नई दिल्ली। वर्ष 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के प्रति एकजुटता दिखाते हुए फ्रांस के लेखक और कार्यकर्ता डोमिनिक लैपियर ने कहा है कि यहां के प्रभावित इलाकों में बच्चे जहरीला पानी पी रहे हैं। राजधानी के जंतर-मंतर में रविवार शाम को भोपाल गैस त्रासदी के प्रभावितों के प्रदर्शन के दौरान लैपियर ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से गुजारिश की कि इनकी समस्याओं को सुनें। सोमवार को जारी एक बयान में लैपियर ने कहा कि उन्होंने इस जहरीले पानी को एक बार पिया था पर इसके तुरंत बाद उनके चमड़े में खुजली होने लगी और गले में परेशानी आ गई। ''फाइव मिनट्स पास्ट मिडनाइट इन भोपाल' के सह लेखक लैपियर ने इस पुस्तक से मिलने वाली रायल्टी को एक चैरिटी क्लीनिक को देने की घोषणा की। यह क्लीनिक त्रासदी से बचने वाले परिवारों और उनके बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कर रहा है। गौरतलब है कि 3 दिसंबर, 1984 को यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित प्लांट में रासायनिक गैस के रिसाव के कारण करीब तीन हजार 800 लोगों की मौत हो गई थी।
भोपाल गैस त्रासदी के घाव अभी भरे नहीं
कोई क्या करे जब उसकी सुनने वाला कोई नहीं हो जब सरकारों ने अपने कान बंद कर लिए हों और मीडिया के लिए रोचक कार्यक्रमों के मायने बदल गए हों। भोपाल गैस पीड़ितों का कहना है कि ऐसा ही कुछ उनके साथ हुआ है, हालांकि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है। चौबीस साल पहले घटी घटना को शायद लोगों ने भुला दिया हो लेकिन उसके घाव अब भी जन्म ले रहे बच्चों के शरीरों पर देखे जा सकते हैं। अपने दुख दर्द केंद्र सरकार के सामने रखने के लिए बीस फ़रवरी 2008 को भोपाल गैस पीड़ितों ने दिल्ली तक सड़क यात्रा की शुरुआत की। कई मीलों लंबी ये यात्रा 28 मार्च को दिल्ली में ख़त्म हुई लेकिन पीड़ितों का कहना है कि सरकार को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। तपती धूप में गैस पीड़ितों ने अपनी बात को रखने के लिए 38 दिन तक जंतर मंतर पर धरना दिया। वे बच्चे जो ठीक से देख नहीं सकते या चल नहीं सकते, उन्होंने इस भयानक गर्मी में भी सब्र नहीं खोया।
रशीदा कहती हैं कि पीड़ितों ने संतरी से लेकर मंत्री से गुहार लगाई, लेकिन मात्र आश्वासन के अलावा उनके हाथ कुछ नहीं लगा। वो कहती हैं, ''हम कई सांसदों से मिल चुके हैं। हम अर्जुन सिंह, रामविलास पासवान, ऑस्कर फर्नांडिस, यहाँ तक कि प्रधानमत्री के मुख्य सचिव से मिल चुके हैं, लेकिन सबने यही कहा कि हमने आपकी बात प्रधानमंत्री तक पहुँचा दी है लेकिन वो कब आपसे मिलेंगे ये उन्होंने नहीं बताया।'' कोई रास्ता नहीं निकलते देख भोपाल गैस पीड़ितों ने सीधे प्रधानमंत्री आवास तक अपनी आवाज़ पहुँचाने की ठानी। करीब 50 गैस पीड़ित सोमवार की सुबह दिल्ली के प्रेस क्लब पर एक बस में इकठ्ठा हुए। भोपाल गैस पीड़ितों के हितों के लिए संघर्षरत एक कार्यकर्ता ने बताया कि उन्हें इसके अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा वो सीधे प्रधानमंत्री के घर अचानक पहुँचें और उनसे मामले में दखल देने की गुज़ारिश करें। उनका कहना था, ''अगर हम मार्च करते हुए आवास तक जाते तो सुरक्षाकर्मी हमें ऐसा नहीं करने देते, इसलिए उन्होंने ऐसा रास्ता चुना है।'' मैं भी बस में सवार हो लिया। इतने सारे बच्चों के लिए बस शायद छोटी थी। कुछ बच्चे अपनी माँ के गोद में दुबके हुए थे। हमे बताया गया कि बस में बैठे कुछ बच्चे या तो चल नहीं सकते या फिर उन्हें दिखाई देना बंद हो गया है क्योंकि यूनियन कार्बाइड की फ़ैक्ट्री से निकले धुएं ने वर्षों बाद भी उन्हे नहीं बख्शा है।
प्रधानमंत्री से नाराज़गी
बस में बैठे लोग बेहद नाराज़ हैं। सब के ज़हन में बस एक ही सवाल था- दुनिया का इतनी बड़ी त्रासदी के शिकार लोग, जो इतनी दूर से पैदल चलकर आए और बदहवास कर देने वाली गर्मी में जंतर मंतर में शांतिपूर्वक अपनी बात रखी, क्या देश के प्रधानमंत्री के पास उनके लिए दो मिनट भी नहीं है? आख़िर मनमोहन सिंह उनके भी तो प्रधानमंत्री हैं। गैस पीड़ितों का कहना है कि सरकार को उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है बच्चों ने अपने कपड़ों के ऊपर काले रंग का कपड़ा ओढ़ रखा था, जिस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए लिखा था एक सवाल-अग़र हम आपके परिवार के सदस्य होते तो क्या हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता? बस पर मौजूद आसिफ़ा अख़्तर ने हमें बताया कि जब तक बच्चों के लिए अधिकार उन्हें नहीं मिलते, वो वापस नहीं जाएँगे। प्रधानमंत्री आवास के नज़दीक आते ही बस में हलचल शुरू हो गई। आवास के पास बस की रफ़्तार धीरे होते देख तैनात सुरक्षाकर्मी भी सकते में आ गए और बस की ओर दौड़ना शुरू कर दिया।
इधर कार्यकर्ताओं ने बच्चों को बस के बाहर निकालना शुरू कर दिया। एक तरफ़ सुरक्षाकर्मी बच्चों को बाहर निकलने से रोकने की कोशिश कर रहे थे, तो दूसरी तरफ बच्चों और साथ आई महिलाओं का इरादा कुछ और ही था। कुछ बच्चें ज़मीन पर लेट गए, लेकिन सुरक्षाकर्मियों के आगे उनकी एक भी नहीं चल पाई। उन्हें जल्द ही बस में वापस डाल दिया गया। कुछ लोग भोपाल की तस्वीरें लहराते नज़र आए, लेकिन पुलिसवालों ने कोई कोताही नहीं बरती और उन्हें भी बस में डालकर रवाना कर दिया। करीब 20 मिनट में ही छोटी सी भीड़ पर काबू पा लिया गया। पुलिसिया डंडा फिर जीत गया।
/articles/jaharailaa-paanai-pai-rahae-haain-bhaopaala-kae-bacacae-daomainaika-laapaiyara