जैविक खेती का रासायनिक किसान


ज्यादा पुरानी बात नहीं है। देश में खाने की किल्लत थी और सीमा पर हमले का डर था। तब जय जवान, जय किसान का नारा लगा। देश को किसानों की जरूरत थी, इसलिये प्रगति के नाम पर उनसे अपने पुराने तरीके छोड़ आधुनिक खेती करने को कहा गया।

कई इलाकों के किसानों को जोर डाल कर कहा गया कि उत्पादन बढ़ाएँ। इसके लिये उन्हें कई तरह के उन्नत कहे जाने वाले बीज और नई तरह के कीटनाशक और खाद दिये गए।

उत्पादन बढ़ा भी। गोदाम भर गए। हमारे समाज के सत्तासीन लोग जो लोग अपना भोजन नहीं उगाते, उनकी चिन्ता दूर हुई। किसान का महत्त्व स्वतः ही कम हो गया। कई इलाकों में भुखमरी फिर भी दूर नहीं हुई।

फिर कुछ बरस बीते। नए रसायनों के दुष्प्रभाव दिखने भी लगे और उनकी चिन्ता भी होने लगी। हरित क्रान्ति तो जैसे एक गाली बन गई। एक नई पीढ़ी तैयार हुई पर्यावरण विशेषज्ञों की जो खेती से नए रसायन हटाकर जैविक खेती करने के पक्ष में खड़ी हो गई।

आजकल शहरों में पढ़े-लिखे लोग जैविक उत्पादन ही पसन्द करते हैं। किसानों से कहा जाता है कि जैविक उत्पादन की कीमत पारम्परिक उत्पादन से ज्यादा मिलेगी। कल तक जो पारम्परिक था, आज वह आधुनिक हो गया है। कल जो आधुनिक था, वह आज कृत्रिम, रासायनिक और पुराने जमाने का कहलाता है।

रसायन तो बुरा शब्द बन गया है। जैसे कि वह रस से निकला ही नहीं हो। जैसे कि सृष्टि की हर वस्तु में रसायन है ही नहीं। और जैसे ऐसे भी जीव होते हैं जो जैविक न हों।

यह सब बातचीत उन लोगों की है, जो खेती नहीं करते पर नए जमाने की पढ़ाई से लैस होकर दूसरों के लिये पंचवर्षीय योजना बना सकते हैं। इन लोगों का हमारे किसानों के प्रति रवैया लगभग वही होता है, जो आज से कोई सौ साल पहले अंग्रेज सरकार का चम्पारण के किसानों के प्रति था। उन्हें किसान नहीं, नील दिखता था। इसीलिये निलहे जबरन नील की खेती कराते थे।

आज हमारे समाज के जो लोग सत्ता में हैं, वे कहीं न कहीं भूल गए हैं कि एक, दो पीढ़ी पहले हम सब किसान ही थे। चाहे और कुछ धन्धा भी रहा हो, लेकिन हमारे समाज के ज्यादातर लोगों का खेती और भोजन उगाने से सीधा सम्बन्ध था। और ये सम्बन्ध कुछ हजार पीढ़ी पुराना रहा है।

अगर हम आलू-प्याज के भाव के आगे देखने को तैयार हों तो हमें दिखेगा वह हाथ, जो हमारा भोजन उगाता रहा है।

फिर हमें यह भी दिखेगा कि किसान रसायनिक और जैविक खेती जैसे शब्द इस्तेमाल ही नहीं करते। वे इतने मूर्ख भी नहीं हैं, जितने शहर के पढ़े-लिखे लोग उन्हें मानते हैं। लेकिन किसान कोई देश का पेट भरने वाले राष्ट्रवादी ही नहीं होते, जैसा कि आजकल जैविक खेती की बात करने वाले बतला रहे हैं।

ऐसे कई लोग खासकर गैर-सरकारी संस्थाओं में मिलते हैं, जो बात-बात में किसानों की दुर्दशा की दुहाई देते हैं, जैसे किसानों के हित का ठेका उन्होंने ले रखा हो। इन लोगों की बातचीत से लगता है कि किसान वही होता है जो आत्महत्या करे। इन्हें लगता है कि अमीर लोगों को ग्लानि का आभास दिलाकर किसानों का भला हो जाएगा।

आजकल शहरों में पढ़े-लिखे लोग जैविक उत्पादन ही पसन्द करते हैं। किसानों से कहा जाता है कि जैविक उत्पादन की कीमत पारम्परिक उत्पादन से ज्यादा मिलेगी। कल तक जो पारम्परिक था, आज वह आधुनिक हो गया है। कल जो आधुनिक था, वह आज कृत्रिम, रासायनिक और पुराने जमाने का कहलाता है। रसायन तो बुरा शब्द बन गया है। जैसे कि वह रस से निकला ही नहीं हो। जैसे कि सृष्टि की हर वस्तु में रसायन है ही नहीं। और जैसे ऐसे भी जीव होते हैं जो जैविक न हों। ग्लानि नकारात्मक भावना है। किसी दूसरे के शोषण से अपना फायदा करने की भावनात्मक कीमत ग्लानि होती है। लेकिन ग्लानि में किया हुआ काम कभी फलता नहीं है, क्योंकि ग्लानि से बना सम्बन्ध भी वैसा ही होता है जैसा शोषण से बना सम्बन्ध। इन दोनों में अपनापन कम ही होता है।

जैसे शोषण से भरी आँख सूखी होती है, वैसे ही आदर्शवाद की आँख में पानी कुछ ज्यादा ही होता है। ये दोनों सही परिस्थिति देखने में बाधक होती है।

चूँकि ज्यादातर शहरी आँखें या तो बहुत सूखी हो गई हैं या बहुत गीली हो गई हैं, इसलिये व्यावहारिक ढंग से किसानों की बात सुनने नहीं मिलती। जैसे कि वे हमारी ही तरह हाड़-मांस के पुतले हैं ही नहीं। इसी असहज दुनिया में आजकल जैविक खेती का फैशन चला है।

ग्लानि में लिप्त शहरों में रहने वाले कुछ अमीर लोग ये मान लेते हैं कि जैविक उत्पादन खरीदकर वो अपना स्वास्थ्य ठीक रखेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे और गरीब किसानों की मदद भी करेंगे। इस तरह जैविक खेती का अन्तरराष्ट्रीय बाजार कई अरब रुपए का बन गया है।

जैविक खेती बाजार की माँग का नतीजा ज्यादा है, ठीक वैसे ही जैसे कि कुछ साल पहले की आधुनिक खेती थी। यूरोप और अमेरिका के अमीर लोग अब जैविक उत्पादन ही पसन्द करते हैं। उनकी माँग की आपूर्ति के लिये कई गरीब देशों में अंधाधुंध जैविक खेती शुरू हो गई है।

अमेरिका को खिलाने के लिये पड़ोसी देश मैक्सिको में ताबड़तोड़ जैविक टमाटर की खेती शुरू हो गई है। इससे वहाँ का भूजल चौपट होने लगा है। और ये जैविक टमाटर अमेरिका के अलावा कई हजार मील की हवाई यात्रा कर दुबई जैसी सुदूरवर्ती महंगी जगहों पर भी बेचे जाते हैं।

इसका एक कारण यह भी है कि जैविक उत्पादन को प्रमाणित करने के लिये किसान को कुछ महंगी संस्थाओं का सहारा लेना पड़ता है। इस सर्टिफिकेट के बिना उपभोक्ता जैविक उत्पादन के लिये महंगी रकम नहीं देते। कुछ मिलाकर जैविक कही जाने वाली खेती महंगा सौदा ही साबित हो रही है।

जहाँ कृषि उपज को खरीदने और बेचने वाले के सम्बन्ध शोषण और ग्लानि से परे हों, वहाँ भरोसा सहज ही आ जाता है। मोल में खरीदा भरोसा सम्बन्धों की नींव नहीं बन सकता। भरोसा सजीव सम्बन्धों से आता है, ‘जैविक उत्पादन’ से नहीं।

अगर आपको अपने शरीर, पर्यावरण और किसानों की चिन्ता है तो जैविक उत्पादन बेचने वाली दुकान की बजाय अपने इलाके के साधारण किसानों का पता ढूँढिए। उन्हीं में मिलेंगे खेती, पर्यावरण और शायद दुनिया को बचाने के भी तरीके।

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Post By: RuralWater
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