जैविक खेती का खेल

गाय को जैविक खेती का आधार बनाने से खेती में किसान की लागत भी शून्य हो जाती है और उसे अच्छी फसल भी मिलती है। रही बात प्रमाणीकरण में आने वाले खर्च की तो जैविक खेती से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि प्रमाणीकरण मार्केटिंग के लिए जरूरी है, मिट्टी और खेती के संरक्षण के लिए नहीं। यदि किसान यह बात समझ ले तो जैविक खेती से केवल वही लाभ कमाएगा, बिचौलिए नहीं।

खेती और अपने देश का पुराना नाता है। भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है परंतु विकास की आधुनिक दौड़ में सबसे पीछे कोई है तो वह खेती और उससे जुड़ा अपना किसान ही है। इसे एक विडंबना कहें या त्रासदी कि जब देश में विकास दर के अपने सर्वोच्च शिखर पर होने के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं, ठीक उसी समय देश में किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हो रहे हैं। चाहे वह आंध्र प्रदेश जैसे अत्यंत विकसित राज्य का किसान हो या फिर बिहार जैसे अत्यंत पिछड़े राज्य का। राजनीतिक पार्टियां इसे एक चुनावी मुद्दे के रूप में भुना रही हैं तो दूसरी ओर सरकार कार्पोरेट समूह के दबाव में देश के विकास के नाम पर किसानों के पेट पर ही लात मार रही है और अब खेती के नाम पर एक नया खेल शुरू हो गया है। जैविक खेती का खेल। जैविक खेती के इस खेल में किसान एक बार फिर हाशिए पर ही हैं। हमेशा की तरह इस बार भी बड़ी-बड़ी कंपनियां और राजधानी दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बैठ कर कारोबार करने वाली बड़ी-बड़ी हस्तियां ही इस खेल की प्रमुख खिलाड़ी हैं। दरअसल, जैविक खेती का यह खेल पश्चिम यानी यूरोप और अमेरिका से शुरू हुआ है। अपने यहां के पर्यावरण, जलवायु आदि को पूरी तरह बिगाड़ चुके इन देशों में जब बंजर होती भूमि और प्रदूषित होते खाद्य पदार्थों की चिंता शुरू हुई तो उनका ध्यान खेती के परंपरागत भारतीय तरीके की ओर गया और तब शुरू हुआ रसायनमुक्त जैविक खेती का अभियान द्वितीय विश्व युद्ध के अवशिष्ट गोला-बारूदों से बने और बाद में वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किए गए कृषि रसायनों के हानिकारक दुष्प्रभावों से चिंतित इन देशों में जैविक खेती का प्रचार-प्रसार जब शुरू हुआ, तब अपने देश में उन विनाशकारी कृषि रसायनों का आगमन भी नहीं हुआ था।

यह तो देश में हरित क्रांति के नाम पर यूरोप और अमेरिका के कृषि तकनीकों की अंधी और अंधाधुंध नकल का परिणाम था कि देश में ट्रैक्टरों और कृषि रसायनों का जम कर प्रयोग शुरू हुआ। साठ के दशक में शुरू हुए इस विनाशकारी अभियान का ही परिणाम है कि आज पंजाब जैसे अत्यंत उपजाऊ राज्यों की भूमि न केवल अनुत्पादक होती जा रही है, बल्कि वहां के लोगों का स्वास्थ्य भी शोचनीय रूप से बिगड़ने लगा। स्वाभाविक ही था कि इस ओर सभी का ध्यान गया और फिर अपने देश में भी जैविक खेती का अभियान शुरू हुआ। परंतु विडंबना यह है कि यह अभियान देश के कृषि विशेषज्ञों और शोध संस्थानों या सरकार ने नहीं शुरू किया है। उनकी नींद तो अभी भी नहीं टूटी है। उनका जोर तो अभी भी रासायनिक खेती पर ही है। वास्तव में यह अभियान शुरू किया है, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और देश के बड़े कार्पोरेट घरानों ने। जैविक खेती का यह खेल काफी महीन और पेचीदा है। कहने के लिए तो एक बार फिर किसानों के हित और लाभ की ही बातें कही जा रही हैं, परंतु हकीकत यह है कि जैविक के इस खेल में सबसे पीछे वही खड़ा है। यह लगभग सभी जानते और मानते हैं कि भारतीय किसान परंपरा से जैविक खेती ही करता रहा है। आज भी जहां हरित क्रांति की छाया नहीं पहुंची है और जहां के किसानों की क्षमता सीमित है, वहां अभी भी किसान परंपरागत यानी जैविक तरीके से ही खेती कर रहे हैं। परंतु यह एक विडंबना ही है कि जैविक के परिक्षेत्र में उन्हें नहीं रखा जा सकता, क्योंकि जैविक का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए आवश्यक कागजी कार्रवाई और पैसा खर्च कर पाने में वे असमर्थ हैं। हालांकि जैविक व्यापारियों ने इसका भी रास्ता ढूंढ निकाला है और यह रास्ता है समूह प्रमाणीकरण का। परंतु समूह प्रमाणीकरण में भी किसान जैविक खेती करने के आर्थिक फायदों से वंचित ही रहता है।

जैविक प्रमाणित वस्तुओं का बाजार मूल्य सामान्य वस्तुओं की तुलना में काफी अधिक होता है, लेकिन इसका लाभ किसान को नहीं मिलता। प्रमाणीकरण में हुए खर्चे और प्रमाणीकरण व जैविक की मार्केटिंग करवाने वाली बिचौलिया संस्थाएं इसका लाभ उठाती हैं। प्रमाणीकरण के सारे मापदंड यूरोप और अमेरिका में बने हुए हैं या फिर उनके अनुसार ही बनाए गए हैं। इसके पीछे का तर्क यह दिया जाता है कि यदि जैविक उत्पाद का निर्यात करना है तो वहां के मापदंडों को स्वीकार करना ही होगा और यदि निर्यात की संभावना को छोड़ दें तो किसानों को जैविक खेती का कोई फायदा नहीं मिल पाएगा। वास्तव में गौर से देखें तो यह सारा मामला मार्केटिंग और पैसे का ही दिखता है। इसमें कहीं भी भूमि और किसानों व उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण की बात नहीं है। किसानों के बीच शून्य लागत खेती का प्रचार करने वाले सुभाष पालेकर कहते हैं, ‘जैविक खेती की बातें केवल दिखावे की हैं। यह खेती का व्यवसायीकरण करने का एक षड़यंत्र मात्र है। किसानों को जितना खतरा वैश्वीकरण से है, उतना ही जैविक खेती रूपी व्यवसायीकरण से भी है।’ यही बात गत दिनों राजधानी दिल्ली में आयोजित इंडिया ऑरगेनिक ट्रेड फेयर में भी सामने आई। मेले में आए किसानों की आंखें जैविक प्रमाणित वस्तुओं का मूल्य देखकर फटी जा रही थीं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यदि उनके द्वारा उत्पादित वस्तुएं बाजार में इतने ऊंचे मूल्य पर बेची जा रही हैं तो इसमें उनका हिस्सा कहां जा रहा है? कुछेक किसान विभिन्न स्टालों पर यह भी पूछते देखे गए कि जैविक खेती करने से उन्हें क्या लाभ है? जैविक उत्पादों की मार्केटिंग करने वालों के पास उनके सवालों का गोल-मोल उत्तर ही था।

एक अत्यंत प्रतिष्ठित प्रमाणीकरण संस्था के जांचकर्ता ने स्वीकार किया कि जैविक खेती के भारत में स्वीकृत मापदंड भारत की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं और इसलिए भारत का गरीब किसान जैविक खेती करने के बाद भी स्वयं को जैविक प्रमाणित नहीं कर सकता। इसलिए एक बार फिर खेती बेची जा रही है लेकिन उसका लाभ खेती करने वाले किसानों को नहीं मिल रहा। जैविक खेती के क्षेत्र में कई स्वयंसेवी संगठन भी काम कर रहे हैं। हालांकि इनमें भी अधिकांश का उद्देश्य व्यवसाय ही है लेकिन कई संगठन काफी निष्ठापूर्वक और ईमानदारी से जैविक के प्रचार में जुटे हैं। ऐसे संगठनों का स्पष्ट मानना है कि किसानों तक जैविक खेती के आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए जैविक को गाय से जोड़ना अनिवार्य है। जैसे कि पंचवटी फाउंडेशन देश के कई राज्यों में जैविक और गो आधारित खेती के प्रचार-प्रसार में जुटा है तो प्रकृति भारती गाय को देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ सिद्ध करने के लिए प्रतिवर्ष एक राष्ट्रीय सम्मेलन करता है जिसमें देशभर के न केवल जैविक खेती के विशेषज्ञ, बल्कि साधारण माने जाने वाले परंतु असाधारण काम करने वाले किसान भी काफी संख्या में भाग लेते हैं। फाउंडेशन के एक कार्यकर्ता के अनुसार, बिना गाय के जैविक खेती की कल्पना ही नहीं की जा सकती। किसानों को जैविक खेती से तभी लाभ हो सकता है जब वे गो आधारित कृषि को अपनाएं।

कुछ यही बात प्रकृति भारती से जुड़े और उत्तर प्रदेश गो आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्री राधेश्याम कहते हैं। वे कहते हैं, ‘गांव, गरीब और किसान को बढ़ावा देना है तो गोपालन को बढ़ावा देना होगा।’ भारत सरकार के सोइल कन्जर्वेशन सोसाइटी के पशुपालन से अंत्योदय पैनल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और दिल्ली में एक बड़ी गोशाला महर्षि दयानंद गो संवर्धन केंद्र के संचालक सुबोध कुमार कहते हैं कि गाय और जैविक खेती का अंतर्संबंध आज पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि गोबर और गोमूत्र मिट्टी के लिए जरूरी नाइट्रोजन और कार्बन के सबसे अच्छे स्रोत हैं। बनारस के पास डगमगपुर में कार्यरत सुरभि शोध संस्थान जैसी संस्थाओं और सुभाष पालेकर जैसे व्यक्तियों ने व्यावहारिक रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि गाय को जैविक खेती का आधार बनाने से खेती में किसान की लागत भी शून्य हो जाती है और उसे अच्छी फसल भी मिलती है। रही बात प्रमाणीकरण में आने वाले खर्च की तो जैविक खेती से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि प्रमाणीकरण मार्केटिंग के लिए जरूरी है, मिट्टी और खेती के संरक्षण के लिए नहीं। यदि किसान यह बात समझ ले तो जैविक खेती से केवल वही लाभ कमाएगा, बिचौलिए नहीं।

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