जीवनधारा बचाने का अभियान

गंगा के बारे में कहा जाता है कि उसका पानी कभी खराब नहीं होता क्योंकि इसके पानी में किसी प्रकार का जैविक कचरा मिल जाने के बाद पानी कुछ मील की यात्रा में अपने आप शुद्ध हो जाता है लेकिन आज गंगा और शेष सभी नदियों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि उसे पचाना गंगा की क्षमता के बाहर हो गया है।

इस वर्ष कुंभ के दौरान गंगा को बचाने के लिए आरम्भ किए गए आंदोलन के बाद से गंगा कुछ और मैली हो चुकी है। उत्तराखंड सरकार द्वारा अधिकतर क्रशरों को बंद करने के बावजूद गंगा को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के आश्वासन में संकल्पहीनता साफ दिखाई देती है। स्वामी निगमानंद की मौत केवल एक क्रशर के न हटने के कारण हुई, जिसे हटाने का आश्वासन प्रशासन ने तब दिया जब निगमानंद कोई भी प्रतिक्रिया देने योग्य नहीं रह गए थे। उनकी हत्या क्रशर माफिया ने कराई या वे अनशन के कारण मरे, यह तो अब जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन यह गंगा की त्रासदी का एक ही आयाम है। करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केंद्र मानी जाने वाली गंगा का शोषण बहुआयामी है क्योंकि स्वयं उसके अधिकतर श्रद्धालु भक्त भी गंगा-भक्ति को सामान्य अनुष्ठान से अधिक कुछ नहीं मानते अगर मानते होते तो किसी भी सरकार में यह दमखम नहीं होता कि वह करोड़ों नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध गंगा के अस्तित्व के साथ गंभीर छेड़छाड़ करने का साहस कर सके।

इस त्रासदी का एक बड़ा आयाम वे पनबिजली परियोजनाएं हैं, जिनके कारण न केवल इसकी धारा मोड़ने के लिए इसे जगह-जगह बांधा जा रहा है अपितु हजारों किलोमीटर तटीय क्षेत्रों के जलमग्न होने का खतरा भी पैदा किया जा रहा है। आजकल श्रीनगर के पास निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना चर्चा में है। इस परियोजना का विस्तार करने के लिए बांध की ऊंचाई 350 फीट तक बढ़ाने की योजना है। इससे न केवल आसपास का रिहायशी इलाका डूब जाएगा अपितु एक प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर को भी जल समाधि लेनी पड़ सकती है। धारी देवी के नाम से विख्यात उक्त ऐतिहासिक मंदिर को अलकनंदा का पानी ही अपने में समा देगा जिसके कारण क्षेत्र में यह नदी गंगा भक्तों की पूजा अर्चना का केंद्र रही है। भाजपा की नेता उमा भारती लंबे समय से गंगा को बचाने के अभियान में जुटी हैं। फिर से राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने से पहले ही उन्होंने पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि बांध के कारण डूब क्षेत्र में आने वाले धारी देवी मंदिर को डूबने से बचाया जाए।

इसकी प्रतिक्रिया में जयराम रमेश ने अलकनंदा परियोजना पर काम रुकवा कर एक समिति का गठन किया जैसा कि ऐसी समितियों में होता रहा है, सरकारी और गैर-सरकारी सदस्यों में कोई सहमति नहीं बन पाई। दरअसल समिति का गठन ही इस प्रकार किया गया था कि उसका रुझान परियोजना के विस्तार के पक्षधरों की ओर ही रहता। इसमें न किसी राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त और न स्थानीय पर्यावरणविद को शामिल करने की आवश्यकता महसूस की गई। जबकि विकास लॉबी रिपोर्ट आने से पहले ही जीत का प्रबंध कर चुकी थी। एक सुझाव आया कि मंदिर की आधारशिला को ऊंचा उठा लिया जाए। ऐसी टेक्नोलॉजी उपलब्ध होने के बावजूद यह मंदिर को बचाने की केवल एक औपचारिक रस्म होगी, उसे महज एक टापू में बदलने का प्रयास। गंगा के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा तो उसके पानी की गुणवत्ता के नष्ट होने से पैदा होगा। 'गंगा तेरा पानी अमृत' आज एक कपोल कल्पना बन गई है।

वास्तविकता यह है कि कभी लंबे समय तक दूषित न होने वाला गंगा का पानी कालातंर में इंसानों के पीने के लिए उपयुक्त नहीं रहेगा। यही नहीं, यह उन जलचरों के अनुकूल भी नहीं रहेगा जिनके कारण किसी भी जलाशय या नदी को जीवित कहा जा सकता है। गंगोत्री से ही गंगा में हर प्रकार की गंदगी डाला जाने लगा है। चाहे वह नगर पालिकाओं का गंदा पानी और मलमूत्र हो या औद्योगिक क्षेत्रों का विषाक्त द्रव और ठोस कचरा। इसी कारण पानी में वे धातुएं मिल जाती हैं, जो किसी भी जीव के लिए घातक सिद्ध हो सकती हैं। कई नगरों में तो आज गंगा नहाने योग्य भी नहीं रही है। जब पानी में ऑक्सीजन सोखने की क्षमता घटने लगती है तो वह जीव जंतुओं को जीवनदायी ऑक्सीजन नहीं दे पाता और ऐसी अवस्था में नदियां अपने जैविक पर्दाथों को पचाने में समर्थ नहीं रहती। गंगा के बारे में कहा जाता है कि उसका पानी कभी खराब नहीं होता क्योंकि इसके पानी में किसी प्रकार का जैविक कचरा मिल जाने के बाद पानी कुछ मील की यात्रा में अपने आप शुद्ध हो जाता है लेकिन आज गंगा और शेष सभी नदियों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि उसे पचाना गंगा की क्षमता के बाहर हो गया है।

गंगा को बचाने का अभियानगंगा को बचाने का अभियान
इसलिए वह आगे और आगे गंदी ही रहती है। दशकों पहले राजीव गांधी के शासनकाल में गंगा सफाई का अभियान आरम्भ किया गया था। इस मिशन के तहत देश और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के अरबों रुपए खर्च हुए लेकिन गंगा साफ नहीं हुई। कारण साफ है कि जिन स्रोतों से गंगा मैली होती है, वे ज्यों के त्यों रहे तो सफाई कहां से होती। फिर भी गंगा की सफाई गांधी परिवार का सपना रहा है, भले ही उस सपने को पूरा करने की सूझ-बूझ उनकी सरकारों में न रही हो। इसलिए जब ऐसी दो महिलाएं गंगा को बचाने के लिए सहमत हों, जो न केवल अलग-अलग स्वभाव और परिवेश से आती हैं अपितु जिनकी राजनीति की धारा भी एक-दूसरे के विपरीत है तो इसे महत्वपूर्ण घटना कह सकते हैं, बशर्ते यह केवल स्वांग भर न हो।

बहरहाल, उमा भारती गंगा अभियान की नेता की हैसियत से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलीं और उन्होंने महसूस किया कि सोनिया भी गंगा के मामले को पार्टी राजनीति से अलग रखेंगी। दरअसल गंगा और ऐसी अनेक नदियों को बचाने का यही एक रास्ता है क्योंकि हर पार्टी की सरकार नदियों को कथित विकास के तात्कालिक लाभ के लिए बलिदान करने का मन बना चुकी है। जरूरी नहीं कि उत्तराखंड सरकार बड़ी पनबिजली योजनाओं के बारे में उमा भारती से सहमत हो। मनमोहन सरकार में भी बड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के पक्षधरों की कमी नहीं है। उमा कहती हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जाए और सोनिया गांधी ने माना कि इस पर विचार होना चाहिए। शायद सोनिया के मन में राजीव गांधी का सपना पूरा करने की आकांक्षा जगी हो। फिलहाल यह धारा के विरुद्ध चलने का काम है लेकिन धारा के विपरीत चलने से ही गंगा की धारा बचायी जा सकती है।

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