जिओलॉजिस्ट बनिए

भूवैज्ञानिकों को सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा जारी टोपोग्राफिकल नक्शों की मदद से ग्राउण्ड वाटर की स्थिति का पता लगाना होता है।

संभावनाएं


एक ओर जहां ग्राउंड वॉटर के माघ्यम से लोगों की जरूरत पूरी होती है वहीं इस महत्वपूर्ण सामाजिक आपूर्ति के क्षेत्र में भूविज्ञान और भूभौतिकी के मास्टर डिग्रीधारी छात्रों के लिए कैरियर की अच्छी संभावनाएं भी हो सकती हैं। चंडीगढ़ की सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड इस क्षेत्र में कार्यरत राष्ट्रीय संस्था है और इस जैसी कई संस्थाएं ग्राउंड वॉटर इंवेस्टीगेशन में कार्यरत हैं। महाराष्ट्र की ग्राउंड वॉटर सर्वे एंड डेवलपमेंट एक ऐसी ही संस्था है। इसका मुख्यालय पुणे में है। भूविज्ञान और भूभौतिकी के कई पोस्ट ग्रेजुएट्स बड़ी संख्या में यहां कार्य भी कर रहे हैं। इनके अलावा कोलकाता मुख्यालय से संबद्ध द जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में भी ग्राउंड वॉटर डिवीजन है। विभिन्न राज्यों में स्थित डॉयरेक्टोरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइंस भी ग्राउंड वॉटर से जुड़े इंवेस्टीगेशन के लिए कार्य करती हैं।

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आईआईटी मुंबई, आईआईटी खडगपुर और हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी द्वारा जियोफिजिक्स में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री प्रदान की जाती है। इस क्षेत्र में ऐसे योग्य भू-वैज्ञानिकों की आवश्यकता भी होती है, जो सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा जारी किए गए टोपोग्राफिकल नक्शों की मदद से ग्राउंड वॉटर की स्थिति का पता लगाने में सहायक होते हैं और कहां किस प्रकार की चट्टानें मिलेंगी, यह भी वे बेहतर तरीके से बता सकते हैं। इस काम में उनकी मदद भूभौतिकी के विशेषज्ञ करते हैं। वे अपनी विशेषज्ञता से पता लगा सकते हैं कि पानी की झिर कहां होगी, कहां से पानी का स्त्रोत मिलने की संभावनाएं ज्यादा प्रबल हैं। आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर डॉ. वी. सुब्रमण्यम का कहना है कि ग्राउंड वॉटर के स्तर का पता लगाने का सबसे आसान तरीका यह है कि जहां पर कई सर्पेंस स्ट्रीम्स नजर आएं, वहां जमीन में पानी के अच्छे स्तर की उम्मीद को छोड़ ही दीजिए। मतलब साफ है उस जगह से पानी सतह पर बह रहा होता है, तो वहां गहराई में ज्यादा पानी होने की संभावना हो ही नहीं सकती।

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