दिल्ली में हालिया दिनों में ज़मीन में कम्पन दर्ज किए गए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इस प्रकार के कम्पनों के जरिए एनर्जी रिलीज होने से भूकम्प का खतरा कम हो जाता है। लेकिन उनकी इस मान्यता की स्पष्ट रूप से पुष्टि नहीं होती। भूकम्प के हालात से निपटने को लेकर जैसी हमारी तैयारी रहती है और गुजरात में भूकम्प आने के पश्चात राहत और बचाव कार्यों में जिस प्रकार से सरकार के स्तर पर शिथिलता देखी गई, उससे लगता है कि इस शहर के वल्नरेबिलिटी नक्शों की समीक्षा की जाए। दिल्ली भारत के भूकम्पीय क्षेत्रों के जोन चार में पड़ता है यानी यहाँ रिक्टर स्केल पर 5 से 6 क्षमता का भूकम्प आने की आशंका है। इस क्षमता के भूकम्प का अर्थ हुआ कि भूकम्प आने पर यहाँ जैसी हमारी तैयारी का स्तर है, उसे देखते हुए जान-माल का काफी नुकसान हो सकता है
बीते एक दशक के दौरान कुदरती और मानव-निर्मित आपदाओं में खासा इजाफा हुआ है। हाल के दशकों में इनके आकार-प्रकार, तीव्रता और बारम्बारता में कई गुना वृद्धि हो गई है। इन घटनाओं में 142 प्रतिशत तक की सर्वाधिक बढ़ोत्तरी उन देशों में दर्ज की गई जहाँ मानव विकास निम्न स्तर का है। माना जा रहा है कि जनसंख्या में वृद्धि और जीवनस्तर के चलते यह बढ़ोत्तरी हुई। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 85 प्रतिशत हिस्सा आपदा-आशंकित क्षेत्र है और ये आपदाएँ भी विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं। इस 85 प्रतिशत हिस्से का करीब 59 प्रतिशत भाग भूकम्प-आशंकित क्षेत्र है। इस हिस्से में मामूली, उच्च और अति-उच्च स्तर के भूकम्प की आशंका बनी रहती है।
हिमालयी क्षेत्र में सामान्यत: और भारत के बड़े शहरों में खासकर भूकम्प आने की खासी खतरनाक स्थिति बनी हुई है। घनी आबादी वाले क्लस्टरों, जागरुकता में कमी और पाँव पसारे गरीबी को इसके कारणों में गिनाया जा सकता है। हाल में नेपाल और भारत में मानव-जीवन और सम्पत्ति को भूकम्प से प्रत्यक्ष और फॉल्टिंग, जमीन फटने, धँसने, अपहीवल और ज़मीन खिसकने आदि जैसे परोक्ष रूपों में बेहद नुकसान हुआ है। जरूरी हो गया है कि आपदा का पूर्वानुमान, निगरानी और राहत कार्यों को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाए। जनसंख्या के फैलाव, घनत्त्व, भूकम्पीय गतिविधियों और उनकी गम्भीरता के सुपर-इम्पोज्ड चित्रों से पता चलता है कि हिमालयी क्षेत्र भूकम्पों की दृष्टि से सर्वाधिक संजीदा और संवेदनशील जगह है।
हिमालय की तराई में बड़े शहर आबाद हैं, जो शहरी पर्यावरण के लिये बेहद उच्च जोखिम का सबब बने हुए हैं। नेपाल में हालिया भूकम्प से सिन्धुपल, चौक, काठमाण्डू, नुवाकोट, धाड़िंग, भक्तपुर, गोरखा, कावरे, ललितपुर और रसुआ सर्वाधिक प्रभावित जिले हैं। यूनिसेफ की घोषणा के अनुसार करीब 10 लाख लोग आपदा से ‘बुरी तरह प्रभावित’ हुए हैं। भूकम्प से मरने वालों की संख्या पाँच हजार का आँकड़ा पार कर चुकी है। नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला ने मरने वालों की संख्या 10 हजार से ज्यादा होने की शंका जताई है।
विश्व की भूकम्पीय एनर्जी का 80 प्रतिशत हल्के भूकम्प तथा ज्यादा-से-ज्यादा एनर्जी मध्यम और तीव्र भूकम्प से प्लेट बाउंडरीज पर रिलीज होती है। हिमालय पर्वत शृंखला सर्वाधिक स्पष्टता से नाटकीय अन्दाज में प्लेट टेक्टोनिक्स के प्रभावों को परिलक्षित करती है। इसे कंवर्जेंट प्लेट मोशंस के तौर पर जाना जाता है, जहाँ एक प्लेट के दूसरी से जा मिलने से क्रस्ट नष्ट हो जाता है। नेपाल में पिछले दिनों आया भूकम्प भी इसी प्रकार के घटनाक्रम का नतीजा था।
भूमि के कम्पन से इतने लोग नहीं मरते जितने इमारतों के गिरने से। ऐतिहासिक स्थलों और भूकम्प-आशंकित क्षेत्रों में आपदा के ढर्रे और रूझान को समझने के लिये सम्बद्ध क्षेत्र की भौगोलिक सूचना प्रणाली और रिमोट सेंसिंग की मदद ली जा सकती है। माइक्रोजोनेशन मैपिंग के लिये ग्राउण्ड पेनिट्रेटिंग राडार (जीपीआर) के जरिए फॉल्ट लाइनों और लिनेमेंट्स पर निगरानी रखी जा सकती है। भूकम्प के हालात से अच्छे से निबटने और मिटिगेशन के लिये भूकम्प-आशंकित मैप्स की मदद से शुरुआती कार्य को अंजाम दिया जा सकता है।
सर्वविदित है कि ज़मीन में कम्पन से नहीं बल्कि इमारतों के भरभरा कर गिरने से ज्यादा लोग मरते हैं। कहा जाता है कि गरीब लोगों के कच्ची मिट्टी से बने मकान भूकम्प में ज्यादा ध्वस्त होते हैं, जबकि अमीर लोगों के सीमेंट से बने मकान लोगों की जान बचाने में कारगर साबित होते हैं। नेपाल जैसे अल्प विकसित देशों के लिये यह बात लागू होती है। बहरहाल, इमारत गिरने से होने वाली मौतों की संख्या कम-से-कम करने की गरज से निर्माण स्थलों, निर्माण सामग्री और निर्माण तकनीक की बाबत सख्त नियमन की दरकार है।
फ्रेंच, जापानी और कुछ अन्य विकसित देशों के अन्य वैज्ञानिकों ने भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने के लिये सेटेलाइट डाटा का उपयोग किया है। हमें सिंथेटिक अर्पचर राडार (एसएआर) सेंसर डाटा के उपयोग की सम्भावनाओं और इसके उपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ईआरएस-1 सेटेलाइट की सहायता से भूकम्प की वास्तविक इमेजिंग को लेकर अध्ययन किया गया है। एक अन्य तकनीक ज्योडेटिक वेरी लांग बेसलाइन इंटरफेरोमेट्री (वीएलबीआई) के जरिए समूचे देश का मोफरे-स्ट्रक्चर्ड जोनिंग मैप बनाने की है, जिससे आपदा का सही से अनुमान लगाया जा सके और तद्नुसार समुचित रूप से सम्भव चेतावनी जारी की जा सके। भूकम्प के चक्र को मापने का ढर्रा भी भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने में उपयोगी हो सकता है।
जानवरों, चींटियों और पक्षियों के असामान्य व्यवहार से कुछेक असामान्य घटनाओं जैसे भूकम्प आदि का पूर्वानुमान चीन जैसे देशों में लगाया जाता था और इस प्रकार जान-माल को होने वाले नुकसान को कम-से-कम रखने में कामयाबी मिल जाती थी। मैं बताना चाहूँगा कि हिन्द महासागर में सूनामी आने से पहले हाथियों का असामान्य व्यवहार देखा गया था।
इस पण्राली से भूकम्पीय ढाँचों की अन्तरक्रिया और स्थलों को अच्छे से समझने में मदद मिल सकती है। इससे भूकम्पीय स्थितियों की निगरानी ज्यादा अच्छे से करने में सहायता मिल सकती है। क्षेत्रीय टेक्टोनिक, ज्योलॉजिक और फियोग्राफिक विशेषताओं पर आधारित सही भूकम्पीय क्षेत्रों के चयन और क्षेत्रीय ऐतिहासिक भूकम्पीय रूझानों के जरिए भी इस प्रकार से निगरानी रखी जा सकती है।
दिल्ली में हालिया दिनों में ज़मीन में कम्पन दर्ज किए गए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इस प्रकार के कम्पनों से एनर्जी रिलीज होने से भूकम्प का खतरा कम हो जाता है। लेकिन उनकी इस मान्यता की स्पष्ट रूप से पुष्टि नहीं होती।
भूकम्प के हालात से निपटने को लेकर जैसी हमारी तैयारी रहती है और गुजरात में भूकम्प आने के पश्चात राहत और बचाव कार्यों में जिस प्रकार से सरकार के स्तर पर शिथिलता देखी गई, उससे जरूरी लगता है कि इस शहर के वल्नरेबिलिटी नक्शों की समीक्षा की जाए। दिल्ली भारत के भूकम्पीय क्षेत्रों के जोन चार में पड़ता है, यानी यहाँ रिक्टर स्केल पर 5 से 6 क्षमता का भूकम्प आने की आशंका है। इस क्षमता के भूकम्प का अर्थ हुआ कि भूकम्प आने पर यहाँ जैसी हमारी तैयारी का स्तर है, उसे देखते हुए जान-माल का काफी नुकसान हो सकता है। जहाँ मकानों, इमारतों, पुराने पुलों, ऐतिहासिक महत्त्व के स्थलों वगैरह में कमजोरी है, वहीं लोगों में भूकम्प को लेकर जागरुकता जैसे प्रभावित क्षेत्र से सुरक्षित निकलने की जानकारी, बचाव सम्बन्धी प्रयासों की जानकारी आदि को लेकर भी बेहद अभाव है। हमें दिल्ली के मामले में भूकम्प सम्बन्धी तैयारियों को लेकर योजनाओं और नीतियों पर गहनता से विचार करना चाहिए।
दिल्ली के पूर्वी किनारे तथा उ.प्र. के दादरी में फॉल्ट लाइन की मौजूदगी के मद्देनज़र आवश्यक है कि सतत निगरानी पर ध्यान केन्द्रित किया जाए।
पुरानी इमारतों को सिरे से नया बना देना तो मुश्किल और महंगा काम है, लेकिन उनमें पिलर और बीम की सपोर्ट, अग्निरोधी उपाय जैसे सुरक्षा उपाय करके उन्हें सुरक्षित बनाया जा सकता है।
जितने भी नए मकान बनाए जाएँ उन्हें भूकम्प-रोधी उपायों के मद्देनज़र चाक-चौबन्द करने की गरज से बनाए गए नियम-कायदों को सख्ती से लागू कराया जाना चाहिए। किसी भी प्रकार की आपदा से सुरक्षित पाए जाने पर ही किसी नवनिर्मित इमारत के लिये कंप्लीशन प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए। अस्पताल, स्कूल आदि का निर्माण करते समय उनमें भूकम्प-रोधी उपायों को तवज्जो दी जानी चाहिए।
यमुना पार के इलाकों में गगनचुम्बी इमारतों और आवासीय परिसरों के निर्माण से पूर्व ज़मीन की उपयुक्ता का आकलन किया जाना चाहिए। बाढ़ से प्रभावित रहने वाली भूमि, पुनर्निर्मित जलक्षेत्र, भौगोलिक रूप से कमजोर इलाकों में गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण से बचा जाना चाहिए। इन क्षेत्रों को पार्क, स्टेडियम, पिकनिक स्थलों या एक मंजिली इमारतों के निर्माण के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहाँ भी इस प्रकार के निर्माण कार्य शुरू करने से पूर्व भवन निर्माण सम्बन्धी नियमों का पूरी तरह से पालन होना चाहिए।
पुरानी दिल्ली, पहाड़गंज, करोलबाग, जहाँगीरपुरी, शाहदरा आदि इलाकों में पार्क, हरित पट्टी, चौड़ी सड़कें वगैरह का निर्माण कराया जाना चाहिए जिससे कि ये स्थान राहत शिविरों बनाने की नौबत आने की स्थिति में उपयोगी साबित हो सकें।
भूकम्प आने की स्थिति में सबसे पहले दूरसंचार नेटवर्क प्रभावित होता है। इसलिये जरूरी है कि जिला अधिकारियों को सेटेलाइट फोन दिए जाएँ ताकि वे प्रभावित इलाकों में आपदा की स्थिति में अपने काम को अच्छे से अंजाम दे सकें। आपदा-आशंकित क्षेत्रों में सचल अस्पताल स्थापित किए जाने चाहिए।
जापान में सूनामी प्रभावित क्षेत्रों में जिस प्रकार से सौर ऊर्जा का उपयोग किया गया था, उसी तरीके से भूकम्प के समय इसके उपयोग की दृष्टि से भी गौर किया जाना चाहिए।
बड़े नगरों में प्रशिक्षित लोगों के ऐसे दस्ते स्थायी रूप से रखे जाएँ तो गिरी इमारत के मलबे में दबे लोगों को चिन्हित करके उन्हें बाहर निकाल सकें। प्रशिक्षित कुत्तों को भी इस काम के लिये रखा जाए।
आपदा की स्थिति में क्या करना चाहिए, क्या नहीं? इस बारे में जानकारी देने के लिये विज्ञापनों की मदद ली जानी चाहिए। रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा हॉलों में विज्ञापनों के जरिए लोगों को बताया जाना चाहिए कि उन्हें आपात स्थिति में क्या करना चाहिए, क्या नहीं?
अर्थक्वेक मिटिगेशन में ढाँचागत और गैर ढाँचागत उपाय शामिल है। ढाँचागत उपाय वे होते हैं जिनमें मकानों को मजबूत बनाने पर बल दिया जाता है। उन्हें भूकम्प को झेलने की गरज से मजबूत बनाया जाता है। गैर-ढाँचागत उपायों के तहत लोगों को मुस्तैद किया जाता है जिससे कि भूकम्प मकानों को कम-से-कम नुकसान पहुँचा पाए। इनमें भूकम्प बीमा भी शामिल होता है। भारत में हम अभी तक इस मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाए हैं। अमेरिका और जापान जैसे विकसित देशों की तरह अपने यहाँ भी इस प्रकार के उपाय किए जाने आवश्यक हैं।
राजनेताओं और अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को उन इलाकों में दौरे करने से बचना चाहिए जो भूकम्प से प्रभावित हुए हों। कम-से-कम घटना के तत्काल बाद तो उन इलाकों में उन्हें नहीं जाना चाहिए ताकि राहत और बचाव कार्य प्रभावित न होने पाएँ और राहत और बचाव कार्यों में जुटे कर्मी अपने काम को अच्छे से अंजाम दे पाएँ।
शिक्षण संस्थानों, सामुदायिक नेताओं और नीति-निर्माताओं की भूमिका आपदा के समय महत्त्वपूर्ण हो जाती है। खाद्य, पानी, राहत शिविरों, ऊर्जा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसी मानवीय जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करने की गरज से इनकी सेवाएँ ली जानी चाहिए। बहुपक्षीय मानवीय समस्याओं के समाधान के लिये भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान, मानविकी, भूगोल, अर्थशास्त्र और उपलब्ध तकनीक विकास के बीच इस कदर सामंजस्य होना चाहिए कि हालात को साजगार बनाने में मदद मिल। छात्रों को आपदा के मद्देनज़र मुस्तैद रहने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। सभी छात्रों के लिये इस प्रकार का प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्राथमिक चिकित्सा, राष्ट्रीय सेवा योजना और राष्ट्रीय कैडेट कोर इस लिहाज से खासी कारगर हो सकती है।
अभी हाल में नेपाल और भारत में भूकम्प से हुए जान-माल के नुकसान के मद्देनज़र जरूरी है कि राहत कार्य और सहायता पैकेजों को संयोजित किया जाए। सेनाओं, अर्ध-सैनिक बलों, चिकित्सीय समूहों, सरकार और स्वयं सहायता समूहों को एकजुट होकर राहत कार्य और प्रभावितों के पुनर्वास की दिशा में काम करना चाहिए।
लेखक, हेड डिपार्टमेंट ऑफ जियोलॉजी दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स दिल्ली विश्वविद्यालय
बीते एक दशक के दौरान कुदरती और मानव-निर्मित आपदाओं में खासा इजाफा हुआ है। हाल के दशकों में इनके आकार-प्रकार, तीव्रता और बारम्बारता में कई गुना वृद्धि हो गई है। इन घटनाओं में 142 प्रतिशत तक की सर्वाधिक बढ़ोत्तरी उन देशों में दर्ज की गई जहाँ मानव विकास निम्न स्तर का है। माना जा रहा है कि जनसंख्या में वृद्धि और जीवनस्तर के चलते यह बढ़ोत्तरी हुई। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 85 प्रतिशत हिस्सा आपदा-आशंकित क्षेत्र है और ये आपदाएँ भी विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं। इस 85 प्रतिशत हिस्से का करीब 59 प्रतिशत भाग भूकम्प-आशंकित क्षेत्र है। इस हिस्से में मामूली, उच्च और अति-उच्च स्तर के भूकम्प की आशंका बनी रहती है।
हिमालयी क्षेत्र में सामान्यत: और भारत के बड़े शहरों में खासकर भूकम्प आने की खासी खतरनाक स्थिति बनी हुई है। घनी आबादी वाले क्लस्टरों, जागरुकता में कमी और पाँव पसारे गरीबी को इसके कारणों में गिनाया जा सकता है। हाल में नेपाल और भारत में मानव-जीवन और सम्पत्ति को भूकम्प से प्रत्यक्ष और फॉल्टिंग, जमीन फटने, धँसने, अपहीवल और ज़मीन खिसकने आदि जैसे परोक्ष रूपों में बेहद नुकसान हुआ है। जरूरी हो गया है कि आपदा का पूर्वानुमान, निगरानी और राहत कार्यों को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाए। जनसंख्या के फैलाव, घनत्त्व, भूकम्पीय गतिविधियों और उनकी गम्भीरता के सुपर-इम्पोज्ड चित्रों से पता चलता है कि हिमालयी क्षेत्र भूकम्पों की दृष्टि से सर्वाधिक संजीदा और संवेदनशील जगह है।
हिमालय की तराई में बड़े शहर आबाद हैं, जो शहरी पर्यावरण के लिये बेहद उच्च जोखिम का सबब बने हुए हैं। नेपाल में हालिया भूकम्प से सिन्धुपल, चौक, काठमाण्डू, नुवाकोट, धाड़िंग, भक्तपुर, गोरखा, कावरे, ललितपुर और रसुआ सर्वाधिक प्रभावित जिले हैं। यूनिसेफ की घोषणा के अनुसार करीब 10 लाख लोग आपदा से ‘बुरी तरह प्रभावित’ हुए हैं। भूकम्प से मरने वालों की संख्या पाँच हजार का आँकड़ा पार कर चुकी है। नेपाल के प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला ने मरने वालों की संख्या 10 हजार से ज्यादा होने की शंका जताई है।
हिमालयी क्षेत्र में भूकम्प का ढर्रा
विश्व की भूकम्पीय एनर्जी का 80 प्रतिशत हल्के भूकम्प तथा ज्यादा-से-ज्यादा एनर्जी मध्यम और तीव्र भूकम्प से प्लेट बाउंडरीज पर रिलीज होती है। हिमालय पर्वत शृंखला सर्वाधिक स्पष्टता से नाटकीय अन्दाज में प्लेट टेक्टोनिक्स के प्रभावों को परिलक्षित करती है। इसे कंवर्जेंट प्लेट मोशंस के तौर पर जाना जाता है, जहाँ एक प्लेट के दूसरी से जा मिलने से क्रस्ट नष्ट हो जाता है। नेपाल में पिछले दिनों आया भूकम्प भी इसी प्रकार के घटनाक्रम का नतीजा था।
भूमि के कम्पन से इतने लोग नहीं मरते जितने इमारतों के गिरने से। ऐतिहासिक स्थलों और भूकम्प-आशंकित क्षेत्रों में आपदा के ढर्रे और रूझान को समझने के लिये सम्बद्ध क्षेत्र की भौगोलिक सूचना प्रणाली और रिमोट सेंसिंग की मदद ली जा सकती है। माइक्रोजोनेशन मैपिंग के लिये ग्राउण्ड पेनिट्रेटिंग राडार (जीपीआर) के जरिए फॉल्ट लाइनों और लिनेमेंट्स पर निगरानी रखी जा सकती है। भूकम्प के हालात से अच्छे से निबटने और मिटिगेशन के लिये भूकम्प-आशंकित मैप्स की मदद से शुरुआती कार्य को अंजाम दिया जा सकता है।
सर्वविदित है कि ज़मीन में कम्पन से नहीं बल्कि इमारतों के भरभरा कर गिरने से ज्यादा लोग मरते हैं। कहा जाता है कि गरीब लोगों के कच्ची मिट्टी से बने मकान भूकम्प में ज्यादा ध्वस्त होते हैं, जबकि अमीर लोगों के सीमेंट से बने मकान लोगों की जान बचाने में कारगर साबित होते हैं। नेपाल जैसे अल्प विकसित देशों के लिये यह बात लागू होती है। बहरहाल, इमारत गिरने से होने वाली मौतों की संख्या कम-से-कम करने की गरज से निर्माण स्थलों, निर्माण सामग्री और निर्माण तकनीक की बाबत सख्त नियमन की दरकार है।
कम्पन का पूर्वानुमान
फ्रेंच, जापानी और कुछ अन्य विकसित देशों के अन्य वैज्ञानिकों ने भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने के लिये सेटेलाइट डाटा का उपयोग किया है। हमें सिंथेटिक अर्पचर राडार (एसएआर) सेंसर डाटा के उपयोग की सम्भावनाओं और इसके उपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ईआरएस-1 सेटेलाइट की सहायता से भूकम्प की वास्तविक इमेजिंग को लेकर अध्ययन किया गया है। एक अन्य तकनीक ज्योडेटिक वेरी लांग बेसलाइन इंटरफेरोमेट्री (वीएलबीआई) के जरिए समूचे देश का मोफरे-स्ट्रक्चर्ड जोनिंग मैप बनाने की है, जिससे आपदा का सही से अनुमान लगाया जा सके और तद्नुसार समुचित रूप से सम्भव चेतावनी जारी की जा सके। भूकम्प के चक्र को मापने का ढर्रा भी भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने में उपयोगी हो सकता है।
सांस्कृतिक
जानवरों, चींटियों और पक्षियों के असामान्य व्यवहार से कुछेक असामान्य घटनाओं जैसे भूकम्प आदि का पूर्वानुमान चीन जैसे देशों में लगाया जाता था और इस प्रकार जान-माल को होने वाले नुकसान को कम-से-कम रखने में कामयाबी मिल जाती थी। मैं बताना चाहूँगा कि हिन्द महासागर में सूनामी आने से पहले हाथियों का असामान्य व्यवहार देखा गया था।
भूकम्प की निगरानी
इस पण्राली से भूकम्पीय ढाँचों की अन्तरक्रिया और स्थलों को अच्छे से समझने में मदद मिल सकती है। इससे भूकम्पीय स्थितियों की निगरानी ज्यादा अच्छे से करने में सहायता मिल सकती है। क्षेत्रीय टेक्टोनिक, ज्योलॉजिक और फियोग्राफिक विशेषताओं पर आधारित सही भूकम्पीय क्षेत्रों के चयन और क्षेत्रीय ऐतिहासिक भूकम्पीय रूझानों के जरिए भी इस प्रकार से निगरानी रखी जा सकती है।
असुरक्षित दिल्ली
दिल्ली में हालिया दिनों में ज़मीन में कम्पन दर्ज किए गए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इस प्रकार के कम्पनों से एनर्जी रिलीज होने से भूकम्प का खतरा कम हो जाता है। लेकिन उनकी इस मान्यता की स्पष्ट रूप से पुष्टि नहीं होती।
भूकम्प के हालात से निपटने को लेकर जैसी हमारी तैयारी रहती है और गुजरात में भूकम्प आने के पश्चात राहत और बचाव कार्यों में जिस प्रकार से सरकार के स्तर पर शिथिलता देखी गई, उससे जरूरी लगता है कि इस शहर के वल्नरेबिलिटी नक्शों की समीक्षा की जाए। दिल्ली भारत के भूकम्पीय क्षेत्रों के जोन चार में पड़ता है, यानी यहाँ रिक्टर स्केल पर 5 से 6 क्षमता का भूकम्प आने की आशंका है। इस क्षमता के भूकम्प का अर्थ हुआ कि भूकम्प आने पर यहाँ जैसी हमारी तैयारी का स्तर है, उसे देखते हुए जान-माल का काफी नुकसान हो सकता है। जहाँ मकानों, इमारतों, पुराने पुलों, ऐतिहासिक महत्त्व के स्थलों वगैरह में कमजोरी है, वहीं लोगों में भूकम्प को लेकर जागरुकता जैसे प्रभावित क्षेत्र से सुरक्षित निकलने की जानकारी, बचाव सम्बन्धी प्रयासों की जानकारी आदि को लेकर भी बेहद अभाव है। हमें दिल्ली के मामले में भूकम्प सम्बन्धी तैयारियों को लेकर योजनाओं और नीतियों पर गहनता से विचार करना चाहिए।
भूकम्प के केन्द्र की सतत निगरानी
दिल्ली के पूर्वी किनारे तथा उ.प्र. के दादरी में फॉल्ट लाइन की मौजूदगी के मद्देनज़र आवश्यक है कि सतत निगरानी पर ध्यान केन्द्रित किया जाए।
पुरानी इमारतों की रिट्रोफिटिंग
पुरानी इमारतों को सिरे से नया बना देना तो मुश्किल और महंगा काम है, लेकिन उनमें पिलर और बीम की सपोर्ट, अग्निरोधी उपाय जैसे सुरक्षा उपाय करके उन्हें सुरक्षित बनाया जा सकता है।
भवन निर्माण नियमों को सख्त बनाया जाए
जितने भी नए मकान बनाए जाएँ उन्हें भूकम्प-रोधी उपायों के मद्देनज़र चाक-चौबन्द करने की गरज से बनाए गए नियम-कायदों को सख्ती से लागू कराया जाना चाहिए। किसी भी प्रकार की आपदा से सुरक्षित पाए जाने पर ही किसी नवनिर्मित इमारत के लिये कंप्लीशन प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए। अस्पताल, स्कूल आदि का निर्माण करते समय उनमें भूकम्प-रोधी उपायों को तवज्जो दी जानी चाहिए।
यमुना-पार के इलाकों में निर्माण कार्य पर रखी जाए निगरानी
यमुना पार के इलाकों में गगनचुम्बी इमारतों और आवासीय परिसरों के निर्माण से पूर्व ज़मीन की उपयुक्ता का आकलन किया जाना चाहिए। बाढ़ से प्रभावित रहने वाली भूमि, पुनर्निर्मित जलक्षेत्र, भौगोलिक रूप से कमजोर इलाकों में गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण से बचा जाना चाहिए। इन क्षेत्रों को पार्क, स्टेडियम, पिकनिक स्थलों या एक मंजिली इमारतों के निर्माण के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहाँ भी इस प्रकार के निर्माण कार्य शुरू करने से पूर्व भवन निर्माण सम्बन्धी नियमों का पूरी तरह से पालन होना चाहिए।
पुरानी दिल्ली के लिये खुले स्थान तय हों
पुरानी दिल्ली, पहाड़गंज, करोलबाग, जहाँगीरपुरी, शाहदरा आदि इलाकों में पार्क, हरित पट्टी, चौड़ी सड़कें वगैरह का निर्माण कराया जाना चाहिए जिससे कि ये स्थान राहत शिविरों बनाने की नौबत आने की स्थिति में उपयोगी साबित हो सकें।
संचार नेटवर्क हो दुरुस्त
भूकम्प आने की स्थिति में सबसे पहले दूरसंचार नेटवर्क प्रभावित होता है। इसलिये जरूरी है कि जिला अधिकारियों को सेटेलाइट फोन दिए जाएँ ताकि वे प्रभावित इलाकों में आपदा की स्थिति में अपने काम को अच्छे से अंजाम दे सकें। आपदा-आशंकित क्षेत्रों में सचल अस्पताल स्थापित किए जाने चाहिए।
आपात स्थिति में सौर एवं पवन ऊर्जा का हो उपयोग
जापान में सूनामी प्रभावित क्षेत्रों में जिस प्रकार से सौर ऊर्जा का उपयोग किया गया था, उसी तरीके से भूकम्प के समय इसके उपयोग की दृष्टि से भी गौर किया जाना चाहिए।
मुस्तैद रहें आपदा प्रबन्धन दस्ते
बड़े नगरों में प्रशिक्षित लोगों के ऐसे दस्ते स्थायी रूप से रखे जाएँ तो गिरी इमारत के मलबे में दबे लोगों को चिन्हित करके उन्हें बाहर निकाल सकें। प्रशिक्षित कुत्तों को भी इस काम के लिये रखा जाए।
मीडिया के जरिए लोगों को किया जाए जागरूक
आपदा की स्थिति में क्या करना चाहिए, क्या नहीं? इस बारे में जानकारी देने के लिये विज्ञापनों की मदद ली जानी चाहिए। रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा हॉलों में विज्ञापनों के जरिए लोगों को बताया जाना चाहिए कि उन्हें आपात स्थिति में क्या करना चाहिए, क्या नहीं?
अर्थक्वेक मिटिगेशन
अर्थक्वेक मिटिगेशन में ढाँचागत और गैर ढाँचागत उपाय शामिल है। ढाँचागत उपाय वे होते हैं जिनमें मकानों को मजबूत बनाने पर बल दिया जाता है। उन्हें भूकम्प को झेलने की गरज से मजबूत बनाया जाता है। गैर-ढाँचागत उपायों के तहत लोगों को मुस्तैद किया जाता है जिससे कि भूकम्प मकानों को कम-से-कम नुकसान पहुँचा पाए। इनमें भूकम्प बीमा भी शामिल होता है। भारत में हम अभी तक इस मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाए हैं। अमेरिका और जापान जैसे विकसित देशों की तरह अपने यहाँ भी इस प्रकार के उपाय किए जाने आवश्यक हैं।
राजनेता दौरे करने से बचें
राजनेताओं और अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को उन इलाकों में दौरे करने से बचना चाहिए जो भूकम्प से प्रभावित हुए हों। कम-से-कम घटना के तत्काल बाद तो उन इलाकों में उन्हें नहीं जाना चाहिए ताकि राहत और बचाव कार्य प्रभावित न होने पाएँ और राहत और बचाव कार्यों में जुटे कर्मी अपने काम को अच्छे से अंजाम दे पाएँ।
शिक्षण संस्थानों की भूमिका
शिक्षण संस्थानों, सामुदायिक नेताओं और नीति-निर्माताओं की भूमिका आपदा के समय महत्त्वपूर्ण हो जाती है। खाद्य, पानी, राहत शिविरों, ऊर्जा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसी मानवीय जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करने की गरज से इनकी सेवाएँ ली जानी चाहिए। बहुपक्षीय मानवीय समस्याओं के समाधान के लिये भौतिक, प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान, मानविकी, भूगोल, अर्थशास्त्र और उपलब्ध तकनीक विकास के बीच इस कदर सामंजस्य होना चाहिए कि हालात को साजगार बनाने में मदद मिल। छात्रों को आपदा के मद्देनज़र मुस्तैद रहने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। सभी छात्रों के लिये इस प्रकार का प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्राथमिक चिकित्सा, राष्ट्रीय सेवा योजना और राष्ट्रीय कैडेट कोर इस लिहाज से खासी कारगर हो सकती है।
अभी हाल में नेपाल और भारत में भूकम्प से हुए जान-माल के नुकसान के मद्देनज़र जरूरी है कि राहत कार्य और सहायता पैकेजों को संयोजित किया जाए। सेनाओं, अर्ध-सैनिक बलों, चिकित्सीय समूहों, सरकार और स्वयं सहायता समूहों को एकजुट होकर राहत कार्य और प्रभावितों के पुनर्वास की दिशा में काम करना चाहिए।
लेखक, हेड डिपार्टमेंट ऑफ जियोलॉजी दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स दिल्ली विश्वविद्यालय
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