जीवन श्रृंखलाएं और जीवन जाल

पृथ्वी नाना प्रकार के जीवों की शरणस्थली है जिसमें जटिल वनस्पतियों और प्राणियों से लेकर सरल एककोशीय जीव सम्मिलित हैं। परन्तु चाहे बड़ा हो या छोटा, सरल हो या जटिल, कोई भी जीव अकेला नहीं रहता। हर कोई किसी न किसी रूप में अपने आस-पास स्थित जीवों या निर्जीव पर्यावरण पर निर्भर करता है। गौर से देखने पर ज्ञात होता है कि इस प्रकृति के चित्रपट का ताना-बाना बनाने वाली प्रजातियां एक मूल सिद्धांत से बंधी हुई हैं। जीवन के इस मूल सिद्धातं का सार कुछ इस प्रकार निकलता है, ”सिर्फ मरने के लिए पैदा होओ, बीच के समय में शिकार करो और शिकार बनो“।

हरे पौधों को छोड़कर, जो अपना भोजन सौर ऊर्जा को उपयोग कर स्वयं तैयार करते हैं, पृथ्वी पर जीवन के अन्य समस्त प्रकार जीने के लिए दूसरे को भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं चाहे यह एकदम विभत्स दृश्य हो जिसमें लहू-लुहान घटनाक्रम में एक बाघ हिरन का शिकार करता है या फिर इतना अनजान और अहानिकर, जिसमें एक बासी रोटी पर फफूंद उग आती है। पृथ्वी पर मौजूद सभी प्रजातियां भोजन करने के और भोजन बनने के अनिवार्य नियम से जुड़ी हुई हैं। यह हमें एक श्रृंखला में जोड़ता है जिसे खाद्य श्रृंखला कहा जाता है। खाद्य श्रृंखलाएं, खाद्य जाल और खाद्य पिरैमिड (सूचीस्तम्भ) ऊर्जा के बहाव को दर्शाने के तीन तरीके हैं। जीवन को कायम रखने के लिए ऊर्जा अपरिहार्य है। कोशिकीय संगठन की उच्च गुणवत्ता को बरकरार रखने के लिए ऊर्जा की निरन्तर आपूर्ति आवश्यक है। एक कोशिका को ऊजा की आवश्यकता इसकी विविध गतिविधियों के लिए होती है, जिसमें कोशिका का रख-रखाव और वृद्धि सम्मिलित है।

खाद्य श्रृंखलाएं


खाद्य ऊर्जा के स्रोत पौधों से आरंभ होकर दूसरे को भोजन बनाने और दूसरे का भोजन बनने की प्रक्रिया में ऊर्जा का स्थानांतरण ही खाद्य श्रृंखला कहलाता है। वह प्राणी, जिसे खाया गया, शिकार और वह जिसने भक्षण किया, शिकारी कहलाता है। हालांकि खाद्य खाद्य श्रृंखलाखाद्य श्रृंखलाश्रृंखला की हर कड़ी पर ऊर्जा का अत्यधिक ह्रास होता है, किसी खाद्य श्रृंखला में एक प्राणि उसे प्राप्त होने वाली ऊर्जा का मात्रा 10 प्रतिशत ही आगे प्रसारित करता है। स्थितिज ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त हो जाता है। इसलिए खाद्य श्रृंखला में जितना आगे आप जाएंगे उतनी कम ऊर्जा की उपलब्धता पाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि आखिर क्यों शाकाहारियों के एक सामान्य आकार के झुण्ड के भरण-पोषण के लिए काफी संख्या में वृक्ष और हरियाली की आवश्यकता होती है और क्यों शाकाहारियों और सामान्य आकार का झुण्ड केवल कुछ ही मांसाहारियों को पाल सकता है। खाद्य श्रृंखला जितनी छोटी होगी, जीवों के लिए उतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध होगी। अधिकांश खाद्य श्रृंखलाएं चार या पांच कडि़यों से अधिक की नहीं होतीं हैं।

खाद्य श्रृंखलाएं दो प्रकार की हो सकती हैं:


1. चराई खाद्य श्रृंखला: यह शैवाल और अन्य हरी वनस्पतियों से आरंभ होकर मांसाहारी पर समाप्त होती है।

2. अपघटक या अपरद खाद्य श्रृंखला: इसमें फफूंद और जीवाणु जैसे जीव सम्मिलित हैं जो अपघटन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार होते हैं।

कार्यशील अपघटक (ब्रेड पर लगी फफूंद)कार्यशील अपघटक (ब्रेड पर लगी फफूंद)

खाद्य श्रृंखला की कडि़यां


एक खाद्य श्रृंखला में सामान्यतया निम्न कडि़यां होती हैं:
- मूल या प्रारंभिक उत्पादक
- मूल या प्रारंभिक उपभोक्ता
- द्वितीयक या माध्यमिक उपभोक्ता
- तृतीयक उपभोक्ता
- अपघटक

उत्पादक


उत्पादक अपना भोजन स्वयं तैयार करने में सक्षम होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक सामान्यतः हरे पौधे होते हैं। स्वच्छ जल और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में आमतौर पर शैवाल प्रमुख उत्पादक होते हैं। प्रकृति के चक्र में वनस्पतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इनके बिना धरा पर जीवन संभव नहीं है। ये प्रारंभिक उत्पादक हैं जो सभी अन्य जीव प्रकारों को कायम रखते हैं। यह इसलिए है कि वनस्पति ही वह जीव है जो अपना भोजन खुद निर्मित कर सकता है। प्राणी, जो भोजन निर्माण में सक्षम नहीं होते, अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं। सभी प्राणी और जो भोजन वे ग्रहण करते हैं, उसे पौधों से संबंधित किया जा सकता है।

जिस ऑक्सीजन को हम सांस के द्वारा लेते हैं वह पौधों से प्राप्त होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं, वायु से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं तथा मिट्टी से पानी एवं खनिज अवशोषित करते हैं। इसके बाद वे पानी और ऑक्सीजन को मुक्त कर देते हैं। इस चक्र में प्राणी एवं अन्य गैर उत्पादक जीव श्वसन क्रिया के माध्यम से भागीदारी करते हैं। श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें जीव द्वारा भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ी जाती है। प्रकाश संश्लेषण और श्वसन चक्र की मदद से पृथ्वी पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और जल का सन्तुलन बरकरार रहता है।

उपभोक्ता


उपभोक्ता वे होते हैं जो अपने भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं। वे या तो सीधे ही मूल उत्पादक पर या अन्य उपभोक्ताओं पर निर्भर रहते हैं। चूंकि शाकाहारी अपना भोजन सीधे उत्पादक से प्राप्त करते हैं, उन्हें प्रारंभिक या प्रथम उपभोक्ता कहा जाता है। जानवर अपना भोजन खुद नहीं बना सकते इसलिए उनके लिए पौधों या अन्य प्राणियों को खाना आवश्यक होता है। उपभोक्ता तीन प्रकार के हो सकते हैं; जो प्राणि सिर्फ और सिर्फ वनस्पति खाते हैं, उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जो प्राणि दूसरे प्राणियों का भक्षण करते हैं, मांसाहारी कहलाते हैं और जो प्राणि वनस्पति एवं प्राणि दोनों को खाते हैं वे सर्वाहारी कहलाते हैं।

अपघटक


अपघटक वे जीव होते हैं जो अपक्षय या सड़न की प्रक्रिया को तेज करते हैं जिससे पोषक तत्वों का पुनः चक्रीकरण हो सके। ये निर्जीव कार्बनिक तत्वों को अकार्बनिक यौगिकों में तोड़ते हैं। अपघटक खनिज तत्वों को पुनः खाद्य श्रृंखला से जोड़ने के लिए मुक्त करने में सहायक होते हैं जिससे उत्पादक यानि वनस्पतियां इन्हें अवशोषित कर सकें।

खाद्य जाल


खाद्य श्रृंखलाएं अलग-अलग लडि़यां न होकर एक दूसरे से अंतःसंबंधित होते हैं। अधिकांश पशु एक से अधिक खाद्य श्रृंखला के हिस्से होते हैं क्योंकि अपनी ऊर्जा की आवश्यकता पूर्ति के लिए वे एक से अधिक प्रकार के भोजन का भक्षण करते हैं। ये आपस में जुड़ी हुई खाद्य श्रृंखलाएं ही खाद्य जाल का निर्माण करती हैं। ऊर्जा के बहाव को दर्शाने में खाद्य जाल कहीं अधिक वास्तविक एवं सटीक होता है।

पोषण तल


वे जीव, जिनका भोजन वनस्पतियों से समान चरणों में प्राप्त होता है, एक पोषण तल या ट्रोफिक लेवल में आते हैं। उत्पादक होने के नाते हरी वनस्पतियां पहले पोषण तल पर आती हैं। शाकाहारी दूसरी मंजिल या तल पर माने जाते हैं। मांसाहारी, जो शाकाहारियों को अपना आहार बनाते हैं, तीसरे पोषण तल पर आते हैं, जबकि मांसाहारी जो मांसाहारियों का ही भक्षण करते हैं, चैथे पोषण तल पर माने जाते हैं। एक प्रजाति अपने आहार के आधार पर एक या एक से अधिक पोषण तल पर मौजूद रह सकती है।

पोषण तलपोषण तलपोषण संरचना एवं कार्यों को सामान्यतया पारिस्थितिकीय पिरैमिड द्वारा दर्शाया जाता है जिसमें उत्पादक आधार तैयार करते हैं और उसके बाद के स्तर क्रमशः मंजिलें तैयार करते हैं। पारिस्थितिकीय पिरैमिड तीन प्रकार के हो सकते हैं :

संख्या का पिरैमिड


यह पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में सबसे सरल है और यह प्रत्येक तल में वैयक्तिक संख्या दर्शाता है। रोचक तथ्य यह है कि परजीवियों की दशा में, संख्या का पिरैमिड आधार की अपेक्षा ऊपरी हिस्से में भारी होगा क्योंकि परजीवी सामान्यतया अपने परपोषी से छोटे होते हैं और बहुत से परजीवी एक ही परपोषी पर निर्भर करते हैं।

जैवभार का पिरैमिड


यह पिरैमिड प्रत्येक पोषण तल पर जीवों के कुल भार पर आधारित है। इसमें प्रतिनिधि का व्यक्तिगत वजन और संख्या को आधार बनाया जाता है। शुष्क भार ही वास्तविक जैवसंहति (बायोमास) है परन्तु यह हमेशा स्वीकार्य नहीं होता है। नमूना लेने के समय का जैवभार खड़ी फसल का जैवसंहति (स्टैंडिंग क्रॉप बायोमास) कहलाता है। स्टैंडिंग क्रॉप बायोमास उत्पादकता को नहीं दर्शा पाता है। उदाहरण के लिए, एक उपजाऊ, अत्यधिक चराई किए हुए चरागाह में एक कम उपजाऊ पर चराई नहीं किए गए चारागाह की तुलना में घास का स्टैंडिंग क्रॉप जैवसंहति तो कम होगा जबकि उत्पादकता अधिक होगी।

शीतोष्ण वर्षा वन जीवोम का खाद्य पिरैमिडशीतोष्ण वर्षा वन जीवोम का खाद्य पिरैमिड

ऊर्जा का पिरैमिड


ऊर्जा का पिरैमिड किसी खाद्य श्रृंखला या जाल में आहार और ऊर्जा के संबंध को दर्शाता है। तीनों पारिस्थितिकीय पिरैमिडों में से ऊर्जा का पिरैमिड प्रजातियों के समूहों की क्रियात्मक प्रकृति का अब तक का सर्वश्रेष्ठ चित्राण प्रस्तुत करता है।

यह समझना आवश्यक है कि खाद्य श्रृंखलाओं और जालों में ऊर्जा पोषण तलों से प्रवाहित होती है और हर अगले तल में ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है। अंत म पूरी ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिसका अधिकांश भाग ऊष्मा के रूप में लुप्त होता है। पोषक तत्व, हालांकि, खाद्य श्रृंखलाओं में कभी समाप्त नहीं होते और पुनर्चक्रित होते रहते हैं। इस प्रकार के चक्र में जीव, जल, वायुमण्डल और मिट्टी शामिल होते हैं। ये तत्व स्वपोषी जीवों, जिनमें भोजन निर्माण की क्षमता होती है, द्वारा कार्बनिक यौगिकों के साथ समाविष्ट कर दिए जाते हैं जहां से खाद्य जाल के विभिन्न उपभोक्ताओं में से गुजरते हुए पुनः सैप्रोफाइट यानी मृतजीवी (वे जीव जो मृत या सड़े-गले पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं) द्वारा अकार्बनिक रसायनों के रूप में पुनर्चक्रित कर दिए जाते हैं।

पृथ्वी के जैव-भूरासायनिक चक्र


थोड़ी मात्रा में ब्रह्माण्डीय कचरा, जो पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करता है और धरातल तक पहुंचता है, को छोड़कर पृथ्वी पदार्थों के लिए एक बन्द तंत्र है। इसका मतलब है कि जीवन की रचनात्मक एवं रासायनिक क्रियाविधियों के लिए आवश्यक तत्व उन तत्वों से ही प्राप्त हुए हैं जो अरबों वर्ष पहले पृथ्वी के निर्माण के समय मौजूद थे। ये तत्व पृथ्वी में लगातार चक्रित होते रहते हैं। एक चक्र की अवधि कुछ दिनों से लेकर लाखों वर्ष की हो सकती है। प्रत्येक चक्र अनेकों भिन्न मार्गों को अपनाता है और इसके भिन्न आश्रय स्थल होते हैं जहां ये तत्व अलग-अलग समय तक विश्राम करते हैं। इन चक्रों को जैव-भूरसायन चक्र कहते हैं क्योंकि इनमें विभिन्न जैविक, भूवैज्ञानिक एवं रासायनिक गतिविधियां सम्मिलित होती हैं।

रासायनिक अवयव, जिनमें जीवद्रव्य के समस्त आवश्यक अवयव सम्मिलित हैं, जीवमण्डल में संचारित होते रहते हैं। पर्यावरण से जीव तक पहुंचने में और पुनः जीव से पर्यावरण तक पहुंचने के लिए ये विशिष्ट मार्ग अपनाते हैं। इसलिए जैव-भूरसायन चक्र वातावरण में अवयवों के लगातार परिवहन और परिवर्तन का नाम है। इन तत्वों का जीवों, वायु, समुद्र और जमीन के माध्यम से कई लगातार चलने वाले परस्पर संबंधित चक्रों द्वारा परिवहन होता रहता है। पृथ्वी पर समस्त जीवन और पृथ्वी की जलवायु इन्हीं चक्रों पर निर्भर करती है। सबसे महत्वपूर्ण जैव-भूरसायन चक्र पानी, कार्बन और नाइट्रोजन के हैं। इन अवयवों और जीवन के लिए आवश्यक अकार्बनिक यौगिकों की गतिशीलता ‘पोषक चक्रण’ के अन्तर्गत आती है।

जैव-भूरसायन चक्र मानवीय गतिविधियों से गड़बड़ा सकते हैं और गड़बड़ा रहे हैं। जब हम अवयवों को उनके स्रोत या आश्रय स्थल से जबरदस्ती निकालकर प्रयोग करते हैं तो हम प्राकृतिक जैव-भूरसायन चक्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, हमने धरती की गहराइयों से हाइड्रोकार्बन ईंधनों को निकालकर और जलाकर स्पष्ट रूप से कार्बन चक्र में बदलाव कर दिया है। हमने नाइट्रोजन और फास्फोरस को कृषि उर्वरकों के रूप में बड़ी मात्रा में प्रयोग कर इनके चक्रों में भी बदलाव पैदा कर दिया है। मात्रा की आधिक्यता ने जल स्रोतों में प्रवेश कर जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी अतिउर्वरता पैदा कर दी है। इन विशाल, भूमंडलीय चक्रों की सबसे रोचक बात यह नहीं है कि ये लगातार बगैर रूके चलते रहते हैं, बल्कि यह है कि हमें धरती पर उपस्थित जीवन पर उनके प्रभाव का पता भी नहीं चलता है।

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