जायज है जलाशय


एक समय था जब बीकानेर में लगभग 100 से ज्यादा ताल-तलाइयाँ रही होंगी। आज एक प्रतिशत भी संरक्षित है तो बड़ी बात समझी जाये, क्योंकि भौतिकतावादी दृष्टिकोई के चलते आज हर चीज को उपयोगितावादी दृष्टि से परखा जाता है। अगर उसकी उपादेयता सन्देह के घेरे में भी आ जाये तो उसका महत्त्व कम हो जाता है। नगर में लगभग 100 से ज्यादा ताल-तलाइयों का होना, उनकी देखरेख, उनकी व्यवस्था से जुड़ी कठिनाइयों का सामना करना आदि उस समय के मनुष्य के दैनन्दिन सामाजिक कर्म में शामिल था। मनुष्य का यह विलक्षण गुण है कि वह जिन चीजों को सबसे कम समझता है उन पर सबसे तेज प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता है। सच्चिदानन्द सिन्हा की यह उक्ति मानवीय संस्कृति के सन्दर्भ में जितनी खरी है उतनी ही ताल-संस्कृति के सन्दर्भ में भी। जब शहर का शैक्षणिक स्तर बहुत कम था और नगर विकास की अन्धाधुन्ध दौड़ का प्रतिभागी नहीं था, तब यहाँ के लोग प्रकृति-मित्र कहे जा सकते थे। उनकी जीवनचर्या एवं दैनन्दिन कर्म में प्रकृति के निमित्त ऐसे कर्म शामिल थे जो सार्वजनिक हित का पोषण करते थे।

नगरीकरण के चलते जिन बुराइयों की शिकार देश के अन्य भागों की संस्कृति हुई, बीकानेरी संस्कृति भी उनसे अछूती नहीं रही। इसका कारण शिक्षा के बढ़ते प्रभाव ने व्यक्ति को शिक्षित तो कर दिया पर संवेदना और चरित्र के स्तर पर कोई ठोस परिवर्तन ला दिया हो, ऐसा नहीं हुआ। फलस्वरूप अपने मूल स्वरूप में वे जितने सच्चे, सक्रिय, संवेदनशील, सजग और सतर्क रहे, कालान्तर में वे उतने ही गैर जिम्मेदार, कर्तव्य विमुख, निष्क्रिय और बेखबर हो गए।

एक समय था जब बीकानेर में लगभग 100 से ज्यादा ताल-तलाइयाँ रही होंगी। आज एक प्रतिशत भी संरक्षित है तो बड़ी बात समझी जाये, क्योंकि भौतिकतावादी दृष्टिकोई के चलते आज हर चीज को उपयोगितावादी दृष्टि से परखा जाता है। अगर उसकी उपादेयता सन्देह के घेरे में भी आ जाये तो उसका महत्त्व कम हो जाता है। नगर में लगभग 100 से ज्यादा ताल-तलाइयों का होना, उनकी देखरेख, उनकी व्यवस्था से जुड़ी कठिनाइयों का सामना करना आदि उस समय के मनुष्य के दैनन्दिन सामाजिक कर्म में शामिल था।

आज के आदमी के दैनन्दिन कार्यों की सूची में अव्वल तो कोई सामाजिक कर्म शामिल ही नहीं होता, अगर होता भी है तो उसमें बहुजनहिताय के बजाय स्वहिताय की भावना ज्यादा लक्षित की जा सकती है। फलस्वरूप संस्कृति से जुड़े कर्मों की फेहरिस्त तो लम्बी हो गई पर उनसे लाभान्वित होने वाले जनों की संख्या का प्रतिशत घटा है।

आज का व्यक्ति सार्वजनिक कर्म इसलिये करता है ताकि उसके अन्यान्य गैर सामाजिक कर्मों की विद्रूपता और अव्वल तो समाज की नजर ही न पड़े और पड़े भी तो अपने द्वारा किये इन कर्मों से अपने तमाम अपकर्मों को इनकी ओट में छिपाया जा सके। गहराई से विचार करें तो इसके ठीक विपरीत नगर में लगभग 100 से अधिक तालाबों का होना एक उत्कर्ष-सा नजर आता है, अतः इसे तालाबों की नगरी कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी। इसीलिये तो कहा गया है:

सीयाले खाटू भलो, उन्हाले अजमेर।
नागौणो नित रो भलो, सावण बीकानेर।


इस लोक विश्रुत पद में कहा गाया है कि मरुप्रदेश में श्रावण का भरपूर आनन्द यदि लेना हो तो उसके लिये बीकानेर का कोई विकल्प नहीं है। प्रश्न उठता है कि थार के रेगिस्तान के इस इलाके को श्रावण का श्रेष्ठ स्थल घोषित क्यों किया गया? इसका सीधा-सा उत्तर एक तो यही है कि चतुर्मास में ही श्रावण आता है और यही बारिश का समय भी है। यहाँ लगभग सौ से ज्यादा तालाब रहे होंगे। श्रावण माह में वे पानी से लबालब भरे रहते थे।

फलस्वरूप उनके किनारे सघन वृक्षों की छाया थी। सांस्कृतिक माहौल मेले-मगरियों से उत्सवी बना रहता था। दूसरे, श्रावण माह में बारिश के कारण धोरे गीले तो हो ही जाते थे, साथ ही सिन्दूरी आभा से युक्त भी हो जाते थे। घास आदि भी चार-पाँच दिन में उगने से चारों ओर वातावरण हरियाला हो जाता था। अतः उत्सवी आनन्द की बयार चारों ओर बहती रहती थी। इसलिये श्रावण बीकानेर का कहा गया।

जब ताल-तलैयाओं का यह जाल अपने बीकानेर प्रवास के दौरन तरुण भारत संघ के श्री राजेन्द्र सिंह ने देखा तो उनके मुँह से भी निकल पड़ा कि जल संरक्षण के मामले में यहाँ के लोग राजस्थान के अन्य जिलों से बहुत आगे थे। तब फिर प्रश्न और कौंधता है कि तालाबों की नगरी में आज केवल कुछेक तालाब देखने को मुश्किल से ही क्यों मिलते हैं? ऐसा क्या हुआ कि जिसने इस संस्कृति को इतने गहरे तक क्षत-विक्षत किया कि आज इसके पदचिन्ह भी खोजना मुश्किल हो गया है?

अचानक लगभग सौ से ज्यादा तालाब लुप्त हो गए। जाहिर है ये सब एक दिन, एक माह या एक वर्ष में नहीं घटा। संस्कृति पर भी लागू होता है। आजादी के बाद पचास वर्षों में जितना नगर बढ़ा, उतने ही तालाब घटे। नगर के बढ़ने के व्यंजनार्थ में उसके चहुँमुखी विकास की ओर संकेत है।

नगर से इस संस्कृति का लोप होना कोई सामान्य घटना नहीं। हालांकि नगर के अधिकांश जनों ने इसे सामान्य ही समझा। असल में इस संस्कृति के ह्रास से सामाजिक सद्भाव, परस्पर सहयोग और मानवीयता आदि मूल्यों का ह्रास भी जुड़ा है। सूक्ष्म पर्यवेक्षण से जो तथ्य सामने आये, उनके अनुसार नगर में इस संस्कृति के लोप के चार कारण प्रमुख रहे :

1. सामाजिक सजगता एवं सक्रियता का ह्रास।
2. पाइप लाइन से जलापूर्ति।
3. अतिक्रमण की प्रवृत्ति का आक्रामक रूप, एवं
4. खनन व्यवसाय।

अधिकांश लोगों से इस संस्कृति के क्षरण का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि अतिक्रमण और खनन ही इसका मुख्य आधार रहे। लेकिन गौर से देखा जाये तो तस्वीर का एक दूसरा रूप कुछ और ही सच बताता है। मारवाड़ी में एक कहावत है-

साँची तो कैणी चाऊँ, मूँडे आई बात।
शंक और मुलायजा, कैवण देवै नाय।


लेकिन मैं शंका और मुलाहजा नहीं रखते हुए इस संस्कृति के नष्ट होने के कारणों में सर्वप्रथम कारण सामाजिक चेतना के अभाव को ही मानता हूँ, क्योंकि जब यह संस्कृति अपने शैशव में थी तब से लेकर इसके यौवनकाल तक समाज का हर समुदाय इसकी राह में आने वाली हर समस्या से दो-दो हाथ करने की मुद्रा में हमेशा तैयार रहा। कालान्तर में इस प्रवृत्ति में कमी आई। फलस्वरूप इस संस्कृति के मूल स्वरूप को क्षति पहुँची।

दूसरे, जब तक इस शहर में पाइप लाइन नहीं आई थी तब तक पेयजल स्रोत तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ ही रहे। पाइप-लाइन के आगमन ने इनके महत्त्व को घटा दिया। फलस्वरूप समाज ने इनकी आवश्यकता को संगत नहीं माना और वे नेस्तनाबूद होते गए। पाइप लाइन यानी केन्द्रीय जल वितरण व्यवस्था, जो आज भारतीय जल प्रबन्धन का आधार है, हमें अंग्रेजों से विरासत में प्राप्त हुई।

यह समाज की सामान्य मनोवृत्ति रही है, जो अनेकानेक ऐतिहासिक सन्दर्भों में देखी जा सकती है कि जब-जब भी समाज को किसी तथ्य, वस्तु आदि का तात्कालिक लाभ मिलना बन्द हो जाता है तो दूरदृष्टि के अभाव में उसकी अनदेखी शुरू हो जाती है और यह इस हद तक होती है कि अन्त में वह तथ्य, वस्तु आदि पूर्णतः विनाश के कगार पर आ जाती है। तालाब भी समाज की इसी सोच का शिकार हुए हैं।

खनन तालाब की आगोर का नहीं, वरन समाज की आगोर का था जिसके सहारे समाज में संस्कृति की सौरभ फैल रही थी। बल्कि कई जगह तो चौंकाने वाले ये तथ्य भी सामने आये कि स्वयं तालाब की व्यवस्था करने वाले ट्रस्ट ने तालाब की आगोर में खनन के लिये अपनी स्वीकृति इस तर्क पर दे दी कि इससे तालाब परिसर के विकास को धन मिलेगा और इस क्षेत्र में विकासात्मक कार्यों को गति मिलेगी। इसके साथ ही, एक कानूनी पेंच ने भी इस संस्कृति के नष्ट होने में अपनी अहम भूमिका अदा की।तीसरे, इस संस्कृति के क्षरण में अतिक्रमण का योगदान रहा, क्योंकि जनसंख्या-वृद्धि और गाँवों से पलायन कर आ रहे लोगों को रिहाइश की खातिर जमीन की आवश्यकता पड़ी। शहर छोटे पड़ने लगे। ऐसे में ताल-तलैयाओं की आगोर खुली पड़ी थी और सामाजिक चेतना के अभाव में उनका कोई धणी-धोरी भी नहीं था, अतः उस पर कब्जा करना आसान था। साथ ही, इन ताल-तलैयाओं का रक्षक समाज भी चूँकि अब पानी की समस्या से, पाइप लाइन आने के कारण निजात पा चुका था, अतः उसे भी अब कोई विशेष रुचि इनमें नहीं रही। अतः लोग आते रहे, आगोरें आबाद होती रही, तालाब घटते गए और ताल संस्कृति नष्ट होती गई।

चौथा महत्त्वपूर्ण कारक तत्त्व रहा- खनन व्यवसाय। क्योंकि प्रायः ताल-तलैयाओं की आगोर बजरी की खदान का क्षेत्र रही हैं, अतः इन व्यवसायियों ने बिना यह सोचे-समझे कि हम भी उसी समाज का हिस्सा हैं जिसको इससे नुकसान होने वाला है, इन आगोरों को खोदना शुरू कर दिया।

अन्ततः यह खनन तालाब की आगोर का नहीं, वरन समाज की आगोर का था जिसके सहारे समाज में संस्कृति की सौरभ फैल रही थी। बल्कि कई जगह तो चौंकाने वाले ये तथ्य भी सामने आये कि स्वयं तालाब की व्यवस्था करने वाले ट्रस्ट ने तालाब की आगोर में खनन के लिये अपनी स्वीकृति इस तर्क पर दे दी कि इससे तालाब परिसर के विकास को धन मिलेगा और इस क्षेत्र में विकासात्मक कार्यों को गति मिलेगी।

इसके साथ ही, एक कानूनी पेंच ने भी इस संस्कृति के नष्ट होने में अपनी अहम भूमिका अदा की। वह पेंच था कि प्रायः सभी तालाबों का पट्टा व्यक्तिगत नाम से नहीं था वरन सार्वजनिक हितार्थ प्रन्यास आदि के नाम से होता था तथा आगोर जमाबन्दी में चढ़ा दी गई, जिससे कालान्तर में अगर उस आगोर पर अतिक्रमण या खनन आदि हुआ और उससे जुड़े पदाधिकारियों ने उसे रोकने की पहल की तो मालिकाना हक-हकूक न होने के कारण वे इसे नष्ट होने से बचा भी न सकें। खनन व्यवसायियों एवं अतिक्रमण करने वालों को यह पेंच भली प्रकार से समझ में आ चुका था, अतः उन्होंने इसका भरपूर फायदा उठाते हुए समाज का भरपूर नुकसान किया।

इसके अलावा हम एक ऐसे समय में जीवनयापन कर रहे हैं जिसमें हम वस्तु बिकाऊ होती जा रही है। ऐसे बिकाऊ होते जा रहे समय में जल जैसे प्राकृतिक संसाधन पर महत्वाकांक्षी मनुष्य की दृष्टि जाना स्वाभाविक है। ताल-संस्कृति के नष्ट होने के साथ-साथ ही समाज में हाइडेंट कुओं का प्रचलन बढ़ा। उसके पीछे सोच यह थी कि कुएँ के पानी को लगभग जीवन भर बेचा जा सकता है। अतः तालाब की तरफ से समाज का ध्यान हटा और हाइडेंट की ओर रुझान बढ़ा।

फलस्वरूप हाइडेंट की संख्या में दिन-ब-दिन इजाफा होता जा रहा है। पानी बेच-बेचकर मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के अनुष्ठान में निरत है। ऐसे में जल की अन्धाधुन्ध बिक्री और उससे उपजे फायदे ने तालाब को अनुपयोगी करार दे दिया। कुएँ क्योंकि व्यक्तिगत सम्पदा होती है, अतः उन पर व्यक्ति विशेष का वर्चस्व बना रहता है, जबकि तालाब इसके विपरीत सार्वजनिक वर्चस्व के होते थे, अतः उनकी सम्पदा पर समाज का अधिकार होता था।

कालान्तर में विक्रयी प्रवृत्ति के कारण आये परिवर्तन से सामाजिक हित के साधन को क्षति पहुँची। इस तरह भी तालाब समाज से अलग होता गया। यह तो हुई इस संस्कृति के लोप होने की बात। इससे भी अधिक विस्मयकारी तथ्य यह है कि लोग इस संस्कृति के महत्त्व को अस्वीकार कर रहे हैं क्योंकि दृष्टि का अभाव होने के कारण वे इसके समग्र स्वरूप को आत्मसात नहीं कर सके।

अधिक टटोलने पर यही कहते हैं पानी की समस्या थी, पाइप लाइन आ गई, अब इनकी क्या जरूरत? लेकिन ऐसा कहते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने इस संस्कृति का पल्लवन महज जल-संरक्षण के दृष्टिकोण से ही नहीं किया था। हर तालाब की आगोर होती थी, उस आगोर में नाना प्रकार के पेड़ व वनस्पतियाँ उगती थीं। आयुर्वेदिक नुस्खों के द्वारा उनसे इलाज किये जाते थे।

पारिस्थितिकीय सन्तुलन बना रहता था। हरिण व अन्य जंगली जानवर भी आगोर में स्वच्छन्द विचरण किया करते थे। इस प्रकार प्रकृति का चक्र अपने पूर्ण सन्तुलन से चलता था। पर्यावरण प्रदूषण का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, क्योंकि तालाब के किनारे बड़ी तादाद में पेड़ हुआ करते थे। इनके किनारे लगने वाले मेले-मगरिए सामाजिक सामंजस्य, उत्तरदायित्व, सहिष्णुता, परस्पर सम्भाव की अभिवृद्धि के प्रमुख कारक तत्व रहे।

विभिन्न समाजों के लोग अपने परिवार, इष्ट –मित्रों के साथ इन शान्त, पवित्र, स्वच्छ वातावरण वाले स्थानों पर आकर आपसी सुख-दुख बाँटते थे। कहा जा सकता है कि तालाब व उनके किनारे बने मन्दिर उस जमाने के आध्यात्मिक पर्यटन केन्द्र थे। तालाब, नगर की संस्कृति के लिये नदी और समुद्र का विकल्प भी थे। क्योंकि हमारी संस्कृति के मूल में आध्यात्म का बहुत अहम स्थान रहा है अतः यज्ञ, अनुष्ठान आदि कर्म को संस्कृति में बहुत ही अनिवार्य मान्यता प्राप्त थी।

धर्मशास्त्रों में वर्णित वे यज्ञादि कर्म, जो केवल समुद्र या नदी के किनारे ही किये जा सकते थे, उन्हें यहाँ के लोग तालाब के किनारे कर अपनी आध्यात्मिक अभिलाषा की पूर्ति किया करते थे। आज भी तालाब में होने वाले श्रावणीकर्म को, श्राद्धतर्पण को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। नगर के कई तालाबों को तो आज भी अत्यन्त रमणीक पर्यटन केन्द्रों के रूप में विकसित किया जा सकता है जिनमें सागर के देवीकुण्ड, कल्याणसागर, शिवबाड़ी, संसोलाव, हर्षोलाव आदि प्रमुख हैं।

लेकिन दुर्भाग्यवश स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी ने इसके इस स्वरूप पर यदा-कदा केवल विचार ही किया। व्यवहार में इस हेतु कोई सार्थक प्रयत्न किया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। एक प्रसिद्ध सूक्ति है- ज्ञानः भार क्रिया बिनाः अर्थात बिना कर्म के ज्ञान भार है। समाज ने ताल-संस्कृति से सम्बन्धित ज्ञान को भारस्वरूप ही रखा। इसके प्रति क्रियात्मक दृष्टिकोण कभी अपनाया ही नहीं। फलस्वरूप तालाब के साथ आदमी का सामाजिक रिश्ता भग्न होता गया और परम्पराएँ टूटती गईं।

नगर में बढ़ते अपराध, सामाजिक हिंसा, अराजकता, वैमनस्यता, असंवेदनशीलता, असहनशीलता आदि इस संस्कृति के विलोपन की ही उपज हैं जबकि इनके उत्स को समाज किसी अन्य दृष्टिकोण से ही देख रहा है। कुछ अनुभवी बुजुर्गों ने इसी तथ्य को एक अन्य प्रकार से रखते हुए कहा कि स्थानीय आबोहवा व जल ही वहाँ के लोगों की प्रकृति का निर्धारक तत्व होता है। उनकी यह स्थापना निश्चित ही गहन अध्ययन से नहीं उपजी है वरन जीवन के प्रगाढ़ अनुभव ने उनके इस विशिष्ट बोध को जन्म दिया है, जो किसी हद तक संस्कृति के नृवंशविज्ञान के अध्ययन से मेल खाती है।

सुनने में यह स्थापना भी विचित्र ही लग सकती है कि जीवन पर तालाब व कुएँ के पानी का असर भी अलग-अलग होता है, पर यह भी अलग से अनुसन्धान का विषय है। इसका एक सहज स्फूर्त तर्क तो यह है कि अलग-अलग भूजल स्रोतों में विभिन्न प्रकार के तत्त्वों में से कुछ हमारे अनुकूल नहीं होते। पश्चिमी राजस्थान में अधिकतर जगहों पर पानी खारा है। ऐसे में तालाब जैसे साधन पीने योग्य पानी के लिये ज्यादा कारगर साबित होते हैं।

भूजल का अधिक दोहन प्रकृति के प्रतिकूल इसलिये भी है कि वह उसके पुनरुत्थान चक्र में कोई सक्रिय भागीदारी नहीं निभा पाती। जबकि तालाब, नाडे आदि इस प्रक्रिया में वांछित सक्रियता आसानी से निभाते रहते हैं। साथ ही, चलता हुआ जल स्वच्छ व पवित्र माना जाता है तथा हवा और प्रकाश के साथ ही उसका सम्पर्क सीधा होता है जिससे पानी में जीवाणुओं को पनपने का अवसर नहीं मिलता। क्योंकि तालाब के आगार की विशालता सर्वविदित है, अतः उसमें हवा के साथ पानी एक किनारे से दूसरे किनारे तक बहता रहता है। अतः ऊपरी सतह पर पानी पीने योग्य बना रहता है। कचरा आदि अपशिष्ट पदार्थ तल पर बैठ जाते हैं। इसके अतिरिक्त सूर्य की रश्मियाँ तालाब के जल पर सीधी पड़ती हैं जिसके कारण भी पानी शुद्ध व पीने योग्य बना रहता है।

इन सबके अलावा पाइप लाइन बिछाने वाला यह विकसित दिमागधारी समाज भूल ही गया कि आखिर पाइप लाइन में भी पानी कहाँ से आएगा। अन्ततः पाइप लाइन में भी पानी पहुँचाने के लिये पहले कहीं विशाल भण्डारण की भी आवश्यकता होगी। उसके अभाव में पाइप लाइन बिछाने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। केवल भण्डारण नहीं, वरन यह भी देखना होगा कि जनसंख्या के अनुपात में कितने जल भण्डारण की आवश्यकता होगी।

नगर में इस समय एबीडीपी से आये धन के माध्यम से बीछवाल और शोभासर में करोड़ों रुपए की लागत से कृत्रिम जलाशय विकसित किये जा रहे हैं, जिनमें नगर की जलापूर्ति को सुचारू रूप से चलाने के लिये जल का भण्डारण किया जाएगा। मजे की बात यह है कि नगर के राज और समाज के दिमाग में यह बात पाइप लाइन बिछाते वक्त आनी चाहिए थी। वह उसके पचास वर्ष बाद भी पूरी तरह से नहीं आ पा रही है। आज जगह-जगह स्वीमिंग पूल विकसित किये जा रहे हैं।

एक स्वीमिंग पूल पर औसतन साठ से सत्तर लाख रुपए तक का खर्च आता है और उसके रख-रखाव पर आने वाले खर्च की तो बात बाद की है। इसके बरअक्स हमारी स्थानीय परम्परा में बने तालाबों की लागत व रख-रखाव का खर्च अत्यन्त कम है। साठ से सत्तर लाख रुपए में जहाँ एक स्वीमिंग पूल बनता है, उतनी ही राशि में उस स्वीमिंग पूल से दो गुने आकार के बड़े तीन से पाँच तालाब बनाए जा सकते हैं और रख-रखाव का खर्च न के बराबर।

आज भी जलसंकट वाले क्षेत्रों में पानी के वितरण की आधुनिक प्रणाली की विसंगतियों को आसानी से दृष्टिगत किया जा सकता है। क्योंकि पारम्परिक जलस्रोतों के अभाव में वे घर-घर जल पहुँचाने के अपने दायित्व को सुचारु ढंग से नहीं चला पा रहे हैं, अतः आवश्यकता इस बात की है कि जल, जो जीवन का दुर्लभ संसाधन है, को जन-जन तक पहुँचाने के वास्ते पुनः पारम्परिक स्रोतों की ओर ध्यान दिया जाये ताकि जल-संग्रहण, संरक्षण उचित मात्रा में हो सके व जीवन पर आया यह अहम संकट टाला जा सके।

यह अतिशयोक्ति नहीं है, वरन एक चेतावनी भरी सूचना है कि जल एक सीमित प्राकृतिक संसाधन है। और इस वाक्य का सामना दैनन्दिन व्यवहार में पता नहीं कितनी बार करना पड़ता है क्योंकि यह जितनी मात्रा में उपलब्ध है उसका प्रतिशत भी दिन-ब-दिन घटता ही जा रहा है।

तालाब ऊर्जा-संरक्षण एवं आर्थिक दृष्टि से भी उपादेय है क्योंकि तालाब से पानी के वितरण की आज के जैसी कोई केन्द्रीय वितरण व्यवस्था नहीं होती थी, जिसमें बहुत सारी यांत्रिक एवं अन्य प्रकार की ऊर्जा की आवश्यकता हो। आज घर-घर जल पहुँचाने के वास्ते पाइप लाइन बिछाने पर ही करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं। तालाब-संस्कृति में यह ऊर्जा और धन की बचत के साथ-साथ जल के उपयोग में मितव्ययिता भी थी।वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट ने चेताया है कि सन 2025 तक हमारी जनसंख्या का 40 प्रतिशत धरती के ऐसे स्थानों पर बस रहा होगा जहाँ उन्हें लम्बे समय तक इस संकट का मुकाबला करना पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ की सन 1997 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलसंकट जल प्रलय से भिन्न इस रूप में है कि जलप्रलय के बारे में कोई भविष्य कथन नहीं किया जा सकता, जबकि जलसंकट के बारे में तो भविष्यकथन निश्चित रूप से किया जा सकता है।

तालाबों का आज के जमाने में महत्त्व इसलिये भी बढ़ता जा रहा है कि पृथ्वी पर तीन चौथाई जल होने के बावजूद आज भी धरती पर आने वाले संकटों की सूची में जीवनोपयोगी जल का अभाव भी शामिल है। तालाब बरसाती जल को संग्रहीत, संरक्षित करने के सबसे उम्दा साधन हैं। इनके अभाव में बरसाती पानी का पूर्णतः उपयोग नहीं हो पा रहा है।

फलस्वरूप वह पानी फालतू ही नष्ट होता है जबकि इसके संग्रहण से जलसंकट की समस्या का आसानी से समाधान किया जा सकता है। लेकिन दूर दृष्टि के अभाव और विकास की अन्धी दौड़ ने हमारी आँखों पर पट्टी डाल दी। आज राज और समाज दोनों ही, अपने कर्तव्य के सागर की इन बूँदों को सहेजने में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं दिखा रहे हैं।

कालान्तर में इनका अभाव सभ्यता के पतन का प्रमुख कारण भी बन सकता है। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि संसार की कई प्रमुख सभ्यताओं का विलोपन महज इसलिये हो गया कि वे जिन नदी-घटियों के किनारे विकसित हुई थी, कालान्तर में किसी प्राकृतिक आपदा के कारण वे उठ गईं। आज संस्कृति को जितना खतरा प्राकृतिक आपदाओं से नहीं है उससे कहीं ज्यादा मनुष्यकृत आपदाओं से हो गया है। अगर समय रहते हमने इस वास्तविकता पर गौर नहीं किया तो संस्कृति को काल के गाल में कवलित होना पड़ सकता है।

परियोजना में कार्य करने के दौरान जब-जब भी इसके महत्त्व को समझने की कोशिश की गई तो लोगों ने रुचि नहीं दिखाई। वे मानते हैं कि यह उस समय की तात्कालिक आवश्यकता थी जिसे उस समाज ने पूरा किया। हमारे समय में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, अतः समाज इस पर क्यों विचार करे। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि हर वस्तु और तथ्य का अपना-अपना निजी महत्त्व होता है। यही महत्त्व उसे शाश्वत बनाए रखता है। वे यह समझने का प्रयत्न ही नहीं करते हैं कि तालाब आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देते हैं, क्योंकि इनके आगार भरे होने के कारण जल हेतु हमें अन्य स्रोतों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।

साथ ही तालाब ऊर्जा-संरक्षण एवं आर्थिक दृष्टि से भी उपादेय है क्योंकि तालाब से पानी के वितरण की आज के जैसी कोई केन्द्रीय वितरण व्यवस्था नहीं होती थी, जिसमें बहुत सारी यांत्रिक एवं अन्य प्रकार की ऊर्जा की आवश्यकता हो। आज घर-घर जल पहुँचाने के वास्ते पाइप लाइन बिछाने पर ही करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं। तालाब-संस्कृति में यह ऊर्जा और धन की बचत के साथ-साथ जल के उपयोग में मितव्ययिता भी थी।

मजे की बात तो यह भी है कि एक हेक्टेयर जमीन पर अगर सौ एमएम वर्षा हो जाये तो एक लाख लीटर पानी एकत्र हो सकता है यानी एक गाँव को उसकी साल भर की प्यास बुझाने हेतु औसतन 1.4 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता ही होती है। इसके साथ एक और विस्मयकारी तथ्य यह भी है कि आज जो जल पाइप लाइन से हमारे घरों में वितरित हो रहा है उसे लेकर हाल ही में हुए अनुसन्धान बताते हैं कि इसी पाइप लाइन के अन्दर अगर प्राकृतिक जलाशयों का जल वितरण किया जाये तो पाइप लाइन लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकती है, क्योंकि वर्षाजल मृदु होता है और उसमें खनिज लवण आदि नहीं मिले होते हैं और अगर किसी तरह वे मिल जाएँ, तो आगोर की विभिन्न जड़ी-बूटियाँ और पौधे अपनी प्राकृतिक क्रिया के दौरान उसे इन सबसे मुक्त करके ही जलाशय के आगार में भेजते हैं।

अतः प्राकृतिक जलाशयों का पानी अगर पाइप लाइनों के माध्यम से घरों में पहुँचाया जाये तो पाइप लाइन कम क्षतिग्रस्त होगी और लम्बे समय तक चलने के कारण हमारे लिये और अधिक किफायती भी होगी। तालाब व उससे जुड़ी संस्कृति का महत्त्व उस जमाने से ज्यादा इस जमाने में है।

केवल जलापूर्ति के दृष्टिकोण के अलावा सामाजिक संरचना में आये विभिन्न परिवर्तनों, परम्पराओं में आई विकृतियों, रीति-रिवाजों में आये बदलावों की पृष्ठिभूमि का समाजशास्त्रीय अध्ययन करेंगे तो ज्ञात होगा कि तालाब का होना हमारी संस्कृति के लिये कितना श्रेयस रहा है। आज सांस्कृतिक अपरदन के इस दौर में तालाब व इससे जुड़ी जनसंस्कृति की बड़ी आवश्यकता है। सर्वभूतः हितेरता वाली हमारी इस संस्कृति में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेद से ऊपर उठकर मानव मात्र के कल्याणार्थ जो प्रयोजन निमित्त है उनमें इस संस्कृति की सक्रिय सहभागिता अचम्भित करने वाली ही है।

इस संस्कृति की प्रासंगिकता को समझने में राज व समाज को अपने दिमाग को साफ रखते हुए इस विचार के साथ व्यवहार करना होगा कि नगर, गाँव, तहसील बसाते समय तालाब व आगोर छोड़ने के पुराने प्रावधानों की पालना करनी होगी। कालोनियों में भी तालाब बनवाये जाएँ व उनकी आगोर छोड़ी जाये तथा हर जाति व समुदाय की आवश्यकतानुसार क्षेत्र-विशेष की जलापूर्ति सुनिश्चित करने वाले तालाबों का निर्माण किया जाये।

प्राचीन धरोहर के रूप में जो तालाब बचे हैं और जिन्हें थोड़े सुधार से पुनः विकसित किया जा सकता है, उन्हें उचित संरक्षण देकर उनकी दशा सुधारी जाये। तालाब और आगोर को नुकसान पहुँचाने वालों को आर्थिक व अन्य कठोर दण्ड का प्रावधान किया जाये। जल की महत्ता को सार्वजनिक स्तर पर समझाने हेतु विविध प्रकार के कार्यक्रम चलाए जाएँ ताकि आमजन जल-संरक्षण के महत्त्व को जान सकें। आगोर को वनक्षेत्र के रूप में विकसित किया जाये ताकि आधिकाधिक रूंख अधिकाधिक मेह वाली उक्ति फलितार्थ हो सके।

साथ ही कई बहुमूल्य वनस्पतियाँ, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ, जो लुप्त हो रही हैं, को भी बचाया जा सकेगा। अगर समय रहते विकास का दम्भ भरने वाली इस नगर संस्कृति ने पारम्परिक जलस्रोतों के अस्तित्व एवं उनके प्रबन्धन पर पुनर्विचार नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य महानगरों की तर्ज पर हमारे अपने शहर में पानी दूध के भाव बिकेगा और उस क्षण हमें बहुत पश्चाताप होगा कि काश! हम अपनी संस्कृति में जल-संरक्षण सम्बन्धी चेतना का नैरन्तर्य बनाए रखते।

 

जल और समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्र.सं.

अध्याय

1

जल और समाज

2

सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास

3

पुरोवाक्

4

इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब

5

आगोर से आगार तक

6

आकार का व्याकरण

7

सृष्टा के उपकरण

8

सरोवर के प्रहरी

9

सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी

10

जायज है जलाशय

11

बीकानेर के प्रमुख ताल-तलैया

 


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