जीवन की पाठशाला

शिक्षा जब कारोबार की जगह सरोकार से जुड़ती है तो क्या चमत्कार हो सकता है, यह बताता है पंजाब के गुरदासपुर जिले में चल रहा एक अनोखा कॉलेज।

दरअसल 15 एकड़ में फैले इस कॉलेज का अनूठापन और उसकी शक्ति आत्मनिर्भरता में ही छिपी है। कॉलेज का सब काम कॉलेज की छात्राएं ही करती हैं। यहां शिक्षक लगभग न के बराबर हैं। जो छात्राएं हैं वे ही शिक्षिका भी हैं। व्यवस्था यह है कि जो सीनियर कक्षा के विद्यार्थी हैं वे अपने से निचली कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं। इस तरह बीए थर्ड ईयर की छात्रा बीए सेकेंड ईयर वालों को पढ़ाती हैं। बीए सेकेंड ईयर वाली बीए फर्स्ट ईयर वालों को। इस तरह यह व्यवस्था ऊपर से नीचे तक चलती जाती है। कॉलेज में ईच वन, टीच वन के नाम से एक और प्रयोग चलता है। ये सारे दृश्य उस बड़ी तस्वीर का सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा भर हैं, जो पंजाब में गुरदासपुर जिले के तुगलवाला गांव स्थित बाबा आया सिंह रियाड़की कॉलेज में जाने पर दिखती है। एक ऐसे समय में जब शिक्षा कारोबार बनकर साधारण आदमी की पहुंच से दूर निकल गई है, यह एक ऐसा अनोखा शिक्षण संस्थान है जो बताता है कि शिक्षा कारोबार नहीं बल्कि सरोकार है जिसका उद्देश्य एक नया मनुष्य रचना है। बाबा आया सिंह रियाड़की कॉलेज की कहानी 1975 से शुरू होती है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था। संयोग देखिए कि जिस समय एक महिला प्रधानमंत्री ने देश में आपातकाल लगाया वह साल महिला वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम हो रहे थे। एक ऐसा ही कार्यक्रम पंजाब के गुरदासपुर में भी हो रहा था। उस सभा में कई नेता मौजूद थे। उसी सभा के एक श्रोता स्वर्ण सिंह विर्क भी थे। वक्ताओं द्वारा महिलाओं के लिए ये करेंगे, वो करेंगे जैसे दावे किए जा रहे थे। अचानक विर्क की सहनशीलता जवाब दे गई। वे खड़े हुए और भरी सभा में नेताओं की तरफ इशारा करके कहा ‘क्यों इतना झूठ बोल रहे हो। मुझे पता है तुम लोग कुछ नहीं करोगे।’

उनका यह कहना था कि जवाब के रूप में उन पर तंज होने लगे जिनका लब्बोलुआब यह था कि अगर हम नहीं कर सकते तो तुम ही करके दिखाओ तो जानें। यही वह क्षण था जब विर्क ने एक ऐसा शिक्षण संस्थान बनाने की ठान ली जो आने वाले समय में पूरे देश के लिए एक आदर्श बनने वाला था। लेकिन उस दौर में स्थितियाँ ऐसी थीं कि इलाके में कोई भी परिवार अपनी लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए आसानी से तैयार नहीं होता था। विर्क गांव-गांव घूमे। लड़कियों की शिक्षा क्यों परिवार और देश के भविष्य के लिए जरूरी है, यह बात उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को समझानी शुरू की। सैकड़ों गाँवों की खाक छानने के बाद मात्र 34 लड़कियों के परिवार वाले अपनी बेटी को स्कूल भेजने के लिए राजी हुए। विर्क ने इन लड़कियों को लेकर 1976 में उस स्कूल की शुरुआत की जहां पढ़ने की कोई फीस नहीं थी। लेकिन कुछ समय बाद ही 20 लड़कियों के परिवारवालों ने अपनी बेटियों को स्कूल जाने से रोक दिया। अब स्कूल में केवल 14 लड़कियाँ बची रह गई थीं। विर्क अकेले शिक्षक थे। उस साल बोर्ड की परीक्षा में ये सभी लड़कियां प्रथम श्रेणी में पास हुईं। सिलसिला आगे बढ़ता गया। जिस स्कूल की शुरुआत 14 लड़कियों के एडमिशन से हुई थी, आज उसमें 3,500 विद्यार्थी पढ़ते हैं। इनमें 2,500 लड़कियां हैं। बिना किसी फीस के शुरू हुए इस स्कूल में आज फीस तो ली जाती है लेकिन उतनी ही जिससे कॉलेज का जरूरी खर्च निकल आए। पहली से लेकर एमए तक की यहां पढ़ाई होती है। अधिकतम ट्यूशन फीस 1,000 रुपये सालाना है तो हॉस्टल की सालाना फीस अधिकतम 7,500 रु. है।

कॉलेज के प्रिंसिपल स्वर्ण सिंह विर्क कहते हैं, ‘‘हमने एक ऐसा सिस्टम अपने यहां विकसित कर रखा है जिसकी वजह से हमें पैसों की बेहद कम जरूरत पड़ती है। पढ़ाई से लेकर प्रशासन तक हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर हैं।’

दरअसल 15 एकड़ में फैले इस कॉलेज का अनूठापन और उसकी शक्ति आत्मनिर्भरता में ही छिपी है। कॉलेज का सब काम कॉलेज की छात्राएं ही करती हैं। यहां शिक्षक लगभग न के बराबर हैं। जो छात्राएं हैं वे ही शिक्षिका भी हैं। व्यवस्था यह है कि जो सीनियर कक्षा के विद्यार्थी हैं वे अपने से निचली कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं। इस तरह बीए थर्ड ईयर की छात्रा बीए सेकेंड ईयर वालों को पढ़ाती हैं। बीए सेकेंड ईयर वाली बीए फर्स्ट ईयर वालों को। इस तरह यह व्यवस्था ऊपर से नीचे तक चलती जाती है। कॉलेज में ईच वन, टीच वन के नाम से एक और प्रयोग चलता है। इसके तहत हर छात्रा के ऊपर दूसरी छात्रा को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी है। मान लीजिए एक लड़की अंग्रेजी में दूसरी लड़की से अच्छी है तो वह दूसरी लड़की की टीचर बन जाएगी और रोज एक घंटे उसे पढ़ाएगी।

कॉलेज के दूसरे काम भी विद्यार्थियों के ही ज़िम्मे हैं। हॉस्टल के सभी बच्चों के लिए तीनों समय का खाना छात्राएं ही बनाती हैं। इस काम के लिए 12 लड़कियों के कई ग्रुप हैं। हर लड़की किसी न किसी ग्रुप में शामिल है। हर ग्रुप का नंबर दो महीने के बाद आता है। कौन-सा ग्रुप किस दिन खाना बनाएगा, यह पहले से ही तय है। यही नहीं, खाना क्या बनेगा यह भी आम राय से ही तय होता है। विर्क कहते हैं, 'छात्राएं मिलकर तय करती हैं। मेरी उसमें भी कोई भूमिका नहीं है।'

कॉलेज की अपनी खुद की खेती है। 15 एकड़ में फैले कॉलेज में 10 एकड़ में खेती होती है। अपनी जरूरत भर अनाज और सब्ज़ियाँ कॉलेज अपने खेतों में ही उगा लेता है। खेती की भी लगभग पूरी ज़िम्मेदारी छात्राएं खुद संभालती हैं। सब्जी बोने से लेकर उन्हें खेत से लाने तक का पूरा काम उन्हीं के ज़िम्मे है।

अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के मामले में भी संस्थान लगभग पूरी तरह आत्मनिर्भर है। कॉलेज का अपना सोलर पावर स्टेशन है, जिससे उसकी 90 फीसदी ऊर्जा जरूरतें पूरी हो जाती हैं। ईंधन के मामले में भी कॉलेज आत्मनिर्भर है। विर्क कहते हैं, 'अपना गोबर गैस प्लांट है। इसी गैस पर पूरे कॉलेज का खाना और नाश्ता बनता है। गैस सिलेंडर और अन्य साधनों की हमें लगभग नाममात्र की जरूरत है।' खाना बनाने के लिए सूखी हुई घास आदि का भी प्रयोग किया जाता है। विर्क कहते हैं, 'छात्र-छात्राओं की सुबह घास काटने की भी 45 मिनट की क्लास लगती है। इस समय में जहां लड़के घास के साथ ही पशुओं के लिए चारा आदि काट लाते हैं वहीं लड़कियां भी कॉलेज कैंपस में घास काटती हैं। इसे सूखने के लिए डाल दिया जाता है और बाद में इसका प्रयोग जलावन के लिए किया जाता है।' यही नहीं, कॉलेज के पास अपनी आटा चक्की, मसाला चक्की, तेल पिराई और गन्ने से रस निकालने की मशीन है। पूरे स्कूल में न कोई नौकर है, न चपरासी, न कपड़ा धोने वाला, न दरबान। विद्यार्थी अपना सारा काम खुद करते हैं। लड़कियाँ अपने हॉस्टल की वार्डन भी हैं और दरबान भी। यही नहीं, कॉलेज में जब भी कोई निर्माण कार्य चलता है तो लड़कियां बारी-बारी से मजदूरी का काम भी करती हैं।

कॉलेज में ही एक बड़ा-सा गोदाम भी है। यहां पंखे से लेकर चम्मच तक के कबाड़ रखे हुए हैं। हर साल कॉलेज साल भर के कबाड़ की बिक्री करके दो लाख रुपये करीब की आमदनी कर लेता है। विर्क कहते हैं, ‘हम इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं कि कुछ भी बेकार नहीं जाए। हर साल कबाड़ बेचकर ही लगभग दो लाख रुपये इकट्ठा कर लेते हैं। इन पैसों से हम हर साल 150 के करीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे पाते हैं।’

कॉलेज का पूरा प्रशासन भी छात्राओं के हाथ में ही है। किसी भी निर्णय के लिए कॉलेज की स्टूडेंट कमेटी यहां सर्वोच्च इकाई है। कमेटी में पांच सदस्य होते हैं जिनका चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से सभी छात्राओं के बीच से किया जाता है। ये पांच सदस्य अपने बीच से सचिव का चुनाव करते हैं। साल 2010-11 में कॉलेज की सचिव रही चनप्रीत कहती हैं, 'सचिव का चुनाव होने के बाद हम 22 और समितियां बनाते हैं जिनमें एडमिशन कमिटी, गुरुद्वारा कमिटी, मेस कमिटी, लाइब्रेरी कमिटी, अनुशासन कमिटी आदि शामिल हैं।' यानी कॉलेज में हर तरह के काम के लिए एक पांच सदस्यीय कमेटी है। यही संबंधित क्षेत्र से जुड़े सारे निर्णय करती है। कॉलेज की पूरी फीस इकट्ठा करने और उसका हिसाब रखने का पूरा काम भी छात्राओं की एक समिति ही करती है।

ऐसे में कॉलेज के प्रिंसिपल की क्या भूमिका है? विर्क कहते हैं, 'मेरा कोई रोल नहीं है। पूरा कॉलेज छात्राएं खुद ही चलाती है। प्रिंसिपल भी वहीं है, प्यून भी वही। यह कॉलेज लड़कियों का, लड़कियों द्वारा, लड़कियों के लिए है। बच्चों पर भरोसा कीजिए, उन्हें प्रेरित कीजिए। वे सब कुछ कर सकते हैं।'

छात्राओं की यह कमेटी कितनी मजबूत है इसका अंदाजा इस बात से ही लगता है कि इसने एक बार प्रिंसिपल विर्क पर भी जुर्माना लगा दिया था। हुआ यूं था कि गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर कॉलेज आए थे। कॉलेज देखकर वे बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने विर्क से कहा कि वे कुछ सहयोग करना चाहते हैं। विर्क ने भी मांगों की एक लिस्ट कमिश्नर को सौंप दी। कुछ दिनों के बाद ही कॉलेज की स्टूडेंट कमेटी को इस बारे में पता चला। उसने विर्क के मदद मांगने की बात पर विरोध दर्ज कराया। विर्क कहते हैं, ‘स्टूडेंट कमेटी के सदस्य मेरे पास आए और उन्होंने मदद मांगने पर आपत्ति दर्ज की। मुझ पर उन्होंने न सिर्फ फाइन लगाया बल्कि भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी भी दी।’

पंजाब के शांति निकेतन नाम से चर्चित इस कॉलेज को सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था एसजीपीसी ने पहले सिख कॉलेज की संज्ञा दी है। कॉलेज में धर्म की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करने के लिए एक पूरा पीरियड है। लेकिन क्या इससे यह कॉलेज धार्मिक संस्थान के रूप में तब्दील नहीं हो गया है? विर्क कहते हैं, 'हम बच्चों को धर्मग्रंथों में छिपी अच्छी बातों से रूबरू करवा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ सिख धर्म तक सीमित है। हम हर धर्म और उससे जुड़ी शिक्षा बच्चों तक पहुंचा रहे हैं। धर्म में जो अच्छा है उसे क्यों न स्वीकार किया जाए।'

कॉलेज पंजाब के गुरुनानक देव विश्वविद्यालय से जुड़ा है। अपनी तमाम विशेषताओं के साथ कॉलेज की यह भी खासियत है कि आज तक किसी ने यहां नकल नहीं की। यही कारण है कि गुरुनानक देव विश्वविद्यालय ने वार्षिक परीक्षाओं के लिए कॉलेज में ही परीक्षा केंद्र खोल दिया। परीक्षा के समय विश्वविद्यालय से कोई भी अधिकारी यहां नहीं आता। पूरी परीक्षा का संचालन कॉलेज की छात्राएं ही करती हैं। परीक्षा हॉल में कोई गार्ड नहीं रहता। प्रश्न पत्र बांटने से लेकर उत्तर पुस्तिका बांटने और उन्हें इकट्ठा करने का काम छात्राएं खुद करती हैं। विर्क कहते हैं, ‘इस कॉलेज में आज तक किसी ने नकल नहीं की।’ परीक्षा हॉल की दीवार पर लिखा है, ‘जो कोई भी किसी को यहां नकल करते हुए पकड़ेगा, उसे 21 हजार रु का इनाम दिया जाएगा।’ आज तक यह इनाम किसी को नहीं मिला।

कॉलेज में कई ऐसी छात्राएं हैं जिनके परिवार के कई लोग पहले यहां पढ़ चुके हैं। ऐसी ही एक छात्रा है मनप्रीत कौर। मनप्रीत की बुआ ने यहां से पढ़ाई की उसके बाद तो परिवार की हर लड़की पढ़ने के लिए यहीं आती है। मनप्रीत अपने परिवार से पांचवीं ऐसी लड़की है। उसकी बहन भी यहां पढ़ाई कर रही है।

हरिंदर रियाड़ यहां से पढ़ी छात्राओं में से एक हैं। सन 76 से लेकर 94 तक वे यहां पढ़ाती भी रहीं। कुछ समय पहले तक वे अमृतसर के खालसा कॉलेज की प्रिंसिपल थीं। वे कहती हैं, ‘मैंने जो यहां सीखा उसे शब्दों में बयां कर पाना कठिन है। इस स्कूल ने अनगिनत छात्राओं को उस समय पढ़ाया जब उन्हें घर से बाहर निकलने की मनाही थी। स्कूल ने उन्हें अच्छा इंसान बनाया और अपने कदमों पर खड़ा होना भी सिखाया।’ गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के शिक्षक जगरूप सिंह कहते हैं, ‘यह कॉलेज एक मॉडल है। नकल नहीं, अच्छी पढ़ाई, आत्मनिर्भरता जैसी चीजें इसे एक आदर्श बनाती हैं।’

कॉलेज सरकार से किसी तरह का आर्थिक सहयोग नहीं लेता। हम विर्क से इसकी वजह पूछते हैं। विर्क कहते हैं, ‘जिस दिन आप सरकार के सामने हाथ फैलाएंगे और जैसे ही उन्होंने आपको पैसा दिया, उसी दिन से वे कॉलेज में अपनी चलाने की शुरुआत कर देंगे। वह सब कुछ खत्म हो जाएगा जो सालों की कड़ी मेहनत से खड़ा हुआ है।’

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