दूसरे महायुद्ध के बाद रासायनिक कृषि ने विश्व में अपने पैर जमाने शुरू किए थे। करीब आठ दशक के अपने इतिहास में इसने पूरे विश्व को एक ऐसे संकट में ला खड़ा किया है, जिसकी परिणिति व्यापक विनाश के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। बढ़ती जनसंख्या के बरस्क मिट्टी की घटती उर्वरता जिस असंतुलन की ओर हमारी सभ्यता को ले जाएगी, उससे विनाश के अलावा और किस चीज की उम्मीद की जा सकती है। दूसरी ओर पश्चिम के वैज्ञानिकों द्वारा अब जैविक खेती को महंगी खेती के रूप में प्रचारित कर अपनी व्यावसायिक मनोवृत्ति का ही परिचय दिया।
मनुष्य के जीवन का मूल आधार कृषि है। जैसे-जैसे जनसंख्या की वृद्धि होती गई वैसे-वैसे खाद्यान्नों की जरुरतें भी बढ़ती गई। पारम्परिक कृषि के मूल तत्वों को न समझ पाने और नई-नई वैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप कृषि में नवपरिवर्तन की बयार सी चल पड़ी। प्रकाश संश्लेषण एवं नाइट्रोजन चक्र की खोज ने कृषि की दिशा परिवर्तन में अहम् भूमिका निभाई। पश्चिम के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग के प्रयोगों को आधुनिक कृषि का आधार माना जाता रहा है। हमारे यहां महर्षि पाराशर को भारतीय कृषि का मनीषी माना जाता है, किन्तु दोनों में मूलभूत अंतर है जिसे आधुनिक भारतीय समाज ने नजरअंदाज कर दिया और लिबिग महोदय भारतीय कृषि पर छा गए। कुछ अर्थों में आधुनिक कृषि या रासायनिक कृषि दिखने, करने में सरल प्रतीत होने का भ्रम पैदा करती है। जैसे कृषि से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक खाद एवं दवाईयों की नितांत आवश्यकता है और ये वस्तुएं किसानों को उनके द्वार पहुंचा दी जाती है। ये ठीक वैसा ही है जैसे किसी को शराब अथवा ध्रूमपान का चस्का लगाया जाता है।जब-जब विश्व में खाद्यान्नों की कमी महसूस की गई तब-तब कई प्रकार के नव आयामों ने कृषि में जन्म लिया और आज कृषि आधुनिक/रासायनिक कृषि से आगे दौड़कर हाईटेक एवं जी.एम. तकनीक आधारित कृषि तक जा पहुंची है। किन्तु विभिन्न प्रयोग करने वालों ने मिट्टी को निर्जीव समझकर उसके दर्द को कभी महसूस नहीं किया और अंधाधुंध प्रयोग करते हुए उसे जहर पिलाते गए। परिणाम हमारे सामने है मिट्टी न केवल जहरीली और अनुपजाऊ बनती जा रही है बल्कि मानव स्वास्थ्य पर निरन्तर खतरा भी बढ़ता जा रहा है। यही नहीं सम्पूर्ण मानव के जीवन का आधार किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या जैसे जघन्य पाप का भागीदार बनता जा रहा है।
हम विचार करें कि रासायनिक कृषि जैसी घातक विधा का क्या विकल्प है? उन्हीं पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने जिन्होंने रासायनिक कृषि को जन्म दिया था अब इसके विकल्प भी सुझाना प्रारंभ कर दिये हैं। जैविक खेती की आधुनिक अवधारणा ने इस भ्रम के साथ जन्म लिया कि यह कठिन ही नहीं महंगी भी है तथा इससे उत्पादन घट जाता है। अतः जैविक उत्पाद महंगे ही बिकना चाहिए। भारतीय किसान भी इसी अवधारणा एवं षड़यंत्र का शिकार हो गया। इसके लिए हमारी सरकार सबसे ज्यादा दोषी है। जैविक खेती की अवधारणा के इस दौर में गैर विश्वविद्यालयीन भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने भी कई प्रकार से महर्षि पाराशर का अनुसरण करते हुए अपनी-अपनी अवधारणाएं प्रस्तुत ही नहीं की बल्कि कुछ क्षेत्रों में वे निरन्तर बिना किसी शासकीय आर्थिक मदद के उत्कृष्ट अनुसंधान कर चमत्कारिक परिणाम प्राप्त कर रहे हैं।
लगभग सभी ने महर्षि पाराशर के श्लोक ‘जीवों जीवस्य जीवनम्’ को आत्मसात किया है। एक गणितज्ञ प्रोफेसर श्रीपाद अच्युत दाभोलकर ने अपने घर की छत पर कई प्रयोग किए एवं ‘विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातूरम’ को सम्पूर्ण विश्व के लिए वरदान स्वरूप आगे बढ़ाते हुए कृषि में ‘नेच्यूको कल्चर’ जैसे वैज्ञानिक शब्द गढ़ते हुए प्रोज्यूमर सोसायटी बनाने पर जोर दिया ताकि ग्रामीण विकास सही दिशा प्राप्त कर सके एवं किसानों को उनके उत्पाद का केवल सही मूल्य ही प्राप्त न हो बल्कि उपभोक्ताओं को भी बिचौलियों की मार से बचाया जा सके। ‘नेच्यूको कल्चर’ एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसान प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर प्रयोग करें तो उसे बिना किसी बाहरी उपदानों/उपकरणों, रसायनों एवं कीटनाशकों के अधिकतम रिकार्ड उत्पादन प्राप्त हो सकता है।
नेच्यूको कल्चर के प्रमुख तत्व हैं - सूर्य, प्रकाश, पानी, सजीव मिट्टी एवं शुद्ध बीज तथा कृषि का वैज्ञानिक ज्ञान। किन्तु सूर्य प्रकाश का अधिकतम उपयोग हम तभी कर सकते है जब सौर ऊर्जा को ग्रहण करने वाला तत्व हरी पत्तियां पर्याप्त मात्रा में एवं स्वस्थ अवस्था में उपलब्ध हो और इसके लिए सजीव मिट्टी का होना आवश्यक है। सजीव मिट्टी एक बार निर्मित कर ली जाए तो फिर उसकी सजीवता बनाए रखने के लिए समय-समय पर वनस्पति अवशेष मिट्टी को लौटाते रहना चाहिए। ताकि मिट्टी का कार्बनिक भाग (ह्यूमस) निश्चित व उचित अनुपात में बना रहें। ‘नेच्यूको कल्चर’ मात्र एक विधा नहीं है। हमारे देश में महर्षि पाराशर के उपरोक्त श्लोक के आधार पर देश काल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए कई और कृषि विशेषज्ञों ने आमूलचूल योगदान दिया है और दे भी रहे हैं। सुभाष पालेकर ने तो चमत्कारिक कार्य करते हुए ‘जीरो बजट’ कृषि की अवधारणा को जन्म देकर इस देश के किसानों को एक दैवीय उपहार प्रदान किया है।
आवश्यकता इस बात की है कि किसान इस विधा पर विश्वास करें और पूर्ण आस्था के साथ अपनाएं तथा अपनी आशंका एवं भय दूर करें कि जैविक कृषि में उत्पादन घट जाता है। वे जैविक कृषि के मूल तत्वों को सही स्वरूप में समझें तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं सरकार के साझा धोखों से बचें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं सरकार की एक बड़ी साजिश के तहत ही किसान भ्रमित है और कर्ज लेकर तथाकथित आधुनिक कृषि एवं अब जैविक कृषि के भंवर जाल में फंसता जा रहा है। भारतीय (जैविक) कृषि के लिए किसान को ना तो कर्ज की आवश्यकता है और ना ही नशेड़ी लत की तरह किसी प्रकार की सब्सिडी (राज्य सहायता) की। सब्सिडी एक धीमा जहर है जिसकी आदत न केवल कृषि के मूल दर्शन से किसान को भटकाती हैं बल्कि उसे आत्मग्लानि के दंश से नित्य डसती है किन्तु उसे इसका आभास नहीं होता और जब वह इस सत्य से रुबरु होता है तो आत्महत्या जैसा जघन्य विकल्प चुन लेता है।
चूंकि हवा में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन है वहां भला पौधों को इसी नाइट्रोजन को अतिरिक्त ऊर्जा देकर यूरिया में बदलकर देने की क्या आवश्यकता है, जबकि पौधों द्वारा नाइट्रोजन उसी विधि से ग्रहण की जाती है जिस विधि से वायुमण्डल की नाइट्रोजन ग्रहण की जाती है। जैविक कृषि की कई और विधाएं भी प्रचलन में हैं, जैसे नेचुरल फार्मिंग (प्राकृतिक कृषि), बायोडायनेमिक फार्मिंग आदि। किन्तु आवश्यकता है कृषि के मूल तत्वों को वैज्ञानिक रीति से समझकर अपनाने की। यद्यपि शासनतंत्र से इन भारतीय विधाओं के प्रोत्साहन की उम्मीद नहीं की जाती क्योंकि आज जो अर्थतंत्र की हवा बह रही है उसके झोंकों से जीरो बजट कृषि की अवधारणा तो कटी पतंग की तरह उड़ जाएगी क्योंकि इस कृषि में बजट का तो कही प्रावधान ही नहीं है। स्वर्गीय दाभोलकर के प्रयोग परिवार की अवधारणा यहां अहम् स्थान रखती है। उनका कहना था कि कृषक भारतीय विज्ञान को जानकर स्वयं प्रयोग करें और अपने अनुभव आपस में बांटे ताकि वे एक सशक्त कृषि तंत्र का विकास कर सकें।
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