदें दो कर्ण-मूलों को लगाने से पंचस्नानी पूरी होती है। पानी के स्पर्श के बिना मनुष्य को ऐसा नही लगता कि वह पवित्र हो गया है।
मनुष्य जब मर जाता है, तब उसके शरीर को जिस पृथ्वी से वह आया उसी के उदर में दफना देने की प्रथा सभी जगह है। किन्तु हम लोगों ने इसमें संशोधन किया। शरीर को सड़ने देने के बजाय उसका अग्नि-संस्कार करना हम अधिक श्रेयस्कर मानते हैं। अग्नि को हम पावक कहते हैं। पावक यानी पवित्र करने वाला कोई वस्तु चाहे जितनी गंदी हो, सड़ी हुई हो, या अपवित्र हो, अग्नि-संस्कार होने पर वह पावन हो जाती है। इसलिए हम उपले, लकड़ियां, चंदन, धूप और कपूर जैसे ज्वालाग्राही पदार्थ एक करके शरीर का अग्नी-संस्कार करते हैं।
यहां तक तो सब ठीक है; किन्तु जीवननिष्ठ संस्कृति को इतने से संतोष नहीं हुआ। अग्नि-संस्कार के अंत में जो अस्थियां और भस्म बच जाते हैं, उन अवशेषों का जब हम पवित्र जलाशयों में विसर्जन करते हैं, तभी हमें परम संतोष होता है।
महात्मा जी की अस्थियों और चिताभस्म को हमने सारे देश में जहां भी पवित्र जलाशय हैं वहां पहुंचा दिया। हिमालय के उस पार कैलाश के मार्ग में फैले हुए मानस-सरोवर में भी कुछ अवशेष छोड़ दिये गये। प्रयाग जैसे यज्ञस्थान में विसर्जित करने के बाद कुछ अवशेष समुद्र-किनारे भी ले गये, और खास तौर पर ध्यान में रखने की बात तो यह है कि जिस अफ्रीका खंड में गांधी जी ने सत्याग्रह जैसे दैवी बल की खोज की और अपना जीवन-कार्य शुरू किया, उस अफ्रीका में नील नदी के उद्गम के प्रवाह में भी इन अस्थियों का विसर्जन किया और इस प्रकार पानी की सर्वोपरि पवित्रता को स्वीकार किया।
ऐसे पानी के पवित्र दर्शन का जिनमें छलकता हो, ऐसे ही वर्णन इस संग्रह में लिए गये हैं।
संग्रह करते समय मेरी ‘स्मरण-यात्रा’ में से एक छोटा सा अध्याय सिर ऊंचा करके पूछने लगा, “क्या आप मुझे इसमें नहीं लेंगे?” अनवधान के लिए उससे माफी मांगकर मैने कहा, “जरूर, जरूर, तेरा भी जीवनलीला में स्थान होगा।” मानसिक सृष्टि, कल्पना सृष्टि और मायवी सृष्टि भी अंत में पार्थिव सृष्टि के साथ सृष्टि तो है ही। अतः मनुष्य की आंखों को और मृगो की आंखो को जो जल के समान मालूम होता है और जिसका प्रवाह इन दोनों को अपनी ओर खींचता है, वह भले, प्राणवायु तथा उद्जन-वायु के संयोग से बना हुआ न हो, फिर भी जीवनलीला में उसका स्थान होना ही चाहिये-यों सोचकर छुटपन में यात्रा करते समय देखा हुआ ‘तेरदाल का मृगजल’ नामक वर्णन भी इसमें ले लिया गया है।
सहारा के रेगिस्तान के आसपास दोपहर के समय यदि गया होता, तो उस विराट् रेगिस्तान का और वहां के मृगजल का वर्णन इसमें जरूर शामिल करता। किन्तु पश्चिम अफ्रीका से उत्तर की ओर जाते हुए समय और जान बचाने के लिए सहारा का पूरा रेगिस्तान मैंने पार किया रात के अंधेरे में, और वह भी हवाई जहाज की मदद से। पश्चिम अफ्रिका की मध्ययुगीन नगरी ‘कानो’ से चलकर मध्यरात्रि के बाद ट्रिपोली पहुंचा तब तक सारे समय टकटकी लगाकर मैंने सहारा को देखा। किन्तु उस रात अंधेर में अंधेरे से भिन्न कुछ दिखाई नहीं दिया। सहारा का रेगिस्तान पार करने पर भी वहां का मृगजल नहीं देखा जा सका! जब हवाई जहाज से उतरा, तब इतना ही कह सकाः
लिम्पतीव तमोSङ्गानि वर्षतीवांजनम् नभः।
हमारे संस्कृत कवियों के नदी-वर्णन और स्रोतों पर मैं मुग्ध हूं। इन स्रोतों में सबसे अधिक तो भक्ति ही नजर आती है। उनका शब्द-लालित्य असाधारण होता है। भाषा-प्रवाह मानो नदी के प्रवाह के साथ होड़ करता है। कहीं-कहीं एकाध शब्द में या समास में सुन्दर वर्णन भी आ जाता है। किन्तु कुल मिलाकर ये स्रोत वर्णन नहीं होते, बल्कि केवल माहात्म्य ही होते हैं।
आज हमें यथार्थ वर्णनों की और शब्द चित्रों की भूख है। उनके साथ थोड़ा माहात्म्य और चाहे उतना काव्य आ जाए तो वह इष्ट ही होगा। किन्तु वर्णन पढ़ते समय नदी या सरोवर के प्रत्यक्ष दर्शन का थोड़ा-बहुत संतोष तो मिलना ही चाहिये। वरना जैन पुराणों में दिए गये नगरियों के वर्णन जैसी बात होगी। ये वर्णन कहीं से उठाकर किसी भी शहर के साथ जोड़ दें तो कुछ बिगड़ेगा नहीं। अक्सर लेखक वर्णन की दो-चार पंक्तियां लिखकर ईमानदारी के साथ कहते हैं कि अमुक कहानी में अमुक नगरी का जो वर्णन आता है उसी को उठाकर यहां रख दें। ऐसे वर्णन न तो यथार्थ चित्रण माने जा सकते हैं, न माहात्म्य ही माने जा सकते हैं।
एक पुराने हिन्दी कवि ने एक पहाड़ी किले का वर्णन किया है। उसमें अश्वशाला के साथ गजशाला का वर्णन है। भोले कवि को संदेह नहीं हुआ कि महाराष्ट्र के पहाड़ पर हाथी जायेंगे किस तरह! दूसरे एक स्थान पर बगीचे के वर्णन में ठंडे मुल्क के और गरम मुल्क के, समुद्र तट के और पहाड़ पर के सब फल और फूलों के पेड़-पौधों का एकत्र कर दिया गया है! और इसमें खूबी यह कि इन तमाम फूलों के एक साथ खिलने में और फलों के एकसाथ पकने में महीनों की या ऋतुओं की कोई कठिनाई नहीं खड़ी हुई।
सौभाग्य से ऐसे साहित्य-प्रकार अब बंद हो गये हैं। फिर भी आज के लेखक प्रत्यक्ष परिचय के अभाव में केवल सामान्य वर्णन लिखते हैं: ‘आकाश में तारे चमक रहे थे’, ‘बगीचे में तरह-तरह के फूल खिले थे’, ‘जंगल में वृक्ष-लताओं की घनी बस्ती थी।’ ऐसे सामान्य वर्णन लिखकर ही वे संतोष मानते हैं। लेखक आकाश को और वहां के तारों को पहचानता न हो, उनके नाम न जानता हो, कौन से फूल किस ऋतु में खिलते हैं यह न जानता हो, किन जंगलों में किस तरह के पेड़ उगते हैं और किस तरह के नहीं उगते आदि जानकारी उसे न हो, तो फिर वह क्या करे? शब्द-वैभव को फैलाकर अनुभव-दारिद्रय छिपाने का वह चाहे जितना प्रयत्न करे, फिर भी दारिद्रय प्रकट हुए बिना नहीं रहता।
हमारे देश में अब यात्रा के साधन काफी बढ़ गये हैं और दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं। फोटोग्राफी की कला की इतना वृद्धि हुई है कि अब वह ललित-कला की कोटि को पहुंचने का प्रयत्न कर रही है। देश-विदेश की भाषाओं के यात्रा-वर्णन पढ़कर हमारी कल्पना उद्दीपित हो सकती है, तो अब हम भारतीय भाषाओं में पाया जाने वाला केवल यात्रा-वर्णन का दारिद्रय दूर क्यों न करें?
हमारे प्रिय-पूज्य देश को हम साहित्य द्वारा और दूसरे अनेक प्रकारों से सजायेंगे और नयी पीढ़ी को भारत-भक्ति की दीक्षा देंगे।
देश का मतलब केवल जमीन, पानी और उसके ऊपर का आकाश ही नहीं है, बल्कि देश में बसे हुए मनुष्य भी हैं। यह जिस तरह हमें जानना चाहिये, उसी तरह हमारी देशभक्ति में केवल मानव-प्रेम ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी जैसे हमारे स्वजनों-का प्रेम भी शामिल होना चाहिये।
नदी, पहाड़, पर्वतश्रेणी और उसके उत्तुंग शिखरों से तथा इन सबके ऊपर चमकने वाले तारों से परिचय बढ़ाकर हमें भारत-भक्ति में अपने पूर्वजों के साथ होड़ चलानी चाहिये। हमारे पूर्वजों की साधना के कारण गंगा के समान नदियां, हिमालय के समान पहाड़, जगह-जगह फैले हुए हमारे धर्मक्षेत्र पीपल या बड़ के समान, महावृक्ष, तुलसी के समान पौधे, गाय के जैसे जानवर, गरुड़ या मोर के जैसे पक्षी, गोपीचंदन या गेरू के जैसे मिट्टी के प्रकार-सब जिस देश में भक्ति और आदर के विषय बन गये हैं, उस देश में संस्कारों की और भावनाओं की समृद्धि को बढ़ाना हमारे जमाने का कर्तव्य है।
दादाभाई नौरोजी पुण्यतिथित, बम्बई, 1-6-56
“काका कालेलकर”
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