जैव विविधता पर मंडराते संकट के बीच

दरअसल संसाधनों की लूट, उपभोक्तावादी संस्कृति, जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि वैश्विक गरीबी बढ़ाने में खाद्य-पानी का काम कर रहे हैं। जैव विविधता में हो रही कमी के कारण ही मौसमी दशाओं में बदलाव आ रहा है, जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव गरीबों पर पड़ रहा है। जिस पर चर्चा कर रहे हैं रमेश कुमार दुबे.....

वन जलवायु परिवर्तन रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कार्बन को अपने भीतर भंडारित करते हैं। जब इन्हें काटा-जलाया जाता है तो यह भंडारित कार्बन वायुमंडल में निर्मुक्त होती है। पेड़-पौधों, सूखी लकड़ी और जड़ों में 289 गीगाटन कार्बन भंडारित हैं ।

औद्योगीकरण व प्रदूषण में वृद्धि, आधुनिक खेती, भ्रामक खनन नीतियों, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण जैव विविधता पर खतरे मंडरा रहे हैं। 1990 के दशक में जैव विविधता संरक्षण के लिए कई योजनाएं बनीं लेकिन वे मंत्रालयों की आलमारियों में सिमट कर रह गईं। इसी का परिणाम है कि स्तनधारी, रेंगने वाले जंतुओं, उभयचर और मछलियों की प्रजातियां 1970 से 2011 के बीच काफी कम हो गईं हैं।

यदि समय रहते इस ओर ध्यान न दिया गया तो न केवल कई वनस्पतियों और जीव जंतुओं की प्रजातियां सदा के लिए खत्म हो जाएंगी बल्कि इस खूबसूरत दुनिया की पारिस्थितिकी भी असंतुलित हो जाएगी। विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि दुनिया भर की आधी प्रवाल भित्ति अगले पचास साल में खत्म हो जाएंगी और इसके कारण समुद्र के तापमान में वृद्धि होगी जिससे तटीय इलाकों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ऐसे में हमें समय रहते उपाय करने होंगे वरना हम अगली पीढिय़ों को विरासत में क्या देंगे? दरअसल जैव विविधता का संरक्षण केवल सरकार और विशेषज्ञों की ही जिम्मेदारी नहीं है। यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है।

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने 120 देशों के आंकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की है। इसके अनुसार 21 प्रतिशत स्तनधारी जीव, 30 प्रतिशत उभयचर जीव और 35 प्रतिशत बिना रीढ़ वाले जीवों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण विशेषज्ञ अहमद जोगाल्फ के अनुसार दुनिया के अमेरिकी जीवन शैली के पीछे भागने और 2050 तक विश्व की जनसंख्या नौ अरब के आंकड़े को पार करने से हमें कम से कम तीन ग्रहों की जरूरत पड़ेगी। विशेषज्ञों के अनुसार पश्चिमी देशों को विलुप्तप्राय प्रजातियों के बारे में अधिक गंभीर होने की जरूरत है क्योंकि उनकी विकास दर और जीवन शैली जैव विविधता ह्रास को बढ़ावा देने वाली हैं। विकासशील देशों में बढ़ती जनसंख्या, खाद्यान्न व मांस की बढ़ती जरूरतों और प्रदूषण के कारण यहां भी वनस्पति और जीवों की संख्या तेजी से घट रही है।

पिछले तीन दशकों में दुनिया के आधे वन और एक-तिहाई प्रजातियां सदा के लिए लुप्त हो गईं। दक्षिणी महाद्वीपों (एशिया, लैटिन अमेरिका व अफ्रीका) में वनों को काट-जलाकर एक ही प्रजाति के पौधों के रोपण की जो नई लहर शुरू हुई है उसने जैव विविधता को बहुत क्षति पहुंचाई। इसमें इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्राजील, अर्जेन्टीना अग्रणी हैं। यहां बायोडीजल, एथेनाल व खाद्य तेल के लिए बडेt पैमाने पर वनों को साफ कर पाम वृक्षों का रोपण किया जा रहा है। वन जलवायु परिवर्तन रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कार्बन को अपने भीतर भंडारित करते हैं। जब इन्हें काटा-जलाया जाता है तो यह भंडारित कार्बन वायुमंडल में निर्मुक्त होती है। पेड़-पौधों, सूखी लकड़ी और जड़ों में 289 गीगाटन कार्बन भंडारित हैं । लेकिन हर साल 1.3 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र के गैर वनीय गतिविधियों में प्रयुक्त होने के कारण इस संचित कार्बन में 0.5 गीगाटन की कमी आ रही है।

यह वैज्ञानिक सत्य है कि जैव विविधता के कारण ही जलवायु और वर्षा का नियमन होता है, धरती की उर्वरा शक्ति बढ़ाने और भूजल स्तर को बनाए रखने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। जैव विविधता में हो रही कमी के कारण ही मौसमी दशाओं में बदलाव आ रहा है, जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव गरीबों पर पड़ रहा है। दरअसल संसाधनों की लूट, उपभोक्तावादी संस्कृति, जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि वैश्विक गरीबी बढ़ाने में खाद्य-पानी का काम कर रहे हैं। अत: जैव विविधता और गरीबी उन्मूलन में व्याप्त अंतर्संबंधों को पहचानना अतिआवश्यक है। इसके बिना विकास लक्ष्यों को हासिल करने में सफलता मिलना मुश्किल है। संयुक्त राष्ट्र समर्थित एक अध्ययन में कहा गया है कि 2008 में मानवीय क्रियाओं द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण से वैश्विक पर्यावरणीय नुकसान 66 अरब डॉलर (297 खरब रुपए) के बराबर था।

यह वैश्विक जीडीपी के 11 फीसदी के बराबर है। यदि इसी अनुपात में शेयरों के दामों में नुकसान हुआ होता तो दुनिया भर में इसके प्रति जबरदस्त प्रतिक्रिया होती लेकिन प्रकृति की इस बहुमूल्य संपदा के क्षरण पर दुनिया सन्नाटा खींचे हुए है।

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