उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास ही किसी गांव में जन्मे उमाकांत उमराव ने मध्य प्रदेश के देवास में जिलाधीश के पद पर लगभग डेढ़ साल की एक छोटी सी अवधि में यहां की पारंपरिक तालाब संस्कृति को अपने बूते जिंदा कर दिखाया जिसकी वजह से यहां के बच्चे-बूढ़े, औरतें सभी उनके दीवाने हो गए और उन्हें श्रद्धा से भरकर जलाधीश (जल देवता) कहकर पुकारने लगे।
मालवा क्षेत्र के सबसे सूखे जिले देवास में तबादले की खबर सुनते ही उनके घर-परिवार और दोस्त उन पर इस बात का दबाव बनाने लगे कि किसी तरह वे अपने तबादले का आदेश रुकवा लें। असल में देवास में 1990 से ही पीने का पानी रेलगाड़ियों में टैंकर भरकर लाया जाने लगा था।
पहली बार जब रेलगाड़ी से पानी आया था तो बकायदे शासन-प्रशासन के लोगों ने ढोल-नगाड़े बजाकर उस ट्रेन का स्वागत भी किया था। उमराव की तैनाती से पूर्व देवास को ‘डार्क जोन (भूजल खत्म होने की स्थिति)’ घोषित किया जा चुका था। यहां का भूजल स्तर औसतन 300-400 फीट तो कहीं-कहीं 600 फीट तक नीचे उतर आया था। कई गांवों में ट्यूबवेल की संख्या 500-1000 तक पहुंच चुकी थी।
देवास में साल भर में औसतन 40 दिन ही बारिश होती है जो राष्ट्रीय औसत से भी कम है। मध्य प्रदेश कैडर के आइएएस उमाकांत देवास में तबादले से पूर्व सतना, छिंदवाड़ा, ग्वालियर और सागर जिले में अपनी सेवा दे चुके थे। देवास से पूर्व वे जन-स्वास्थ्य की योजना का फायदा ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचे, की चिंता में मशगूल रहते थे।
हालांकि सागर में वे अपनी पहली पोस्टिंग के पहले ही दिन वाटरशेड का काम देखने गए। देवास पहुंचे तो उन्हें यह समझ में आया कि अगर पानी न हो और पर्याप्त अनाज पैदा न हो तो फिर स्वास्थ्य लाभ की योजना किसी भी सूरत में कारगार कैसे हो सकती है?
रुड़की (उत्तर प्रदेश) इंजीनियरिंग से बीई की डिग्री लेने के बाद उमराव ने बतौर इंजीनियर कुछ वर्ष तक रेलवे को अपनी सेवाएं दी। आइएएस की परीक्षा 1997 में पास करने और ट्रेनिंग पूरी करने के बाद 1998 से लेकर अब तक उन्होंने मध्य प्रदेश के कई जिलों में अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं।
देवास में पानी की समस्या को दूर करने के लिए उमराव ने ‘जल बचाओ, जीवन बचाओ’ की बजाय ‘जल बचाओ, लाभ कमाओ’ के नारे गढ़े और इसका फायदा यह हुआ कि दस बड़े किसानों को साथ लेकर शुरू की गई ‘भागीरथ कृषक अभियान’ आज दुनिया में तीसरे सबसे बड़े जल-संरक्षण के मिसाल के तौर पर गिनाया जाने लगा है। 2011-12 में संयुक्त राष्ट्र ने देवास जिले में जल-संरक्षण के लिए तालाब संस्कृति को जिंदा किए जाने और उसे विस्तार दिए जाने को दुनिया में तीसरा श्रेष्ठ उदाहरण मान लिया है।
उमाकांत उमराव ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाने में न दिन देखा और न रात की परवाह की। वे छुट्टी के दिन जेठ की तपती दुपहरी में भी अपनी गाड़ी गांव के बाहर खड़ी कर देते और गांव के किसानों के साथ घूमते और सबसे तालाब बनाने की अपील करते।
छुट्टी का दिन इस काम को देने का पीछे उनका उद्देश्य यह था कि उन पर कोई यह आरोप न लगाए कि वह प्रशासन का काम छोड़कर गढ़री, तालाब और पोखर बनाने में लगे रहते हैं। उमाकांत ने किसानों के बीच तालाब की बातचीत को कभी भी उपदेशात्मक या साहिबी शक्ल अख्तियार नहीं करने दिया। वे किसानों को तालाब खुदाई का अर्थशास्त्र उनसे सवाल-जवाब शैली में समझा डालते थे।
वे किसानों से वर्तमान हालत के बारे में बात करते और उसके बाद उन्हें तालाब खोदने के फायदे गिनाते और उनकी आंखों में आर्थिक समृद्धि का सपना भरने का काम करते थे। शुरूआती दौर में किसान को इनकी बात पल्ले नहीं पड़ती और वे अनमने ढंग से हामी जरूर भर देते थे लेकिन धीरे-धीरे किसानों पर तो उमाकांत उमराव के तालाबों का रंग इतना चोखा चढ़ा कि आज हर कोई वहां तालाब का अर्थशास्त्र किसी को भी चुटकी में समझा सकता है। बकौल उमाकांत उमराव, ‘निपानिया गांव के किसान पोप सिंह का कद 6 फीट तीन इंच और मैं पांच फीट से भी कम कद का आदमी। बातचीत में भी पोप सिंह की चुप्पी और आशंका मेरी अफसरशाही को चुनौती देती लेकिन तालाब में पानी भरने और किसानों के जीवन में समृद्धि आने के साथ-साथ मेरे मन से यह सब घुल-घुलकर बहकर बाहर चला गया। आज तालाब के काम के कारण मेरा जीवन सार्थक हो गया।’
उमराव गांव-गांव घूमकर किसानों को तालाब या पानी का अर्थशास्त्र समझाते। इस काम के लिए उन्होंने पहले बड़ी जोत वाले किसानों को आगे आने को कहा क्योंकि वे इस प्रयोग की सफलता-असफलता को लेकर शुरुआती दौर में थोड़ी सशंकित थे और उन्हें यह लगा कि अगर यह प्रयोग असफल भी हो तो बड़े किसान इस जोखिम को छोटी जोत के किसान की तुलना में आसानी से झेल जाएंगे। उमाकांत उमराव किसानों को अपने रकबे के दस फीसदी पर छोटे-बड़े एक-दो या पांच तालाब बनाने को कहते। उन्होंने इस काम के लिए किसानों को बैंक से कर्ज भी दिलवाया।
बैंक के पास तालाब के लिए ऋण देने की कोई व्यवस्था नहीं थी तो इस हालत में उमराव ने किसानों के कर्ज के बदले में खुद गारंटी लेनी शुरू कर दी और एक-दो साल में ही किसानों को इसका फायदा दिखने लगा। अब यहां के किसान एक की बजाय दो-तीन और चार फसलें बोने लगे हैं। यहां के किसान अपनी खेती-किसानी के साथ-साथ खेती से जुड़े दूसरे पेशे भी करने में जुट गए।
वे बीज कॉपरेटिव, वेयर हाउसेज, मछली पालन आदि भी करने लगे हैं और नतीजा सामने है कि कई किसान करोड़ों रुपए साल में बचत कर पा रहे हैं। कुछ किसानों का साल भर का टर्नओवर 15-20 करोड़ रुपए का है तो अपेक्षाकृत छोटे किसानों का लाख रुपए का सालाना टर्नओवर तो है।
बड़े किसानों को फायदा होता देख छोटे किसानों ने भी तालाब बनाने शुरू कर दिए और अब आलम यह है कि देवास जिले के कई गांव ऐसे हैं जहां 100-125 से ज्यादा तालाब हैं। टोंक कलां और धतूरिया ऐसे ही गांव हैं जहां चारों ओर तालाब ही तालाब दीखते हैं। इसी जिले में एक गांव हरनावदा है जहां हर साल तालाब (रेवा सागर) का जन्मदिन मनाया जाता है। इस गांव में तालाब का काम आगे बढ़ाने वाले किसान रघुनाथ सिंह तोमर ने ट्यूबवेल का जनाजा भी निकाला था।
देवास के अचरज भरे इस काम को देखने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इटली सहित देश के अलग-अलग राज्यों से 25 हजार से ज्यादा लोग आ चुके हैं। केंद्र सरकार इस जिले को पांच बार ‘भूजल संरक्षण’ सम्मान से नवाज चुकी है। देवास के लोग तालाब के बारे में बात करते हुए उमाकांत उमराव को श्रेय देना नहीं भूलते हैं। हालांकि उमाकांत उमराव प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का जिक्र आते ही कहते हैं- मेरी उनसे मुलाकात नहीं है लेकिन मेरा उनसे संबंध एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसा है। मैंने उनके पारंपरिक पानी के स्रोतों तालाबों, बावड़ियों आदि के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है। उनकी किताब ‘आज भी खरे है तालाब’ मुझे कई लोगों ने उपहार स्वरूप दिए।
निश्चित तौर पर इस किताब ने तालाब के बारे में समझ विकसित करने में मदद पहुंचाई है। तालाब और पानी सहेजने के ज्ञान के बारे में यह किताब एक महाकाव्य है। देवास के लोग उमाकांत उमराव के नाम पर वेयर हाउस बना रहे हैं। देवास से मुंबई-आगरा हाइवे पर निकलते ही कुछ किलोमीटर उमराव वेयर हाउस के दर्शन बहुत आसानी से हो जाते हैं।
यह वेयर हाउस दुर्गापुरा गांव के पशुपालन विभाग में कार्यरत डॉ. श्रीराम कुमावत ने बनवाया है। उमराव फिलहाल मध्य प्रदेश के आदिवासी विकास विभाग, भोपाल के आयुक्त हैं लेकिन वे देवास के किसानों के साथ अपना जुड़ाव आज भी उतनी गहराई से महसूस करते हैं। वे किसानों को अपना परिवार बताते हैं और सच तो यह है कि वे एक-दूसरे से संपर्क में रहते हैं। यह भी सच है कि उमाकांत उमराव का नाम किसी शिलालेख पर नहीं बल्कि देवास की आत्मा में बस चुका है।
मालवा क्षेत्र के सबसे सूखे जिले देवास में तबादले की खबर सुनते ही उनके घर-परिवार और दोस्त उन पर इस बात का दबाव बनाने लगे कि किसी तरह वे अपने तबादले का आदेश रुकवा लें। असल में देवास में 1990 से ही पीने का पानी रेलगाड़ियों में टैंकर भरकर लाया जाने लगा था।
पहली बार जब रेलगाड़ी से पानी आया था तो बकायदे शासन-प्रशासन के लोगों ने ढोल-नगाड़े बजाकर उस ट्रेन का स्वागत भी किया था। उमराव की तैनाती से पूर्व देवास को ‘डार्क जोन (भूजल खत्म होने की स्थिति)’ घोषित किया जा चुका था। यहां का भूजल स्तर औसतन 300-400 फीट तो कहीं-कहीं 600 फीट तक नीचे उतर आया था। कई गांवों में ट्यूबवेल की संख्या 500-1000 तक पहुंच चुकी थी।
देवास में साल भर में औसतन 40 दिन ही बारिश होती है जो राष्ट्रीय औसत से भी कम है। मध्य प्रदेश कैडर के आइएएस उमाकांत देवास में तबादले से पूर्व सतना, छिंदवाड़ा, ग्वालियर और सागर जिले में अपनी सेवा दे चुके थे। देवास से पूर्व वे जन-स्वास्थ्य की योजना का फायदा ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचे, की चिंता में मशगूल रहते थे।
हालांकि सागर में वे अपनी पहली पोस्टिंग के पहले ही दिन वाटरशेड का काम देखने गए। देवास पहुंचे तो उन्हें यह समझ में आया कि अगर पानी न हो और पर्याप्त अनाज पैदा न हो तो फिर स्वास्थ्य लाभ की योजना किसी भी सूरत में कारगार कैसे हो सकती है?
रुड़की (उत्तर प्रदेश) इंजीनियरिंग से बीई की डिग्री लेने के बाद उमराव ने बतौर इंजीनियर कुछ वर्ष तक रेलवे को अपनी सेवाएं दी। आइएएस की परीक्षा 1997 में पास करने और ट्रेनिंग पूरी करने के बाद 1998 से लेकर अब तक उन्होंने मध्य प्रदेश के कई जिलों में अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं।
देवास में पानी की समस्या को दूर करने के लिए उमराव ने ‘जल बचाओ, जीवन बचाओ’ की बजाय ‘जल बचाओ, लाभ कमाओ’ के नारे गढ़े और इसका फायदा यह हुआ कि दस बड़े किसानों को साथ लेकर शुरू की गई ‘भागीरथ कृषक अभियान’ आज दुनिया में तीसरे सबसे बड़े जल-संरक्षण के मिसाल के तौर पर गिनाया जाने लगा है। 2011-12 में संयुक्त राष्ट्र ने देवास जिले में जल-संरक्षण के लिए तालाब संस्कृति को जिंदा किए जाने और उसे विस्तार दिए जाने को दुनिया में तीसरा श्रेष्ठ उदाहरण मान लिया है।
उमाकांत उमराव ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाने में न दिन देखा और न रात की परवाह की। वे छुट्टी के दिन जेठ की तपती दुपहरी में भी अपनी गाड़ी गांव के बाहर खड़ी कर देते और गांव के किसानों के साथ घूमते और सबसे तालाब बनाने की अपील करते।
छुट्टी का दिन इस काम को देने का पीछे उनका उद्देश्य यह था कि उन पर कोई यह आरोप न लगाए कि वह प्रशासन का काम छोड़कर गढ़री, तालाब और पोखर बनाने में लगे रहते हैं। उमाकांत ने किसानों के बीच तालाब की बातचीत को कभी भी उपदेशात्मक या साहिबी शक्ल अख्तियार नहीं करने दिया। वे किसानों को तालाब खुदाई का अर्थशास्त्र उनसे सवाल-जवाब शैली में समझा डालते थे।
वे किसानों से वर्तमान हालत के बारे में बात करते और उसके बाद उन्हें तालाब खोदने के फायदे गिनाते और उनकी आंखों में आर्थिक समृद्धि का सपना भरने का काम करते थे। शुरूआती दौर में किसान को इनकी बात पल्ले नहीं पड़ती और वे अनमने ढंग से हामी जरूर भर देते थे लेकिन धीरे-धीरे किसानों पर तो उमाकांत उमराव के तालाबों का रंग इतना चोखा चढ़ा कि आज हर कोई वहां तालाब का अर्थशास्त्र किसी को भी चुटकी में समझा सकता है। बकौल उमाकांत उमराव, ‘निपानिया गांव के किसान पोप सिंह का कद 6 फीट तीन इंच और मैं पांच फीट से भी कम कद का आदमी। बातचीत में भी पोप सिंह की चुप्पी और आशंका मेरी अफसरशाही को चुनौती देती लेकिन तालाब में पानी भरने और किसानों के जीवन में समृद्धि आने के साथ-साथ मेरे मन से यह सब घुल-घुलकर बहकर बाहर चला गया। आज तालाब के काम के कारण मेरा जीवन सार्थक हो गया।’
उमराव गांव-गांव घूमकर किसानों को तालाब या पानी का अर्थशास्त्र समझाते। इस काम के लिए उन्होंने पहले बड़ी जोत वाले किसानों को आगे आने को कहा क्योंकि वे इस प्रयोग की सफलता-असफलता को लेकर शुरुआती दौर में थोड़ी सशंकित थे और उन्हें यह लगा कि अगर यह प्रयोग असफल भी हो तो बड़े किसान इस जोखिम को छोटी जोत के किसान की तुलना में आसानी से झेल जाएंगे। उमाकांत उमराव किसानों को अपने रकबे के दस फीसदी पर छोटे-बड़े एक-दो या पांच तालाब बनाने को कहते। उन्होंने इस काम के लिए किसानों को बैंक से कर्ज भी दिलवाया।
बैंक के पास तालाब के लिए ऋण देने की कोई व्यवस्था नहीं थी तो इस हालत में उमराव ने किसानों के कर्ज के बदले में खुद गारंटी लेनी शुरू कर दी और एक-दो साल में ही किसानों को इसका फायदा दिखने लगा। अब यहां के किसान एक की बजाय दो-तीन और चार फसलें बोने लगे हैं। यहां के किसान अपनी खेती-किसानी के साथ-साथ खेती से जुड़े दूसरे पेशे भी करने में जुट गए।
वे बीज कॉपरेटिव, वेयर हाउसेज, मछली पालन आदि भी करने लगे हैं और नतीजा सामने है कि कई किसान करोड़ों रुपए साल में बचत कर पा रहे हैं। कुछ किसानों का साल भर का टर्नओवर 15-20 करोड़ रुपए का है तो अपेक्षाकृत छोटे किसानों का लाख रुपए का सालाना टर्नओवर तो है।
बड़े किसानों को फायदा होता देख छोटे किसानों ने भी तालाब बनाने शुरू कर दिए और अब आलम यह है कि देवास जिले के कई गांव ऐसे हैं जहां 100-125 से ज्यादा तालाब हैं। टोंक कलां और धतूरिया ऐसे ही गांव हैं जहां चारों ओर तालाब ही तालाब दीखते हैं। इसी जिले में एक गांव हरनावदा है जहां हर साल तालाब (रेवा सागर) का जन्मदिन मनाया जाता है। इस गांव में तालाब का काम आगे बढ़ाने वाले किसान रघुनाथ सिंह तोमर ने ट्यूबवेल का जनाजा भी निकाला था।
देवास के अचरज भरे इस काम को देखने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इटली सहित देश के अलग-अलग राज्यों से 25 हजार से ज्यादा लोग आ चुके हैं। केंद्र सरकार इस जिले को पांच बार ‘भूजल संरक्षण’ सम्मान से नवाज चुकी है। देवास के लोग तालाब के बारे में बात करते हुए उमाकांत उमराव को श्रेय देना नहीं भूलते हैं। हालांकि उमाकांत उमराव प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का जिक्र आते ही कहते हैं- मेरी उनसे मुलाकात नहीं है लेकिन मेरा उनसे संबंध एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसा है। मैंने उनके पारंपरिक पानी के स्रोतों तालाबों, बावड़ियों आदि के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है। उनकी किताब ‘आज भी खरे है तालाब’ मुझे कई लोगों ने उपहार स्वरूप दिए।
निश्चित तौर पर इस किताब ने तालाब के बारे में समझ विकसित करने में मदद पहुंचाई है। तालाब और पानी सहेजने के ज्ञान के बारे में यह किताब एक महाकाव्य है। देवास के लोग उमाकांत उमराव के नाम पर वेयर हाउस बना रहे हैं। देवास से मुंबई-आगरा हाइवे पर निकलते ही कुछ किलोमीटर उमराव वेयर हाउस के दर्शन बहुत आसानी से हो जाते हैं।
यह वेयर हाउस दुर्गापुरा गांव के पशुपालन विभाग में कार्यरत डॉ. श्रीराम कुमावत ने बनवाया है। उमराव फिलहाल मध्य प्रदेश के आदिवासी विकास विभाग, भोपाल के आयुक्त हैं लेकिन वे देवास के किसानों के साथ अपना जुड़ाव आज भी उतनी गहराई से महसूस करते हैं। वे किसानों को अपना परिवार बताते हैं और सच तो यह है कि वे एक-दूसरे से संपर्क में रहते हैं। यह भी सच है कि उमाकांत उमराव का नाम किसी शिलालेख पर नहीं बल्कि देवास की आत्मा में बस चुका है।
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Post By: Shivendra