जैव विविधता का विस्तार

पृथ्वी पर जीवन के विविध रूप एक समान वितरित नहीं है। जीवों का वितरण जलवायु, ऊंचाई और मिट्टी के आधार पर भिन्नता रखता है। धरा के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के वनस्पति एवं प्राणी पाए जाते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में प्रजातियों का वितरण अधिक है। ध्रुवीय और आसपास के क्षेत्र वहां पाई जाने वाली प्रजातियों के प्रकार के मामले में काफी गरीब हैं। अधिकांश स्थलीय विविधता उष्णकटिबंधीय वनों में पाई जाती है।

अभी तक लगभग 17.5 लाख प्रजातियों की पहचान की गई है जिसमें से अधिकांश कीट हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर वास्तव में 130 लाख प्रजातियां हैं। हालांकि प्रजातियों का अनुमानित विस्तार 30 से 1000 लाख का है। नई प्रजातियों की खोज लगातार जारी है और बहुत सी प्रजातियों की खोज होने के बावजूद भी उन्हें अभी वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किया जाना है।

जैव विविधता - वर्तमान परिदृश्य


इस विषय की महत्ता का प्रमुख कारण यह है कि हम जीवसंख्या और प्रजातियों के विलुप्त होने में योगदान दे रहे हैं। यह सचमुच एक गंभीर खतरा है कि जैव विविधता को पूरी तरह जानने से पहले ही इस समृद्ध जैव विविधता का ह्रास हो रहा है। उदाहरण के लिए हम वनों को प्रलेखित या अध्ययन करने से पहले ही काट डालत हैं कि वहां क्या था। इसमें न सिर्फ वृक्ष नष्ट होते हैं अपितु उनके साथ वे समस्त प्राणी, छोटे पौधे, शाक और लताएं भी समाप्त हो जाते हैं जो उन पर आश्रित रहते हैं। पत्तियों की बिछाली के अभाव में और कदाचित् रासायनिक खादों की अधिकता के कारण समय के साथ मिट्टी की प्रकृति में भी बदलाव आ सकता है।

हम अपनी प्राकृतिक वानस्पतिक विविधताओं को कृत्रिम एकरूपता में परिवर्तित करते जा रहे हैं। हालांकि जनसंख्या विस्फोट जैसी स्थितियों का दबाव इस प्रकार के कार्यों को अंजाम देने के लिए बाध्य करता है। इसके कारण होने वाले खतरों से नजरें नहीं फेरी जा सकतीं है। विविधताओं पर रोक लगाने से भविष्य में होने वाले विकास में रूकावट आ सकती है। एक अचानक आने वाली विपदा से एक प्रधान प्रजाति के विलुप्त हो जाने का खतरा रहता है। विविधता एक पट्टिका है जिसमें से प्रकृति चयन करती है। विविधताओं को रोकने का अर्थ है भविष्य में किसी दुर्घटना के लिए रास्ता तैयार करना।

उष्ण कटिबंधी क्षेत्र में प्रजाति वितरण अधिक होता हैउष्ण कटिबंधी क्षेत्र में प्रजाति वितरण अधिक होता हैजैव विविधता मानवीय गतिविधियों से प्रभावित होती है। तेज और अत्यधिक औद्योगीकरण का प्रतिफल प्रदूषण के रूप में सामने आया है। एक प्रदूषित पर्यावरण, यहां तक कि पर्यावरण में बदलाव, किसी भी ऐसी प्रजाति के जीवन के लिए खतरा पैदा कर देता है जो इसके अनुकूल खुद को नहीं ढाल पाती है। पहले ही बहुत सी प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो चुकी हैं। बहुत सी अन्य विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं। विलुप्तता वह स्थिति है जब किसी प्रजाति विशेष का कोई भी सदस्य न बचा हो। एक बार विलुप्त हो जाने के बाद किसी प्रजाति को वापस लाने का कोई उपाय नहीं है।

सर्वाधिक संकटग्रस्त प्रजातियों की ओर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है इससे पहले कि एक प्रजाति विशेष उस अन्तिम स्थिति पर पहुंच जाए जहां इसके सदस्यों की संख्या एक निश्चित संख्या से कम रह जाए। यह संख्या वह अंतिम सबसे कम संख्या है जो एक जीवित जनसंख्या को बरकरार रखने के लिए आवश्यक होती है।

एक आम आदमी द्वारा इस जादुई अंक की महत्ता हमेशा नहीं समझी जा सकती है। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि चूहे असाधारण प्रजननकर्ता हैं। कुछ लोगों का आकलन है कि चूहों का एक जोड़ा अपने जीवन काल में पन्द्रह हजार चूहों को पैदा कर सकता है। सैद्धांतिक रूप से, यह तर्क प्रस्तुत करना आसान है कि यदि चूहों का एक जोड़ा लगभग पन्द्रह हजार चूहे पैदा कर सकता है तो एक जोड़ा ही पूरी धरती पर इनकी जनसंख्या विस्तार हेतु काफी है। हालांकि, गैर जीवविज्ञानी इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देते कि पहली पीढ़ी में जीनिक विविधता का अभाव प्रजाति को कमजोर कर देगा और कुछ पीढि़यों में ये निराशाजनक रूप से अन्तःप्रजनक हो जाएंगे और प्रजाति का विनाश हो जाएगा। यहां तक कि अत्यधिक प्रचारित क्लोनिंग भी विलुप्त प्रजाति की पूरी संख्या को वापस नहीं ला सकती है।

हमारे दादा-परदादाओं के लिए परिचित प्राणियों की कई प्रजातियां हमेशा के लिए गायब हो गईं और उन्हें संग्रहालय में रखे गए नमूनों के अलावा और कहीं नहीं देखा जा सकता है।

जैव-विविधता एवं विलुप्तता


विलुप्तता (विलोपन) प्रकृति तंत्र का एक अटूट हिस्सा है, उदाहरण के लिए डायनासोर विलुप्त प्राणी हैं। परन्तु इनकी समाप्ति प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया के कारण हुई थी जिसमें अधिक सफल प्रजातियां कम सफल प्रजातियों के स्थान पर काबिज हो गई थीं। आज होने वाली विलुप्तताएं हमेशा इस श्रेणी में नहीं आतीं।

पृथ्वी पर बड़ी संख्या में विलुप्तताओं के पांच काल रहे हैं ये 4,400 लाख, 3,700 लाख, 2,500 लाख, 2,100 लाख एवं 650 लाख वर्ष पूर्व हुए थे। ये प्राकृतिक प्रक्रियाएं थीं। आज होने वाली विलुप्तताओं में आदमी के क्रिया-कलापों का योगदान रहता है। यह कमी जैव विविधता की दृष्टि से भविष्य के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि विकास की प्रक्रिया में नई प्रजातियों की उत्पत्ति विलुप्त होने की वर्तमान दर से बहुत धीरे होती है। विकास और विलुप्तता की यह एक असमान दौड़ है।

यह अनुमान लगाया गया है कि वर्तमान में मौजूद जीवों की संख्या पृथ्वी पर आज तक रहे कुल जीवों की मात्रा एक प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में धरती पर 99 प्रतिशत जीवन अपनी प्रवास यात्रा समाप्त कर विलुप्त हो चुका है। उनकी विदाई के लिए उल्कापिण्ड के टकराने या हिम युग जैसे जलवायु में हुए परिवर्तनों को जिम्मेदार माना जाता है। आज हम विलुप्तता के छठे काल में चल रहे हैं जहां होने वाली विलुप्तता मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है।

किसी क्षेत्र विशेष में मानवीय गतिविधियों से पड़ने वाले प्रभाव को जानने की शुरूआत करने के लिए ही यह जानना आवश्यक है कि उस क्षेत्र की जैव विविधता कितनी फली-फूली है। यही आरंभिक बिन्दु या सांकेतिक बिन्दु है। इसे ज्ञात करने के लिए कई विधियां हैं।

जैव विविधता का मूल्यांकन


जैविक विविधताओं की गणना कई प्रकार से की जा सकती है। विविधता का आकलन करते समय ध्यान में रखने योग्य दो प्रमुख कारक होते हैं - प्रचुरता (समृद्धता) एवं एकरूपता। समृद्धता या प्रचुरता एक क्षेत्र विशेष में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जीवों की संख्या की गणना है। किसी नमूने में प्राप्त प्रजातियों की संख्या जैव विविधता की प्रचुरता का पैमाना है। दिए गए क्षेत्र में प्रजातियों की संख्या जितनी अधिक होगी, वह क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से उतना समृद्ध होगा। एकरूपता क्षेत्र विशेष में उपस्थित प्रत्येक प्रजाति के सदस्यों की संख्या का परिमाण है।

प्रचुरता


प्रजातीय प्रचुरता इस तथ्य को महत्व नहीं देती कि प्रत्येक प्रजाति की कितनी वैयक्तिक संख्या है। यह कम सदस्य संख्या वाली और अधिक सदस्य संख्या वाली प्रजातियों को बराबर का दर्जा देती है। इसलिए प्रजातीय प्रचुरता की गणना करते समय, एक बाघ और सौ हिरणों के एक झुण्ड का एक समान महत्व होता है।

एकरूपता


किसी क्षेत्र को समृद्ध बनाने में विभिन्न प्रजातियों की तुलनात्मक संख्या ही एकरूपता का परिमाण है। एक या दो प्रजाति बाहुल्य समाज कम विविध माना जाता है जबकि अधिक विविधता वाला वह होता है जिसमें मौजूद विभिन्न प्रजातियों का संख्या बल एक समान हो।

इसे समझने के लिए हम ऐसे क्षेत्रों की कल्पना कर सकते हैं जिनका आकार एक समान हो। यह मान लें कि प्रत्येक क्षेत्र में 67 प्राणी हैं। हम यह भी मान लेते हैं कि पहले क्षेत्र में 50 भैंसें और 17 गधे हैं और दूसरे क्षेत्र में 10 सुनहरे पीलक, 13 चीतल हिरन, 20 कस्तूरी बिल्ली, 14 अजगर और पांच अलग-अलग प्रजाति की मछलियों के दो दल हैं। यहां दूसरा क्षेत्र अधिक विविधतापूर्ण माना जाएगा। यद्यपि, एक हल्की सी नजर आदमी के नजरिए से डाली जाए तो समझ आ जाएगा कि कौन सा क्षेत्र उसके लिए ‘अधिक उपयोगी’ है।

जैव विविधता के अध्ययन में लगे वैज्ञानिक सामान्यतया जैव विविधता को मापने के लिए दो भिन्न सूचकांकों का प्रयोग करते हैं।

जैव विविधता सूचकांक


सिम्पसन सूचकांकः यह उपस्थित प्रजातियों की संख्या के साथ ही प्रत्येक प्रजाति की प्रचुरता को आधार बनाती है। इस हिसाब से यह प्रजातीय प्रचुरता और प्रजातीय एकरूपता दोनों को महत्व देती है।

शैनन-वीनर सूचकांकः यह एक तंत्र विशेष में नियमितता/अनियमितता का आकलन करती है। नियमितता से यहां तात्पर्य दिए गए नमूने में प्रत्येक प्रजाति के सदस्यों की प्राप्त संख्या से है।

अधिक बारीकी से अध्ययन करने के लिए परिस्थितिविज्ञानी जैव विविधता के तीन अन्य तथ्यों पर भरोसा करते हैं। ये हैं:

अल्फा विविधताः यह विविधता जीवों के ऐसे समहू से संबंधित है जो एक ही पर्यावरण के अंतर्गत जी रहे हैं या एक समान स्रोतों के लिए पारस्परिक क्रिया अथवा प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। इसकी माप पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद प्रजातियों की गणना से की जाती है।

बीटा विविधताः यह पारिस्थितिकी तत्रों के मध्य प्रजातीय विविधता है। इसमें उन प्रजातियों की संख्या की तुलना की जाती है जो प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र में विशिष्ट रूप से पाई जाती हैं। बीटा विविधता उच्च होने का अर्थ है विभिन्न आवासों की प्रजातिय संघटन में कम समानताएं।

गामा विविधताः यह एक क्षेत्र विशेष के विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों में सम्पूर्ण विविधताओं का पैमाना है।

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