इस खतरे को रोकने का एक तरीका यह है कि समुद्र के पानी को भीतर पंप किया जाए। इसके अलावा, बोरिक एसिड एक ऐसा तत्व है जो न्यूट्रॉन को सोखने की क्षमता रखता है। वह रिएक्टर के भीतरी हिस्से में अनियंत्रित ऊर्जा उत्पादन क्रिया को रोकने में सक्षम हो सकता है। तीनों जापानी रिएक्टरों में ये दोनों तरीके अपनाए गए थे
पिछले दिनों जापान में आई भयंकर सुनामी ने जो तबाही मचाई उससे अब धीरे-धीरे जापान उबरने लगा है, लेकिन असल खतरा दूसरा है। वहां के छह नाभिकीय संयंत्रों (रिएक्टरों) में से चार से जिस किस्म का रेडियोधर्मी रिसाव सुनामी के बाद से ही जारी है, वह न सिर्फ जापान बल्कि दूसरे देशों के लिए भी खतरे की घंटी है। फिलहाल, स्थिति यह बन गई है कि जापान में लोगों को सब्जियों और फलों की खरीद से भी मना कर दिया गया है क्योंकि रेडियोधर्मी विकिरण के उसमें संक्रमण की भी आशंका जताई जा रही है। नाभिकीय संयंत्रों का इस तरह रिसना आखिर होता क्या है? संयंत्रों में से क्या रिसता है? भूकंप का असर इन संयंत्रों पर कैसे पड़ सकता है? जापान में आखिर वास्तव में हुआ क्या है? इन सवालों के जवाब वैज्ञानिक शब्दावली में बड़ी आसानी से दिए जा सकते हैं, लेकिन एक आम पाठक की समझ के लिहाज से यह विषय काफी जटिल है। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर जापानी नाभिकीय संयंत्रों का संकट दरअसल है क्या।
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि जापान के फुकुशिमा दाइची स्थित तीन संयंत्रों में जो संकट पैदा हुआ, वह सीधे तौर पर भूकंप के कारण नहीं था, बल्कि भूकंप के चलते बिजली कटने से पैदा हुआ। जिन जनरेटरों से बिजली पैदा की जा रही थी, सुनामी ने उन्हें ध्वस्त कर दिया। इस बिजली से संयंत्रों का प्रशीतन (ठंडा किया जाना) होता था, जिसे कूलिंग सिस्टम कहते हैं। यह प्रणाली संयंत्रों को ज्यादा गर्म होने से बचाती है और ठंडा रखती है। जिन तीनों संयंत्रों का कूलिंग सिस्टम विफल हुआ, वे ब्वॉयलिंग वॉटर रिएक्टर (बीडब्ल्यूआर यानी उबलते पानी वाले यानी भाप से चलनेवाले संयंत्र) कहलाते हैं और ऐसे पानी से चलते हैं जिनमें से सारे खनिज तत्व निकाल दिए गए हों (डी-मिनरलाइज्ड वॉटर)।
रिएक्टर को चलाने में जो ईंधन काम आता है, वह छोटी-छोटी चिल्लियों यानी टुकड़ों में एक बड़े से बरतन के भीतर रखा होता है (क्लैडिंग), बिल्कुल कोयले के छोटे-छोटे टुकड़ों की तरह। यह बरतन जिरकोनियम नामक धातु के अयस्क से बना होता है जो ईंधन को बाहरी वातावरण से सुरक्षित रखता है। संयंत्र के भीतरी हिस्से (कोर) में ये ईंधन के टुकड़े बंडल बना कर इस तरह रखे गए होते हैं कि उनके इर्द-गिर्द कोर के वातावरण को ठंडा रखने वाला प्रशीतन पदार्थ (कूलेंट) उनसे संपर्क में आए बगैर प्रवाहित हो सके। गर्म ईंधन को ठंडा करने की प्रक्रिया में यह प्रशीतन पदार्थ खुद भाप में तब्दील हो जाता है और इस तरह पूरे कोर को ठंडा रखता है। जो भाप कूलेंट से पैदा होती है, वह टरबाइन को घुमाने का काम करती है और इसी गति से बिजली पैदा होती है।
इसका मतलब यह हुआ कि संयंत्र से पैदा होने वाली बिजली के लिए दो तत्व जरूरी हैं- एक ऊष्मा, जो कूलेंट को भाप में तब्दील करती है और दूसरा खुद कूलेंट। कूलेंट को भाप बनाने वाली ऊष्मा नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया से पैदा होती है और यह पूरी की पूरी बिजली बनाने के काम नहीं आती। करीब 30-35 फीसदी ऊष्मा ही कूलेंट को भाप बनाने के काम आती है। इसी से किसी रिएक्टर की उत्पादन क्षमता आंकी जाती है। आदर्श तौर पर कोई भी रिएक्टर 100 फीसदी क्षमता वाला नहीं होता। जाहिर है, जो अतिरिक्त ऊष्मा बचती है, उसे लगातार बाहर निकाले जाने की जरूरत पड़ती है।
इसी अतिरिक्त ऊष्मा को बाहर निकालने के लिए कूलेंट यानी प्रशीतन पदार्थ की आवश्यकता होती है। इसके लिए जरूरी है कि प्रशीतन प्रणाली लगातार बिना रुके काम करती रहे। 11 मार्च को सुनामी आने के बाद हुआ यह कि डीजल जनरेटर बेकार हो जाने के बाद रिएक्टर के कोर को ठंडा रखने की यह प्रक्रिया बाधित हो गई। यानी कूलेंट का प्रवाह रुक गया।
ऐसी स्थिति में यह जरूरी हो जाता है कि ऊष्मा पैदा करने वाली नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया को रोक दिया जाए। जापानी रिएक्टरों में भी यही किया गया। उसके लिए विशिष्ट धातु की बनी कुछ छड़ें होती हैं जो विखंडन में पैदा हुए न्यूट्रॉन को सोख लेती हैं। ऐसा करने के बावजूद खतरा पूरी तरह टल नहीं जाता क्योंकि विखंडन से कुछ ऐसे उत्पाद पैदा होते हैं जो बाद में और विखंडित हो सकते हैं, जैसे आयोडीन-137 और प्लूटोनियम-239 आदि। छड़ों के माध्यम से अगर विखंडन प्रक्रिया को रोक भी दिया जाए, तो ऐसे रेडियोधर्मी धातु अपनी-अपनी अवधि के मुताबिक रेडियोधर्मी क्षय की गुंजाइश बनाए रखते हैं। इससे गर्मी भी पैदा होती है। जापानी रिएक्टरों को बंद किए जाने से ठीक पहले यह गर्मी करीब 7 फीसदी थी।
इस किस्म के रेडियोधर्मी विखंडन को रोकने का कोई तरीका नहीं है। यानी पहले रिएक्टर के चलने की प्रक्रिया में जो ऊष्मा भीतर थी, उसे तो खत्म करना ही होता है। उसके अलावा रेडियोधर्मी विखंडन से पैदा हुई अतिरिक्त ऊष्मा को भी खत्म करना जरूरी हो जाता है। यदि इस सम्मिलित ऊष्मा को कम नहीं किया गया, तो कूलेंट यानी ठंडा करने वाले पदार्थ का तापमान बढऩे लगता है। नेचर पत्रिका के मुताबिक इस कूलेंट का तापमान जब बढ़ कर धीरे-धीरे 1000 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंच गया, तो ईंधन को बांधे रखने वाला जिरकोनियम अयस्क का बरतन पिघलने लगा। इस क्रम में उसने वातावरण में मौजूदा कूलेंट की भाप के साथ क्रिया कर डाली और उससे हाइड्रोजन पैदा हुआ, जो तेजी से फैलने की क्षमता रखता है।
यही हाइड्रोजन बढ़ते-बढ़ते भीतरी दबाव को इतना ज्यादा कर देता है कि संयंत्र में विस्फोट की आशंका पैदा हो जाती है। जापान के संयंत्रों में दरअसल यही हुआ। हाइड्रोजन से इतना भीतरी दाब पैदा हुआ कि संयंत्रों वाली भवन की छत विस्फोट से उड़ गई।
लेकिन असली खतरा यह भी नहीं है। असल खतरा उस जिरकोनियम के बरतन के पिघलने से होता है जिसके भीतर ईंधन रखा होता है। जिरकोनियम का बरतन पिघलेगा, तो उसके भीतर रखा ईंधन भी पिघलेगा और यह दोनों पिघल कर द्रव्य का रूप धारण कर लेंगे। इसी प्रक्रिया को परमाणु संयंत्र (न्यूक्लियर रिएक्टर) का पिघलना (मेल्टडाउन) कहते हैं।
पिघले हुए ईंधन को कोरियम कहा जाता है। यह बहुत गर्म होता है। इतना गर्म, कि जिस कंक्रीट के भवन में पूरी संरचना बनाई गई होती है, उसे ही तोड़ कर बाहर निकल सकता है। इसके अलावा, इस प्रक्रिया में ऊर्जा उत्पादन की एक और श्रृंखला बन सकती है जिसे नियंत्रित करना असंभव हो जाता है। नतीजा, नाभिकीय रिएक्टर पूरी तरह पिघल सकता है।
इस खतरे को रोकने का एक तरीका यह है कि समुद्र के पानी को भीतर पंप किया जाए। इसके अलावा, बोरिक एसिड एक ऐसा तत्व है जो न्यूट्रॉन को सोखने की क्षमता रखता है। वह रिएक्टर के भीतरी हिस्से में अनियंत्रित ऊर्जा उत्पादन क्रिया को रोकने में सक्षम हो सकता है। तीनों जापानी रिएक्टरों में ये दोनों तरीके अपनाए गए थे, बावजूद इसके दूसरे रिएक्टर में ईंधन को दो मौकों पर बाहरी वातावरण के संपर्क में आने से नहीं रोका जा सका। इसके कारण वातावरण में रेडियोधर्मी विकिरण शुरू हो गया। बताया जाता है कि विस्फोट के ठीक बाद रेडियोधर्मी क्रिया की गति 400 मिलीएसवी प्रति घंटा थी।
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