जब पानी नहीं मिलेगा…

जब तक हम टिकाऊ विकास के मापदंडों-मिट्टी का स्वास्थ्य, जल उपलब्धता और जलवायु परिवर्तन के आधार पर आर्थिक नीतियों की पुनर्संरचना नहीं करते तब तक सूखे का पिशाच बार-बार और पहले से अधिक विनाश करता रहेगा।

आने वाले 15 वर्षों में भारत का खाद्य कटोरा अर्थात पंजाब और हरियाणा सूखाग्रस्त हो जाएंगे। मेरा मतलब है कि वहां की धरती में सिंचाई के लिए पानी नहीं रह जाएगा। केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड की 2007 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 में सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्धता ऋणात्मक हो जाएगी। उदाहरण के लिए पंजाब में जितना जल जमीन में समाता है, उससे 45 प्रतिशत अधिक जल खींच लिया जाता है। अमेरिका के नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन ने जुड़वा सेटेलाइट ग्रेस से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर बताया है कि उत्तर प्रदेश और बांग्लादेश तक फैले गंगा के मैदानी इलाके में भूमिगत जल स्तर चौंकाने वाली गति से गिरता जा रहा है। इस क्षेत्र में 1990 की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक जल दोहन हो रहा है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में छह साल में 109 घन किलोमीटर पानी की खपत होती है। चूंकि देश के पश्चिमोत्तर भाग में 38,061 वर्ग किलोमीटर में धान की खेती होती है इसलिए इस क्षेत्र में प्रति वर्ष एक फुट की दर से भूमिगत जलस्तर गिर रहा है, किंतु जल संकट के लिए केवल खेती को दोष नहीं दिया जा सकता। बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिक विकास की तीव्र दर भी बड़ी मात्रा में पानी गटक रहे हैं।

उदाहरण के लिए नई दिल्ली को ही लें। राजधानी की पानी की जरूरत 427.5 करोड़ लीटर है, जबकि उपलब्धता महज 337.5 करोड़ लीटर। इस शहर की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए गंगा, यमुना, भाखड़ा नांगल बांध और रेणुका सागर बांध से पानी लिया जा रहा है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि राजधानी से 2015 में भूमिगत जल समाप्त हो जाएगा-यानी मात्र छह वर्ष बाद। इस साल रूठे हुए मानसून ने निश्चित तौर पर संकट को गहरा दिया है, किंतु इसके लिए केवल इंद्रदेव को न कोसें। आप बिगड़े हुए मानसून को केवल 30 प्रतिशत दोष दे सकते हैं, शेष 70 फीसदी संकट मानव का पैदा किया हुआ है। हम जिस दर से भूमिगत जल का दोहन कर रहे हैं, उससे मानसून की जरा सी बेरुखी या देरी से ही सूखे के हालात पैदा हो जाते हैं। सूखे की स्थिति में और इसके बिना भी भूमिगत जलस्तर इतना नीचे जा चुका है कि इससे मानव की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। हालात साल दर साल बिगड़ते ही जा रहे हैं। पंजाब में 138 विकास खंडों में से 108 को पहले ही खतरे के निशान से चिन्हित किया जा चुका है। इन खंडों में भूमिगत जलस्तर का दोहन 98 प्रतिशत पर पहुंच गया है, जबकि खतरे की सीमा 80 प्रतिशत ही है। उत्तर प्रदेश में केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड 22 विकास खंडों को अत्यधिक दोहन वाला घोषित कर चुका है।

इनमें से 19 विकास खंड पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं। यह क्षेत्र गन्ना पट्टी के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में 53 खंड ऐसे चिन्हित किए गए हैं, जो खतरे के दायरे में आ चुके हैं या आने वाले हैं। इनमें भी 28 विकास खंड पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं। यहां जल स्तर इतना गिर चुका है कि खेती करना मुश्किल होता जा रहा है। ध्यान देने की बात यह है कि ये आंकड़े वर्तमान सूखे से पहले के हैं। 2002 का सूखा भी इतना ही गंभीर था। इसने 14 राज्यों को प्रभावित किया था और कृषि को काफी नुकसान हुआ था, किंतु जैसे ही सूखे की स्थिति समाप्त हुई, फाइलों को वापस अलमारियों में सजा दिया गया। राज्य सरकारें राहत और पुनर्वास पैकेज के साथ खुशी-खुशी वापस लौट गईं। सूखा तंत्र मानव की तकलीफ बढ़ाने में दिन-रात जुट गया, परिणाम यह हुआ कि सूखे ने फिर से पांव पसार लिए और तांडव नृत्य शुरू कर दिया। तब से कोई अंतर नहीं आया है। सूखे को रोकने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है और न ही सूखे से नुकसान कम करने का प्रयास किया जा रहा है। हर बार सूखे के समय सरकारें नींद से जागने के संकेत देती हैं, लेकिन जैसे ही हालात थोड़ा-बहुत सामान्य होते हैं, सब कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है।

इसकी सख्त जरूरत है कि कृषि ढांचे की पुनर्संरचना की जाए। इसके तहत खेती के ढर्रे को पानी की उपलब्धता के अनुरूप ढाला जाए। सूखे इलाकों में पानी की अधिक खपत करने वाली खेती करने का कोई मतलब नहीं है। इस प्रकार की उपज जमीन को बंजर बना डालेंगी। मुझे तो इसमें कोई तुक नजर नहीं आता कि राजस्थान की आंशिक रूप से रेगिस्तानी भूमि पर पानी की खपत करने वाली गन्ने की पैदावार की जाए। इसी प्रकार बुंदेलखंड की सूखी जमीन में मेंथा की पैदावार गलत है, जिसके एक लीटर तेल के लिए 1.25 लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। महाराष्ट्र में कुल कृषि योग्य भूमि के दस प्रतिशत हिस्से में गन्ने की पैदावार ली जाती है और यह खेती महाराष्ट्र के कुल भूमिगत जल का 80 प्रतिशत गटक जाती है। बची हुई 90 प्रतिशत भूमि के लिए मात्र 10 प्रतिशत ही पानी उपलब्ध हो पाता है। समझदारी इसी में है कि सूखाग्रस्त इलाकों में ऐसी फसलें उगानी चाहिए जिनमें कम पानी की खपत होती है। यह जानकर हैरानी होती है कि हम सूखाग्रस्त इलाकों में हाईब्रिड फसल बोने के लिए प्रोत्साहन देते हैं। हाईब्रिड चावल, ज्वार, मक्का, काटन और ऐसी ही सब्जियों की पैदावार में भरपूर वर्षा वाले इलाकों में अधिक उपज वाली फसल उगाने की तुलना में डेढ़ गुना से दोगुना तक अधिक पानी खर्च करना पड़ता है। अब सरकार जीएम फसलों को आगे बढ़ाने में व्यस्त है। सबसे पहले उसने बीटी काटन को प्रोत्साहन देना शुरू किया, जो अब तक जारी है। बीटी काटन में पानी की खपत हाईब्रिड फसलों के मुकाबले भी 10-20 प्रतिशत अधिक है। बीज कंपनियों को भूमिगत जल संसाधन को निचोड़ने की अनुमति देने का क्या यह तरीका सही है?

काफी समय से खतरे की घंटी बज रही है, लेकिन हम इस घंटी को सुनने से इनकार कर रहे हैं। यह देखने में आ रहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बात तो सही करते हैं, किंतु उनकी नीतियां इसके बिल्कुल उलट हैं। 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उनके भाषण को सुनकर मैं चौंक गया कि प्राकृतिक संसाधनों पर निजी नियंत्रण होना चाहिए। मेरी हैरानी इस बात को लेकर है कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों के निजी नियंत्रण की बात कर रही है, जिसमें भूमि संसाधन भी शामिल हैं। पानी को निजी नियंत्रण में कर दिया गया है। इतनी ही परेशान करने वाली बात यह है कि उद्योगों को, जिसमें भवन निर्माण उद्योग भी शामिल है, भूमिगत जल के अधिक दोहन की अनुमति दी जा रही है। सूखे से प्रभावित और रेगिस्तानी राजस्थान में पानी बचाने से क्या फायदा है जब वहां मार्बल उद्योग को अनुमति दी जा रही है, जो प्रति घंटे करीब 27 लाख लीटर पानी डकार जाता है। हमें इंद्रदेव को और नहीं कोसना चाहिए, क्योंकि हम खुद ही वे हालात पैदा कर रहे हैं जो सूखे के लिए जिम्मेदार हैं। यथार्थ यह है कि देश ने जिन आर्थिक नीतियों में निवेश किया है उनका यही नतीजा निकलना है। जब तक हम टिकाऊ विकास के मापदंडों-मिट्टी का स्वास्थ्य, जल उपलब्धता और जलवायु परिवर्तन के आधार पर आर्थिक नीतियों की पुनर्संरचना नहीं करते तब तक सूखे का पिशाच बार-बार और पहले से अधिक विनाश करता रहेगा।
 

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