जहाँ पानी नहीं वहाँ मछली की बात

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आत्महत्या करते किसानफ्रांस की क्रान्ति के समय वहाँ की जनता भूखों मर रही थी और विद्रोह ने उग्र रूप धारण कर लिया। वहाँ तख्ता पलटने की पूरी सम्भावना थी। फ्रांस के राजमहल के बाहर बड़ा शोर-गुल सुनकर वहाँ की रानी ने पूछा कि उनकी प्रजा इतना चिल्ला क्यों रही है। उन्हें बताया गया कि आम जनता के पास ब्रेड खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं, तो उन्होंने प्रश्न किया कि फिर ये लोग केक क्यों नहीं खाते! यह एक उदाहरण है, जब शासक अपनी जनता से कट जाते हैं और उनके वास्तविक कष्ट को नहीं समझते। यह घटना सदियों पूर्व की है, किन्तु आज भी उतनी ही शाश्वत है। राजशाही हो या प्रजातंत्र, शासकों के सन्दर्भ में यह स्थिति बदली नहीं है। भारत के सन्दर्भ में भी यह बात कही जा सकती है। मुझे बड़ा अचंभा होता है कि अधिकतर नेताओं का रिश्ता गाँव से जुड़ा हुआ है और वे स्वयं भी बड़ी साधारण स्थिति से उठकर सत्ता की कुर्सी तक पहुँचते हैं तो आखिर क्या है इस कुर्सी का रहस्य कि वह इन नेताओं को अपने पूर्व अस्तित्व से दूर कर देती है।

ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र के दो जिलों मराठवाड़ा और विदर्भ में देखने को मिला। इस वर्ष इन्द्र देवता यानी मानसून ने फिर अपनी आँख इन दो जिलों की तरफ नहीं की। अत: इन दोनों जिलों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वैसे भी महाराष्ट्र के विदर्भ व मराठवाड़ा कई वर्षों से अनावृष्टि झेल रहे हैं। इस सूखे से निपटने के लिए सरकार यानी महाराष्ट्र सरकार ने जो कदम उठाए हैं, वे हस्यास्पद ज्यादा हैं। यहाँ की सरकार ने सूखाग्रस्त क्षेत्रों में ऐसी वैन भेजने का निश्चय किया है, जिसमें रेफ्रीजरेटर और खाना बनाने के लिए स्टोव की सुविधा हो। इन वाहनों के द्वारा ग्रामीण इलाकों में पका हुआ भोजन बेचा जाएगा। साथ ही रॉ यानी कच्ची मछली फ्रिज में स्टोर करके रखी जाएगी। यह कच्ची मछली वाहन में रखी जाएगी, जिससे फ्राई मछली-यानी तली हुई मछली बेच-बेचकर किसान अपनी जीविका चला सकें। इसके अतिरिक्त ग्रामीणों को मत्स्य पालन के लिए भी प्रेरित किया जाएगा, वह भी आजीविका का एक जरिया होगा।

अब इस योजना पर अगर सोचा जाए तो पता चलेगा कि सरकारें योजना के नाम पर कुछ भी उल्टा-सीधा बनाकर अपने फर्ज को पूरा करना चाहती हैं। पहली बात, इन क्षेत्रों में मछली खाने का इतना प्रचलन नहीं है, जितना महाराष्ट्र के समुद्र तटीय क्षेत्रों में होता है। दूसरी बात कि जब वहाँ के लोगों के पास पीने का भी पानी कभी-कभी एक सप्ताह बाद सप्लाई होता है तो मछली को कैसे पाला जा सकता है? वर्षा के जल का कोई भरोसा नहीं, क्योंकि यहाँ इतनी कम वृष्टि होती है कि बमुश्किल छह महीने भी तालाबों-कुँओं में पानी नहीं रह पाता। चूँकि यह क्षेत्र पिछले कई वर्षों से पानी की समस्या से जूझ रहा है, अत: कभी जो मत्स्य पालन हुआ भी करता था, उसमें तीस प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आई है।

जो क्षेत्र पीने के पानी के लिए भी तरस रहा है, जहाँ न फसलों की सिंचाई के लिए पानी है, न जानवरों को पिलाने की पर्याप्त सुविधा, वे किसान क्यों मत्स्य पालन का धंधा अपनाएंगे? यह तो कुछ ऐसा हुआ, जैसे दंतहीन व्यक्ति को चने देना या रेगिस्तान में गर्म कपड़े बाँटना। मराठवाड़ा और विदर्भ के सूखे अब देश की मुख्यधारा या सोच में आ गए हैं। इन दोनों स्थानों को मुख्य समस्या से जोड़ने का काम वहाँ पर होती आत्महत्याओं ने किया। मात्र इस वर्ष ही पाँच सौ से ऊपर किसानों ने आत्महत्या की है। सरकार की सोच है कि इस योजना से किसानों की आत्महत्या पर भी विराम लगेगा। इस स्कीम के अन्तर्गत किसानों को वैन-वाहन दिए जाएँगे।

सरकार ने 600 से ऊपर इन वाहनों को खरीदने का निश्चय किया है, जिनकी कीमत लगभग 60-70 करोड़ के लगभग आएगी। लेकिन इस योजना के साथ एक शर्त भी है। ये वाहन उन्हीं किसानों को दिए जाएँगे, जिनके पास ड्राइविंग लाइसेंस और तालाब होगा। जरा विचार कीजिए कि जो छोटे किसान हैं, जिनकी अपनी जमीन बहुत कम है या वे मजदूर किसान, जो बड़े काश्तकारों के खेतों में काम करते हैं, उनके पास ये दोनों शर्तें पूरी करने का कोई उपाय या साधन नहीं है। ये शर्तें भी यहीं समाप्त नहीं होती, यह भी कहा गया है कि जिनके पास खेत में तीन वर्ष पुराने तालाब होंगे और उनमें पानी कम से कम आठ महीने तक भरा रहता होगा, वही किसान इस योजना का लाभ उठा सकते हैं।

इसे क्या सरकार की दूरदर्शिता समझी जाए या महज खानापूर्ती और घोषणा। शायद किसी ने इस पर थोड़ी असहमति जताई तो सम्बन्धित विभाग के नेताजी ने बयान दिया कि इस योजना की संभाव्यता पर उन्हें जरा भी शक नहीं है, क्योंकि जब पानीपूरी यानी गोलगप्पे बेचने वाला अपने परिवार का भरण-पोषण पानीपूरी बेचकर कर सकता है तो किसान क्यों नहीं तली मछली बेचकर परिवार चला सकते? अब मन्त्री जी ने कह दिया तो वह पत्थर की लकीर हो गई, लेकिन मत्स्य पालन और पानीपूरी के पानी की आवश्यकता को तो एक छोटा बच्चा भी समझ सकता है। लगता है कि इस पर गम्भीरता से सोचा ही नहीं गया कि फ्राई मछली यानी तली हुई मछली में तेल और मसालों का भी खर्चा आएगा।

इसी वक्तव्य पर मुझे रानी मेरी की कहानी याद आ गई। शायद किसी बाबू या पत्रकार ने मन्त्री का ध्यान आकर्षित किया होगा कि जो गरीब किसान हैं, वे तो ड्राइविंग नहीं जानते होंगे तो फिर वे क्या करेंगे वैन और मछली लेकर। प्रश्नकर्ता बुद्धिमान था। अब नेताजी का उत्तर सुनिए-सीख लेंगे। इस सूखे के कारण वे एक नई चीज सीख लेंगे। पाठकों, इस उत्तर पर क्या नेताजी ने तालियों की आशा की थी? यह तो सभी लोग जानते हैं कि ड्राइविंग सीखने के लिए तमाम ड्राइविंग स्कूल अच्छी-खासी फीस लेते हैं। इन बेचारे किसानों को कोई मित्र मित्रता में गाड़ी चलाना नहीं सिखाएगा।

एक बात जो इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है, वह ये कि जिन किसानों के पास तालाब है या ड्राइविंग जानते हैं, वे समर्थ किसान हैं। उनके पास सिंचाई के साधन हैं और यह तबका आत्महत्या भी नहीं कर रहा है। सहायता की आवश्यकता निचले स्तर के किसानों को है और उसे भी सरकार उच्च स्तर की सहायता बना दे रही है। अब देखना यह है कि यह योजना कितनी कारगर साबित होती है। क्या हमारे देश की सरकारें इतनी असंवेदनशील हो गई हैं? क्या आम जनता और सरकार के बीच की दूरी इतनी हो गई है कि वे अब जमीनी हकीकत से बहुत दूर हो गई है।

योजना की व्यर्थता इसी से स्पष्ट होती है कि जिन्हें लाभ पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है, वही लोग इससे शायद ही लाभान्वित हों। कई बार आजकल के नेता और उच्चपदस्थ अधिकारी अपने नाम के इतने भूखे होते हैं कि वे हर जगह यानी हर योजना व हर निर्माण कार्य के ऊपर अपनी मुहर व नाम पट्टिका देखना चाहते हैं। इसी सन्दर्भ में एक मजेदार सच्ची घटना आप पाठकों के मनोरंजन के लिए-एक संस्थान में कुछ शौचालय बनवाए गए। उस पर एक पट्टिका लगाई गई कि शौचालय का श्रीमान क, ख, ग (यानी एक नाम) के द्वारा इस तारीख को उद्घाटन किया गया। ऐसा नहीं है कि हमारे नेतागण हँसने के बहाने भी नहीं देते हैं। काश, मानसून की कृपा इन इलाकों पर हो जाए, जिससे किसान स्वयं अपने बलबूते खड़े हो सकें।

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