जैविक खाद और खाद्यान्न उत्पादन

यह व्यवस्था मिट्टी को उसके पोषक तत्वों से अलग करने में विश्वास नहीं करती और आज की जरूरत के लिए उसे किसी प्रकार से खराब नहीं करती। इस व्यवस्था में मिट्टी एक जीवित तत्व है। मिट्टी में जीवाणुओं और अन्य जीवों की जीवित संख्या उसकी उर्वरता में महत्वपूर्ण योगदान करती है और उसे किसी भी कीमत पर सुरक्षित और विकसित किया जाना चाहिए। मृदा कि संरचना से लेकर मृदा के आवरण तक उसका पूरा वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है।

हालांकि भारत इन दिनों खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहा है, लेकिन लोगों के कुछ खास समूह समय-समय पर 'जैव कृषि' का मुद्दा उठाते रहते हैं। उनका दावा है कि वह 'स्वच्छ कृषि' है और फसलों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के दुष्प्रभावों से मुक्त है। मानवता के भविष्य के लिए चिंतित स्थानीय पर्यावरणविद, ग्रीनपीस जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन और नाना प्रकार के अन्य परोपकारी लोग 'रासायनिक उर्वरकों' का इस्तेमाल बंद न करने पर उनकी भावी पीढ़ियों के समक्ष उत्पन्न होने वाले संकट के बारे में सचेत कर रहे हैं। वास्तव में कुछ देशों के पूर्व अनुभवों को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन में जैव उवर्रकों का प्रयोग संकट पैदा करने का सुनिश्चित तरीका है और सिर्फ 'जैव उर्वरकों' से उगाई जाने वाली फसलों की कम उत्पादकता अकाल को प्रेरित कर सकती है। 50 के दशक में हमारे पड़ोसी देश चीन का यह अनुभव रहा है, जब सिर्फ 'जैव उर्वरकों' के प्रयोग और गोबर, मानव अवशिष्ट, पेड़ के गिरे हुए पत्तों आदि पर निर्भरता से अकाल आ गया था, जिसमें 3 करोड़ लोगों की जानें चली गई थीं।

ऐसा माओ जेदांग के नेतृत्व में चीन में तब हुआ था जब यह फैसला किया गया था कि खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए देश अपने सभी 'जैव' संसाधनों का इस्तेमाल करेगा और रासायनिक उर्वरकों का आयात बिल्कुल भी नहीं करेगा। उस समय चीन के पास उर्वरक उत्पादक इकाइयां नहीं थीं। 'चीन ने उर्वरक उत्पादन में निवेश किए बिना खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए 50 के दशक में देश भर में जैव कृषि पद्धति लागू करने का प्रयास किया। चीन ने पौधों की पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यथासंभव जैव ईंधन एकत्रित करने के अलावा सभी पशु खादों और मानव अवशिष्टों को इकट्ठा करने के अपने परंपरागत प्रयासों को तेज किया। अजैव उर्वरकों का कोई इस्तेमाल नहीं हुआ। कई सालों की सामूहिक जैव कृषि के बाद चीन में भयावह अकाल पड़ा जिसमें 3 करोड़ लोगों की मौत हुईं और 70 के दशक में भी वहां लगभग 20 करोड़ कुपोषित नागरिक थे। चीनियों द्वारा प्रयुक्त पोषक तत्वों के स्रोतों (जैव और अजैव) को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 1949 में 99.9 फीसदी पोषण जैव स्रोतों से आया जो 2000 तक गिरकर 30.3 फीसदी हो गया और अजैविक उर्वरकों के प्रयोग में 1949 में 0.1 फीसदी से 69.7 तक की वृद्धि हुई, जब अजैविक उर्वरकों के निर्माण में बड़े पैमाने पर निवेश किए गए और यह प्रतिशत 2005 में बढ़कर 75 फीसदी हो गया।

खाद्यान्न उत्पादन में भी परिवर्तन आया और चावल की उत्पादकता 2.4 टन प्रति हेक्टेयर से 2005 तक 6.27 टन प्रति हेक्टेयर हो गई और 2011 तक और अधिक हो गई। यह अंश फर्टीलाइजर न्यूज (जो अब फर्टीलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित इंडियन जर्नल ऑफ फर्टीलाइजर्स है) के नवंबर 2004 के अंक में प्रकाशित, पी. के. चोकर और बी. एस. द्विवेदी, डिवीजन ऑफ सॉयल साइंस एंड एग्रिकल्चर केमिस्ट्री, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के लेख 'जैव कृषि और भारत की खाद्य सुरक्षा पर उसके प्रभाव' से लिया गया है। सिर्फ जैव उर्वरकों के प्रयोग से फसलों के कम उत्पादन और उत्पादकता के जोखिम को देखते हुए कुछ लोगों द्वारा रासायनिक उर्वरकों का बिलकुल प्रयोग न करने की प्रवृत्ति के खिलाफ चेतावनी देते हुए लेखकों ने चेताया है, 'कृषि में किसी प्रकार की कट्टरता सहन नहीं की जानी चाहिए।' यह पता होना चाहिए कि किसी खाद्यान्न के बीज को यह पता नहीं होता कि पोषण कहां से आ रहा है। जल, जिसके बिना कृषि नहीं हो सकती, एक अजैविक रसायन ही है।

जल के प्रत्येक कण में हाइड्रोजन के दो अणु और ऑक्सीजन का एक अणु होता है। लेखकों ने स्वर्गीय विनोबा भावे जैसे प्रमुख लोगों सहित कई लोगों द्वारा प्रचारित जैव कृषि के विभिन्न प्रकारों पर चर्चा की है। महाराष्ट्र में वर्धा के निकट पौनार के अपने आश्रम से उन्होंने ऋषियों की भांति खाली हाथों से भूमि जोतने की वकालत की थी। उन्होंने जमीन की जुताई के लिए बैलों के इस्तेमाल को सहमति दे दी थी। यह माना जाता था कि ब्रह्मांडीय ऊर्जा पौधों के विकास का एकमात्र स्रोत है और पौधों को बढ़ने के लिए किसी खाद या उवर्रक की जरूरत नहीं है। इसलिए कुछ भी खरीदने की जरूरत नहीं है, क्योंकि बाजार से मां का दूध नहीं खरीदा जा सकता। यह दृष्टिकोण आरंभ से ही त्रुटिपूर्ण था और पूरी तरह विफल हो गया। लेखक बताते हैं कि इसके बाद 'होम कृषि' हुई। जैव कृषि का एक प्रकार अग्निहोत्र (सूर्योदय और सूर्यास्त के समय धान को गाय के घी में मिलाकर एक निर्धारित आकार के तांबे के पिरामिड में मंत्रोच्चारण के साथ जलाना) था।

कहा जाता है कि इस प्रक्रिया से तांबे के पिरामिड के आस-पास बहुत ऊर्जा एकत्रित होती थी, जो पवित्र धुएं के साथ वातावरण में फैलती थी और पर्यावरण को पोषण प्रदान करते हुए और प्रदूषण के दुष्प्रभावों को मिटाते हुए फसलों की वृद्धि और उत्पादकता को बहुत लाभ पहुंचाती थी। अग्निहोत्र के बाद बची राख को पौधों का पूर्ण आहार माना जाता है। फिर भी जैव कृषि की अवधारणा की 'लोकप्रियता' को देखते हुए केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा एक राष्ट्रीय जैव कृषि केंद्र की स्थापना की गई है। इसका कार्यालय दिल्ली के निकट गाजियाबाद में स्थित है। 'जैव कृषि, अवधारणा, परिदृश्य, सिद्धांत और पद्धतियां' पुस्तिका के मुताबिक जैव कृषि के अंतर्गत कुल क्षेत्र 1085648.459 हेक्टेयर है, जिसमें कुल 595873 किसान संलग्न हैं। संयोगवश भारत में विभिन्न फसलों के अंतर्गत कुल क्षेत्र लगभग 14.2 करोड़ हेक्टेयर है, जिसमें प्रतिवर्ष लगभग 24 करोड़ टन खाद्यान्नों का उत्पादन होता है। दस्तावेज में इस बात पर जोर दिया गया है कि 'जैव कृषि' इस देश की मूल कृषि है। जो भी जैव कृषि का इतिहास लिखने की कोशिश करेगा, उसे भारत और चीन का संदर्भ देना होगा।

इन दोनों देशों के किसान 40 सदियों से किसान हैं और जैव कृषि ने ही उन्हें बनाए रखा है। जैव कृषि की अवधारणा निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है- प्रकृति कृषि के लिए सबसे अच्छा रोल मॉडल है क्योंकि उसमें किसी निवेश की जरूरत नहीं होती और न ही वह अनुचित मात्रा में पानी की मांग करती है।’ पूरी व्यवस्था प्रकृति के नियमों की गहरी समझ पर आधारित है। यह व्यवस्था मिट्टी को उसके पोषक तत्वों से अलग करने में विश्वास नहीं करती और आज की जरूरत के लिए उसे किसी प्रकार से खराब नहीं करती। इस व्यवस्था में मिट्टी एक जीवित तत्व है। मिट्टी में जीवाणुओं और अन्य जीवों की जीवित संख्या उसकी उर्वरता में महत्वपूर्ण योगदान करती है और उसे किसी भी कीमत पर सुरक्षित और विकसित किया जाना चाहिए। मृदा कि संरचना से लेकर मृदा के आवरण तक उसका पूरा वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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