जहां शोक बन जाती है गंगा, पद्मा और तिस्ता


मालदा के केबी झाऊबन ग्राम पंचायत के तहत रहने वाले अहमद के परिवार के पास वर्ष 1971 में सौ बीघे जमीन थी। लेकिन हर साल बदलते गंगा के बहाव की वजह से होने वाले भूमिकटाव के चलते धीरे-धीरे उसकी जमीन नदी के पेट में समाती गई और आज उनके पास एक इंच जमीन भी नहीं बची है। दस साल पहले वर्ष 2000 में उसके पास जमीन का जो टुकड़ा और मकान बचा था, वह भी गंगा ने लील लिया। तबसे वह हर साल अपना ठिकाना बदलता रहा है। फिलहाल वह गंगा के तट से चार किमी दूर बसी बस्ती में रहता है। अहमद बताता है कि पहले नदी यहां से सात किलोमीटर दूर थी, लेकिन अब यह दूरी चार किमी ही बची है। कुछ साल में यह इलाका भी उसी तरह गंगा के पेट में समा जाएगा जिस तरह झाऊबन इलाका समा गया है।

मालदा जिले के 85 वर्षीय खलील अहमद नदी के आतंक के जीते-जागते सबूत हैं। गंगा नदी की ओर से हर साल बरसात के सीजन से बड़े पैमाने पर होने वाले भूमिकटाव के चलते हर बार उनका ठिकाना बदला जाता है। यह नदी हर साल मालदा और पड़ोसी मुर्शिदाबाद जिले में हजारों एकड़ फसलें लील जाती है। और साथ ही कई गांव भी इसके पेट में चले जाते हैं। नतीजतन हर साल लाखों लोग बेघर हो जाते हैं। यह लोग किसी दूसरी जगह नए सिरे से बसते हैं और गृहस्थी ठीक से बसने से पहले ही वे अगले साल फिर उजड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। दुनिया की हर संस्कृति-सभ्यता में नदियों को जीवन का स्रोत माना जाता है। इनको जीवनदायिनी कहा जाता है और वह अपने किनारे बसे लोगों की आजीविका का साधन होती हैं। संगीत और साहित्य में भी नदी की काफी अहमियत होती है। लेकिन यही नदी जब खुद पर निर्भर लोगों को लीलने लगती है तो आतंक का पर्याय बन जाती है। पश्चिम बंगाल के उत्तरी इलाके यानी उत्तर बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद और जलपाईगुड़ी जिले के लोगों से बेहतर इस बात को भला कौन समझ सकता है।

मालदा में अहमद की तरह ऐसे हजारों लोग हैं जिनका सबकुछ गंगा ने छीन लिया है। इन दोनों जिलों में भूमिकटाव की समस्या इतनी भयावह है कि इसे राष्ट्रीय समस्या घोषित करने की मांग में आंदोलन होते रहे हैं। राज्य सरकार पैसों की कमी का रोना रोते हुए सारा दोष केंद्र के मत्थे मढ़ देती हैं। हर चुनाव में यही मुद्दा सबसे अहम होता है। लोग जीतने के बाद इस समस्या को भी भूल जाते हैं और यहां के लोगों को भी। मुर्शिदाबाद जिले के जंगीपुर से केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ही चुनाव जीतते रहे हैं। बावजूद इसके इस समस्या पर अंकुश लगाने की दिशा में अब तक कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है।

सिंचाई विभाग के अधिकारी बताते हैं कि मालदा में कटाव की समस्या बेहद गंभीर है। वर्ष 2010 में भी पंचानंदपुर, कालियाचक, रतुआ और मानिकचक इलाकों में लगभग सत्तर किलोमीटर इलाका गंगा के पेट में चला गया है। कुतुबुद्दीन और उसके परिवार ने गंगा के कटाव की वजह से तीस साल पहले ही अपनी जमीन से हाथ धो लिया था। वह बताता है कि कभी जहां मेरा घर और खेत थे, वह जगह अब गंगा में दो किमी भीतर चली गई हैं। मैंने बीते बीस वर्षों के दौरान पांच बार अपना ठिकाना बदला है। कुतुबुद्दीन कहता है कि बाढ़ से नुकसान तो होता था, लेकिन पानी उतरने के बाद हमें अपनी जमीन मिल जाती थी और वह पहले के मुकाबले ज्यादा उपजाऊ हो जाती थी। लेकिन इस कटाव, जिसे स्थानीय भाषा में भांगन कहा जाता है, ने तो मेरा सब कुछ हमेशा छीन लिया है।

मालदा में सिंचाई विभाग में एक्जीक्यूटिव इंजीनियर पीके राय बताते हैं कि वर्ष 1972 में फरक्का बांध बनने से पहले भी बाढ़ और कटाव की समस्या थी। बांध बनने के बाद इनका आकार भयावह हो गया है। सरकारी आंकड़ों के हवाले राय बताते हैं कि वर्ष 1980 से अब तक यानी बीते तीस वर्षों के दौरान लगभग पांच हजार हेक्टेयर जमीन गंगा के पेट में समा चुकी है। इनमें गांवों के अलावा आम के बगान और खेत शामिल हैं।

गंगा का कटाव साठ के दशक से ही चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, फरक्का बांघ बनने के बाद हालात तेजी से बदतर हुए हैं। इलाके में बाढ़ व कटाव की वजहों का पता लगाने के लिए सरकार ने वर्ष 1980 में प्रीतम सिंह समिति का गठन किया था और 1996 में केशकर समिति का। इन दोनों ने अपनी रिपोर्ट में इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कई अल्पकालीन और दीर्घकालीन उपाय सुझाए थे। लेकिन उस समय धन की कमी की वजह से सरकार एक भी सिफारिश पर अमल नहीं कर सकी।

गंगा का कटाव साठ के दशक से ही चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक फरक्का बांध बनने के बाद हालात तेजी से बदतर हुए हैं। इलाके में बाढ़ व कटाव की वजहों का पता लगाने के लिए सरकार ने वर्ष 1980 में प्रीतम सिंह समिति का गठन किया था और 1996 में केशकर समिति का। इन दोनों ने अपनी रिपोर्ट में इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कई अल्पकालीन और दीर्घकालीन उपाय सुझाए थे।

सरकारी अधिकारियों का कहना है कि गंगा के पेट में जमी तलछट और गाद की सफाई कर नदी की गहराई बढ़ाना जरूरी है। लेकिन इस काम में इतना खर्च है कि यह राज्य सरकार के बूते की बात नहीं है। फरक्का तक गंगा राष्ट्रीय नही है। वहां से इसकी एक धारा पड़ोसी बांग्लादेश में चली जाती है जहां इसे पद्मा कहा जाता है। पड़ोसी मुर्शिदाबाद में भी इस नदी को पद्मा ही कहा जाता है। मालदा और मुर्शिदाबाद की सीमाएं बांग्लादेश से सटी हैं। इन जिलों में अल्पसंख्यकों की आबादी ज्यादा है जो देश के विभाजन के बाद सीमा पार से आकर बसे हैं। गंगा नदी मालदा को झारखंड से अलग करती है तो पद्मा नदी मालदा और मुर्शिदाबाद को एक-दूसरे से अलग करती है। इन दोनों जिलों के लोग मुख्य रूप से आजीविका के लिए खेत और नदी पर ही निर्भर है। लेकिन दशकों तक जीवनदायिनी रही गंगा और पद्मा नदियां अब इलाके के लोगों के लिए शोक बनती जा रही हैं। मालदा जिले के कालियाचक, और पगलाघाट इलाके जल्दी ही गंगा के पेट में समा सकते हैं। जो कहर गंगा मालदा जिले में बरपाती है वही पड़ोसी मुर्शिदाबाद में पद्मा बरसाती है। पद्मा हर साल हजारों बीघे खेती की जमीन अपने साथ बहा ले जाती है। पद्मा का बहाव हर साल बदलता रहता है और उसके साथ लोगों के विस्थापन का कभी खत्म नहीं होने वाला सिलसिला भी चलता रहता है। कभी सैंकड़ों बीघे जमीन का मालिक रहे लोग भी अब सिर छिपाने के लिए दो गज जमीन तलाश रहे हैं। जिला मुख्यालय बहरमपुर से सत्तर किलोमीटर जालंगी इलाके के शहीदुल मंडल के पास कुछ साल पहले तक साठ बीघे जमीन होती थी।

उस पर खेती से वह अपने परिवार का पेट पालता था। लेकिन धीरे-धीरे उसकी आंखों के सामने ही पूरी जमीन पद्मा के गर्भ में चली गई और इस समय मंडल को पेट पालने के लिए दूसरों के खेत में मजदूरी करनी पड़ती है। उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में तिस्ता नदी इलाके का शोक बन गई हैं। हर साल उससे आने वाली भयावह बाढ़ से जान-माल का भारी नुकसान होता है। उस जिले में कई वन्यजीव अभयारण्य और राष्ट्रीय पार्क हैं। लेकिन तिस्ता के कहर से वे भी अछूते नहीं है। हर साल सैंकड़ों की तादाद में वन्यजीव भी बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं। बाढ़ का पानी उतरने के साथ सैकड़ों बीघे जमीन भी नदी के पेट में चली जाती है। इससे ज्यादातर वन क्षेत्र है।
 
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