जीव-संदीप्ति जीवों में अनुकूलन का जादू

fireflies
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जैव-संदीप्ति प्राणियों में उत्तरजीविता के लिये अनुकूलन के प्रक्रम का अंग है। विभिन्न जीव विभिन्न प्रकार से अनुकूलन करते हैं। जिन प्राणियों को जीवन-यापन के लिये अंधेरे में इधर-उधर आना-जाना पड़ता है और इसके लिये उन्हें दृष्टि का उपयोग करना पड़ता है, उनमें अनुकूलन के कारण या तो आँखें बड़ी हो गई हैं जिससे वे अधिक प्रकाश एकत्र कर देखने में सफल हों या फिर प्रकृति ने उनके शरीर में ही टॉर्च लगा दी है।

रात में दुम चमकाते, उड़ते हुए जुगनुओं और मछली घरों में अंधेरे कोनों को रोशन करती जैलीफिशों को आपने अवश्य देखा होगा। जैव शरीरों में प्रकाश उत्पन्न होने की यह परिघटना जीव-संदीप्ति कहलाती है। जिस आनंद और विस्मय का भाव इन्हें देख कर आपके मन में उठता है, वैसा ही वैज्ञानिकों के मन में भी उठता रहा होगा और इस प्रकार उत्पन्न जिज्ञासा उन्हें अन्वेषण के जिन आयामों तक ले गई उनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण आगे प्रस्तुत है।

क्‍या होती है जीव संदीप्ति ?


इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं में ऊष्मा अवशोषित होती है, जैसे कार्बन को वायु की उपस्थिति में गर्म करने पर कार्बनडाइऑक्साइड का बनना, ये अभिक्रियाएं ऊष्माशोषी कहलाती हैं। दूसरी ओर ऐसी भी रासायनिक अभिक्रियाएं होती हैं जिनमें ऊष्मा उत्सर्जित होती है, जैसे मीथेन अथवा एलपीजी के जलने से कार्बनडाइ ऑक्साइड और जल का बनना, इनको ऊष्माक्षेपी अभिक्रियाएं कहा जाता है। इसी प्रकार, कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं में प्रकाश अवशोषित होता है जैसे प्रकाश संश्लेषण, उसी तरह कुछ ऐसी भी रासायनिक अभिक्रियाएं होती हैं जिनमें प्रकाश उत्सर्जित होता है। प्रकाशक्षेपी रासायनिक अभिक्रियाओं में प्रकाश उत्सर्जन के कारण उत्पाद रसायनों का चमकना रासायनिक संदीप्ति कहलाती है। एक सुपरिचित रासायनिक संदीप्तिकारी अभिक्रिया है, जिसमें श्वेत फॉस्फोरस वायु में ऑक्सीकरण के कारण हरा प्रकाश उत्सर्जित करता है। जीव संदीप्ति भी जीवों में होने वाली एक प्रकार की रासायनिक संदीप्ति है।

क्‍यों होती है जीव संदीप्ति ?


जैव-संदीप्ति प्राणियों में उत्तरजीविता के लिये अनुकूलन के प्रक्रम का अंग है। विभिन्न जीव विभिन्न प्रकार से अनुकूलन करते हैं। जिन प्राणियों को जीवन-यापन के लिये अंधेरे में इधर-उधर आना-जाना पड़ता है और इसके लिये उन्हें दृष्टि का उपयोग करना पड़ता है, उनमें अनुकूलन के कारण या तो आँखें बड़ी हो गई हैं जिससे वे अधिक प्रकाश एकत्र कर देखने में सफल हों या फिर प्रकृति ने उनके शरीर में ही टॉर्च लगा दी है। जीव-संदीप्तिशील प्राणी इन्हीं में शामिल हैं। उनमें विभिन्न जीवों में जीव-संदीप्ति भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिये उपयोग में लाई जाती है, जैसे :

1. कुछ जीवों में यह आत्मरक्षा का साधन है। उदाहरण के लिये स्क्विड शिकारी को देख कर एक जैव संदीप्ति द्रव का बादल सा बना देते हैं, जिससे या तो शिकारी हतप्रभ हो जाता है और इन्हें बच निकलने का मौका मिल जाता है या फिर खुद ही घबराकर इनसे दूर हो जाता है।

2. शिकार को आकर्षित करने के लिये एंग्लर फिश जैसी कुछ मत्स्य प्रजातियाँ दूसरी मछलियों को आकर्षित कर पास बुलाने के लिये जीव-संदीप्ति चारे का उपयोग करती हैं।

3. आहार की स्थिति जानने के लिये, सागर की धुँधली गहराइयों में कुछ मत्स्य प्रजातियाँ अपनी जीव संदीप्ति का उपयोग क्षणिक टॉर्च की तरह करके शिकार ढूंढ़ने का काम करती हैं।

4. कुकी कटर शार्क के शरीर पर नीचे की ओर एक छोटी मछली के आकार का अदीप्त धब्बा होता है। जब कोई बड़ा शिकारी जलजीव भ्रम खा कर उसके पास तक आ जाता है तो यह उसके शरीर का एक हिस्सा काट कर भाग जाती है। इस प्रकार का अनुकृतिकरण भी कई जीवों में पाया जाता है।

5. समुद्र के गहन अंधकार में अपने नीचे की चीजों को देखना तो कठिन होता है, किंतु ऊपर की चीजों की आकृति की रूपरेखा नीचे से देखी जा सकती है इसलिए कुछ प्रजातियों के अधोतल पर कुछ प्रकाश के धब्बे होते हैं जिनके कारण उनकी आकृति की रूपरेखा अस्पष्ट हो जाती है और वे अपने परिवेश से अभिन्न हो जाती हैं और इस प्रकार का छलावरण रचकर शत्रुओं से बचने में सफल हो जाती हैं।

6. जुगनूओं की विभिन्न प्रजातियों में अपनी-अपनी प्रजातियों की मादाओं को प्रकाश-संदेश भेजने में इस प्रक्रम का उपयोग किया जाता है।

कैसे उत्‍पन्‍न होती है जीव संदीप्ति ?


जीव संदीप्तिशील जीव कोशिकाओं में एडेनोसिन ट्राइ फास्फेट के अतिरिक्त जो ऊर्जा के संकलन और परिवहन का कार्य करता है - दो विशिष्ट पदार्थ होने आवश्यक हैं : एक ल्युसिफेरिन और दूसरा ल्युसिफेरेज। ल्युसिफेरिन फोटोप्रोटीनों के एक समूह का नाम है जो ऑक्सीकरण होने पर प्रकाश उत्पन्न करते हैं तथा ल्युसिफेरेज एक एंजाइम समूह का नाम है, जोकि अभिक्रिया में उत्प्रेरक की भाँति कार्य करता है। समुद्री जीव-संदीप्तिकारी एक प्रमुख ल्युसिफेरिन कोयलेंटेराजिन है।

जीव संदीप्ति में किसी भी प्रकार के (यांत्रिक, रासायनिक या तंत्रिकातंत्री) ट्रिगर से ल्युसिफेरेज की उपस्थिति में ऑक्सीजन ल्युसिफेरिन के साथ संयुजित होती है तो इस प्रक्रिया में प्रकाश कण (फोटॉन) उत्पन्न होते हैं और ल्युसिफेरिन अक्रिय ऑक्सील्युसिफेरिन में बदल जाता है।

जीव संदीप्तिशील जीव


प्रकृति में जीव-संदीप्तिशील जीव प्रायः या तो सूक्ष्म जीव, कीट या समुद्र की गहराईयों में पाए जाने वाले प्राणी हैं। विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में वैज्ञानिकों ने जिन संदीप्तिशील जैव प्रजातियों की पहचान की है उनकी एक प्रारूपिक सूची नीचे दी गई है।

1. जुगनू, विशेष प्रकार के क्लिक-भृंग, दीप कीट, रेल रोड कीट, माइसेटोफिलिड भक्षिकाएं, जियोफिलस कार्टोफैगस जैव शतपद, मोटाइक्सिया जैसे सहस्रपाद आदि।

2. एक ऊष्णकटिबंधीय स्थलीय घोंघा-क्वांट्युला स्ट्रैटा।

3. कुछ विशेष प्रकार के केंचुए।

4. एंग्लर फिश (जो कुछ परजीवी बैक्टीरिया के कारण चमकती है), कुकी कटर शार्क, कैटशार्क, गल्पर ईल, लैंटर्न फिश, हैचेट फिश, मिडशिप मेन फिश, पाइनकोन फिश, वाइपर फिश, ब्लैक ड्रैगन फिश आदि।

5. अकशेरुक नाइडेरिया जैसे सीपेन, प्रवाल, ऐक्वोरिया विक्टोरिया नाम की जेलीफिश।

6. कुछ पर्पटीधारी जैसे ओस्ट्राकोड, कोपेपोड, क्रिल आदि।

7. चैटोग्नैप्स की दो प्रजातियां

8. घोंघे जैसे हिनिया ब्रैसिलियाना, लैटिआना नैरिटोयड्स

9. स्पार्कलिंग एनोप स्क्विड, मस्टी गोट्यूथिडा स्क्विड, कोलोसल स्क्विड, वैम्पायर स्क्विड सीपियोलिडा आदि।

10. बोलिटायनिडा जैसे कुछ अष्टपाद।

11. कवकों की एगैरिकैल्स श्रेणी की 74 प्रजातियां और जाइलैरिएल श्रेणी की एक प्रजाति।

12. वाइब्रोफिशेरी, बाइब्रो हार्वेइ, फाटोबैक्टीरियम फोस्फोरियम, शेवानल्स तथा लिग्लोडिनियम पोलिपेड्रम जैसे डिनोफ्लैगेलेट्स प्रजाति के प्रोटिस्ट।

जीव संदीप्‍त के अनुप्रयोग


वैज्ञानिक प्रकृति के प्रक्रमों को समझकर उनका उपयोग मानव कल्याण के लिये करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने विविध जीव-संदीप्तिकारी जीनों और फोटोप्रोटीनों की पहचान कर ली है और उनके मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिये क्या-क्या उपयोग हो सकते हैं इस दिशा में कार्यरत हैं। ऐसे कुछ सफल और सफलता की ओर उन्मुख प्रयासों की चर्चा आगे की गई है।

1. छोटे प्रयोगशाला जन्तुओं के जीव वैज्ञानिक प्रक्रमों के अहस्तक्षेपी अध्ययनों में बैक्टीरिया से प्राप्त जीव संदीप्तिकारी जीनों और उनके प्रोटीनों का बहुत महत्त्वपूर्ण उपयोग अनुसंधान कार्यों के लिये किया जा रहा है। जन्तु के विशिष्ट ऊतकों की स्थिति और परिमाण में समय के साथ परिवर्तन एक सीसीडी यानि चाइल्ड कपल्ड डिवाइस कैमरे की सहायता से अभिलेखित करते हैं। इन जंतुओं में अपनी स्वयं की तो कोई प्राकृतिक जीव-संदीप्ति होती नहीं इसलिए यद्यपि उत्पन्न प्रकाश बहुत कम होता है फिर भी इसका अभिलेखन बहुत सुग्राहिता के साथ किया जा सकता है।

2. उत्तरी अमेरिका में पाए जाने वाले जुगनू फोटिनस पायरैलिस (557 नैनोमीटर) का पीला हरा प्रकाश उत्सर्जित करता है। इसके ल्युसिफेरेज का उपयोग करके अनेक चिकित्सकीय निदानात्मक अनुप्रयोग विकसित किए गए हैं, जिनमें शामिल हैं: जीव रिपोर्टर मापन, पूर्ण कोशिका जैव संवेदी मापन तथा जीव प्रतिबिंबन।3. जीव संदीप्तिशील सूक्ष्म जीवों का एक सीधा अनुप्रयोग सूक्ष्म-जैविक घरों में किया जा रहा है, जिसमें सभी घरेलू अपशिष्टों - जलमल, रसोई अपशिष्ट, अपशिष्ट और कूड़ा-कचरा फिल्टर करके मीथेन डाइजेस्टर द्वारा मीथेन गैस और कम्पोस्ट में बदला जाता है। कम्पोस्ट में जीव संदीप्तिशील बैक्टीरिया पाले जाते हैं, इनमें प्रतिदीप्ति प्रोटीन समाहित करके इनका प्रकाश बढ़ाया जाता है और फिर इन्हें निकास द्वारों पर चिह्न अंकित करने, सड़क निर्माणकों आदि में उपयोग में लाया जाता है।

4. संदीप्तिशील बैक्टीरिया में लक्स सीडीएबीई जीन समाहित करके इन्हें जीव-संदीप्तिशील बैक्टीरिया में बदला जा सकता है फिर विभिन्न पर्यावरणों में इनकी वृद्धि और जीवन दशा देख-भाल कर मानव खाद्य स्रोतों में रोगकारियों के संसूचन, पर्यावरण में विषैले अपशिष्टों एवं प्रदूषण के संसूचन के लिये उपयोग किया जा सकता है।

5. कैंसर से लड़ने के लिये जीव संदीप्ति सक्रियित नाश तकनीक के विकास पर कार्य चल रहा है, जिसमें अर्बुद जन कोशिकाओं के जुगनू के ल्युसिफरेज एवं प्रकाश संवेदनकारी जीनों की अभिव्यक्ति द्वारा रूपांतरित किया जाता है। प्रकाश संवेदनकारी की संदीप्ति उत्पादक विषों से प्रतिक्रिया के कारण जीव-संदीप्तिकारी कोशिकाएं मरने लगती हैं।

6. जापान के टोहोकु प्रौद्योगिकी संस्थान के डायसुके किकुची एवं मसाकी कोबायाशी द्वारा किए गए हाल ही के अध्ययन में यह दर्शाया गया है कि मानव शरीर से बहुत ही निम्न तीव्रता का प्रकाश उत्सर्जित होता है जिसे नंगी आँखों से तो नहीं देखा जा सकता लेकिन अत्यंत सुग्राही सीसीडी (चार्ज कपल्ड डिवाइस) कैमरे से अभिलेखित किया जा सकता है। यह प्रकाश मानव नेत्र की संवेदन सीमा से 1000 गुणा कम तीव्रता का है, इसलिए इसके अनुप्रयोगों को लेकर आज कोई चर्चा नहीं है लेकिन कल अन्वेषण किस ओर ले जाएंगे कौन कह सकता है।

जीव-संदीप्ति : ऐतिहासिक संदर्भ


भारत, चीन, पोलिनेशिया, स्कैंडेनेविया आदि देशों की लोक-गाथाओं में युगों से जीव संदीप्तिशील प्राणियों का जिक्र होता आया है। इस प्रक्रम का पहला लिखित रिकॉर्ड अरस्तू (ईस्वी पूर्व 384-322) के डे एनिमा (पुस्तक-2 अध्याय-7) में है। अरस्तू ने मत्स्यों, कवकों, स्क्विडों, जुगनुओं और संदीप्त कीटों में इस प्रक्रम को देखा और उत्सर्जित प्रकाश को ‘ठंडा प्रकाश’ कहा। एल्डर प्लिनी (AD 23-79) ने अपनी दूर-दूर की यात्राओं में देखे गए अन्य अनेक जीवसंदीप्त प्राणियों का उल्लेख किया जिनमें मोलस्क-फोलास डैक्टाइलस, लैंटर्न फिश-ल्युसर्नापिसेज शामिल हैं।

रफेल डुबोइस ने जीव संदीप्तिकारी अभिक्रियाओं के मुख्य अवयवों ल्युसिफेरिन और ल्यूसिफेरेज की पहचान की और उन्हें यह नाम दिया।

चार्ल्‍स डार्विन ने बीगल की अपनी यात्रा के दौरान 1833 में केप होर्न के निकट दूधिया प्रकाश उत्सर्जक सूक्ष्मजीवों की बस्ती का उल्लेख किया है।

बीसवीं शताब्दी में ई. न्यूटन हार्वे और जे. बुडलैंड होस्टिंग्स ने इस दिशा में आधारभूत मार्गदर्शी कार्य किया।

जीव-संदीप्ति न केवल मोहक एवं विस्मयकारी प्रक्रम होने के कारण अध्ययन का लोकप्रिय विषय है, बल्कि इसमें अभी भी ऐसी अनेक जिज्ञासाएं हैं, जिनकी व्याख्या होनी बाकी है, उदाहरण के लिये केंचुओं की कुछ प्रजातियां जो मल विसर्जित करती हैं वह संदीप्तिशील होता है। शरीर के बाहर वह संदीप्तिशील क्यों और कैसे होता है यह विवाद का विषय है।

जीव-संदीप्ति के अनुप्रयोगों पर भी अनुसंधान अपनी शैशव अवस्था में ही है।

सम्पर्क


राम शरण दास
49, सेक्टर-4, वैशाली, गाजियाबाद-201010 (उ.प्र.)
ई-मेल : rs_gupta248@gmail.com


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