भूकम्प कभी किसी को नहीं मारता, फिर भी हम डरते हैं उससे। इंसान मरता है उस मकान से, जिसे वह अपने आश्रय के लिए बनाता है। अगर हम प्रकृति के साथ जीना सीखें तो क्या भूकम्प या क्या बाढ़? हमें कोई भी आपदा कैसे मार सकती है? नेपाल और भारत में आए भूकम्प से हुई भारी जन-धन हानि के बरक्स बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, क्योंकि अभी तक भूकम्प की भविष्यवाणी की कोई विधि विकसित नहीं हुई है और न ही हम उसका आना रोक सकते हैं।
1993 में महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 परिमाण का भूकम्प आया तो उसमें लगभग दस हजार लोग मारे गए और तीस हजार से अधिक लोग घायल हुए और 1.4 लाख लोग बेघर हुए। जबकि 28 मार्च, 1999 को चमोली में लातूर से भी बड़ा 6.8 परिमाण का भूकम्प आया तो उसमें केवल एक सौ तीन जानें गईं। पचास हजार मकान क्षतिग्रस्त हुए।
इस तुलना का मतलब बस यह बताना है कि भूकम्प की तीव्रता या मंदता विनाशकारी नहीं होती। विनाशकारी होता है वह निर्माण का ढाँचा, जो हमने खड़ा किया है। इस लिहाज से हमें जापान से सीखना चाहिए। वहाँ बड़े से बड़े भूकम्प भी मानवीय हौसले को डिगा नहीं पाए। जापान में अब तक रिक्टर पैमाने पर सात से लेकर नौ परिमाण तक के दर्जनों भूकम्प आ चुके हैं। इस परिमाण के भूकम्प काफी संहारक होते हैं। नौ और उससे अधिक के भूकम्पों को तो प्रयंकारी माना जाता है। फिर भी जापान में जनहानि बहुत कम होती है। वहाँ 1952 से लेकर अब तक सात से लेकर नौ अंक तक के इकतीस भूकम्प आ चुके हैं। चार या उससे कम परिमाण के भूकम्प तो जैसे वहाँ के लोगों की दिनचर्या के अंग बन चुके हैं। इन भूकम्पों में से टोहोकू के भूकम्प और सुनामी के अलावा वहाँ कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुई। 25 दिसम्बर, 2003 को होक्कैडो में 8.3 परिमाण का भयंकर भूकम्प आया, फिर भी उसमें केवल एक व्यक्ति की मौत हुई। सात भूकम्प तो ऐसे थे, जिनमें कोई जान नहीं गई। जाहिर है कि जापान के लोग भूकम्प ही नहीं, बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गए हैं।
भूकम्प की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को पाँच जोनों में बाँटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोन ‘पाँच’ माना जाता है, जिसमें सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे तो अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक का सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्भीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन ऑफ कच्छ भी इसी जोन में शामिल है। लेकिन इतिहास बताता है कि भूकम्पों से जितना नुकसान कम संवेदनशील यानी जोन चार में होता है, उतना पाँच में नहीं होता। कारण भी साफ है। जोन पाँच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है, जबकि चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व काफी अधिक है। यही नहीं, हिमालयी क्षेत्र में घर अनुभवों के आधार पर परम्परागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते हैं। जनसंख्या काफी विरल है। इसलिए यहाँ जनहानि काफी कम होती है। त्रिपुरा को छोड़कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों की जनसंख्या घनत्व 125 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी कम है।
भारत में जब भी भूकम्प या बाढ़ जैसी आपदा आती है, सरकारी आपदा प्रबन्धन की तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं और बाद में एक महकमा दूसरे पर सारा दोष मढ़ना शुरू कर देता है। कोसी की बाढ़, 2004 की सुनामी, लातूर और भुज की भूकम्पीय आपदा से हमने कोई सबक नहीं सीखा।
भारत में भूकम्पीय संवेदनशीलता के लिए जोन तो बने हैं, मगर घातकता का नक्शा अभी तक नहीं बना। आम आदमी तो सुरक्षा मानकों की उपेक्षा करता ही है, लेकिन सरकार की ओर से भी इस सम्बन्ध में ज्यादा जागरूकता नहीं दिखाई जाती। ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों का निर्माण भूकम्पीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए नहीं किया जाता है। ज्यादातर सरकारी भवनों के निर्माण में भी भूकम्परोधी मानकों की उपेक्षा कर दी जाती है। पुराने सरकारी भवन तो मामूली झटके से भरभरा सकते हैं। उत्तराखंड में जब देश का पहला आपदा प्रबन्धन मन्त्रालय बना था तो भवनों के नक्शे पास कराने में भूकम्परोधी मानकों को भी शामिल करने के साथ कानून बनाने की घोषणा की गई थी।
लेकिन ऐसा प्रावधान कभी नहीं किया गया। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्यों में अब परम्परागत शिल्प के बजाय मैदानी इलाकों की नकल पर सीमेंट-कंकरीट के मकान बन रहे हैं, जो कि भूकम्पीय दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं। हिमालयी गाँवों में सीमेंट कंकरीट के जंगल उग गए हैं।
उत्तराखंड का भूभाग भौगोलिक दृष्टि से सीधे यूरेशियन प्लेट या तिब्बत के मजबूत पठार से लगा हुआ है। अगर भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर की ओर खिसकने से हिमालय के गर्भ में घर्षण या टक्कर से भूगर्भीय ऊर्जा जमा हो रही है, तो इससे उत्तराखंड समेत ग्यारह हिमालयी राज्यों के लिए खतरा निरन्तर बना हुआ है। उत्तराखंड में भी मसूरी, नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है। ये सभी नगर जोन चार में आते हैं। राज्य के आपदा प्रबन्धन विभाग के सर्वेक्षण में कहा गया है कि मसूरी और नैनीताल में सैकड़ों मकान 1900 से पहले के बने हुए हैं। अगर यहाँ छह परिमाण या उससे कुछ बड़ा भूकम्प आता है तो वहाँ कम से कम अठारह प्रतिशत पुराने मकान जमींदोज हो सकते हैं।
देहरादून में भी खुड़बुड़ा और चक्खूवाला जैसे ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अगर कभी काठमांडू जैसी नौबत आती है तो कई दिनों तक बचावकर्मी अन्दर के क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाएँगे। उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ की तरह सूबे की राजधानी भी भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील है।
ईमेल - jaysinghrawat@gmail.com
1993 में महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 परिमाण का भूकम्प आया तो उसमें लगभग दस हजार लोग मारे गए और तीस हजार से अधिक लोग घायल हुए और 1.4 लाख लोग बेघर हुए। जबकि 28 मार्च, 1999 को चमोली में लातूर से भी बड़ा 6.8 परिमाण का भूकम्प आया तो उसमें केवल एक सौ तीन जानें गईं। पचास हजार मकान क्षतिग्रस्त हुए।
इस तुलना का मतलब बस यह बताना है कि भूकम्प की तीव्रता या मंदता विनाशकारी नहीं होती। विनाशकारी होता है वह निर्माण का ढाँचा, जो हमने खड़ा किया है। इस लिहाज से हमें जापान से सीखना चाहिए। वहाँ बड़े से बड़े भूकम्प भी मानवीय हौसले को डिगा नहीं पाए। जापान में अब तक रिक्टर पैमाने पर सात से लेकर नौ परिमाण तक के दर्जनों भूकम्प आ चुके हैं। इस परिमाण के भूकम्प काफी संहारक होते हैं। नौ और उससे अधिक के भूकम्पों को तो प्रयंकारी माना जाता है। फिर भी जापान में जनहानि बहुत कम होती है। वहाँ 1952 से लेकर अब तक सात से लेकर नौ अंक तक के इकतीस भूकम्प आ चुके हैं। चार या उससे कम परिमाण के भूकम्प तो जैसे वहाँ के लोगों की दिनचर्या के अंग बन चुके हैं। इन भूकम्पों में से टोहोकू के भूकम्प और सुनामी के अलावा वहाँ कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुई। 25 दिसम्बर, 2003 को होक्कैडो में 8.3 परिमाण का भयंकर भूकम्प आया, फिर भी उसमें केवल एक व्यक्ति की मौत हुई। सात भूकम्प तो ऐसे थे, जिनमें कोई जान नहीं गई। जाहिर है कि जापान के लोग भूकम्प ही नहीं, बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गए हैं।
भूकम्प की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को पाँच जोनों में बाँटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोन ‘पाँच’ माना जाता है, जिसमें सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे तो अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक का सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्भीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन ऑफ कच्छ भी इसी जोन में शामिल है। लेकिन इतिहास बताता है कि भूकम्पों से जितना नुकसान कम संवेदनशील यानी जोन चार में होता है, उतना पाँच में नहीं होता। कारण भी साफ है। जोन पाँच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है, जबकि चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व काफी अधिक है। यही नहीं, हिमालयी क्षेत्र में घर अनुभवों के आधार पर परम्परागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते हैं। जनसंख्या काफी विरल है। इसलिए यहाँ जनहानि काफी कम होती है। त्रिपुरा को छोड़कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों की जनसंख्या घनत्व 125 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी कम है।
भारत में जब भी भूकम्प या बाढ़ जैसी आपदा आती है, सरकारी आपदा प्रबन्धन की तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं और बाद में एक महकमा दूसरे पर सारा दोष मढ़ना शुरू कर देता है। कोसी की बाढ़, 2004 की सुनामी, लातूर और भुज की भूकम्पीय आपदा से हमने कोई सबक नहीं सीखा।
भारत में भूकम्पीय संवेदनशीलता के लिए जोन तो बने हैं, मगर घातकता का नक्शा अभी तक नहीं बना। आम आदमी तो सुरक्षा मानकों की उपेक्षा करता ही है, लेकिन सरकार की ओर से भी इस सम्बन्ध में ज्यादा जागरूकता नहीं दिखाई जाती। ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों का निर्माण भूकम्पीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए नहीं किया जाता है। ज्यादातर सरकारी भवनों के निर्माण में भी भूकम्परोधी मानकों की उपेक्षा कर दी जाती है। पुराने सरकारी भवन तो मामूली झटके से भरभरा सकते हैं। उत्तराखंड में जब देश का पहला आपदा प्रबन्धन मन्त्रालय बना था तो भवनों के नक्शे पास कराने में भूकम्परोधी मानकों को भी शामिल करने के साथ कानून बनाने की घोषणा की गई थी।
लेकिन ऐसा प्रावधान कभी नहीं किया गया। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्यों में अब परम्परागत शिल्प के बजाय मैदानी इलाकों की नकल पर सीमेंट-कंकरीट के मकान बन रहे हैं, जो कि भूकम्पीय दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं। हिमालयी गाँवों में सीमेंट कंकरीट के जंगल उग गए हैं।
उत्तराखंड का भूभाग भौगोलिक दृष्टि से सीधे यूरेशियन प्लेट या तिब्बत के मजबूत पठार से लगा हुआ है। अगर भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर की ओर खिसकने से हिमालय के गर्भ में घर्षण या टक्कर से भूगर्भीय ऊर्जा जमा हो रही है, तो इससे उत्तराखंड समेत ग्यारह हिमालयी राज्यों के लिए खतरा निरन्तर बना हुआ है। उत्तराखंड में भी मसूरी, नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है। ये सभी नगर जोन चार में आते हैं। राज्य के आपदा प्रबन्धन विभाग के सर्वेक्षण में कहा गया है कि मसूरी और नैनीताल में सैकड़ों मकान 1900 से पहले के बने हुए हैं। अगर यहाँ छह परिमाण या उससे कुछ बड़ा भूकम्प आता है तो वहाँ कम से कम अठारह प्रतिशत पुराने मकान जमींदोज हो सकते हैं।
देहरादून में भी खुड़बुड़ा और चक्खूवाला जैसे ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अगर कभी काठमांडू जैसी नौबत आती है तो कई दिनों तक बचावकर्मी अन्दर के क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाएँगे। उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ की तरह सूबे की राजधानी भी भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील है।
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