जैविक खाद एवं इसका उपयोग


खलियों में उपस्थित पोषक तत्व जैविक यौगिकों के रूप में रहते हैं तथा खलियों का मिट्टी में विघटन होने पर भूमि को उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न प्रकार की जैविक खादों से भूमि की उर्वरता बिना किसी हानिकारक प्रभाव के बढ़ाई जा सकती है। जैविक या कार्बनिक खाद-वर्ग के अंतर्गत पशु-पक्षियों के मल-मूत्र या शरीर के अवशेष से अथवा पेड़-पौधों से प्राप्त होने वाले पदार्थ आते हैं। ऐसी खादों के प्रयोग से मिट्टी की भौतिक अवस्था में सुधार होता है, मृदा में ह्यूमस का निर्माण होता है तथा अणुजीवियों के विकास के लिये उपयुक्त वातावरण बनता है। जैविक खाद विभिन्न प्रकार से बनाई जा सकती है।

बयान खाद : भारत में प्रयोग में आने वाली सभी जैविक खादों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पशुओं के मल-मूत्र का महत्त्व तो आदिकाल से भारत के किसानों को ज्ञात रहा है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य है कि आज भी करीब 60 प्रतिशत गोबर जलाने का काम आता है एवं खाद के रूप में प्रयोग होने वाला गोबर इस ढंग से रखा जाता है कि इसमें निहित पोषक तत्व बड़ी मात्रा में नष्ट हो जाते हैं।

पशुओं के मूत्र के संरक्षण का भी कोई प्रबंध नहीं किया जाता। बयान खाद में निहित पोषक तत्वों का मात्रा पशुओं के प्रकार, पशुओं के चारे, पशुओं की उम्र तथा खाद को रखने के ढंग आदि पर निर्भर करती है। ऐसी खाद बनाने के लिये प्रतिदिन सुबह गोबर एवं मूत्र से सनी बिचाली को अच्छी तरह मिलाकर 7 फुट लंबी एवं 6 फुट चौड़ी तथा 3.5 फुट एक गहरी खाई में डाल देते हैं। जब खाद की ढेरी जमीन से डेढ़ फुट ऊँची हो जाए तो उसे गोबर मिट्टी से पीसकर पुन: आगे खाई भरते हैं। सामान्यत: इस खाई में खाद भरने के बाद दूसरी खाई में खाद भरना शुरू कर देते हैं।

इस विधि से औसतन प्रति जानवर करीब 6-6 मीट्रिक टन खाद तैयार की जा सकती है। सड़ने-गलने के बाद जानवरों का मल-मूत्र एवं बिचाली ‘बयान खाद’ के रूप में परिवर्तित हो जाती है। सड़ने-गलने की इस प्रक्रिया में बहुत से जीवाणु (कवक, बैक्टीरिया एवं एक्टिनोमाइसिटीज) भाग लेते हैं। इन जीवाणुओं में कुछ वायुजीवी होते हैं और कुछ अवायुजीवी। प्रक्षेत्रांगन या बयान खाद तैयार करने की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि इन जीवाणुओं के लिये अनुकूल परिस्थिति पैदा की जाए।

मित्र खाद या कम्पोस्ट खाद


इस प्रकार की खाद पेड़-पौधों की पत्तियों, जड़ों या अन्य किसी प्रकार के वास्तविक अवशेषों या मल, कूड़ा-कचरा एवं अन्य बेकार चीजों को खाद के ढेर में रखकर सड़ाने-गलाने से बनती है। इस क्रिया में पोषक तत्व इस रूप में बदल जाते हैं कि पौधे आसानी से उन्हें ग्रहण कर सके। कम्पोस्ट खाद तैयार करते समय इतनी गर्मी पैदा होती है कि मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा गंदा पानी आदि में रहने वाले हानिकारक रोगाणु मर जाते हैं तथा निरापद एवं गंधरहित उत्तम खाद तैयार होती है। कम्पोस्ट खाद को तैयार करने की इंदौर विधि में सड़ाने-गलाने की क्रिया वायुजीवी जीवाणुओं द्वारा होती है जबकि बेंगलूरु विधि में वायुजीवी एवं अवायुजीवी दोनों प्रकार के जीवाणु कार्य करते हैं।

इंदौर विधि में वनस्पतिक अवशेषों की 15 सेमी. मोटी परतें, एक के ऊपर एक रखते हुए करीब 1 मीटर ऊँची ढेरी तैयार कर लेते हैं तथा इस सामग्री को मिला कर पशुओं के पैरों के पास डाल देते हैं। अगले दिन गोबर एवं मूत्र से सनी सामग्री को 1 मीटर लंबे व 2.5 मीटर चौड़े गढ्डों में डाल देते हैं।

तीन-चार बार खाद सामग्री को 15-15 दिन के अंतर पर उलट कर फिर इसमें पानी डाल देते हैं। इस प्रकार की खाद लगभग 3-4 माह में तैयार हो जाती है। इसमें निम्न कमियाँ हैं :

1. इस विधि से कम्पोस्ट खाद तैयार करने में बहुत मेहनत पड़ती है।
2. खाद की ढेर तैयार करने, खाद-सामग्री के विभिन्न घटकों को यथानुपात रखने तथा खाद-सामग्री को उलट-पलट में बड़ी सावधानी बरतनी होती है।
3. यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त नहीं है।
4. इस विधि से तैयार खाद हल्की होती है जिसमें नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थ की मात्रा कम होती है।

बेंगलूर विधि में 1 मीटर गहरी व 2.5 मीटर चौड़ी खाइयों में इंदौर विधि की तरह ही बिचाली को पशुओं के गोबर मूत्र से सनाकर भरते हैं। इस विधि में पहले 7-8 दिनों के पश्चात अवायुजीवी जीवाणु अपना कार्य करते हैं। इस विधि मे खाद सामग्री की ऊपर से मिट्टी के गारे से पुताई करते हैं जिससे नमी कम नहीं होती है एवं सड़ने-गलने की क्रिया भीतर चलती रहती है। इस विधि की खाद में इंदौर विधि की अपेक्षा नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थ अधिक होते हैं।

हरी खाद : हरी वनस्पति सामग्री को विशेषत: हरे फलीदार पौधों को उसी खेत में उगाकर अथवा कहीं अन्य स्थान से लाकर जुताई करके मिट्टी में दबा देने की क्रिया को ‘हरी खाद’ डालना कहते हैं। इस प्रकार की जैविक खाद से भूमि की उर्वरता में वृद्धि होती है और मिट्टी की अनुकूल अवस्था एवं उचित भू-प्रबंध के साथ भूमि में डाली गई हरी वनस्पति सड़-गलकर बहुत से लाभदायक प्रभाव छोड़ती है जो भूमि की उर्वरता बढ़ाने में सहायक हैं। हरी खाद के प्रयोग से लवणीय एवं क्षारीय मिट्टियों में सुधार किया जा सकता है।

हरी खाद के पौधे के कारण वाष्पोत्सर्जन की तुलना में वाष्पीकरण कम होता है तथा मृदा जल से लवण का सतह पर आना रुक जाता है। हरी खाद के फसलों के लिये फलीदार एवं गैर-फलीदार फसलों का प्रयोग किया जा सकता है। फलीदार पौधों की जड़ों में ग्रंथियां होती हैं जिनमें स्थित राइजोबियम बैक्टीरिया वायुमंडल से नाइट्रोजन लेकर मिट्टी को दे देते हैं।

हरी खाद के लिये व्यवहार में आने वाले फसलों में सनई (कोटोलोरिया जून्शिया) तथा ढेंचा (सेस्बेनिया एक्यूलियेटा) अधिक उपयोगी है। दोनों फसलें मानसून शुरू होने के पूर्व बो दी जाती हैं तथा तेजी से बढ़ती है। इनके तनों के कड़े होने के पूर्व ही इन्हें जोतकर जमीन के अंदर दबा देते हैं। गैर-फलीदार फसलों से भी काफी मात्रा में सामग्री मिट्टी में हरी खाद के रूप में प्राप्त होती है।

इसी प्रकार अमलतास, आक, जैतां, टेफरोजिया, पौगामिया आदि वृक्षों एवं झाड़ियों से पत्तियां काटकर खेत में डालकर जुताई करने से पत्तियाँ मिट्टी में दब जाती हैं तथा विधिरत होकर खाद का कार्य करती है।

हरी खाद से पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिये आवश्यक है कि हरी खाद डालने की तकनीक की पूरी जानकारी आवश्यक हो क्योंकि इसके ऊपर ही हरी खाद की सफलता निर्भर करती है। हरी खाद वाली फसलों की बुआई का समय इस प्रकार निश्चित करना चाहिये कि मिट्टी में उस पौधे को दबाया जा सके, जब आधिकाधिक पोषक तत्व खेत में उपलब्ध हो सकें। पौधों के दबाने और अगली फसल के बोने के बीच इतना अंतराल होना चाहिये कि हरी खाद द्वारा फरदत्त अधिकाधिक पोषक-तत्व अगली फसल को उचित समय पर मिल सके और कम से कम मात्रा रिसकर निकल सके।

खालियां : जैविक खाद के रूप में तिलहनी फसलों की खालियों का प्रयोग कर सकते हैं। इन फसलों के बीज में बड़ी मात्रा में प्रोटीन रहता है जिसमें 9 प्रतिशत नाइट्रोजन रहता है। तिलहनों के बीच से तेल निकालने के बाद बची खली नाइट्रोजनयुक्त खाद का काम कर सकती है। खलियों में उपस्थित पोषक तत्व जैविक यौगिकों के रूप में रहते हैं तथा खलियों का मिट्टी में विघटन होने पर भूमि को उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न प्रकार की जैविक खादों से भूमि की उर्वरता बिना किसी हानिकारक प्रभाव के बढ़ाई जा सकती है।

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