वह किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नहीं है। वह किसी वैज्ञानिक संस्थान में वैज्ञानिक भी नहीं है। उसे आपके-हमारे काम आ सकने वाला जनविज्ञानी कहा जा सकता है।
नाम: ब्रजमोहन शर्मा। आइए जानते हैं, अपने दो अनपढ़ साथियों के साथ आज यह अकेला शख्स ऐसा क्या कर रहा है, जो बड़ी-बड़ी अकादमियों, संस्थाओं व मोटी-मोटी तनख्वाह हजम कर रहे वैज्ञानिकों की पल्टन के लिए ईर्ष्या व सबक का विषय बन गया है। अपनी छोटी-सी, लेकिन काम की प्रयोगशाला से वह, वो सब तैयार कर सकता है, जो आम आदमी के रोजबरोज का फलसफा बन सके। उसका सिंपल सा फंडा है, लोगों को जो-जो चाहिए, उस पर काम करो। चारों ओर फैली समस्याएँ उसे, नई-नई खोज के लिए ललकारती हैं।
‘स्पैक्स’ संस्था के माध्यम से, ब्रजमोहन शर्मा लोगों को उनके आस-पास बिखरा विज्ञान सिखाने व दिखाने में जुटे हैं। उन्होंने, 100-500 रुपए में सस्ता ‘रसोई कसौटी किट’ तैयार किया है। इस किट से रसोई में प्रयोग होने वाली, लगभग 45 खाद्य वस्तुओं की शुद्धता की जाँच की जा सकती है। इस किट को भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने मान्यता देकर देश के प्रत्येक जिले के लिए तैयार करवाया है। संस्था ने एक अभियान के तहत उत्तराखंड समेत, देश के कई हिस्सों में मिलावटखोरी यानि एडलटरेशन की जाँच की तथा लोगों को भी खुद जाँच करना सिखलाया। किट से खाद्य तेलों, दालों, आटा, मसालों, दूध व दूध से बने पदार्थों, मिठाइयों, आइसक्रीम, बेसन, सिंदूर, कफसीरप आदि की जाँच की जा सकती है। शर्मा चार धाम मार्ग की अब तक 8 रिपोर्ट दे चुके हैं। उन्होंने तीर्थयातियों को बताया कि मार्ग में मिलने वाले अधिकतर खाद्य पदार्थों में मिलावट है। देहरादून में मिलावटखोरी पर लिए गए उनके सैंपल स्थानीय लोगों के लिए आँख खोलने वाले साबित हुए हैं। मावे में आरारोट व खड़िया मिलाने की शिकायत थी। बर्फी को जिस दूध से बनाया जा रहा था, वह सूखे दूध यानी मिल्क पाउडर की बन रही थी। सभी प्रकार के ब्रांडेड-नॉन ब्रांडेड मसालों की भी पोल खोली गई। मसालों में कार्सेनोजोनिक डाइज यानि कैंसर पैदा कर सकने वाले रसायन मिलाना आम बात है। मैलेचाइड ग्रीन, मैटेनियल येलो, रोडाडीन बी व सूडान-3 जैसे रसायन अलग कर दिखाए गए। खाद्य तेलों में रिफाइंड मोबिल ऑयल, अरंडी तेल, आर्जीमोन ऑइल की मिलावट थी। लोगों के मोहल्लों में जा-जाकर उन्होंने पेयजल परीक्षण किए हैं। संभ्रांत लोगों के रिहाइशी इलाकों में कोलीफार्म यानि मल मिले होने की शिकायतें मिलती हैं, तो कहीं बिना लवणों का पानी। पेयजल में क्लोरीन आम बात है। जबकि, क्लोरीन टॉक्सिक होने के कारण, कीमोथेरेपी जैसी बीमारी को जन्म दे सकता है।
शर्मा ने स्वजल परियोजना के तहत पानी में मिलाए जा रहे प्रतिबंधित रसायन के खिलाफ न्यायालय में रिट भी दायर की। बताते हैं कि पानी में खुशबू या बदबू आए तो समझो, इसे नहीं पिया जा सकता। उसमें हार्डनेस भी नहीं होनी चाहिए। जबकि पिये जा सकने वाले पानी में लवणों की मात्रा 180 एमजी न्यूनतम रहनी चाहिए। बाजार में मौजूद, हर तरह के फिल्टर को वह खारिज करते हैं। एकमात्र कैंडल फिल्टर को छोड़ बाकी कोई उनके मानकों पर खरा नहीं उतरते। फिल्टर का विकल्प भी उन्होंने तैयार किया है, जिसे आईआईटी दिल्ली अप्रूव कर चुका है। इसे 180 रु. में खरीद सकते हैं। इसके एसिड साल्यूशन में प्रतिवर्ष 17 रुपए खर्च होते हैं। एक सस्ता वॉटर टेस्टिंग किट भी उन्होंने बनाया है। ‘अपनी नदियों को जानो’ अभियान की मदद से उन्होंने स्कूली बच्चों को आस-पास की नदियों में मौजूद प्रदूषण का स्तर मापना सिखाया है।
विज्ञान के किताबी रहस्यों को समझ के स्तर तक उतार लाना ही शर्मा की खूबी है। एक उदाहरण है- हाइडोपॉनिक सॉल्यूशन। बिना मिट्टी व सूरज की रोशनी के पौधे उगा देना। या सूखी रेत व कंकड़ों से पौधे उगा देना। विज्ञान की दुनिया में यह कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन आम आदमी इस बात को दूर की कौड़ी मान बैठता है। आप एक लीटर पानी में 29 बूँदें ब्लूम सॉल्यूशन की डालें, पौधा जडें व तने खोलने लगेगा। एक पौधा उगाने का खर्चा मात्र 4 रुपए सालाना। है न कमाल ? जबकि, एक प्लास्टिक का नकली पौधा कम से कम 100 रुपए में मिलता है।
प्लास्टिक के बोरियत भरे पौधों की बजाय, हाइडोपॉनिक पौधों में आपको व आपके बच्चों को हर रोज, नई जड़ें व नई कोपलें फूटते दिखाई देंगी। जड़ों का बेहद खूबसूरत संसार। स्कूली बच्चों के लिए शर्मा ने सस्ता टेलीस्कोप भी तैयार किया है, 70 मिलीमीटर व्यास का। बाजार से खरीदेंगे तो 10-12 हजार लगेंगे, लेकिन शर्मा का टेलीस्कोप 3,100 रुपए में वही आनंद देता है। इस टेलीस्कोप को वे बच्चों को बनाना व खराब हो जाने पर ठीक करना भी सिखाते हैं। इससे, रात को आसमान के तारे साफ-साफ पहचाने जा सकते हैं।
छोटे बच्चों को विज्ञान के जटिल सिद्धांत बताने की तरकीबें भी उन्होंने बनाई हैं- करीब 172 एक्शन टॉइज बनाकर। वो भी कबाड़ से। रबर की टूटी चप्पल, सीडी, आइसक्रीम खाने वाली स्पून, प्लास्टिक के टुकड़ों, शीतल पेय के बोतल की ढक्कन, बैलून आदि से वे आसानी से न्यूटन, आर्कमिडीज व फ्लेमिंग से लेकर ग्रेविटी, चुंबक, मोटर, सेंसर्स, हैंडपंप, बिजली, ऊर्जा के कठिन लगने वाले नियमों को खेल-खेल में सिखा सकते हैं। दून के आसपास के गाँवों में रहने वाली महिलाओं व ड्रॉप-आऊट बच्चियों के लिए भी उन्होंने विज्ञान में गुंजाइश तलाशी है। उन्हें बिजली की बचत करने वाली एलईडी लाइटस बनानी सिखाने के साथ बेचने में मदद दी जा रही है। इससे, कभी बल्ब उद्योग के लिए मशहूर रहे देहरादून में फिर प्राण आ गए हैं। बल्ब निर्माण को आधुनिक रूप देते हुए उसे बैंबू फेन्सिंग लाइटस का आकर्षण प्रदान किया गया है।
वह बताते हैं, ट्यूबवेल के प्रयोग वाले, एक सामान्य घर में एलईडी बल्बों के प्रयोग से 75-80 प्रतिशत तक ऊर्जा बचाई जा सकती है। जीरो वाट के बल्ब में 12 वाट बिजली खर्च होती है। इसके बदले एलईडी से दो बड़े कमरे दूधिया रोशनी में नहा सकते हैं। शर्मा को दून में रंगीन मछलियों, ऑरनामेंटल फिशेज के व्यवसाय को प्रेरित करने का भी श्रेय जाता है। यह व्यवसाय अब बहुत विस्तार पा चुका है, लेकिन 1986 में ब्रजमोहन ने ही एक्वेरियम बना-बेच कर इसकी शुरूआत की थी। उनके उल्लेखनीय काम के लिए, उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2004, उरेडा व बीईई ने 2009 व 2010 तथा उत्तराखंड विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की साइंस कांग्रेस ने उन्हें वर्ष 2010 के सर्वश्रेष्ठ अवार्ड दिए हैं।
अभी हाल में, उन्हें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने सचल तारामंडल दिया है, जिसे स्कूली बच्चों के बीच ले जाने का खर्च भी केन्द्र सरकार वहन करेगी। 30 गुणा 30 आकार व 12 फीट ऊँचाई के तारामंडल में 25-30 बच्चे एक साथ बैठाए जा सकते हैं। तारामंडल को कंप्रेशर की मदद से फुलाया जाता है।
इसके भीतर, बच्चों को आसमान की पूरी छटा दिखेगी। जो तारा जहाँ पर है, उसे इस रेप्लिका के भीतर वैसा ही, लेकिन अधिक साफ देखा जा सकेगा। शर्मा की तारामंडल को गाँव-गाँव घुमाने की योजना है, ताकि बच्चों को एस्ट्रॉनॉमी की एबीसीडी क्लीयर हो सके। जर्मनी की एक कंपनी की ओर से संस्था को सस्ती दरों में, जल शुद्धता माप की सबसे उन्नत उपकरण मिल गए हैं। 110 पैरामीटर्स पर काम करने वाली यह प्रणाली, प्रदेश में अब तक की सबसे एडवांस प्रणाली होगी।
बनाने की मुहिम में जुटे शर्मा का निजी अनुभव भी काम का हो सकता है। डीएवी कॉलेज देहरादून से केमिस्ट्री में एमएससी करने के बाद शर्मा के सामने, अपनी शिक्षा को सार्थक करने की चुनौती थी। उन्हें महसूस हुआ वे ऐसा कुछ भी नहीं जानते जो आम लोगों की दिक्कतों व जरूरतों का निदान कर सके। इसी दौरान, पहाड़ के दुर्गम इलाकों में की गई यात्राओं ने इस अहसास को और अधिक गहरा किया। आत्मालोचना के इस दौर में जैसे-तैसे पीएचडी तो निपटा ली, लेकिन मन में प्रण कर लिया, मास्टरी या चाकरी नहीं करनी। यही से शुरू हुआ प्रयोगों, अनुसंधानों व खोजों का सिलसिला, जो अनवरत जारी है।
विज्ञानियों की भूमिका पर बोलते हुए शर्मा कहते हैं, विज्ञान को वैज्ञानिकों का नहीं आम जनों का विषय बनाने की चुनौती है। हालाँकि, आम आदमी भी अपरोक्ष रूप से अपने जीवन में विज्ञान का प्रयोग करता है, लेकिन उसकी छोटी-छोटी तकनीकी जरूरतों को प्रशिक्षण प्राप्त लोग दूर कर सकते हैं। पहाड़ में आज भी सस्ता व सुलभ ट्रैक्टर नहीं है। बड़ी मात्रा में माल्टा व दूसरे फल, एक मामूली प्रोसेसिंग यूनिट न होने से खराब हो जाते हैं।
ऐसे में प्रति वर्ष हजारों इंजीनियरों व परास्नातकों की डिग्रियाँ किस काम की ! 50 हजार में कील बनाने की फैक्ट्री लग जाती है, लेकिन अभी तक उत्तराखंड में ऐसी एक भी फैक्ट्री नहीं है। शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार के साथ, व्यक्तिवाद या अकेले आगे बढ़ने की मानसिकता से लड़ना होगा। मेरे लिए यह सुनना बेहद पीड़ाजनक है कि फलाँ गाँव का व्यक्ति इंजीनियर या वैज्ञानिक बनकर विदेश चला गया है। उससे अच्छा तो ये सुनते लगता है कि फलाँ गाँव का लड़का, जूस की फैक्ट्री खोल रहा है। हमारी प्रगति वो नहीं जो अमेरिका में जाकर धूम मचाए, हमें अपने हिस्से में अपना अमेरिका बनाना है।
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