जैव-विविधता का संरक्षण एवं आर्थिक प्रगति

जैव-विविधता विलोप के बारे में वैज्ञानिकों की धारणा है कि किसी आवास स्थल का क्षेत्र 90 प्रतिशत कम कर दिया जाए तो वहाँ की लगभग 50 प्रतिशत प्रजातियाँ मर जाती हैं। जैव-विविधता विनाश के दुष्परिणामों के प्रति जागरुकता बढ़ाकर एवं उसके अधिकाधिक संरक्षण पर बल देकर उसके संरक्षण के प्रभावी उपाय न किए गए तो इसका देश की आर्थिक प्रगति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। ऐसा लेखक का विचार है।

हमारा वैभवशाली जीवन प्रकृति की अनुपम देन है। हरे-भरे पेड़-पौधे, विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, मिट्टी, पानी, हवा, पहाड़, पठार, नदियाँ, झरने, सागर, महासागर ये सब प्रकृति के ऐसे उपहार हैं जो हमारे अस्तित्व तथा विकास के लिए आवश्यक हैं; हमारी आर्थिक समृद्धि के प्राकृतिक स्रोत हैं।

भारत जैव-विविधता की दृष्टि से एक समृद्ध देश है। विश्व में पाई जाने वाली कुल 15 लाख जैव-विविधताओं में से 40 प्रतिशत भारत में मिलती हैं। अभी तक भारत में कुल 75,000 तरह के जन्तु तथा 45,000 तरह की वनस्पतियाँ पहचानी जा चुकी हैं। वनस्पतियाँ आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं, हमारे जीवित रहने का आधार हैं। अन्न, दालें, फल-सब्जियाँ आदि वनोत्पाद हमारे भोजन के प्रमुख अंश हैं। वनस्पतियाँ वातावरण की जहरीली गैस कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का अवशोषण कर ऑक्सीजन प्रदान करती हैं जिसे हम सभी सांस के रूप में ग्रहण करते हैं। विज्ञानियों का अनुमान है कि एक सामान्य वृक्ष अपने औसत जीवन-काल में हमें 20 से 40 लाख रुपये तक का लाभ पहुँचाता है। ईंधन, चारा, रबड़, गोंद, लाख इमारती लकड़ी, फल-फूल, कन्द-मूल तथा जड़ी-बूटियाँ- सब वनों की ही देन हैं। विभिन्न प्रकार के लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए कच्चा माल भी वनों से ही प्राप्त होता है। जैसे रबड़, लाख, बांस, बेंत, गोंद, कत्था, सिनकोना, मोम, शहद, हाथीदाँत, खालें आदि ये सब वनों से मिलते हैं जिनसे छोटे-मोटे उद्योग चलाए जा रहे हैं। कागज उद्योग, कृत्रिम रेशम उद्योग, खिलौना एवं बीड़ी उद्योगों से बहुत से ग्रामीणों को रोजगार मिला हुआ है।

इस समय भारत के लगभग एक करोड़ लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनों पर आश्रित हैं। जंगलों में निवास करने वाली आदिम जातियाँ अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति वनों से ही करती हैं। वन ईंधन का प्रमुख स्रोत हैं। आज भी 90 प्रतिशत ग्रामीण घरों में जलाने की लकड़ी वनों से ही प्राप्त होती है। वन ही पशुओं के प्रमुख चारागाह हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार वनों से लगभग 6 करोड़ भैंसों तथा 15 करोड़ अन्य जानवरों को चारा प्राप्त होता है। वनों के प्रत्यक्ष लाभों से एक महत्त्वपूर्ण लाभ है इमारती लकड़ी की प्राप्ति। भारत में इमारती लकड़ी का कुल उत्पादन 2798 लाख क्यूबिक मीटर है। वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों का प्रयोग औषधि-निर्माण में किया जाता है। भारतीय जड़ी-बूटियों की विश्व के कई देशों में मांग है, जिनमें संयुक्त राज्य-अमेरिका, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड तथा जापान मुख्य हैं। इन देशों को निर्यात की जाने वाली जड़ी-बूटियों में प्रमुख हैं- सिनकोना की छाल, सेन्ना की पत्तियाँ एवं फल, अफीम, ईसबगोल, चिरायता, कुलंजन तथा कुचला। इनके निर्यात से देश को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

भारत में औषधीय पौधों का व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय वनों में पाए जाने वाले प्रमुख औषधीय पौधे हैं- काली मूसली, पुनर्नवा, अफीम, मुलेठी, सदाबहार, ब्राह्मी, सर्पगन्धा, अश्वगन्धा तथा निर्यात की जाने वाली जड़ी-बूटियाँ। सर्पगन्धा एक ऐसा औषधीय पौधा है जिससे ‘हार्ट अटैक’ की अत्यन्त प्रभावी दवा बनती है। चमत्कारी जड़ी ‘जिनसेंग’ जिसे इंडोनेशिया तथा सिंगापुर में स्थापित चीन के व्यापार केन्द्रों से भारत में आयात किया जाता है हाल में मेघालय के जंगलों में खोज ली गई है। आधुनिक औषधियाँ बनाने में इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। यह विश्व बाजार में बिकने वाली एक अत्यन्त महंगी जड़ी है।

यह मूलतः चीन तथा कोरिया का पौधा है। चीन में इसकी खेती 2000 वर्षों से की जा रही है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी बढ़ती मांग तथा बढ़ते मूल्य को देखते हुए अब कई देशों में इसकी खेती की जा रही है। यदि भारत में इसका उत्पादन होने लगे तो आयात पर खर्च की जाने वाली एक मोटी रकम बच जाएगी तथा भारतीय भैषज-प्रयोगशालाएँ शुद्ध रूप में इसका अधिकतम उपयोग कर सकेंगी एवं औषधियों की गुणवत्ता में सुधार होगा। अभी तक जिनसेंग और अश्वगन्ध मिलाकर प्रयोग किए जाते थे। औषधीय पौधे देश की आर्थिक समृद्धि के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। अतः इनकी खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। भारत के आदिवासियों से जानकारी लेकर घातक बीमारियों के लिए अत्यन्त प्रभावी दवाएँ बनाई जा सकती हैं।

इस समय उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में आंवले की खेती की जा रही है जिससे वहाँ के लोगों को अच्छी-खासी आमदनी हो रही है। आंवले की खेती से प्रतापगढ़ के लोगों के जीवन-स्तर में सुधार हुआ है।

भारतीय वन राजस्व प्राप्ति के प्रमुख स्रोत हैं। इनसे केन्द्र तथा राज्य सरकारों को 500 करोड़ से भी अधिक का राजस्व मिलता है। वनों के जैव-भार (बायोमास) से वनों का मूल्य निर्धारित होता है। विज्ञानियों का मानना है कि एक मध्यम आकार के वृक्ष से 50 वर्षों में लगभग 50 टन बायोमास मिलता है। जिससे लगभग 15.75 लाख रुपये की पर्यावरणीय सेवाएँ प्राप्त होती हैं। भारत में काष्ठ का कुल बायोमास अनुमानतः 419 करोड़ घनमीटर है। यदि सारे काष्ठ को बेच दिया जाए तो लगभग 5,60,000 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे। जन्तु बायोमास 2.4 करोड़ टन के आस-पास है। वन राष्ट्रीय आय में 3 प्रतिशत का योगदान करते हैं। वनों के तमाम अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं। वन वर्षा लाने में सहायक हैं,

तालिका-1
कुछ महत्त्वपूर्ण जड़ी-बूटियाँ तथा उनका औषधीय महत्व

क्र.सं.

जड़ी-बूटियाँ (प्रचलित नाम)

वानस्पतिक नाम

औषधीय महत्व

1.

अश्वगंधा

विथानिया सोमनीफेरा

शक्तिवर्द्धक

2.

ब्राह्मी

सेन्टेला एसियाटिका

ब्रेन टॉनिक

3.

जिनसेंग

पैनेक्स चिनसेंग

स्फूर्तिदायक, पित्तनाशक

4.

सर्पगन्धा

राउवोल्फिया सर्पेन्टीना

उच्च रक्तचाप कम करने में

5.

सतावर

ऐसपैरागस रेसीमोसस

टॉनिक

6.

सफेद मूसली

क्लोरोफाइटम ट्यूबरोसम

शक्तिवर्द्धक

7.

काली मूसली

करकुलीगो आरक्वायाडिस

ज्वर में

8.

कामराज

ग्लॉसोगाइन बाइडेन्स

काम-शक्ति बढ़ाने में

9.

गिलोय

टीनोस्पोरिया कार्डीफोलिया

काली खाँसी तथा श्वास रोगों में

10.

रसना जड़ी

ब्लिफैरीस्पर्मम सब्सेसाइल

स्मरण-शक्ति बढ़ाने में

11.

पुनर्नवा

बोरोविया डिफ्यूजा

खून बढ़ाने में

12.

अफीम

पैपावर सोमनीफेरम

दर्द निवारक

 


भूक्षरण रोकते हैं, प्रदूषण दूर करते हैं, जीव-जन्तुओं के आश्रय-स्थल हैं, रेगिस्तानों के विस्तार को रोकते हैं, बाढ़ नियन्त्रित करते हैं तथा प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ाने एवं पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। मानसूनी वर्षा वनों पर ही निर्भर है जिससे फसलोत्पादन प्रभावित होता है। देश की 70 प्रतिशत असिंचित कृषि पूरी तरह मानसूनी वर्षा पर ही निर्भर है।

वनस्पतियों के समान जन्तु भी देश की आर्थिक समृद्धि के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। पशुओं से गोबर प्राप्त होता है जिससे कम्पोस्ट खाद बनाई जाती है। कम्पोस्ट के प्रयोग से फसलोत्पादन में वृद्धि होती है। पशुओं के गोबर से बने उपले ग्रामीण घरों में ईंधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं, जिस पर गाँवों के 95 प्रतिशत लोग आज भी आश्रित हैं। हड्डियाँ, खालें, सींग, हाथीदाँत- ये सब जन्तुओं से ही प्राप्त होते हैं। इन पर आधारित उद्योगों से काफी लोगों का जीविकोपार्जन होता है। रेशम कीट पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, सूअर, मधुमक्खी पालन ये सब ग्रामीण भारतीयों के मुख्य व्यवसाय और उनकी आमदनी के प्रमुख स्रोत हैं। आमदनी का अच्छा स्रोत होने के कारण शहरों के लोग भी अब मुर्गी पालन की तरफ आकर्षित होने लगे हैं तथा अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वन्य प्राणियों के शारीरिक अवशेषों की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है जिसके व्यापार से काफी मुद्रा अर्जित की जाती है। पशुओं की खरीद-फरोख्त में गाँवों के बहुत से लोग लगे हैं, जिनसे उनका तथा उनके परिवार का खर्च चलता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक जैव-संसाधनों का खूब विनाश हुआ है। बड़े-बड़े बाँधों के निर्माण तथा उद्योगों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए। देश में निरन्तर बढ़ती आबादी के लिए भोजन तथा आवास की समस्या हल करने के उद्देश्य से बड़ी मात्रा में वनों का सफाया किया गया। यही नहीं, चारागाह के रूप में वन क्षेत्रों का अनियन्त्रित तरीके से उपयोग किया गया। वन्य प्राणियों के शारीरिक अवशेष इकट्ठा करने के लिए उनका अवैध शिकार किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वनों से विभिन्न प्रकार की वनोपज प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों ने भी वनों को नष्ट किया है। आदिम जातियों ने स्थानांतरित कृषि प्रणाली द्वारा वनों का विनाश किया है। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती जनसंख्या के कारण बहुत बड़ी वन भूमि कृषि कार्य हेतु उपयोग की गई। इससे भी पेड़-पौधे तथा जन्तु नष्ट हुए। अनुमान किया गया है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रतिवर्ष 1 लाख 70 हजार वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र कम हो रहा है। जैव-विविधता विलोप के बारे में विज्ञानियों की धारणा है कि यदि किसी आवास-स्थल का क्षेत्र 90 प्रतिशत कम कर दिया जाए तो वहाँ की लगभग 50 प्रतिशत प्रजातियाँ मर जाती हैं। राट्रीय प्राकृतिक संग्रहालय, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘वर्ल्ड आॅफ मैमल्स’ में कहा गया है कि भारत में इस समय स्तनपायी वन्य-जीवों की 81 प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। कश्मीरी हिरणों की संख्या कम होते-होते 350 रह गई है तथा शेर केवल 2000 ही बचे हैं। बंदर जाति के वन्य प्राणी लुप्तप्राय जीवों की सूची में शामिल किए जा चुके हैं। मध्य प्रदेश के पंचमढ़ी जिले में पाए जाने वाले दुर्लभ पौधों, जैसे- सायलोटम, लाइकोपोडियम, आसमुंडा तथा ड्रोसेरा का अस्तित्व संकट में है।

जैव विविधता-कुछ तथ्य


1. भारत का वन क्षेत्र विश्व के कुल वन क्षेत्र के 2 प्रतिशत से भी कम है, जबकि भारत की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या के 15 प्रतिशत से भी अधिक है।

2. भारतीय वन राष्ट्रीय आय में 3 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

3. गंगा नदी में वन कटाव के कारण व्यापक बाढ़ आने से भारत को हर साल एक अरब डाॅलर का नुकसान उठाना पड़ता है।

4. भारतीय भूमि का कुल 360 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ही वनों से घिरा हुआ है जो कुल क्षेत्र का लगभग 11 प्रतिशत है।

5. पृथ्वी पर खड़ा हर पेड़ बाढ़ के खिलाफ एक जिन्दा संतरी है।

6. हमारे देश में प्रति व्यक्ति वनों का क्षेत्रफल 0.11 हेक्टेयर है, जबकि अन्तरराष्ट्रीय-स्तर 1.08 हेक्टेयर है।

7. भारत में स्तनधारियों की 81 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं।

8. यूनेप के स्टेट आॅफ द वर्ल्ड एनवायरन्मेंट के अनुसार 2,65,000 वृक्षों की जातियों में से वनों के कटाव के कारण 60,000 जातियाँ सदा के लिए विलुप्त हो गई।

9. वनों की 6 इंच गहरी मिट्टी के अपरदित होने में लगभग 1,74,200 वर्ष लग जाते हैं किन्तु भूमि जब बिना वन के हो जाती है तो केवल 17 वर्षों में ही 6 इंच गहरी भूमि अपरदित हो जाती है।

10. विश्व का कुल भू-भाग लगभग 15 करोड़ वर्ग कि.मी. है जिसके 31 प्रतिशत क्षेत्र में वन हैं।

11. अगले 25 वर्षों में दुनिया की 5-10 प्रतिशत जैव-विविधताएँ विलुप्त हो जाएँगी।

12. जैव-विविधता विलोप के बारे में विज्ञानियों की धारणा है कि यदि किसी आवास स्थल का क्षेत्र 90 प्रतिशत कम कर दिया जाए तो वहाँ की लगभग 50 प्रतिशत प्रजातियाँ मर जाती हैं।

13. विज्ञानियों का अनुमान है कि लगभग 5433 मिलियन टन मिट्टी हर साल बहकर नदी, नालों तथा समुद्रों में जा पहुँचती है, जिसकी मात्रा 16.4 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है।

14. ‘हार्ट अटैक’ के लिए प्रभावी औषधि सर्पगन्धा (राउवोल्फिया सर्पेन्टीना) पौधे से बनाई जाती है।

15. चमत्कारिक जड़ी ‘जिनसेंग’ जिसे चीन से आयात किया जाता है, अपने देश में भी खोज ली गई है। इसे हाल में मेघालय के जंगलों में देखा गया है।

जन्तु तथा वनस्पतियाँ पर्यावरणीय सन्तुलन बनाए रखती हैं। ओजोन परत में छिद्र, हरित-गृह प्रभाव के कारण वातावरण में गर्मी का बढ़ना, अम्ल-वर्षा, भू-क्षरण की समस्या, जल-स्तर में कमी, वर्षा का कम होना, बाढ़, सूखा, चट्टानों का खिसकना तथा प्रदूषण की समस्या एवं मरुस्थलीकरण में वृद्धि जैसी समस्याएँ जैव-विविधता के विनाश का ही परिणाम हैं जिससे आज सारा विश्व प्रभावित तथा पीड़ित है। जब किसी स्थान विशेष में वन काटे जाते हैं तो उसका दुष्प्रभाव दूर-दराज के इलाकों पर भी पड़ता है क्योंकि भू-रसायन चक्रों द्वारा सभी क्षेत्र आपस में जुड़े हैं। इस समय वनों की व्यापारिक कटाई के फलस्वरूप लोगों की आजीविका के साधन छिनते जा रहे हैं, विशेषकर ग्रामीणों की, जिनकी आजीविका का आधार विभिन्न वनोत्पाद हैं। वनों की बड़े पैमाने पर कटाई से वन्य प्राणी कम होते जा रहे हैं। जो बचे हैं, उनके लिए भोजन की समस्या बनी हुई है। पहाड़ी इलाकों के वनों के जंगली जानवर भोजन की तलाश में गाँवों तक पहुँच जाते हैं। प्रदूषित पर्यावरण से फसलों का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वनस्पति आवरण की अनुपस्थिति के कारण प्रति वर्ष 6 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी बाढ़ के जल के साथ बहकर नदियों में जा गिरती है। वन विनाश के दुष्परिणामों को देखते हुए स्काटलैंड के विज्ञान लेखक राॅबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है- ‘‘वन नष्ट होते हैं तो जल नष्ट होता है, पशु नष्ट होते हैं तो उर्वरता विदा ले लेती है और तब ये पुराने प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं- बाढ़, सूखा, आग, अकाल और महामारी।’’

भारत के 80 प्रतिशत लोग आज भी गाँवों में रहते हैं जिनकी आमदनी के स्रोत प्राकृतिक संसाधन ही हैं। प्राकृतिक संसाधनों के छिनने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाती है, जिसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इस समय देश के कुल भू-क्षेत्र के 11 प्रतिशत पर ही वन हैं जबकि 33 प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादित होना चाहिए। विनाश का ही परिणाम है कि उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़, जौनपुर तथा सुल्तानपुर जिलों में नीलगायों का जबर्दस्त आतंक छाया है और वे इस क्षेत्रों की खड़ी फसलें चौपट कर दे रही हैं। जैव-विविधता के विनाश का दुष्परिणाम सीधे खेती-बाड़ी पर पड़ता है। वनस्पति आवरण हटने से उपजाऊ मिट्टी का क्षरण होता है, जलवायु प्रभावित होती है, वनस्पतियों पर आश्रित जानवर कम होने लगते हैं तथा फसलें रोगी हो जाती हैं। जल-प्रदूषण के कारण मछलियाँ मरने लगती हैं जिससे उन लोगों के समक्ष आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाता है जिनका मुख्य व्यवसाय मत्स्य पालन है। चूँकि जैव-विविधता की दृष्टि से भारत एक धनी देश है इसलिए देश के आर्थिक विकास की दृष्टि से जैव विविधता को नष्ट होने से बचाया जाना चाहिए, उनकी सुरक्षा की जानी चाहिए तथा उसे संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। हमारी जिन जड़ी-बूटियों की विदेशों में काफी मांग है वे हैं- ईसबगोल, चिरायता, कुलंजन तथा कुचला। ‘जिनसेंग’ जो अब देश में ही खोज ली गई है, का बड़े पैमाने पर उत्पादन करके अपनी आवश्यकता पूर्ति के साथ-साथ उसका निर्यात भी किया जा सकता है।

वनों का विनाश आज चिन्ताजनक दौर में पहुँच गया है। इसे रोकने के शीघ्र प्रयास नहीं किए गए तो वनोत्पादों पर निर्भर व्यवसाय दयनीय हालत में पहुँच जाएँगे, फसलोपज प्रभावित होगी तथा जानवरों की संख्या दिनों-दिन घटेगी। हम सभी का दायित्व है कि जैव विविधता को नष्ट होने से बचाएँ, उसका अधिकाधिक संरक्षण करें तथा वैज्ञानिकों का कर्तव्य है कि वे नई तकनीकों के बल पर उपलब्ध जैव-संसाधनों के अधिकतम उपयोग को बढ़ावा दें ताकि देश की आर्थिक प्रगति हो, देश समृद्धशाली बने।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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